कहानी: टू फैट लेडीज़ – अनुपमा नौडियाल

कहानी: टू फैट लेडीज़ - अनुपमा नौडियाल

शिवानी और निशा तेज़ कदमों से चलती हुई क्लब के काॅरिडोर तक पहुँच गयी थीं। तेज़-तेज़ चलने से कुछ कुछ हाँफ़ सी रहीं थीं दोनों। कुछ क्षण खडी़ रहीं… साँस की गति सामान्य होने तक। आज वे दोनों पूरे बीस मिनट लेट थीं। क्लब की सेक्रेटरी हिना चौहान की डाँट की डर से हाॅल में प्रवेश करने में हिचकिचा रहीं थीं।

“आज पक्का हमें डाँटेंगी… मिसेज़ तिवारी को कैसे कहा था लास्ट टाइम! ‘क्लब आने का शौक है तो टाइम पर आना सीखिए, प्रेसीडेंट मैम के आने से पहले सबको हाॅल के अंदर होना चाहिये’,” शिवानी ने धीरे से कहा।

“इतना क्या डर रही हो! उन्हें बता देंगे ना कि बच्चों के स्कूल में देर हो गयी! शी विल अंडरस्टैंड!” निशा ने बेफि़क्री से कहा।

निशा व शिवानी शहर के नामी विमेंस क्लब की सदस्याएँ थीं। क्लब की सदस्याएँ हर आयु वर्ग की थीं… 25-35, 35-45, 45-55, 55-65… निशा और शिवानी सबसे नयी और युवा मेम्बर थीं इस क्लब की।

हर क्लब की तरह इसके बनने के पीछे भी कोई महान आदर्शवादी उद्देश्य नहीं था। वही था जो अधिकांश का होता है… मिलना-जुलना, मौज-मस्ती, खाना-पीना, घूमना-फिरना, कल्चरल ईवनिंग्स आदि।

हाँ, साल में एक बार किसी गरीब बस्ती में या किसी गाँव के छोटे से स्कूल के गरीब छात्रों के बीच जाकर, उन्हें कुछ फूड पैकेट्स, कुछ छोटी-मोटी स्टेशनरी और ढेर सारे पुराने कपड़े ,जिनसे वे स्वयं भी पीछा छुडा़ना चाहतीं, आदि देकर ‘सोशल-वर्क’ की रस्म अदायगी भी कर ली जाती थी। डिज़ाइनर कपड़ों और ज्यूलरी से सजी, महंगे मेकअप और सनग्लासेस से लैस ये महिला दल जब उनके बीच जाता तो उनके और अपने बीच की अंतर की खाई को सैकड़ों गुना बढा़ देता था। सहमते झिझकते वे ग़रीब बच्चे एक एक कर आते, जो पकड़ाया जाता पकड़ लेते और एक किनारे बैठ कर उनकी ‘स्पीच अदायगी’ की रस्म के सहभागी बनते हुए बीच बीच में ताली बजा देते।

‘साफ़ सफा़ई का ध्यान रखना चाहिए, रोज़ नहाया करो आप सब, बैलेंस्ड डाइट लिया करें, बच्चों को खूब पढना चाहिये, हमारा इंडिया तभी तो आगे बढ़ेगा आदि आदि।’ सालों से यही मजमून था उनकी स्पीच का… कितनी ही प्रेसीडेंट आयीं और गयीं, कितनी सेक्रेटरी बदल गयीं पर उनकी स्पीच का मजमून ना बदला। वैसा ही रहा ज्यों का त्यों, खै़र…

प्रत्येक माह के पहले और तीसरे सोमवार को क्लब में मीटिंग होती थी। मीटिंग का मतलब एक उबाऊ सी मीटिंग ही न समझ लीजिये… बड़ी रीजुविनेटिंग होती थीं क्लब की मीटिंगें… श्रीगणेश होता प्रेसीडेंट मैम के दो शब्दों से… फिर सेक्रेटरी साहिबा का भाषण होता जिसमें वे क्लब की आगामी गतिविधियों की जानकारी भी देतीं और किस की क्या भूमिका रहेगी यह भी बतातीं। हाॅल में फ़र्स्ट और सेकंड रो में बैठी सदस्याएँ गम्भीर मुद्रा में एकाग्रचित्त होकर सुनतीं। बीच-बीच में सहमति में सर भी हिला लेतीं। बहुत ध्यान से सुनतीं। वक्ता के वक्तव्य इतने प्रभावशाली होते थे या फ़र्स्ट रो में बैठे होने की विवशता, स्पष्ट कारण तो वे स्वयं ही बता सकतीं थीं। इसके बाद होस्ट ग्रुप का कोई डांस, ड्रामा, गीत कुछ भी… फिर हाउज़ी और उसके बाद विविध प्रकार का नाश्ता और मीटिंग ओवर!
पहली दो तीन पंक्तियों में बैठी सदस्याओं को छोड़कर हाॅल में बैठी शेष महिलाओं को प्रेसीडेंट हो या सेक्रेटरी, किसी के भाषण में खास दिलचस्पी न थी। वे सब अपनी-अपनी गहन चर्चाओं में लीन रहतीं। हाँ, इस बात का खयाल अवश्य रखतीं कि उनके स्वरों की तीव्रता मद्धम ही रहे।

उनकी गहन चर्चाओं के विषय भिन्न-भिन्न होते… और मुख्यतः निर्भर करते उनके एज-ग्रुप पर। पचास के पार की महिलाओं की बातचीत होती बच्चों के विवाह, दामाद, बेटा-बहू, ब्लड-प्रेशर, डायबिटीज़, घुटनों, कमर आदि के दर्द पर। तीस पैंतीस वाली मेम्बर्स अक्सर स्कूल, प्लेग्रुप या प्रेप में पढ़ने वाले अपने नौनिहालों की बातें करती… कभी उन्हें मिलने वाले पहाड़ से होमवर्क की… कभी कराटे क्लास, डांस क्लास, पेंटिंग आदि की तो कभी बार-बार उन्हें हो जाने वाले इंन्फे़क्शंस की। यहीं बैठे-बैठे धीमे स्वरों में वे अपनी मम्मी, दादी-नानी के नुस्खे भी शेयर करतीं। किन्हीं की चर्चा डिजा़इनर कपडों, ज्यूलरी और मेकअप तक सीमित रहती तो किन्हीं की मात्र और मात्र शेयरों व प्राॅपर्टी तक…

आज निशा और शिवानी को लास्ट रो में जगह मिली थी… मन ही मन खुश हो रही दोनों। शुक्र मना रही थीं कि आज सेक्रेटरी साहिबा की नज़र में आने से बच गयी थीं। उन दोनों के ठीक आगे अगली रो में बैठी थीं कुछ सालों पहले नयी नयी अमीर बनीं मिसेज़ चोपड़ा और साॅफ़िस्टिकेटेड मिसेज़ बेनीवाल… अपनी गहन चर्चा में लीन।

“पिछली दो मीटिंग्स में आप दिखाई नहीं दीं!” मिसेज़ बेनीवाल ने मिसेज़ चोपड़ा से पूछा।

“हमारी मैरिज की सिल्वर जुबली थी ना… चोपड़ा जी जिद करने लगे… एब्राॅड जाना है घूमने… पंद्रह दिन के यूरोप ट्रिप पर गये थे,” कहते हुए कुछ क्षणों के लिये आँखें मूँद मानो फिर से यूरोप पहुँच गयी थीं मिसेज़ चोपड़ा! आँखें खोलते ही स्टाइल से कहा, “यूरोप इज़ सोssss ब्यूटिफु़ल!” बेनीवाल ने मौन हामी भरते हुए नजा़कत से सर हिला भर दिया। चोपड़ा को लगा था बेनीवाल उनसे कई सारी बातें पूछेगी उनके ट्रिप के बारे में, और वो भी बढा़-चढा़ कर वर्णन करेंगी, पर बेनीवाल के रिएक्शन से मौका नहीं मिल पाया। तभी उन्होंने गौ़र किया, बेनीवाल अपना बाँया हाथ बार-बार अपने गालों पर लगा किसी अदृश्य धब्बे या कण को साफ़ कर रही थी जो शायद था ही नहीं…

“ओ माई गाॅड!! ब्यूssटिफुल साॅलिटेर!” मिसेज चोपड़ा का मुँह खुला रह गया…

अपनी अँगूठी में जड़े अद्भुत हीरे को फ्लाॅन्ट करते हुए मिसेज़ बेनीवाल ने बेहद नज़ाकत और नफ़ासत से अपनी पतली लम्बी उँगलियों पर अपनी ठोढी टिका दी, “माई बsडे गिफ्ट दिस ईयर…”
“अराउंड थ्री?” मिसेज चोपड़ा उद्विग्न थीं।

“सिक्स…” कहते-कहते मुस्कुरा दी मिसेज़ बेनीवाल… और उनके इस उत्तर के साथ ही मिसेज़ चोपड़ा का योरोप ट्रिप से खिला-खिला चेहरा बुझ गया… तभी एक सामूहिक खिलखिलाहट ने उनकी बातचीत में एक वांछित विराम लगा दिया। उन सभी का बेहद पसंदीदा खेल हाऊज़ी शुरू होने जा रहा था। शाज़िया और कविता हाऊज़ी के साज़ोसामान के साथ मंच पर पदार्पण कर चुकी थीं। कुछ देर दोनों ने विचार विमर्श किया… दिये जाने वाले ऑफ़र्स के बारे में, प्राइज़ मनी के बारे में… खासी मशक्कत करनी पड़ती है साहब इसमें!

अब हाॅल में बैठी प्रत्येक महिला के एक हाथ में गुलाबी, नीली, हरी, पीली पर्चियाँ थीं तो दूसरे में पेन… सभी का उत्साह देखते ही बनता था। ज़ाहिर था यह उनका प्रिय खेल था। न कोई दिमागी कसरत, न उत्तर देने के लिये कोई प्रश्न… बस नम्बर सुनते जाओ, पर्ची में काटते जाओ.. ऑफ़रों से अपने कटे हुए अंकों का मिलान करो… सही हुआ तो नकद ईनाम पाओ… बस इतना सिम्पल… शाज़िया को हाऊज़ी एक्सपर्ट कहा जाता था। हर अंक को नाना प्रकार के विशेषणों से सुसज्जित कर बोलने में महारत हासिल थी उसे! ऑफ़र्स की घोषणा के साथ ही खेल शुरू हो गया था। शाज़िया एक डिब्बे से नम्बर उठाकर बोलती और कविता उसे एक नम्बर बोर्ड पर उसे फ़िक्स कर देती।

इस समय समूचा हाॅल एकदम शांत था। गूँज रही थी तो बस शाज़िया की कुछ भारी सी आवाज़… स्वीऽऽट सिक्सटीऽऽन… वन सिक्स सिक्सटीऽन… हाफ़ वे थ्रू… फा़इव ज़ीरो फ़िफ़्टी… एंड द नेक्स्ट नम्बर इज़… अनलकी फाॅर सम, थर्टीन… वन थ्री थर्टीऽऽन… सभी महिलाएँ एकदम फो़कस्ड, ध्यान लगाकर नम्बर सुनतीं… फिर गिद्धदृष्टि से अपनी पर्ची में ढूँढतीं और चीते की चपलता से उसे काट देतीं।

“एंड नाओ, टाॅप ऑफ़ द हाऊस… नाइन जी़रो नाइंटी… क्वार्टर ऑफ़ अ सेंचुरी.. .टू फा़ईव ट्वेंटी फा़इव…” शाज़िया बिना रुके बोलती जा रही थी। हर नम्बर की घोषणा के साथ कुछ महिलाएँ तो अपार प्रसन्नता के साथ अपनी अपनी पर्चियों पर टूट पड़तीं… अंक को एक बार काट देने के बावजू़द उसे कई कई बार काट कर मानो अपनी सील लगा देतीं, और जिनके पास वह नम्बर न होता, वह उदासीन भाव से बगल में बैठी महिला के कटे-अनकटे नम्बरों का आकलन करती रहतीं। ट्वेंटी फा़इव के साथ ही मिसेज़ अहलूवालिया का ‘क्विक सेवन’ हो गया था। अतिउत्साहित ‘यस… यस’ करते हुए मंच की ओर दौड़ पड़ीं! अंकों का मिलान किया गया… सही था, और इसी के साथ पचास रुपये की पुरस्कार राशि लेकर गर्वित भाव के मिसेज़ अहलूवालिया अपनी सीट पर लौट आयीं।

खेल पुनः शुरू हो गया था। कई अस्फुट स्वर हवा में तैर रहे थे… “बस… दो नम्बर रह गये यार… मिडिल लाइन होने में…” “मेरे तो अभी तक बस दो नम्बर ही कटे हैं…” “बड़ी देर से वेट कर रही हूँ यार, कब से वन अटका पडा़ है, कबका स्टार हो जाना था मेरा”… आदि आदि।

निशा और शिवानी अभी निपुण नहीं थीं इस खेल में… और ना ही अपनी रुचि बना पायीं थीं हाऊज़ी के लिये… अभी सीख रही थीं वे।

उधर शाज़िया का कौशल चरम-सीमा की ओर अग्रसर था… “टू हाॅकी स्टिक्स… सेवन सेवन सेवंटी सेवन”

“यस… यस मेरी मिडिल लाइन हो गयी!” हर्षातिरेक से चिल्लाती मिसेज़ गुप्ता मंच की ओर दौड़ गयीं। निशा फुसफुसा दी, “और दिन तो घुटनों के दर्द का रोना रोती रहती हैं, अभी देखो… हिरन भी शरमा जाए ये कुलाँचे देखकर।” शिवानी घबरा गयी, “प्लीज़ मेरी माँ! चुप रहो, कोई सुन लेगा तो आफ़त आ जाएगी।”

मिसेज़ गुप्ता की पर्ची में एक नम्बर गलत निकला। ‘साॅरी’, शाज़िया और कविता ने एक स्वर में कहा और उनकी पर्ची वहीं फाड़ दी। हाॅल में बैठा महिला-समूह खुशी में चिल्लाने लगा, “बोगी… बोगी… बोगी…” ओर झेंपती हुई मिसेज़ गुप्ता अपनी सीट पर लौट आयीं।

खेल पुनः आरम्भ हुआ। कई नम्बर बोले जा चुके थे, पर महिला समूह से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी। नीरस सा लगने लगा था खेल खिलाने वालों को और खेलने वालों को भी। हर नम्बर के साथ शाज़िया कुछ ठहरती, फिर पूछती, “हुआ किसी का कुछ!” महिला दल ना हाँ कहता ना ना…

“टू फै़ट लेडीज़! एट एट एटी एट…” शाज़िया बोली तो अबकी बार मिसेज़ बेनीवाल की सुरीली आवाज़ में ‘येssस’ सुनाई दिया। अपनी धीमी सधी चाल चलती मंच तक पहुँच गयी थीं वे, “बाॅटम लाइन…” अभी उनकी पर्ची के नम्बर मिलाए ही जा रहे थे कि मिसेज़ चोपड़ा भी हाँफती हुई दौड़ी आयीं , “मेरी भी हो गयी… बाॅटम लाइन।”

दोनों के ही नम्बर सही पाये गये। शाज़िया ने घोषणा की, “एंड द बाॅटम लाइन गोज़ टू… मिसेज़ बेनीवाल एंड मिसेज़ चोपड़ा…” और एक सौ पच्चीस रुपये की पुरस्कार राशि उन्हें थमा दी। “आप दोनों शेयर कर लीजिए।”

“ये किस तरह बँटेंगे?” मिसेज़ चोपड़ा बोली।

“मतलब?”

“इसका आधा तो बासठ रुपये पचास पैसे हुए ना, कहाँ से लाएँ!”

“अरे, तो एक बासठ ले लो एक त्रेसठ… सिम्पल।”

अब बासठ कौन ले और त्रेसठ कौन, ये कौन तय करेगा! उन दोनों ने ही एक स्वर से मना कर दिया। रुपया छोड़ने को कोई तैयार न था… ना ही छह लाख के हीरे से सुशोभित मिसेज़ बेनीवाल, और ना ही हाल ही में योरोप ट्रिप से लौटीं मिसेज़ चोपड़ा। तभी बेनीवाल का धीमा स्वर सभी को सुनाई दे गया, माईक के सौजन्य से… “एक रुपये के लिए भी लोग ‘सीन क्रिएट’ कर देते हैं… उफ्फ़ …!”

चोपड़ा ने पलट कर कहा, “तुम क्यूँ नहीं छोड़ देती?”

“कई बार छोड़ चुकी हूँ… हर बार मैं ही क्यूँ?”

“एक बार और छोड़ देगी तो क्या हो जाएगा!” मिसेज़ चोपड़ा शालीनता की सीमा पार कर रही थीं।

“तमीज़ से बात कीजिए!”

“अब तुम मुझे तमीज़ सिखाओगी… तुम!”

एक रुपये के पीछे घमासान जारी था। शाज़िया और कविता ने समाधान निकालने का प्रयास किया, किंतु उन दोनों के वाक् युद्ध के आगे हथियार डाल उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ दिया। खेल में व्यवधान पड़ गया था। यह सब देखने की आदी सदस्याएँ फिर से अपनी गुफ़्तगू करने लगी थीं। किंतु नयी नयी सदस्याएँ बनी निशा व शिवानी अवाक् कभी एक दूसरे का मुँह ताकतीं, कभी मंच पर चल घमासान को आँखें फाड़-फाड़ देखतीं।

इस हंगामे से बेअसर, बेख़बर दो पुरानी खिलाड़िनें अपनी अपनी पर्ची थामे अपने में ही मग्न थीं।

“लास्ट नम्बर क्या था…?”

“टू फै़ट लेडीज़…”

समाप्त


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Author

  • अनुपमा नौडियाल

    अनुपमा नौडियाल उत्तराखंड की दून घाटी में पली-बढ़ी और यहीं से उन्होंने पढ़ाई भी पूरी की है।

    केमिस्ट्री में पोस्टग्रेजुएशन के उपरांत वह शिक्षण कार्य से जुड़ी रही हैं। उनको पढ़ने का शौक बचपन से ही रहा है। वह हर तरह की पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ आदि पढ़तीं, किंतु साहित्य के प्रति लगाव विकसित होने में इनकी मम्मी श्रीमति शकुंतला डोभाल की ही प्रमुख भूमिका है।

    अनुपमा ने विवाहोपरांत अपनी शिक्षा पुनः आरंभ की। हिंदी और संस्कृत साहित्य में एम.ए. किया। उच्च कोटि का हिंदी साहित्य घर में प्रचुरता में उपलब्ध था। शायद यही समय था जब अपनी पाठ्यपुस्तकों से अधिक इन्हें अपनी माताजी का सिलेबस अधिक लुभाने लगा था। विज्ञान शिक्षण से एक अरसा जुड़ी रहीं और इस दौरान न केवल इन्होंने सिखाया बल्कि बहुत सीखा भी। केमिस्ट्री में विभिन्न पदार्थों के एक्शन-रिएक्शन के इक्वेशंस लिखते-लिखाते कब अनुपमा की कलम अनदेखे-अनजाने पात्रों के समीकरण गढ़ने लगी, इसका इन्हें आभास तक न हुआ।

    पुस्तकें:
    अपने-अपने प्रतिबिम्ब (कहानी संग्रह), अज्ञातवास (लघु-उपन्यास), शेष-पन्ने (कहानी संग्रह)

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