कहानी: सुकुल की बीबी – सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

सुकुल की बीबी - सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
1

बहुत दिनों की बात है। तब मैं लगातार साहित्य-समुद्रमंथन कर रहा था। पर निकल रहा था केवल गरल। पान करने वाले अकेले महादेव बाबू (‘मतवाला’ सम्पादक) – शीघ्र रत्न और रंभा के निकलने की आश से अविराम मुझे मथते जाने की सलाह दे रहे थे। यद्यपि विष की ज्वाला महादेव बाबू की अपेक्षा मुझे ही अधिक जला रही थी, फिर भी मुझे एक आश्वासन था कि महादेव बाबू को मेरी शक्ति पर मुझसे भी अधिक विश्वास है। इसी पर वेदांत-विषयक नीरस एक साम्प्रदायिक पत्र का सम्पादन-भार छोड़ कर मनसा-वाचा-कर्मणा सरस कविता-कुमारी की उपासना में लगा। इस चिरंतन का कुछ ही महीने में फल प्रत्यक्ष हुआ; साहित्य-सम्राट् गोस्वामी तुलसीदास जी को मदन-दहन-समयवाली दर्शन-सत्य उक्ति हेच मालूम दी, क्योंकि गोस्वामीजी ने, उस समय, दो ही दंड के लिए, कहा है– ‘अबला बिलोकहिं परुषमय अरु पुरुष सब अबलामयम्।’ पर मैं घोर सुषुप्ति के समय को छोड़ कर, बाकी स्वप्न और जाग्रत के समस्त दंड, ब्रह्मांड को अबालमय देखता था।

इसी समय दरबान से मेरा नाम लेकर किसी ने पूछा,“है?”

मैंने जैसे वीणा-झंकार सुनी। सारी देह पुलकित हो गयी, जैसे प्रसन्न हो कर पीयूषवर्षी कंठ से साक्षात् कविता-कुमारी ने पुकारा हो, बड़े अपनाव से मेरा नाम ले कर। एक साथ कालिदास , शेक्सपियर, बंकिमचंद्र और रवींद्रनाथ की नायिकाएँ दृष्टि के सामने उतर आयीं। आप ही एक निश्चय बँध गया– यह वही हैं, जिन्हें कल कार्नवॉलिस एस्क्वायर पर देखा था– टहल रही थीं। मुझे देख कर पलकें झुका ली थीं। कैसी आँखें वे!– उनमें कितनी बातें !– मेरे दिल के साफ आइने में सच्ची तस्वीर उतर आयी थी, और मैं वायु-वेग से उनकी बगल से निकलता हुआ, उन्हें समझा आया था कि मैं एक अत्यंत सुशील, सभ्य, शिक्षित और सच्चरित्र युवक हूँ। बाहर आ कर गेट पर एक मोटर गाड़ी देखी थी। जरूर वह उन्हीं की मोटर थी। उन्होंने ड्राइवर से मेरा पीछा करने के लिए कहा होगा। उससे पता मालूम कर, नाम जान कर, मिलने आयी हैं। अवश्य यह बेथून-कालेज की छात्रा हैं। उसी के समान मिली थीं। कविता से प्रेम होगा। मेरे छंद की स्वच्छंदता कुछ आयी होगी इनकी समझ में, तभी बाकी समझने के लिए आयी हैं।

उठ कर जाना अपमानजनक जान पड़ा। वहीं से दरबान को ले जाने की आज्ञा दी।

अपना नंगा बदन याद आया। ढकता, कोई कपड़ा न था। कल्पना में सजने के तरह-तरह के सूट याद आये, पर, वास्तव में, दो मैंले कुर्त्ते थे। बड़ा गुस्सा लगा, प्रकाशकों पर। कहा, “नीच हैं, लेखकों की कद्र नहीं करते।” उठकर मुंशी जी के कमरे में गया, उनकी रेशमी चादर उठा लाया। कायदे से गले में डाल कर देखा, फबती है या नहीं। जीने से आहट नहीं मिल रही थी, देर तक कान लगाये बैठा रहा। बालों कि याद आयी–उकस न गये हों। जल्द-जल्द आईना उठाया। एक बार मुँह देखा, कई बार आँखें सामने रेल-रेल कर। फिर शीशा बिस्तरे के नीचे दबा दिया। शॉ की ‘गेटिंग मैरिड’ सामने करके रख दी। डिक्शनरी की सहायता से अंदर छिपा दी। फिर तन कर गम्भीर मुद्रा से बैठा।

आगंतुकों को दूसरी मंजिल पर आना था। जीना गेट से दूर था।

फिर भी देर हो रही थी। उठकर कुछ कदम बढ़ा कर देखा, बचपन के मित्र मिस्टर सुकुल आ रहे थे।

बड़ा बुरा लगा, यद्यपि कई साल बाद की मुलाकात थी कृत्रिम हँसी से होंठ रंग कर उनका हाथ पकड़ा, और ला कर उन्हें बिस्तरे पर बैठाया।

बैठने के साथ ही सुकुल ने कहा, “श्रीमतीजी आयी हुई हैं।”

मेरी रूखी जमीन पर आषाढ़ का पहला दौगरा गिरा। प्रसन्न हो कर कहा, “अकेली हैं, रास्ता नहीं जाना हुआ, तुम भी छोड़ कर चले आये, बैठो तब तक, मैं लिवा लाऊँ–तुम लोग देवियों की इज्जत करना नहीं जानते।”

सुकुल मुस्कराये, कहा, “रास्ता न मालूम होने पर निकाल लेंगी–गैज्युएट है, ऑफिस में ‘मतवाला’ की प्रतियाँ खरीद रही हैं। तुम्हारी कुछ रचनाएँ पढ़ कर–खुश हो कर।”

मैं चल न सका। गर्व को दबा कर बैठ गया। मन में सोचा, कवि की कल्पना झूठ नहीं होती। कहा भी है, ‘जहाँ न जाय रवि, वहाँ जाय कवि।’

कुछ देर चुपचाप गम्भीर बैठा रहा। फिर पूछा, “हिंदी काफी अच्छी होगी इनकी?”

“हाँ,” सुकुल ने विश्वास के स्वर से कहा, “ग्रैज्युएट हैं।”

बड़ी श्रद्धा हुई। ऐसी ग्रेज्युएट देवियों से देश का उद्वार हो सकता है, सोचा। निश्चय किया, अच्छी चीज का पुरस्कार समय देता है। ऐसी देवी के दर्शनों की उतावली बढ़ चली, पर सभ्यता के विचार से बैठा रहा, ध्यान में उनकी अदृष्ट मूर्ति को भिन्न प्रकार से देखता हुआ।

एक बार होश में आया, सुकुल को धन्यवाद दिया।


2

सुकुल का परिचय आवश्यक है । सुकुल मेरे स्कूल के दोस्त हैं, साथ पढ़े । उन लड़कों में थे, जिनका यह सिद्धांत होता है, कि सर कट जाय, चोटी न कटे । मेरी समझ में सर और चोटी की तुलना नहीं आयी; मैं सोचता था, पूँछ कट जाने पर जंतु जीता है, पर जंतु कट जाने पर पूँछ नहीं जीती; पूँछ में फिर भी खाल है, खून है, हाड़ ओर मांस है, पर चोटी सिर्फ़ बालों की है, बालों के साथ कोई देहात्मबोध नहीं। सुकुल जैसे चोटी के एकांत उपासकों से चोटी की आध्यात्मिक व्याख्या कई बार सुनी थी, पर सग्रंथि बालों के वस्त्र में आध्यात्मिक इलेक्ट्रिसिटी का प्रकाश न मुझे कभी दिख पड़ा, न मेरी समझ में आया। फलतः सुकुल की और मेरी अलग-अलग टोलियाँ हुई। उनको टोली में वे हिंदू-लड़के थे, जो अपने को धर्म की रक्षा के लिये आया हुआ समझते थे, मेरी में वे लड़के, जो मित्र को धर्म से बड़ा मानते हैं, अतः हिंदू, मुसलमान, क्रिस्तान, सभी। हम लोगों के मैदान भी अलग-अलग थे। सुकुल का खेल अलग होता था, मेरा अलग। कभी-कभी मैं मित्रों के साथ सलाह करके सुकुल की हॉकी देखने जाता था, और सहर्ष, सुविस्मय, सप्रशंस, सक्लैप और सनयन–विस्तार देखता था। सुकुल की पार्टी-की-पार्टी की चोटियाँ, स्टिक बनी हुई, प्रतिपद-गति की ताल-ताल पर, सर-सर से हॉकी खेलती हैं। वली मुहम्मद कहता था, जब ये लोग हॉकी में नाचते हैं, तो चोटियाँ सर पर ठेका लगाती हैं। फिलिप कहता था, See, the Hunter of the East has caught the Hindoos’ in a noose of hair. (देखो, पूरव के शिकारी ने हिंदुओं के सर को बालों के फंदे में फँसा लिया है)। इस तरह शिखा-विस्तार के साथ-साथ सुकुल का शिक्षा-विस्तार होता रहा। किसी से लड़ाई होने पर सुकुल चोटी की ग्रंथि खोल कर, बालों को पकड़ कर ऊपर उठाते हुए कहते थे, मैं चाणक्य के वंश का हूँ।

धीरे-धीरे प्रवेशिका-परीक्षा के दिन आए। सुकुल की आँखें रक्त मुकुल हो रही थीं। एक लड़के ने कहा, सुकुल बहुत पढ़ता है; रात को खुँटी से बँधी हुई एक रस्सी से चोटी बाँध देता है, ऊँघने लगता है, तो झटका लगता है, जग कर फिर पढ़ने लगता है। चोटी की एक उपयोगिता मेरी समझ में आयी।

मैं कवि हो चला था। फलतः पढ़ने की आवश्यकता न थी। प्रकृति की शोभा देखता था। कभी-कभी लड़कों को समझाता भी था कि इतनी बड़ी किताब सामने पड़ी है, लड़के पास होने के लिये सर के बल हो रहे हैं, वे उद्भिद्- कोटि के हैं। लड़के अवाक्‌ दृष्टि से मुझे देखते रहते थे, मेरी बात का लोहा मानते हुए।

पर मेरा भाव बहुत दिनों तक नहीं रहा। जब आठ-दस रोज इम्तहान के रह गए, एक दिन जैसे नाड़ी छूटने लगी। ख्याल आते ही कि फेल हो जाऊँगा, प्रकृति में कहीं कविता न रह गयी; संसार के प्रिय-मुख विकृत हो गए; पिता जी की पवित्र-मूर्ति प्रेत की-जैसी भयंकर दिखी; माताजी की स्नेह की वर्षा में अविराम बिजली की कड़क सुनाई देने लगी। वंश-मर्यादा की रक्षा के लिए विवाह बचपन में हो गया था–नवीन प्रिया की अभिन्नता की जगह बंकिम दृगों का वैमनस्य-हलाहल क्षिप्त होने लगा। पुरजनों के प्रगाढ़ परिचय के बदले प्राणों को पार कर जाने वाली अवज्ञा मिलने लगी। इस समय एक दिन देखा, सुकुल के शीर्ण मुख पर अध्यवसाय की प्रसन्नता झलक रही है।

किताब उठाने पर और भय होता था, रख देने पर दूने दबाव से फेल हो जाने वाली चिंता। फलतः कल्पना में पृथ्वी-अंतरिक्ष पार करने लगा। कल्पना की वैसी उड़ान आज तक नहीं उड़ा। वह मसाला ही नहीं मिला। अंत में निश्चय किया, प्रवेशिका के द्वार तक जाऊँगा, धक्का न मारूँगा, सभ्य लड़के की तरह लौट आऊँगा। अस्तु, सबके साथ गया। और-और लड़कों ने पूरी शक्ति लगायी थी, इसलिए, परीक्षाफल के निकलने से पहले, तरह-तरह से हिसाब लगा कर अपने-अपने नम्बर निकालते थे, मैं निश्चित इसलिए निश्चिंत था; मैं जानता था कि गणित की नीरस कापी को पद्माकर के चुहचुहाते कवित्तों से मैंने सरस कर दिया है; फलतः, परीक्षा-समुद्र-तट से लौटते वक्त, दूसरे तो रिक्त-हस्त लौटे, मैं दो मुट्ठी बालू लेता आया; घर में पिता, माता, पत्नी, परिजन, पुरजन सबके लिए आवश्यकतानुसार उसका उपयोग किया।

मेरे अविचल कंठ से यह सुनकर कि सूबे में पहला स्थान मेरा होगा, अगर ईमानदारी से पर्चे देखे गए, लोग विचलित हो उठे। पिता जी तो गर्व से गर्दन उठाए रहने लगे। पर ज्यों-ज्यों फल के दिन निकट होते आए, मेरी आत्मा की वल्लरी सूखती गयी। वह जगह मैंने नहीं रक्खी थी कि पिता जी एक साल के लिए माफ कर देते। घर छोड़े बगैर निस्तार न दिख पड़ा।

एक दिन माता जी से मैंने कहा, “जगतपुर के जमींदारों ने बारात में चलने के लिए बुलाया है, और ऐसा कहा है, जैसे मेरे गए बगैर बारात की शोभा न बन पड़ती हो।” जमींदारों के आमंत्रण से माताजी छलक उठीं; पिताजी को पुकार कर कहा, “सुनते हो, तुम्हारे सपूत जमींदारों के यहाँ उठने-बैठने लगे हैं, बारात में चलने का न्योता है।”

पिताजी प्रसन्नता को दबाकर बोले, “तो चला जाय; जो कहे, कपड़े बनवा दो और खर्चा दे दो।”

एकांत में पत्नी जी मिलीं, बड़ी तत्परता से बोलीं, “वहाँ नाच देखकर भूल न जाइएगा।”

“राम भजो”, मैंने कहा, “क्व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः।”

“मैं इसका मतलब भी समझू?” वह एक कदम आगे बढ़कर बोलीं, मन में निश्चय कर कि तुलना में मैंने उन्हें श्रेष्ठ बतलाया है।
समझकर मैंने कहा, “कहाँ तुम्हारी बाँस-सी कोमल दुबली देह से सूरज का प्रकाश, कहाँ वह जहर की भरी मोटी रंडी!”

“चलो” कहकर वह गर्व-गुरु-गमन से काम को चल दी।

समय पर कपड़े बने, और खर्चा भी मिला। पश्चात्, यथासमय, जगतपुर के जमींदारों की बारात के लिए रवाना होकर कुछ दूर से राह काट कर ऐन गाड़ी के वक्त मैं स्टेशन पहुँचा। वहाँ से ससुराल का टिकट लिया। रास्ते-भर में खासी मुहर्रमी सूरत बना ली। ससुरालवाले देखते ही दंग हो गए। ससुरजी, सासुजी और लोग घेर कर कुशल पूछने लगे। मैंने उखड़ी आवाज में कहा, “गाँव में एक खेत के मामले में फौजदारी हो गयी है, दुश्मनों के कई घायल हुए हैं, इसलिए पिताजी की गिरफ्तारी हो गयी है, गिरफ्तार होते वक्त उन्होंने कहा है, अपने ससुरजी के विवाह के करारवाले बाकी 300 रुपए लेकर, दूसरे दिन जिले में आकर जमानत से छुड़ा लेना।”

ससुरजी सन्न हो गए। सासुजी रोने लगी, और-और लोगों को काठ मार गया। ससुरजी के पास रुपए नहीं थे। पर सासुजी घबरायीं कि ऐसे मौके पर मदद न की जाएगी, तो त्रिपाठी जी कैद से छूटकर अपने लड़के की दूसरी शादी कर लेंगे। इस विचार से नथ, करधनी, पायजेब आदि कुछ गहने रेहन कर 150 रु. मुझे देती हुई बोलीं, “बच्चा इससे ज्यादा नहीं हो सका; हम तो तुम्हारे सदा के ऋणी हैं; फिर धीरे-धीरे पूरा कर देंगे, त्रिपाठी से हाथ जोड़कर हमारी प्रार्थना है।”

मैंने सांत्वना दी कि बाकी रुपए लेने मैं उनके घर कभी न आऊँगा। एक विपत्ति की बात थी; वह इतने से टल जाएगी। सासुजी मारे आनंद के रोने लगीं। मैंने बड़ी भक्ति से उनके चरण छुए और यथासमय स्टेशन आकर कलकत्ते का टिकट कटाया।

यहाँ मेरे नये जीवन की नींव पड़ी। अखबारों में देखा, सुकल प्रथम श्रेणी में पास हुआ है। चार साल बाद वह बी.ए. हुआ, एम.ए. हुआ, मैं मालूम करता रहा, अच्छी जगह पायी, अब परीक्षा समाप्त कर परीक्षक है; मैं ज्यों-का-त्यों; एक बार धोखा खाकर बराबर धोखा खाता रहा; एक परीक्षा की तैयारी न करके कभी पास न हो सका। कितनी परीक्षाएँ दीं।

तब से यह आज सुकुल से मेरी मुलाकात है। एक बार सारा इतिहास मेरे मस्तिष्क में चक्कर लगा गया। अब वह पिताजी नहीं, माताजी नहीं, पत्नी नहीं, केवल मैं हूँ, और परीक्षा-भूमि, सामने प्रश्नों की अगणित तरंग-माला!


3

मैं विचार में था। जब आँख खुली, साकार सुघरता मेरे सामने थी, अविचल दृष्टि से मुझे देखती हुई। अंजलि बाँधकर नमस्कार किया, ललित अंग्रेजी में सम्वर्द्धित करते हुए, “Good morning, Poet of Vers Libre!” मैं उठा। नमस्कार कर सुकुल के नजदीक वाली कुर्सी पर बैठने के लिए बड़े अदब से हाथ बढ़ाकर बताया।

वह खड़ी थीं। लहराती हुई मंदगति से चलीं। बैठकर मुझे देखकर मुस्कराती हुई बोलीं, “आप खूब लिखते हैं?”

प्यासा मृग मरीचिका के सरोवर का व्यंग्य नहीं समझता। मुझे यह पहली तारीफ मिली थी। इच्छा हुई, जाऊँ, महादेव बाबू को भी बुला लाऊँ, कहूँ कि अब अमृत निकलने लगा है, चुल्लू बाँधकर चलिए। लेकिन अभी उतने अमृत से मुझे ही अघाव न हुआ था। बैठा हुआ एकांत भक्त की दृष्टि से देखता रहा।

रक्त अधरों के करारों से अमृत का निर्झर बहा, वह बोलीं, “सुकुल आपकी कविता नहीं समझते, मैं समझाती हूँ।”

सुकुल न रह सके। कहा, “ऐसा समझना वास्तव में कहीं नहीं देखा; असर भी क्या; चाहे कुछ न समझिए, पर सुनने से जी नहीं ऊबता। एम.ए. क्लास तक किसी प्रोफेसर के लेक्चर में यह असर न था।”

“हाँ-हाँ, जनाब,” देवीजी मेरुमूल सीधा करके बोलीं, “यह एम.ए. क्लास से आगे की पढ़ाई है; जब पास करके आए थे, हाथभर की चोटी थी; समझ में एक वैसी ही मेख।”

सुकुल की चोटी मेरी निगाह में सुकुल से अधिक परिचित थी। पर उनके आने पर मैंने उन्हें ही देखा था। चोटी सहीसलामत है या नहीं, मालूम करने के लिए निगाह उठाई कि देवीजी बोलीं, “अब तो चाँद है। सुकुल को सुकुल बनाते, सच कहती हूँ, मुझे बड़ी मिहनत उठानी पड़ी है।”

उन्हें धन्यवाद दूँ, हिम्मत बाँध रहा था कि बोलीं, “मैं स्वयं सुकुल की सहधर्मिणी नहीं।”

मेरा रंग उड़ गया।

मुझे देखकर, मेरे ज्ञान पर हँसकर जैसे बोलीं,“सुकुल स्वयं मेरे सहधर्मी हैं।”

मैं साहित्यिका को तअज्जुब की निगाह से देखने लगा।

इतने पर उनकी कृपा की दृष्टि मुझ पर पड़ी, बोलीं, “मैं आपको भी सहधर्मी बनाना चाहती हूँ।”

मैं चौंका; सोचा, “क्या यह द्रौपदीवाला धर्म है?”

देवीजी ने कलाईवाली घड़ी देखी और उठकर खड़ी हो गयीं। भौंहें चढ़ाकर बोलीं, “बहुत देर हो गयी, चलिए, आपको लेने आयी थी, टैक्सी खड़ी है।” फिर बढ़कर, मेरे कंधे पर हाथ रखकर बड़े ही मधुर स्वर से पूछा, “आप मुर्गी तो खाते हैं?”

मैंने सुकुल को देखा। सुकुल सिर्फ मुस्कराए। समझ कर मैंने कहा, “मेरा तो बहुत पहले से सिद्धांत है।”

वह चलीं। मैं भी उसी तरह चद्दर ओढ़े सुकुल के पीछे चला।


4

रास्ते-भर तरह-तरह के विचार लड़ते रहे। समाज में इतनी आज़ादी नहीं। स्त्री के लिए तो बिलकुल नहीं। मुर्गी की किसी तरह नहीं चल सकती। मैं खाता हूँ, छिपाकर। क्या यह स्त्री… पर सुकुल तो सुकुल हैं।

सुकुल का घर आ गया। एक छोटा-सा दुमंजिला मकान। इधर-उधर बंगालियों की बस्ती। जगह-जगह कूड़े के ढेर, ऊपर मछलियों के सेल्हर, बदबू आती हुई।

हम लोग उतरे। भीतर पैठते दाहिने हाथ एक छोटा-सा बैठका। एक डेढ़ साल के बच्चे को दासी खेलाती हुई। श्रीमती जी को देखकर बच्चा माँ-माँ करता हुआ उतावला हो गया; दोनों हाथ फैलाकर माँ के पास आने के लिए कूदकर दासी की गोद में लटक रहा। लेकर देवीजी प्यार करने लगीं। सुकुल ने दासी को मकान खोलने के लिए कुंजी दी।

एक सहृदय बात कहना चाहिए, सोचकर मैंने कहा, “भूखा है, शायद दूध पीना चाहता है।”

देवीजी ने षोडशी के कटाक्ष से देखा। कहा, “दासी पिला देगी।”

मैंने पूछा, “क्या यह आपका बच्चा नहीं है?”

हँसकर बोलीं, “मेरा? है क्यों नहीं? पर दूध मेरे नहीं होता।”

मैंने निश्चय किया, शिक्षित महिला हैं, यौवन है, अभी मातभाव नहीं आया, इसलिए दूध नहीं होता। मन में विधाता को धन्यवाद देता रहा।

“चलिए”, वह बोलीं, “ऊपर चलें, एकांत में बातें होंगी, सुकुल बाजार जाएँगे मुर्गी लेने।”

बच्चे को फिर दासी के हवाले कर दिया। मैं उनके पीछे चला, यह सोचता हुआ कि एकांत में सहधर्मी बनाने का प्रस्ताव न हो। चित्त को काबू में न कर सका, वह पुलकित होता रहा।

यह कुछ सजा हुआ शयन-कक्ष था। “बैठिए” कहकर वह स्टोव जलाने लगीं। मैं आईने में उनकी पम्प करती हुई तस्वीर देखता रहा।


5

चाय, पान और सिगरेट मेज पर लगाकर बैठीं। प्लेट पकड़कर मेरा प्याला बढ़ाती हुई मधुर कंठ से बोलीं, “शौक कीजिए।”

विनम्र भाव से मैंने दूसरे ओर वाली बाट पकड़ी, और आँखों में ही उन्हें धन्यवाद दिया।

निगाह नीची कर मुस्कराती हुई उन्होंने अपना प्याला होंठों से लगाया। आधी चाय चुक जाने पर पूछा, “आप मेरे सहधर्मी हैं तो?”

पेट में, उतनी ही चाय से, समंदर लहराने लगा। ऊपर तूफान। श्याम तट पर भावों के कितने सजे सृदृढ़ मकान उड़ गए। ऐसी खुशी हुई। कहा, “आप लेकिन सुकुल की…”

“बीबी हैं?–हाँ, हूँ।”

“फिर मैं…”

“कैसे बीबी बना सकता हूँ?”

ऐसा-धर्म संकट जीवन में कभी नहीं पड़ा। मेरा सारा समंदर सूख गया, तूफान न-जाने कहाँ उड़ गया, सिर्फ रेगिस्तान रह गया, जो इस ताप से और तपने लगा।

मुझे चुपचाप बैठा अनमेल दृष्टि से देखता हुआ देखकर वह बोलीं, “आप बुरा न मानें, मैंने देखा है, मर्दो में एक पैदायशी नासमझी है; वह खास तौर से खुलती है जब औरतों से वे बातचीत करते हैं।”

मान लेने में ही बचत मालूम दी। मैंने कहा, “जी हाँ, औरतों के सामने उनकी समझ काम नहीं करती।”

“हाँ,” वह बोलीं, “सुकुल को आदमी बनाती-बनाती मैं हार गयी। ‘बीबी’ को ही लीजिए। बीबी तो मैं सुकुल की भी हो सकती हूँ, हूँ ही, आपकी भी हो सकती हूँ।”

मैं सूख तो गया, पर प्रसन्नता फिर आयी। मैंने बिना कुछ सोचे एक उद्रेक में कह दिया,“हाँ।”

“आप नहीं समझे,” वह बोलीं, “आप साहित्यिक हैं तो क्या, फिर भी सुकुल के दोस्त हैं। बीबी की बहुत व्यापकता है।”

“जरूर,” मैंने कहा।

उन्होंने कान न दिया। कहती गयीं, “छोटी बहन, भतीजी, लड़की, भयहू (छोटे भाई की स्त्री) सबके लिए बीबी शब्द आता है। आपकी ‘हाँ’ किस अर्थ के लिए है?”

मैंने डूबकर, कुछ कुल्ले पानी पीकर, जैसे थाह पायी। प्रसन्न होने की चेष्टा करते हुए कहा, “बहन के अर्थ में।”

उन्होंने कहा, “देखिए, मर्द की बात एक होती है।”

इज्जत बचाने के लिए और ज़ोर देकर मैंने कहा, “हाँ, मुकर जाऊँ, तो मर्द नहीं।”

लजाकर उन्होंने एक बार अपनी आँख बचायी। सँभलकर बोलीं, “हम बड़ी विपत्ति में हैं। सालभर से छिपे फिरते हैं। मैं बचने के लिए सुकुल से उनके मित्रों का परिचय पूछती रही। सिर्फ आपका परिचय मुझे त्राण देने वाला मालूम दिया। पर पता न मालूम था। सालभर से लगा रहे हैं।”

मैंने चितवन देखी। आँखें सजल हो आयीं। कहा, “मैं तैयार हूँ।”

वह उठकर खड़ी हुईं। सामने आ, हाथ पकड़कर कहा, “भाई जी, मेरी रक्षा कीजिए। सुकुल का घर छुटा हुआ है, जिस तरह हो, मुझे अपने कुल में मिलाकर, सुकुल से ब्याह साबित कीजिए।”

उसकी बड़ी-बड़ी आँखें; दो बूँद आँसू कपोलों से बहकर मेरी जाँघ पर टपके। मैं खड़ा हो गया, और अपनी चादर से उसके आँसू पोंछते हुए कहा, “तुम मेरे चाचाजी की लड़की, मेरी छोटी बहन हुई। मेरे चाचा सस्त्रीक बंगाल में आकर गुजरे हैं। उनके एक कन्या भी थी, देश में आयी थी।”

आनन्द से भरकर, वह मेरा हाथ लेकर खेलने लगी। इसी समय सुकुल आए। पूछा, “रामकहानी हो गयी?”

मैंने कहा, “अभी नहीं, कहानी से पहले भूमिका समाप्त हुई है।”

“सुकुल,” भरकर उसने कहा, “कोलम्बस को किनारा दिखा।”

सुकुल बड़े प्रसन्न पद-क्षेप से मेरे पास आए; पूछा, “चाय कुछ बची है?”

“सब-की-सब,” मैंने कहा, “पर ठंडी हो गई होगी, गरम करा लो।” बीबी की तरफ मुड़कर पूछा, “लेकिन तुम्हारा नाम अभी नहीं मालूम कर पाया।”

“जहाँ से आयी हूँ,” उसने कहा, “वहाँ की पुखराज हूँ, यहाँ की पुष्कर कुमारी।”

“कुँवर,” मैंने कहा, “जल्दी करो, तुम्हारी मुर्गी स्वादिष्ट होगी, पर कहानी और स्वाददार हो। दोनों के लिए उतावली है।”

कुँवर चाय बनाने लगी। पम्प करते समय सर की साड़ी सरक गयी। फिर नहीं सँभाला। सुकुल की आँखें लोभी भौरे की तरह उसके मुँह से लगी रहीं।


6

मैंने वहीं स्नान किया। सुकुल की धोती पहनी। भोजन किया–बिलकुल मुसलमानी खाना। वैसी ही चपातियाँ, वैसा ही कोरमा। वही चटनी, वही मुरब्बा, वही मिठाई। खाते हुए पूछा, “कुँवर, हिंदू-भोजन भी पका लेती हो या नहीं?” उसने ‘हाँ’ कहकर सुकुल की तरफ इशारा गया कि इनसे सीखा है।

“किताब छोड़कर खाना पकाते बड़ी परेशानी होती होगी तुम्हें।” मैंने कहा।

“सुकुल के लिए मैं सब-कुछ सह सकती हूँ।” उसने जवाब दिया।

भोजन समाप्त हुआ। हम लोग उसी कमरे में गए। सुकुल बच्चे को लिए हुए।

पान खाते-खाते मैंने कहा, “अब देर न करो, कुँवर।”

कुँवर एक बार नीचे गयी। दासी से कुछ कहकर दुमंजिले का दरवाजा बंद कर आयी, और अपनी कुर्सी पर बैठी।

मैंने कहा, “अब शुभस्य शीघ्रम होना चाहिए।”

कुँवर बोली, “मेरी माँ हिंदू हैं। लखनऊ के वाजपेयी खालेवाले घर की। मैं उन्हीं से हूँ।”

“तब तो तुम कुलीन हो।” मैंने कहा, “तुम्हारे पिता का नाम?”

“उसका नाम कौन ले” कुँवर बोली, “आपके चाचाजी मेरे पिता हैं।”

कुँवर भर गयी। रुककर सँभलने लगी। बोली, “वाजपेयी जी को एक ब्याह से संतोष नहीं हुआ। दूसरी शादी की। तब मैं पेट में थी। बेहटा मेरा ननिहाल है। सिर्फ नानी थीं। ईश्वर की इच्छा, उनका देहांत हो गया। तब मेरी माँ ने ससुर को कई चिट्ठियाँ लिखवायीं। पर उन्होंने खबर न ली। घर में किसी तरह गुज़र न हुई, तब लोटा-थाली बेचकर, उस खर्च से माँ लखनऊ गयीं। घर में पैर रखते, ससुर और पति ने तेवर बदले। पति ने कहा, इसके हमल है, हमारा नहीं। ससुर ने कहा, बदचलन है, धरम बिगाड़ने आयी है; भली होती, तो चली न आती-वहीं के लोग परवरिश करते। पड़ोसियों की भी राय थी। सौत ने धरती उठा ली। एक रात को पति ने बाँह पकड़कर निकाल दिया। माँ रास्तों पर मारी-मारी फिरीं। सुबह जिस आदमी ने उनके आँसू देखे, वह मुसलमान था। उस वक्त माँ के दिल में हिंदू, धर्म और भगवान् के लिए कितनी जगह थी, आप सोच सकते हैं। निस्सहाय, अंतःसत्वा, अबला, केवल आश्रय चाहती थी, सहानुभूतिपूर्ण, मनुष्यता-युक्त; वह एक मुसलमान से प्राप्त हुआ। मुसलमान की बातों में विधर्मीपन न था। एक स्त्री के प्रति पुरुष का जैसा चाहिए, वैसा आश्वासन, विश्वास और पौरुष था। माँ आकृष्ट हुईं। वह माँ को ले चला। आगे वह, पीछे माँ। माँ फूल के कड़े-छड़े, धोती पहने हुए, मुसलमान के पीछे चलती साफ हिंदू-महिला मालूम दे रही थीं। ऐसे वक्त एक आर्यसमाजी की निगाह पड़ी। उसने पीछा किया। मुसलमान बढ़ता हुआ घर पहुँचा। पर उसे हिंदू का पीछा करना मालूम हो गया था, इसलिए डरा। घर देखकर वह आर्यसमाजी पुलिस को खबर देने गया। इधर मुसलमान ने भी पेशबंदी शुरू की। एक दूसरे मुसलमान दोस्त के ताँगे में परदा लगाकर माँ को दूसरे मुसलमान दोस्त के घर कर आया। पुलिस की तहकीकात जारी हुई, साथ-साथ माँ का एक मुसलमान के घर से दूसरे मुसलमान के घर होना। अंत में वह एक ऐसे घर पहुँची, जो एक इंस्पेक्टर पुलिस का था। इंस्पेक्टर साहब छुट्टी लेकर उस वक्त रह रहे थे। नौकरी पर चलते समय वह माँ को भी साथ लेते गए। अकेले थे। माँ सुंदरी थीं।

इच्छा हुई इंस्पेक्टर साहब का नाम पूछूँ, पर सोचा, वाजपेयी जी के नाम के साथ बाद को मालूम कर लूँगा।

कुँवर कहती गयी, “इस तरह इंस्पेक्टर साहब ने एक अबला की रक्षा की। मैं पैदा हुई। मेरे कई भाई-बहन और हुए। मैं उर्दू पढ़ती थी; मुसलमान पिताजी का लखनऊ तबादला होने पर, अंग्रेजी पढ़ने लगी। नाइंथ क्लास में थी, माँ से पिताजी की बातचीत हुई, मेरी शादी के बारे में। मैं कमरे के बाहर खड़ी थी। उन्हें मालूम न था। उस रोज मुझे कुछ आभास मिला। पहले माँ को नाराज होने पर जिन शब्दों में अभिहित करते थे, उनकी सचाई समझी। मेरी आँख खुली। बड़ी लज्जा लगी, हिंदू-मुसलमान इन दोनों शब्दों पर किसी की तरफदारी के लिए। एक रोज माँ को रोककर मैंने पकड़ा। जो कुछ सुना और समझा था, कहा, और बाकी ब्यौरा समझाने के लिए विनय की। एकांत में माँ ने अपना सारा हाल सुनाया, और ईश्वर का स्मरण कर, उनकी इच्छा कहकर खामोश हो गयीं। मुझे जातीय गर्व से घृणा हो गयी। मैंने कहा, मैं शादी नहीं करूँगी; जी भर पढ़ना चाहती हूँ। बस, यहीं से मेरे विचार बदले। मैट्रिकुलेशन पढ़कर मैं आई.टी. कालेज गयी, और दूसरे विषयों के साथ हिंदी ली। एफ.ए. पास हो बी.ए. में गयी। आखिरी साल सुकुल को देखा।”

“सुकुल को देखा” कहने के साथ कुँवर का जैसे नेह का स्रोत फूट पड़ा। कुछ रस-पान कर मैंने कहा, “कुँवर, यहाँ अच्छी तरह वर्णन करो; हिंदी के कहानी-लेखक और पाठक बहुत प्यासे हैं।”

कुँवर जमकर सीधी हुई। बोली, “सुकुल तब क्रिश्चियन कॉलेज में प्रोफेसर थे। प्रिंसिपल को आश्वासन दिया था कि ईसाई-धर्म को वह संसार का सर्वश्रेष्ठ धर्म मानते हैं, लेकिन बूढ़े पिताजी का लिहाज़ है, और वह दो-चार साल में चलते हैं, बाद को सुकुल क्रिश्चियन के अलावा दूसरा अस्तित्व नहीं रखते। कुछ निबंध भी प्रमाण के तौर पर लिखे। दूरदर्शी प्रिंसिपल ने तब सिफ़ारिश की, और इन्हें जगह मिली। मेरे मकान के सामने ठहरे थे। बड़ी सँभाल से हैट लगाते थे कि चोटी कहीं से न दीख पड़े, पगड़ी के भीतर विभीषण के तिलक की तरह। कभी मिसेज सुकुल आती थीं, कभी अकेले ठोंकते खाते थे। मुझे इतना जानते थे कि इस मकान से कोई कॉलेज जाती है। एक दिन की बात। मैं छत पर थी। शाम हो रही थी। सुकुल बरामदे में बैठे थे। मौसम बरसात का। बादल मदन की बैजयंती बने हुए। ठंडी हवा चल रही थी। पेड़-पौधे लोट-पोट। क्या कहूँ, मैं भी ऐसी हवा से लहरायी। बहुत पहले, कुछ ईंटें बाहर देखने के लिए जमा कर रक्खी थीं। उन पर खड़ी हो गयी। अवरोध के पार सर उठाकर देखा। सुकुल बैठे थे। कई बार पहले भी देख चुकी थी। सुकुल ने न देखा था। अब के निगाह एक हो ही गयी। सुकुल की जनरल की मूँछे-बाघ का मुँह-कालिदास की आँखें!–माफ कीजिएगा, मैं बकरे को कालिदास कहती हूँ।–टकटकी बँध गयी। मुझे किसी ने जैसे गुदगुदा दिया। इतनी बिजली भर गयी कि मैने फ़ौरन सुकुल को फ़ौजी सलामी दी। होश में आ, लजाकर बैठ गयी। फिर कई दिन आँखें नहीं मिलायी, छिप-छिपकर देखती रही, सुकुल दूसरों की नज़र बचाते कितने बेचैन थे! मुझे लुत्फ आने लगा, शिकार की तड़फड़ाहट से शिकारी को जो खुशी होती है। बरामदे में सुबह-शाम बैठना सुकुल का काम हो गया। कहीं न जाते थे। इधर-उधर देखकर निगाह उसी जगह जमा देते थे। जगह खाली देखकर आह भरते थे। मैं दीवार के छेद से देखती थी। एक रोज फिर उसी तरह दर्शन देने की इच्छा हुई। ईंटें बिखेर देती थी। इकट्ठी कीं। खड़ी हुई। सूरज मुँह के सामने था। सुकुल ने देखते ही हाथ जोड़कर प्रणाम किया। मैं कागज़ का एक टुकड़ा ले गयी थी। उसकी गोली बनाकर उसे नीचे डाल दिया। उस पर सुकुल की जैसी निगाह थी, वैसी नादिरशाह की कोहनूर पर न रही होगी, न अंग्रेजों की अवध पर।”

मारे आकर्षण के मुझसे न रहा गया। पूछा, “क्या लिखा था?”

“कुछ नहीं,” कुँवर बोली, “वह कोहनूर की तरह सफेद था। सुकुल ने उसे उठाकर बड़े चाव से खोला। और, यद्यपि उसमें कुछ न लिखा था, फिर भी कुछ लिखा होता, तो सुकुल को इतनी सरसता न मिली होती। उस शून्य पृष्ठ पर विश्व की समस्त प्रेमिकाओं की कविता लिखी थी। सुकुल उसे लेकर बरामदे में आए, और मुझे दिखाकर हृदय से लगा लिया। मैं मुस्कराकर विदा हुई। इस खाली के बाद भरी दागने लगी। रोज़ एक गोली चलाती थी, बिहारी, देव, पद्माकर, मतिराम आदि के दोहे और कवित्त लिख-लिखकर। अंत में सुकुल का किला तोड़ लिया। एक दिन एक गोली में दागकर कि तुम्हारे घर आऊँगी-रातभर दरवाजा खुला रखना, गयी, और किले पर अधिकार कर समझा दिया कि इम्तहान के बाद स्थायी रूप से यहाँ आकर निवास करूँगी। सुकुल अपनी भूलों का बयान करते रहे–कब क्या करते, क्या हो गया। पर मैंने कोई भूल की ही नहीं थी। मिसेज सुकूल से शादी करके सुकुल के पिताजी ने, मुमकिन है, भूल की हो। मैंने यह ज़रूर सोचा कि मेरे कारण सुकुल की मुसीबतें बढ़ सकती हैं, पर साथ ही यह खयाल आया कि कोई पहलू उठाइए, सामने मुसीबत है–अब कदम पीछे नहीं पड़ सकता। जहाँ सुकुल हर चाल पर चूकते थे, वहाँ मैंने पहले ही मात दी–इम्तहान में बैठी, और सुकुल के घर आकर मालूम किया, पास हुई, और रायबहादुर बन्नूलाल-हिन्दी-मेडल पाया। और फिर डिग्री लेने नहीं गयी। इम्तहान के बाद, जब एक रात को हमेशा के लिए सुकुल के घर आकर बैठी, बड़ा तहलका मचा, कुछ ढूँढ़-तलाश के बाद जब मैं नहीं मिली, निश्चय हुआ कि मेरी मर्जी से किसी ने मुझे भगाया। सुकुल पर शक हुआ। थाने में रिपोर्ट हुई। सुकुल मुझे कहाँ रक्खें–घबराए। दीवार से बनी एक अलमारी थी। अलमारी के नीचे एक तहखाना छोटा-सा था। मैं अब जैसी हूँ, तब इससे और दुबली थी। जगन्नाथ जी में, कुछ महीने हुए, कलियुग की मूर्ति देखी–कंधे पर बीबी को बैठाले मियाँ लड़के की उँगली पकड़े बाप को धतकार रहे हैं, मेरी इच्छा हुई, सुकुल कलियुग बनें। सुकुल को कई दफे कलियुग बना चुकी हूँ। धतकारने के लिये, कहती थी, सामने समझो हिंदूपन रूपी तुम्हारा बाप है। सुकुल धतकारते थे। ग़रज़ यह कि उस तहखाने में मैं आसानी से आ सकती थी । सुकुल से मैंने कहा, ऊपर कुछ कपड़े डाल दो, साँस लेने की जगह मैं कर लूँगी। आलमारी के ऊपरवाले तानों में चीजें पहले से रक्खी थीं। बाहर से आलमारी बंद कराके ताला लगवा देती थी। इस तरह दो-दो, तीन-तीन, चार-चार घंटे दम साधने लगी। जब सुकुल कॉलेज जाते थे, तब बाहर से ताला बंद कर लेते थे। जब लौटते थे, तब बाहर दरवाजा बंद कर लेते थे। कोई पुकारता था, तो मैं तहखाने में जाती थी, आलमारी का ताला बंद करके सुकुल बाहर निकलते थे। तीसरे दिन सही-सही पुलिस आ गयी। सुकुल उसी तरह बाहर निकले। प्रभातकाल था, बल्कि उषःकाल। दारोगा मुसलमान। डटकर तलाशी लेने लगा। आलमारी के पास आकर खड़ा हुआ। मैं समझ गयी, यह साँस की आहट ले रहा है। मैं मुँह से साँस लेने लगी। फिर आलमारी नहीं खोलवाई। दराज से देख-दाख कर चला गया । सुकुल उसे बिदा कर उसी तरह भीतर आए। मुझे निकाला। मैं खिलखिलाकर हँसी। फिर सुकुल से जल्द मकान बदलने के लिये कहा। तलाशी की खबर चारों तरफ फैली। सुकुल के गाँव भी पहुँची। अब तक सुकुल ने भी तलाशी का हाल लिखा, पर मकान बदल कर यह मकान बड़ा था। बग़ल-बग़ल दो आँगन थे। मेरा खयाल रख कर लिया गया था। चिट्ठी पा सुकुल के भाई मिसेज सुकुल को लेकर आए। हम पहले से सतर्क थे। बड़े मकान में सुकुल रहने लगे। मैं अपना गुप्त जीवन व्यतीत करती रही। मुझे कोई कष्ट न था; पर सुकुल की ड्यूटी बढ़ गयी। सौभाग्य कहूँ या दुर्भाग्य, ३-४ महीने रह कर मिसेज सुकुल बीमार पड़ीं, और ७-८ दिन के बुखार में उनका इंतकाल हो गया। सुकुल के भाई चले गए थे। इन्होंने फिर किसी को नहीं बुलाया। किसी तरह मित्रों की मदद से उनका अंतिम संस्कार कर दिया। सुकुल से पूछ कर मैं तुम्हारा हाल मालूम कर चुकी थी; जानती थी, मुझे ही अपनी नाव खेनी है; पर तुम्हारा पता मालूम न कर सकी, इतनी ही चिंता रह-रहकर होती थी। मिसेज सुकुल के रहते मैंने मिस्टर सुकुल को तुम्हारे गाँव भेजा था। तुम्हीं–जैसे मेरे सहारा हो सकते थे। मिसेज सुकुल के रहने पर मुझे कोई अड़चन न थी, न अब, न रहने पर, कोई सुविधा है। यह बच्चा मिसेज सुकुल का है। बड़ी कठिनाइयों से तुम्हारा पता लगा था। मिसेज़ सुकुल के गुजरने पर हम लोगों को विवश होकर लापता होना पड़ा। पास इतना धन था कि साल-डेढ़ साल का खर्च चल जाय। इतने दिनों बाद हमारी साधना सफल हुई।”

मैंने कुँवर को धन्यवाद दिया। कलकत्ते में ही उसका ब्याह कर दूँगा, यह आश्वासन देकर उससे विदा ली।


7

सेठजी बैठे थे। एकांत में ले जाकर यह हाल उनसे कहा। वह सहमत हो गए। कहा, “मगर मुंशीजी से न कहिएगा, उनके पेट में बात नहीं रहती।”

शुभ मुहूर्त में विवाह की तैयारियाँ होने लगीं। एक दिन आमंत्रित हिंदी-भाषी विभिन्न प्रांतों के साहित्यिकों की उपस्थिति में सुकुल के साथ श्रीपुष्कर कुमारी का ब्याह कर दिया।

प्रीतिभोज में अनेक कनवजिए सम्मिलित थे। देश में यह शुभ संदेश सुकुल के पहुँचने से पहले पहुँचा। कुँवर अब भी हैं।


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