कहानी: प्रेमपूर्ण तरंग – सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

कहानी: प्रेमपूर्ण तरंग - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

बाबू प्रेमपूर्ण मेरे अभिन्न हृदय मित्र हैं। मेरे बी.ए. क्लास के छात्रों में आप भी सबसे वयोज्येष्ठ हैं। आपकी बुद्धि की नामतौल इस वाक्य से पाठक स्वयं कर लें कि जब मैं कॉलेज में भर्ती हुआ, तभी से आप कॉलेज की चौथे साल की पढ़ाई रट रहे हैं—गोया मेरे देखते-देखते बी.ए. की परीक्षा में तीन बार फेल हो चुके। किंतु फिर भी आप प्रतिभा से प्रवंचित नहीं हैं। यदि किसी को उनकी प्रखरत की परीक्षा लेना हो तो उनसे वाद-विवाद और चाहे वितंडावाद तक करके देख ले। उनके वाग्वाणों के अव्यर्थ संधान से प्रोफेसरों के भी हाथ से पुस्तक छूट पड़ती है—मारे भय के या मारे क्रोध के—यह बात तो वही बता सकते हैं। प्रेमपूर्ण को ऐसे और भी अनेक गुणों से आप पूर्ण पाइएगा। इन्हीं कारणों से हम लोगों ने आप ही के सिर पर लीडरी का सेहरा बाँधा है। किसी भी पराक्रमी तर्क-शिरोमणि की क्या मजाल जो हमारे प्रेमपूर्ण जैसे वाकसिद्ध धुरंधर विद्या-लवणार्णव के रहते छात्रालय के सरस्वती के सपूतों को नीचा दिखावे! अगर कोई बुरी लत उनमें है तो वह है रोमांस की तलाश। जब देखिए, आप रोमांस के ही रहे! फेल होने का यह भी एक मुख्य कारण है। बिना ‘रोमैंटिक’ नॉवल की कुछ पंक्तियों की आवृत्त किए रात को आपकी आँखें नहीं लगती। संक्षेप में, आप कई विचित्र भावों के आधार नहीं, पूर्णादार हैं। सबसे उल्लेखनीय कौतुक तो यह है कि प्राचीन काल के नामों की तरह ज्योतिर्विदों ने आपका नाम गुणानुसार ही रखा है। बिहारी सतसई के हर एक दोहे को अपने छात्र-जीवन में ही सार्थकता की चरम सीमा तक पहुँचा दिया है। कदाचित आप हिंदी लिखना जानते होते तो बिहारी सतसई तथा अपर श्रृंगारी कवियों की कृति पर सजीवल भाष्य लिख देते। फिर तो आपकी अनुदार मूर्ति से हिंदी साहित्य का पिंड छुड़ाने कि लिए लोग हिंदी साहित्य-सम्मेलन के सभापति के आसन पर आपको प्रतिष्ठित करके सविनय कहते ही—खुलकर न सही, मन-ही-मन सही—कि ‘प्रभो, अब ‘दूरमपसर’ साहित्य का सत्यानाश खूब किया आपने, बस, अब कृपा कीजिए!’

हम लोग प्रेमपूर्ण जी की प्रेम-कथा सुनते-सुनते ऊब गए थे। बंकिम बाबू ने अपने उपन्यासों में किसी नायक को एक से अधिक नायिका नहीं दी; हाँ कहीं-कहीं अशुद्ध को विशुद्ध या विशुद्ध को अशुद्ध करने के विचार से उन्होंने एक नायिका को दो-दो नायकों के प्रेम के कटीले मार्ग पर चलाया है। (कदाचित एक नायिका के पीछे दो-दो नायकों को भी भिड़ाया है; हम इसकी कसम नहीं खाते। अस्तु) यही हाल शेक्सपीयर का भी है। परंतु यहाँ तो एकमात्र नायक प्रेमपूर्ण के पास प्रतिदिन एक नयी नायिका की चिट्ठी आती है। ताज्जुब तो यह कि इनकी सभी नायिकाएँ पढ़ी-लिखी होती हैं। किसी के पत्र में लिखा है—आपको देखकर जी व्याकुल है; किसी के पत्र में है—रात को नींद नहीं आती—करवटें बदलते-बदलते रात पार हो गयी; किसी के पत्र में है—बिन देखे नहिं चैन। प्रेमपूर्ण से जब पूछिए कहाँ चले मेरे यार? तब यही उत्तर सुनिए कि इससे मिलने जा रहा हूँ—उससे मिलने जा रहा हूँ—पत्र आया है। प्रमाणस्वरूप पत्र खोलकर दिखा देते। वे कोई ऐसे-वैसे प्रेमी नहीं हैं कि मुँह छिपाते, दिल के बड़े पाक-साफ हैं। उनका अधिकांश समय इस प्रकार प्रेमिकाओं से मिलने में ही व्यतीत होता है। उनके फेल होने का यह एक गौरवपूर्ण कारण है।

आज सुबह को ही मैं ‘माधुरी’ में प्रकाशित द्विवेदीजी का एक लेख पढ़ रहा था कि प्रेमपूर्ण हाथ कें चिट्ठी लिए आ पहुँचे। झुककर लेख का शीर्षक देखते ही कहा, “उँ:, क्या पढ़ते हो! इस नीरस लेख में क्या रखा है! जरा इधर देखो यह पत्र पढ़ो तो, वह सरस शैली है कि पढ़ते ही मुग्ध हो जाओगे।” फौरन मेरी समझ में आ गया कि यह वही नित्य की क्रिया है। मैंने झुँझलाकर कहा, “जब तक मैं इस लेख को समाप्त नहीं कर लूँगा, तब तक तुम्हारी चिट्ठी नहीं पढ़ सकता; यह विद्वान का लेख छोड़ दूँ और तम्हारे पत्र में ‘किसके कलेजे में कटार भोंका’ देखूँ, क्यों न?”

लेख समाप्त करके प्रेमपूर्ण की चिट्ठी पढ़ने लगा। लिखा था:

जब से आपको देखा, तब से जी बेहाल है। यही आशा लगी है कि आप कब मिलेंगे। लिखने को तो बहुत जी चाहता है, परंतु ज्यादा लिखूँगी तो आप भी क्या समझेंगे। लज्जावश हृदय के भाव प्रकट न कर सकी और प्रकट करना असम्भव भी है, आप सहृदय हैं, समझने में देर न होगी कि मैं किस हालत में हूँ। रथयात्रा के दिन बड़ा बाजार में मिलिए। अवश्य मिलिए, नहीं तो मैं जान पर खेल जाऊँगी। तरस-तरसकर मरने से एकदम कूच कर जाना कहीं अच्छा है।

मैं आपकी
‘तरंग’

पत्र को मैंने ध्यान से पढ़ा। मेरी दृष्टि अंत की चार पंक्तियों में अटकी। देखकर प्रेमपूर्ण बोले, “यह सब इस देव-दुर्लभ सौंदर्य की करामात है बच्चू, समझे?”

मैंने पूछा क्योंकि संग का असर बड़े-बड़े पर पड़ जाता है, कि “तुमने कहीं वशीकरण तो नहीं सिद्ध कर लिया? क्या बात है तो तुम्हारे पीछे स्त्रियाँ इस तरह हाथ धो कर पड़ जाती हैं? कुछ हमें भी सिखाओ, तुम्हारा बड़ा जस मानूँगा सच कहता हूँ!”

प्रेमपूर्ण: “क्या सिखावें! तुम्हारे चेहरे पर कहीं लावण्य का नाम भी तो हो! तुम्हें तो देखते ही ‘शुष्कं काष्ठं तिष्ठत्यग्रे’ की याद आ जाती है। अगर मेंरे तरह इस असार संसार में स्वच्छंद विहार करना चाहो तो भरते जाओ रोमांस के भाव, जब सिद्ध हो जाओगे तब तुम्हारा हृदय ही प्रेम का केंद्र बन जाएगा। फिर तो चुम्बक पत्थर लोहे को—वह कहीं भी हो—आप खींच लेगा।”

मैं : “ठीक है, तो सिद्ध कब तक हो सकूँगा?”

प्रेमपूर्ण: “इसकी कोई मियाद नहीं। मेहनत जितनी ही करोगे। मजा भी उतनी ही चखोगे।”

आज रथ यात्रा का दिन है। कॉटन स्ट्रीट की कौन कहे, सेंट्रल एवेन्यू में भी गाड़ियों का ताँता ही ताँता दिख पड़ता है। फुटपाथ न होते तो आदमियों का चलना मुश्किल था। कितने ही लोग तो केवल इसी सुभीते के कारण भीड़ की जाँच-पड़ताल और अखबारों के लिए समाचार-संग्रह करना छोड़ सरकार की भरमुँह तारीफ करने लगे। अनेक को यह कहते सुना, “सर्कार दयालु, दानी, देता है दया से दान।” इस उच्छवासमयी कविता को सुनते ही किसी समालोचक महोदय से न रहा गया, वे बोल उठे, “‘सर्कार’ की जगह यदि ‘सर्कर’ होता तो छंद शुद्ध उतरता ‘सर्कार’ शब्द कानों को कोंचता है।”

इधर प्रेमपूर्ण का और ही हाल था। पास तो उनके छदाम न था, लेकिन रोबदाब देखिए तो लखपति की भी शान को मात करते थे। वह ट्रेंगल्कट फैशनेबल बालों की बहार! वह इलाहाबादी सिर पर लखनवी ठाठ-बाट से बनारसी टोपी! आधुनिक सभ्यता के अदब से वह बैसाखी मुस्कुराहट! नुकीली नाक पर वह चश्मा! हरे-हरे! हाथ में रिस्टवाच, पैरो में दिल्ली का कामदार जोड़ा; कहाँ तक लिखें, गोया आपके चेहरे पर प्राच्य और पाश्चात्य भाव एक-दूसरे से सप्रेम आलिंगन कर रहे थे। पीछे चोटी और आगे इंग्लिश फैशन! उधर कानों के दोनों बगल के बाल नदारद और अधर मूँछें हवा में हिलोरें ले रही थीं।

बेचारे ने तमाम मेला छान डाला पर कहीं कोई नहीं। किसी की मोटर निकलती, बग्घी आती, तो आपके प्रेम-पिपासु नेत्र स्वागत के लिए बढ़ जाते। किसी महिला की मोटर किले के मैदान की ओर जाती तो आपकी मुरझायी हुई आशा की कली पर वासंती मलय का एक मधुर झोंका-सा लग जाता। हृदय में ध्वनि गूँज उठती, ‘वह आयी।’ उच्छ्वास का झोंका खाकर खिला हुआ प्रेमकुसुम प्रेमिका की सेवा में स्वीकृत होने के लिए जाता, परंतु बदले में मिलती थी–घृणा, तिरस्कार और प्रत्याख्यान। इस तरह बेअदबी का नतीजा हाथों-हाथ मिल जाता था। परंतु आदत तो बुरी बला होती है। दूसरे, आशा इतने सहज ही क्यों छूटने लगी? एक न हुई तो दूसरी अवश्य होगी। बस, इसी विश्वास से एक दूसरी मोटर पर नजर डालते। वहाँ से भी चोट खाकर वापस आना पड़ता। यदि कलि-महाराज समय के सम्राट न होते तो उस दिन आप पर जैसी मूसलाधार अग्निवर्षा हुई, उसे देखकर तो यही अनुमान होता है कि आप भस्म हुए बिना हरगिज न बचते। आपके बाप-दादों के बड़े भाग्य थे जो सही-सलामत घर पहुँच गए। घर पहुँचते ही प्रेमपूर्ण मझसे सारी विपत्तियों का बयान करने लगे। इतने में डाकिया चिट्ठी लेकर आया। एक पत्र प्रेमपूर्ण का भी था। लिफाफे के हस्ताक्षरों पर नजर पड़ते ही उनके चेहरे पर दूनी रोशनी आ गयी। मैंने पूछा, “क्यों भई, क्या है जो मन-ही-मन खुश हो रहे हो?”

वे वही रोमांस की हँसी हँसकर बोले, “उसी का पत्र है, क्या लिखा है, सुनो:

हमारे प्यारे,

मेरे भाग्य ही खोटे थे जो रथयात्रा के दिन मैं आपसे नहीं मिल सकी। क्षमा कीजिएगा। आपकी सेवा में मैंने जो पत्र भेजा था, उसमें यह लिखना भूल गयी थी कि अमुक स्थान पर आपसे मैं मिलूँगी। यह मुझे तब मालूम हुआ जब मैंने आपके पत्र की दूसरी कॉपी देखी जो मेरे पास ही थी। अब आप मुझसे अलफ्रेड थिएटर में, फर्स्ट क्लास में, कल अवश्य मिलिए।

आप ही की
‘तरंग’ ”
सोमवार, आषाढ़ सुदी तीज, 1979
29, डीयर लेन, कलकत्ता

शाम हो गयी थी। प्रेमपूर्ण बातचीत करना भूल गए। मुझसे कहा, “अब देर न करनी चाहिए। आज ‘पत्नी-प्रताप’ का खेल होगा। बड़ी भीड़ होती है। जल्दी न जाएँगे तो टिकट नहीं मिल सकता। आज भेंट अवश्य हो जाएगी, क्यों न?”

इन इतने प्रश्नों का एक ही उत्तर था। सो मैंने ‘न’ में ‘हाँ’ मिलाकर बेमेल का मेल पूरा कर दिया।

रात के दो बज चुके हैं। दरवाजे की खड़खड़ाहट से मेरी नींद उचट गयी। जब किसी की सुख की नींद में बाधा पड़ती है तब विघ्नकारी चाहे परम मित्र ही हो, परंतु इस हरकत से नवाबी की याद आती और दुश्मन का सिर काट लेने को जी चाहता है। नामर्द जमाने से तंग आकर, किसी बेगुनाह को कोसते हुए उठा और दरवाजे के पास जाकर पुकारा, “कौन है?”

“अरे यार, मैं हूँ प्रेमपूर्ण।” आवाज बेजान थी। बस, इतनी भूमिका से प्रेमपूर्ण के वियोगांत नाटक का बहुत कुछ पता मिल गया। आखिर दरवाजा बंद करके मैं उन्हें अपने कमरे में ले गया। फिर तो इस विशुद्ध प्रेम के कौतूहल के आगे ‘नैनन को छोड़ नींद बैरन बिदा भई’, और लगा मैं पूछने कि आज अपनी ‘तरंग’ में कितने गोते लगाए? बहे-डूबे या सदेह बच आए? प्रेमपूर्ण के सचिंत मौन से यह सूचित हो रहा था कि उनकी ‘तरंग’ ही नहीं आयी। फिर कौन गोते लगाता? विरक्ति के भय से मुझे ज्यादा छेड़छाड़ करने का साहस नहीं हुआ। न जाने वे अपनी उदास आशा को किन वाक्यों से और कब तक समझाते रहे!

सुबह होते ही प्रेमपूर्ण का एक पत्र और आया। पत्र किसने लिखा, इसकी बिना ढूँढ़-तलाश किए ही मेरे मुँह से निकल गया, “हो तो यार, चुम्बक पत्थर, पर लो खींच, या कि खिंच आओ, लो बुला या कि खुद जाओ।” मेरी कवित्व-कला में दूसरों के लिए भले ही सरसता की मात्रा न हो और वे आँखों से पढ़कर कानों से उसे बाहर निकाल दें, पर प्रेमपूर्ण तो उसे सुनते ही खिल उठे। मुझे रोमांस की नजर से देखते हुए उन्होंने लिफाफे का बंद खोला। रातभर की परेशानी और सुबह की खुमारी एक ही सेकंड में

……….
……….

नहीं आयी तो न सही, पर क्या वहाँ तुम्हें चुल्लू-भर पानी भी नहीं मिला?

मैं हूँ
-एक ‘तरंग’
आषाढ़ सुदी 8, बृहस्पति, 1979
29, डीयर लेन, कलकत्ता

मैंने कहा, “एक उपाय अब और करके देखो। 29, डीयर लेन में कौन रहता है, इसका भी पता लेना चाहिए।”

मेरी बात मानकर बेचारे प्रेमपूर्ण 29, डीयर लेन तक गए। वह प्रेमिकागार के बदले छात्रागार निकला जिसमें उन्हीं के सहपाठी छात्र रहते थे। सब-के-सब उन्हें देखते ही हँस पड़े।


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