बरसात की झड़ी का वेग आसमान से उतरकर फुलवाड़ी में व्याप गया। चार-चार सौ वर्ष पुराने, ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के पत्ते धुल गए। संध्या की सुनहरी किरणें उन पर झलमलातीं, और फिर छोटी नदी की सतह पर फिसलने लगतीं।
यौवन के तीसरे पहर में गोपालन आज कुछ देख रहा था। आयु के इस शुष्क रेगिस्तान में उसकी सारी तरलता सूख चुकी थी। अनेक युवतियाँ आ-आकर पनघट पर पानी भरती रहीं। वे हँसकर बात करतीं, खड़ी-खड़ी अंगड़ाई लेतीं, और फिर सिर पर दो-दो, तीन-तीन घड़े रख ठुमकती, लचकती चली जातीं। उनका निखरा हुआ यौवन दरिद्रता में छिप न पाता।
गोपालन को ये स्त्रियाँ देखने में मोहक लगतीं। ये उसके प्रांत की स्त्रियों से अधिक सुंदर थीं। किंतु कभी उसने यह विचार प्रकट नहीं होने दिया। उत्तर भारत में आकर वह सदा अकेला रहा है। वह स्वयं इस भावना का आदी हो गया है, क्योंकि वह यहाँ हिंदी भाषा नहीं जानता।
मंदिर प्रायः सूना हो गया। यहाँ उसने केवल भगवान की पूजा की है, पेट भरा है, और मंदिर की ही भाँति उसका जीवन भी एक श्रद्धा के भार को वहन करता चला जा रहा है। इस नीरव कोने में जैसे संसार निस्तब्ध हो चुका है, मनुष्य की सारी हलचल समाप्त हो जाती है, और वह बिताए जा रहा है, बिताए जा रहा है, ऐसी ज़िंदगी, जो मंदिर के पत्थरों की ही भाँति कठोर है, जिसमें परिवर्तन होता तो हर क्षण है, मगर दिखाई कभी नहीं देता।
रात हो गयी। आकाश में अगणित तारे छिटक गए। पूजा करके गोपालन सोने चला गया। मठ के स्वामी पहले ही सो गए थे।
आज से दो सौ वर्ष पहले किसी व्यापारी ने यहाँ किसी दक्षिणी ब्राह्मण को गुरु बनाया था। तभी से शिष्य-परम्परा चली आ रही है। गोपालन यहाँ पुजारी के रूप में है।
आँख खोलकर देखा, आकाश में एक बार जोर से प्रकाश की एक लीक काँपी और अँधकार में विलीन हो गयी। छत पर पड़े-पड़े गोपालन ने एक बार फुलबाड़ी के पेड़ों की ओर देखकर हाथ जोड़ें, आँखें बंद कर ली। व्यथा से उसका हृदय भर गया। यह जो एक तारा इस तरह टूटा है, ऐसे ही वह भी एक दिन समाप्त हो जाएगा। आज भी क्या उसका जीवन निरर्थक नहीं? वह किसी का नहीं, कोई उसका नहीं। जैसे अपनी ही सत्ता में अपनी परिधि की समाप्ति है।
गोपालन के मुख से एक आह निकल गयी। इतनी तो बीत चुकी। अब और है ही कितनी? ऐसे ही वह भी बीत जाएगी। यहाँ क्या है? अनेक बार घंटे बजते हैं, अनेक बार पूजा होती है, अनेक बार भगवान के दर्शन करने आकर ‘उत्तरदायी’ (उत्तर के रहने वाले) ‘महाराज’ और ‘स्वामी’ कह-कहकर लौट जाते हैं। बात-बात पर दंडवत करते हैं, गंदे रहते हैं, और धर्म-कर्म के विषय में कुछ भी नहीं जानते।
गोपालन मन ही मन हँस उठा। कौन-सा है वह धर्म, जिसके लिए मनुष्य बली हो? कितने अच्छे हैं ये उत्तर के लोग, जो इतना स्नेह देते हैं! हमारे यहाँ तो लोग आपस में ही एक-दूसरे को खाने दौड़ते हैं। आडम्बर! आडम्बर! और कुछ नहीं। ऊँह! मुझे क्या? जब तक मानो तभी तक परमात्मा; जब न मानो, तो कुछ नहीं!
वह मुस्कराया। हृदय में एक बार झोंका-सा दीपक की बत्ती हिलने लगी। वह व्याकुल हो उठा। उसे प्यास लग रही थी; प्यास, वह जो अतीत की सारी कड़वाहट लेकर उसके गले में चटकने लगी। सूनापन सघन हो चला। गोपालन ने आँखों को बंद करके उन पर हाथ रख लिया, जैसे वह बाहर का कुछ भी न देखना चाहता हो।
धीरे-धीरे उसे सारी बातें याद आने लगीं।
युवक गोपालन एक ब्राह्मण का बेटा था। पिता वैदिक आचरण से अपने जीवन के ढाल पर उतरते चले जा रहे थे, जैसे एक दिन गोपालन के पितामह की छाया में वह जीवन के चढ़ाव पर चढ़े थे। उनकी पवित्रता गाँव-भर में प्रसिद्ध थी। वृद्ध नयनाचारी प्रातःकाल ही उठ बैठते, और स्नान आदि से निवृत्त होकर बाहर तिलक लगाकर पूजा में प्रवृत्त हो जाते। संध्या की झुकती वेला में जब लम्बे-लम्बे ताड़ के पेड़ों के पीछे आसमान लाल हो आता, अद्भुत शिल्प से सज्जित गुम्बदों के पीछे एक मंदिर पर आभा फैल जाती, वह बैठे-बैठे घंटों ‘कम्ब रामायण’ गाया करते। और रात को जब विशाल मंदिरों से घंटों और शंखों का नाद गाँव में उठता-गिरता गूँजने लगता, तो वह रामायण को महा-महिमामयी शक्ति के चरणों पर डालकर अपने-आपको भूल जाते।
गोपालन अपने स्वस्थ और सुदृढ़ शरीर के कारण अपने को बहुत कुछ समझता। वृद्ध नयनाचारी देखते, और मन ही मन पुत्र के उच्छृंखल यौवन को देखकर मुस्कराते, किंतु ऊपर से कभी विचलित होते न दिखते। वह उस परम्परा में पले थे, जिसमें पिता, पिता ही नहीं एक गुरु भी होता है। उन्होंने ही उसे गुरु-मंत्र दिया था। आज गोपालन को आवश्यक धर्म-कर्म सब ज्ञात थे।
संसार समझता कि गोपालन का आचरण उसकी आयु को देखते हुए अत्यधिक धार्मिक था। किंतु जब वह मंदिर की आड़ में अँधेरा होने पर छिपकर खड़ा हो जाता, और गाँव आकर रहने वाले रिटायर्ड पोस्टमास्टर की पुत्री कोमल को देखता, तो उस समय वेद ब्रह्मा के मुख में लौट जाते, कर्म और धर्म पराजित होकर उसके उठते हुए यौवन के सामने हाहाकार करने लगते। गोपालन मुग्ध हो जाता।
ऐसे ही अनेक दिन बीत गए। गोपालन ने कभी अपने मुँह से कोमल से कुछ नहीं कहा। किंतु सुंदरी कोमल जानती थी कि तपे हुए ताम्बे के वर्ण का यह पुजारी केवल पत्थर के देवता का उपासक नहीं है, वरन् उसके भीतर एक हृदय भी है, जिसकी वह एक मात्र अधीश्वरी है। और गोपालन का उदास जीवन आशाओं को ठोकर मारकर जगाने की चेष्टा करता, जो पीड़ा से एक बार आँखें खोलतीं, और फिर करवट बदलकर सो जातीं।
गोपलन का भाई वरदाचारी आज अनेक वर्षों से प्रवास में था। उसकी पत्नी राजम, जिसकी अवस्था ढल रही थी, अपने अधिकार की मादकता को सतृष्ण उन्माद से अपने हाथ से किसी तरह भी नहीं जाने देना चाहती थी। सब उसकी कर्कशता से परिचित थे। वह जब कभी अवसर मिलता, तो दूसरों के सामने अपने पति के गुणों का बखान करने लगती, और फिर रोती। किंतु लोगों को शायद ही उसकी कोई बात छू पाती। वरदाचारी एक मस्त आदमी था, जो पत्नी को अपने योग्य न समझकर उसे छोड़कर कहीं अज्ञातवास कर रहा था। राजम माथे पर कुमकुम लगाती, गले में त्रिमंगल्यम पहनती। उसका सौभाग्य जैसे अक्षय था। यह अज्ञात सुहाग उसके नारी जीवन का एक विराट षड्यंत्र था। वृद्ध नयनाचारी को जब वह पर्व के दिनों में दंडवत करती, तो वृद्ध अपने दोनों हाथ उठाकर उसे आशीर्वाद देता। वह पिता था। वरदाचारी उसका बड़ा बेटा था।
गोपालन ने करवट बदली। चारों तरफ अँधेरा था। उसने फिर आँखें बंद कर लीं। अँधेरा नाचने लगा।
…वरदाचारी जब से घर छोड़कर गया, कभी लौटकर नहीं आया।
गोपालन नीचे गाँव से ऊपर सात मील चढ़कर तिरुपथीमलय के विशाल श्रीनिवास के मंदिर में काम करता। राजम घर का काम-काज सँभालती। दो खेत पिता के थे और चार खेत राजम के दहेज के थे, जो यद्यपि नयनाचारी ने बेटे के प्रतिदान में माँगें नहीं, किंतु बेटी का अक्षुण्ण अधिकार बना देने के लिए गर्विता माँ ने अपने आप दे दिए थे। गोपालन निरपेक्ष-सा अपना काम किये जाता।
एक दिन घर आकर गोपालन ने देखा, पिता उदास-से बैठे थे। वह कुछ भी नहीं बोला। नहाकर उसे अपनी चोटी निचोड़ी, और खाने को बैठ गया। राजम ने उसकी ओर क्रोध से देखा, और ढेर-सा चावल सामने लाकर केले के पत्ते पर परोस दिया। गोपालन ने देखा, और समझा। वह जता रही थी कि मेरे ही कारण तुम लोगों को खाना मिलता है, नहीं तो तुम लोग कुत्तों की तरह भूखों मरते होते। गोपालन के हृदय में तीर-सा चुभा। किंतु फिर भी वह चुपचाप खाकर उठ आया। पिता आज चुप थे। आज उनके मुख से रामायण की एक पंक्ति भी नहीं निकली।
गोपालन लौट चला। घीरे-घीरे फिर सात मील की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। इधर-उधर अनेक यात्री इस समय पैदल और डोलियों में थके-मांदे उतर रहे थे।
एकाएक गोपालन ठिठक गया। कोमल भी ऊपर चढ़ रही थी।
वह अकेली थी, और ऐसा लगता था जैसे थक गयी थी! गोपालन को प्रतीत हुआ, जैसे सचमुच ही राह बहुत लम्बी थी और वह स्वयं नहीं चढ़ सकता था। यात्रीगण ‘गोविंदा! गोविंदा!’ पुकारते धीरे-धीरे उतरते चले जा रहे थे। गोपालन को लगा, जैसे वह नदी की बहती धारा थी, और ये दो पत्थर ऊपर की तरफ राह करके निकल जाना चाहते थे।
थोड़ी दूर चलकर कोमल थककर एक सीढ़ी पर बैठ गयी। गोपालन जब उसके पास पहुँचा, तो कोमल ने उसे पहचाना। मुस्करा उठी। गोपालन ने कहा, “थक गयी हो?”
कोमल ने लजाकर उत्तर दिया, “थकेगा कौन नहीं…लेकिन तुम तो थके हुए नहीं दिखते!”
गोपालन को हर्ष हुआ। वह उस स्त्री के सामने पुरूष के रूप में खड़ा था, और इसे वह स्त्री अपने पूर्ण यौवन से स्वीकार कर रही थी। उसने उसकी ओर देखा और देखता रहा। कोमल ने संकोच से अपनी आँखें झुका लीं। गोपालन ने देखा, वह सुंदर थी। आकाश में चाँदनी फूट-फूटकर फैल रही थी। सीढ़ी के दोनों ओर पहाड़ के हरे-हरे वृक्ष सन-सन कर रहे थे। और वह सीढ़ी जो सात मील लम्बी थी, जिसकी बिजली की बत्तियाँ आज चाँदनी के कारण नहीं जली थीं, साँप-सी कहीं करवट लेतीं, कहीं सीधी चलतीं सफेद-सफेद सी ऐसी लगती थीं, जैसे आकाश-गंगा स्वर्ग से पृथ्वी को मिला रही हो। और सामने साक्षात मीनाक्षी बैठी थी, जिसका वड्डयण्णम (सोने की पेटी) अपने ऊपर विचित्र नक्काशी लिए उस मनोहर प्रकाश में दमदमा रहा था। गोपालन को क्षण-भर अपनी दरिद्रता का आभास हुआ। ऐसी ही चीजों के लिए राजम मरती थीं, अपने पति से नित्य झगड़ती थी, और अंत में लाचार होकर वह घर छोड़कर भाग गया था। कोमल की साड़ी के किनारे की जरी झलमल-झलमल कर गोपालन के मन पर जाल बनकर छा गयी और वह विश्रांत-सी सामने बैठी थी। वह देख रहा था, मन भरकर जिसे आज तक कोई भी नहीं पाया।
कोमल उठी, और चलने लगी। गोपालन भी साथ-साथ चलने लगा। कोमल ने ही कहा, “तो तुम मंदिर में अर्चना करते हो?”
“हां! और यहीं रहता हूँ।” गोपालन ने धीरे से उत्तर दिया। फिर उसने रुककर पूछा, “आप कहाँ जा रही हैं?”
‘आप’ सुनकर कोमल ने मुड़कर उसकी ओर देखा। गोपालन का दिल न जाने कैसा होने लगा।
“मैं! मैं भी मंदिर की ही ओर जा रही हूँ। पिता से मिलना है। उनको अपने होटल से फुर्सत कहाँ? पहले पोस्टमास्टर थे न! सो सुबह से शाम तक काम में लगे रहने की ऐसी आदत हो गयी है कि छोड़े नहीं छूटती। आज वहीं सो जाऊँगी। ‘वाहन’ भी देख लूँगी। आज किसकी सवारी निकलेगी आयंगार? हनुमान की या गरूड़ की!”
गोपालन ने सोचकर उत्तर दिया, “आज तो शायद गरुड़ की निकलेगी।”
“गरूड़ की!” कोमल ने प्रसन्न होकर कहा, “मुझे बड़ी अच्छी लगती है गरुड़ की सवारी!”
गोपालन को अफसोस हुआ। आज उसी ने श्रृंगार किया होता, तो कम से कम जता तो देता कि वह कितना निपुण था।
कोमल ने पूछा, “कितने बच्चे हैं तुम्हारे!”
गोपालन हँस दिया। बोला, “बच्चे! कैसे बच्चे?”
“क्यों?” कोमल ने आश्चर्य से कहा, “विवाह ही नहीं हुआ क्या?”
“नहीं!”
गोपालन को लगा, जैसे वे एक-दूसरे के और पास आ गए। उसे प्रतीत हुआ, जैसे कोमल ने यह प्रश्न उससे जान-बूझकर किया था।
धीरे-धीरे ऊपर बसे पेशेवर भिखारियों के झोंपड़े दिखाई देने लगे। कोमल फिर एक स्वच्छ शिला पर बैठ गयी। इस समय कोढ़ी और रोगी, असली और नकली, सब भीतर घुसकर सो रहे थे। चारों तरफ एकांत था। अद्भुत नीरवता छा रही थी। गोपालन भी खड़ा हो गया।
“बैठ जाओ आयंगार, बैठ जाओ। तुम तो, लगता है जैसे थकना ही नहीं जानते!”
वह बैठ गया। देर तक दोनों बातें करते रहे।
जब वे भगवान श्रीनिवास के मंदिर के सामने पहुँचे, तो वाद्य-ध्वनि के साथ वाहन निकल रहे थे। कोमल चली गयी। गोपालन मन की सारी ममता को दोनों हाथों से छाती पर दबाकर भीड़ की ओर देखता रह गया।
दूसरे दिन गोपालन ने देखा कि कुछ शहर के युवक मंदिर में दर्शन करने आए हैं, उनमें से एक जरी का कीमती दुपट्टा गले में डाले है, और उनके काले हाथ पर सोने की एक घड़ी बँधी है। उसे पत्थरों पर नंगे पैर चलने में कष्ट होता है। वह अपने साथियों से कह रहा था, “अजीब हालत है! मंदिर के कारण तो इधर-उधर भी जूता पहनकर पहाड़ पर चलने की आज्ञा नहीं है। प्राचीन काल में वैसा होता था, तो ठीक था। मगर अब ऐसा क्यों?”
गोपालन ने घृणा से नाक सिकोड़ ली। ये लोग थोड़ी-सी अंग्रेजी क्या पढ़ गए, धर्म-कर्म से हाथ ही धो बैठे। महागरिमामय श्रीनिवास इन्हें अवश्य दंड देंगे। और वह अपने काम में लग गया।
दोपहर के समय जब वह मंदिर से बाहर निकला तो उसके पैर ठिठक गए। कोमल के पिता उसी पढ़े-लिखे युवक से खूब हँस-हँसकर बातें कर रहे थे। और वह युवक कॉफी पीता, ‘इडली’ खाता, उन्हें कोई बड़ा दिलचस्प किस्सा सुना रहा था। वह भी होटल के भीतर घुस गया। वृद्ध पोस्टमास्टर उस समय प्रसन्न थे। उनके मुख पर एक चमक काँप रही थी, और स्थूल शरीर फड़क रहा था। गोपालन ने उन्हें नमस्कार किया वृद्ध ने हाथ उठाकर कहा, “अरे गोपालन, तुम इतने दिन कहाँ रहे? इन्हें देखा? आओ, तुम्हारा इनसे परिचय करा दूँ!”
गोपालन ने उस युवक की ओर देखा, और एक आशंका उसके हृदय में उतर गयी।
वृद्ध ने फिर कहा, “ये हैं वेंकटराजन! मदरास में पढ़ाई समाप्त कर दी है। एम. ए. हैं, एम. ए.! अब यहीं तिरचानूर में रहकर अपनी जमींदारी सँभालेंगे। आना विवाह में! जल्द ही हो जाएगा। मेरी तो सारी चिंता मिट गयी। कोमल के योग्य तो मुझे कोई दिखता ही नहीं था। अंत में उसी ने इन्हें देखा। भाई, वक्त बदल गया है न! तभी। भगवान की मर्जी है, वर्ना हमारे समय में क्या यह सब होता था?”
गोपालन ने सुना। हाथ जोड़े। युवक ने हँसकर सिर हिला दिया, जैसे वह जमाई होने की लाज रख रहा था। गोपालन चला आया।
उस समय ब्रहमचारी दिन में निकलनेवाले वाहन के चारों ओर चार दलों में खड़े होकर वेद-पाठ कर रहे थे, और नाक के श्वास से एक ही समय बाँसुरी बजा रहे थे। जब एक दल ऋगवेद के कुछ मंत्र पढ़ चुका था, तो दूसरा साम-वेद प्रारम्भ करता था। और अंतकाल में वेदों का वह गम्भीर घोष गूँजकर, पाषाणों से सहस्रों वर्ष पुराना गौरव टकराकर, आकाश की ओर सहस्र रश्मियाँ बनकर फूट निकलता था।
गोपालन भीतर अंधकार में एक विशाल स्तम्भ के सहारे बैठ गया। सिर चक्कर खा रहा था। पैरों के नीचे से धरती खिसक रही थी। हृदय में उन्माद घूँसे मार-मारकर हँस उठता था।
धीरे-धीरे साँझ हो गयी। गोपालन फिर भी वहीं पड़ा रहा। वृद्ध ताताचारी अंत में हाथ में दीपक लेकर उसे ढूँढने निकल पड़ा। नित्य गोपालन दिन में अनेक बार उसके पास जाता, और कहता कि उसके अतिरिक्त मंदिर में और कोई ऐसा न था जिसके प्रति उसकी श्रद्धा हो। ताताचारी वृद्ध हो गया था उसी मंदिर की पूजा करते-करते, और उसे गोपालन से पुत्र का-सा स्नेह हो गया था।
वृद्ध की छाती पर जैसे किसी ने प्रहार किया। गोपालन उस नीरव अंधकार में पड़ा हुआ था। वृद्ध ने दीपक रख दिया, और घुटनों के बल बैठकर पुकारा, “गोपालन!”
गोपालन ने आँखें खोल दीं। वृद्ध ने उसका हाथ पकड़कर कहा, “वत्स! क्या हुआ है तुझे? अँधेरे में क्यों पड़ा है?”
गोपालन ने कुछ नहीं कहा।
वृद्ध ने फिर कहा, “पुत्र, तुझे ऐसी क्या पीड़ा है? गोविंद सबका मंगल करते हैं! मुझसे कह!”
गोपालन ने नीचे देखते हुए कहा, “स्वामी, मुझसे एक भूल हुई?”
वृद्ध ने कहा, “क्या?”
गोपालन ने दबे स्वर से कहा, “मैंने आकाश की ओर हाथ बढ़ाया था! मैंने सोचा था कि कोमल से विवाह कर सकूँगा। मैं समझता था कि वह मुझसे प्रेम करती है।”
वृद्ध ने कहा, “तूने आकाश की ओर हाथ बढ़ाया, लेकिन यह नहीं देखा कि तेरे पैरों के नीचे जमीन तक नहीं है। पागल! कोमल से तू विवाह करेगा? मंदिर का अर्चक एक पोस्टमास्टर की पुत्री से विवाह करेगा! घर में तेरे है क्या, जो तू ऐसी मूर्खतापूर्ण बात सोचने लगा? राजम क्या रहने देगी तुझे? क्या वृद्ध नयनाचारी को मालूम है कि उसका बेटा वह काम करने लगा है, जो प्राचीनकाल में राजा किया करते थे? गोपालन, होश की बात कर, होश की!”
गोपालन ने गर्दन झुका ली। उसका गला रुँध गया। वह कुछ भी नहीं कह सका।
वृद्ध कहता गया, “मैं तेरा ब्याह करा दूँगा। विश्वनाथ की कन्या अब चौदह बरस की हो चली है। पिता भी अर्चक है। मुझे आशा है कि वह तुझे अवश्य अपना जमाई बना लेगा। उठ, चल! बेकार अँधेरे में पड़ा-पड़ा क्या रहा है?”
किंतु गोपालन नहीं उठा।
वृद्ध देर तक समझाता रहा। किंतु जब कोई नतीजा नहीं निकला, तो यह बड़बड़ाता हुआ चला गया।
आधी रात के बाद जब गोपालन बाहर निकला, तो हाथ-पाँव टूट रहे थे। चाँदनी देख कर लगा, जैसे चारों तरफ आग लग रही हो। पुष्करिणी पर चंद्रमा की शुभ्र किरणें खेल रही थीं। ऐसे ही दमयंती के विरह में नल बैठ रहा होगा। ऐसे ही उसके हृदय में भी आग लग रही होगी।
वह उन्मत हो उठा। रात अंगड़ाई ले रही थी। वृद्ध ताताचारी का उपहास अब भी उसके कानों में गूँज रहा था।
धीरे-धीरे भोर हो गयी। ठंडी-ठंडी हवा चलने लगी। उसने देखा, कोमल घड़ा लिए पुष्करिणी की ओर गोपालन को देखकर वह मुस्करायी। फिर उसने कहा, “कहो, आयंगार! क्या रात सोए नहीं? तुम्हारा मुँह पीला क्यों पड़ गया है?”
गोपालन का श्वास भीतर घुट उठा। उसके मुँह से निकला, “तुम्हारा विवाह हो रहा है?”
“हाँ-हाँ! क्यों?” उसने हँसकर कहा, “आशीर्वाद दे रहे हो अचारी? तिरचानूर में ही होगा। कोई दूर तो है नहीं। बस पहाड़ से उतरने को देर है।” और जैसे मन ही मन वह कल्पना के सुख में मस्त होकर मुस्करायी। फिर एकाएक उसने सिर उठाया। देखा, गोपालन का मुख और भी उतर गया था। लगा, जैसे उसका हृदय असह्य यंत्रणा से छटपटा रहा हो।
“ओह!” उसके मुँह से निकल गया, “तुमको हुआ क्या है ब्राह्मण?”
गोपालन गुमसुम खड़ा रहा। कोमल जैसे समझ गयी। उसने विद्रूप से कहा, “आओगे विवाह में? वहाँ कई अर्चक होंगे! आना! खूब दक्षिणा मिलेगी? सच! मैं झूठ नहीं कहती!”
गोपालन के रोम-रोम पर किसी ने अंगारे फेर दिए। फिर भी वह प्रतिकार की भावना को प्रोत्साहन नहीं दे सका। अपमान का घूँट उगल न सका। जैसे संसार को उस विष से बचाने के लिए वह उसे पी गया। उसके मुँह से केवल निकला, “आऊँगा, देवी! तुम्हारे सौभाग्य को दृढ़ करने के लिए मैं मंत्र उच्चारण करने आऊँगा।”
कोमल ने स्नेह से उसकी ओर देखा। जैसे उसकी शंका दूर हो चुकी थी। गोपालन खड़ा नहीं रह सका। वह लौट आया। भीतर आकर एक स्तम्भ के सहारे खड़ा हो गया। लगा, जैसे वह भी पाषाण की एक मूर्ति हो!
…शहनाई बजने लगीं। उसका तीव्र शब्द, मंगल का सूचक बनकर, कानों में गूँजने लगा। चारों ओर अगरबत्ती की मोहक गंध उठ रही थी। पके हुए केलों की गंध उठती और हवा के साथ कभी मंगल-कलशों पर जाकर थिरकती, कभी द्वार पर बँधे केले और आम के पत्तों को खड़बड़ा देती।
कोमल का विवाह हो रहा था।
गोपालन उदास-सा पास कील धर्मशाला में बैठा शहनाई की आवाज सुन रहा था। जैसे यह समस्त वैभव, जो आँखों के सामने चल रहा है, इसमें उसका कुछ भी नहीं है, वह दलित और दयनीय-सा उठाकर किनारे रख दिया गया है कि अमृत की लहरें बहती जाएँ, और वह केवल उनका कल-कल शब्द सुनता रहे, बोल कुछ नहीं, छुए कुछ नहीं।
ब्राह्मण वेद-मंत्रों का उच्चारण कर रहे होंगे। अग्नि में घी पड़ते ही लपटें हरहराकर किलकिलाती उठती होंगी, और धुएँ से कोमल की आँखें लाल पड़ गयी होंगी। अनेक युवक-युवती अच्छे कपड़े पहने वहाँ इकट्ठे होंगे। किंतु गोपालन तो वहाँ नहीं जा सकता। वहाँ जाकर होगा भी क्या?
पीछे से वृद्ध ताताचारी ने कंधे पर हाथ रखकर कहा, “अरे गोपालन! तू अभी यहीं है? चलेगा नहीं? वहाँ तो अनेक ब्राह्मणों को बुलाया गया है। जो जाएगा, दक्षिणा पाएगा, कोई कम-ज्यादा नहीं आखिर इस स्थान के वही तो पुराने जमींदार हैं। अब भले ही उतने नहीं रहे। एक समय था जब वही यहाँ के सबसे बड़े आदमी थे। तू तो तब था भी नहीं, तेरे बाबा इन्हीं के यहाँ अर्चक थे, इनके निजी मंदिर में। और खाना बनाना तो उन्होंने, और मेरे बड़े भाई ने इन्हीं के बाबा के यहाँ सीखा था। चल न!”
गोपालन ने कुछ नहीं कहा। वृद्ध ताताचारी के मुख पर एक बर्बरतापूर्ण हास्य खेल उठा। उसने कहा, “मूर्ख! तू मेरे पुत्र के समान है! क्या बेकार की बातों में पड़ा है? तुझे शर्म नहीं आती कि प्रेम करने चला है?”
गोपालन ने फिर भी मौन रहना ही सबसे अच्छा समझा। जाने क्यों वह बहुत कुछ कहना चाहकर भी कुछ नहीं कह सका।
अनंत हाहाकर की तरह बाजे की आवाजें उसके कानों में गूँजती रहीं, जैसे उसके प्राणों पर वज्रों का भयानक प्रहार हो। वह दरिद्र था। कोमल एक धनी की पुत्री थी। सोचते-सोचते वह रो पड़ा।
घर पहुँचने पर राजम ने आँखों को कपाल पर चढ़ाकर, हाथ नचाकर कहा, “तुम तो जैसे ‘वड़यवर’ (रामानुजाचार्य्य) ही हो, जो तुम्हें कुछ भी चिंता नहीं! सभी तो गए थे। कम से कम बीस-बीस रुपया तो हरेक को मिला है। लेकिन तुमने तो जाने की जरूरत ही नहीं समझी!” वह कहकर चुप हो गयी। गोपालन के मुख पर असह्य व्यथा थी। लेकिन वह कुछ भी नहीं समझ सकी। अपार विस्मय से उसने देखा, वह सामने से हट गया। वह मुँह खोले ही खड़ी रह गयी। अंत में उसने कुछ समझने का प्रयत्न किया। मुस्करायी। किंतु इस योग्य की असम्भवता पर केवल हँस दी। नहीं, गोपालन कुछ भी हो, इतना मूर्ख नहीं हो सकता। राजम को फिर भी उससे कुछ स्नेह अवश्य था। पति के चले जाने पर वह उससे बात-बात पर चिढ़ती तो थी, किंतु कुछ अपना अधिकार समझकर ही तो उससे जो चाहे कह जाती थी। खाने के समय भी व्यंग्य कसती, किंतु कभी उसे भूखा न उठने देती। ऐसा होता, तो रोती, लड़ती और अपना करके ही रहती। जब कुछ समझ में नहीं आया, तो वह फिर अपने काम में लग गयी।
गोपालन की व्यथा बढ़ती ही गयी। वह रात को बहुत कम सो पाता। कोमल सामने आकर खड़ी हो जाती। संध्या समझ वह देखता, पति-पत्नी घूमने जाते। कोमल का गर्व से उन्नत मस्तक देखकर गोपालन का रहा-सहा धैर्य भी लुप्त हो जाता। मन ही मन वह तर्क करता, मैं क्या किसी से कुछ कम हूँ? अरे, अर्चक का बेटा अर्चक ही तो होगा! पहले क्या हमारी कम इज्जत थी? अब जो लोग अंग्रेजी पढ़-पढ़कर धर्म को भूल केवल धन से मनुष्य के महत्व का माप करते हैं, वे ही हमारी उपेक्षा करते हैं, मैं अपना काम करता हूँ, खाता-पीता हूँ। किसी से माँगने नहीं जाता। और फिर अमीर-गरीब होना क्यों किसी के हाथ की बात है?
और सोचते-सोचते वह बड़बड़ा उठता, “बूढ़ा ताताचारी सठिया गया है! कहता है, वेंकटरामन को रसोइए की जरूरत है, जाकर नौकरी कर ले! मैं कोमल की नौकरी करूँगा। मैं उसका सेवक बनकर रहूँगा?” और अपने आप से घृणा हो जाती है। वह अँधेरे में मुँह छिपा लेता।
…धीरे-धीरे बात आयी-गयी हो गयी। गोपालन का उद्वेग कभी उठता, कभी गिरता। वह बहुत कम बात करता। मंदिर में ही अधिकांश समय बिताता। कभी-कभी जाकर पिता से मिल आता।
नयनाचारी अवसर पाकर गोपालन के सामने राजम को बुलाकर कहते, “बेटी, तेरे सामने तो यह बच्चा है। वरदाचारी इसे बहुत प्यार करता था। लेकिन ईश्वर की इच्छा! वह तो इसे छोड़ गया, अब तू ही इसकी माँ है। क्यों नहीं इसका भी ठिकाना कर देती? मैं तो अब बूढ़ा हुआ। देख जाऊँ इसका ठिकाना लगते भी, नहीं तो फिर…।”
गोपालन ऊब जाता। देख जाने की इस तृष्णा में पिता के वात्सल्यपूर्ण हृदय की कितनी अथाह ममता थी, वह न समझ पाता। वृद्ध कभी अपनी बात के विरुद्ध कुछ भी नहीं सुनते, क्योंकि उन्हें अपनी आयु का गर्व था। वे औरों को अपने सामने बच्चा समझते थे। “अभी क्या जाने वे? जाने क्या-क्या सोचते हैं! ऋषि-मुनियों ने भी यही तथ्य निकाला है। और इस संसार में है ही क्या?”
राजम इसे तुरंत स्वीकार कर लेती। यह दिल ही दिल में सोचती, और प्रसन्न होती, आएगी एक और। घर भी जाएगा। गृहस्थी बढ़ जाएगी। जीवन की यह नीरसता दूर हो जाएगी और सबसे बड़ी बात यह होगी कि अधिक छोटों के होने पर वह अधिक बड़ी हो जाएगी, और अधिकार जताने को उसको अधिक लोग मिल जाएँगे। और फिर वह काम-काज से मुक्त होकर पूर्णतया स्वामिनी की तरह शासन कर सकेगी।
इतने सब पर भी उदासी दूर न हुई, और जीवन का रेगिस्तान तरल होता न दिखा।
एक दिन गोपालन जब खाने बैठा, तो राजम ने कहा, “कुछ सुना तुमने।”
गोपालन ने पूछा, “क्या?”
“कोमल के बाप की अपने जमाई से खटपट हो गयी! बाप ने कहा–‘हम एक ही जगह रहते हैं। फिर लड़की यहाँ चली आया करे, तो क्या हर्ज है?’ मगर वेंकटरामन ने तो अंग्रेजी पढ़ी है। वह क्या बहू के बिना एक भी मिनट रह सकता है? लड़ाई हो गयी। कोमल ने बाप को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका! देखा, आजकल का जमाना? जन्म भर पेट काटकर खिलाया, और यह नतीजा हुआ।” और फिर दो क्षण रुककर राजम ने कहा, “लड़की भी क्या कभी किसी की हुई है! यह तो पूर्व जन्म का दंड होता है कि खिला-पिलाकर लड़की को बड़ा करो और पैर पूज दूसरे को दान कर दो!”
गोपालन ने राजम की बात की सत्यता स्वीकार की। लड़की फैशन में पड़ गयी है। नहीं तो क्या बाप की अवहेलना करती? किंतु फिर दिमाग में ख्याल आया, पति ही तो विवाह के बाद सब कुछ है। फिर भी व्यक्तिगत विद्वेष ने कोई सामंजस्य स्थापित नहीं होने दिया। गोपालन यह नहीं सुनना चाहता था कि कोमल वेंकटरामन से विवाह करके सुखी थी।
चार महीने बीत गए। गोपालन ने फिर एक बात सुनी। छाती से घावों पर मरहम-सा लगा। विद्वेष की धधकती आग बुझी। कितना निकृष्ट सुख था वह! किंतु यह वह समय अनुभव नहीं कर सका।
कोमल का पति बीमार था। इलाज हो रहा था, किंतु कोई लाभ होता नहीं दिखता था। गोपालन की व्यथा फिर भड़क उठी।
अँधेरा हो गया। द्वार पर खटखटाहट सुनकर, कोमल ने आकर द्वार खोल दिया। गोपालन उसे देखकर सकपका गया। उन दिनों कोमल के घर बहुत कम लोग जाते थे। किंतु गोपालन को देखकर उसने तनिक भी विस्मय नहीं प्रकट किया, जैसे उसे मालूम था कि वह आएगा।
उसने कहा, “कहो, आयंगार? कैसे कष्ट किया?”
गोपालन ने देखा, उसके मुख पर उदासी थी, और वह उद्विग्न-सी लग रही थी, जैसे भविष्य का भूत उसे रह-रहकर डरा देता हो, और वह आने वाली आपत्तियों को झेलने के लिए तैयार हो रही हो।
गोपालन ने कहा, “कुछ नहीं! हाल पूछने आया था।”
“अब तो वे अच्छे हैं पहले से। डॉक्टर कहते हैं कि जल्द ही अच्छे हो जाएँगे!”
गोपालन ने चलते-चलते कहा, “कभी आवश्यकता हो, तो मैं सेवा के लिए प्रस्तुत रहूँगा!”
“जानती हूँ! किंतु विश्वास तो तब होगा, जब तुम प्रत्यक्ष कुछ कर दिखाओगे। समय पर बुलाऊँगी, पीछे न हटोगे?”
“नहीं!” गोपालन ने चलते-चलते कहा।
कोमल ने ‘नमस्कार!’ कहकर द्वार बंद कर लिया।
गोपालन सोच रहा था, “चलते-चलते, मुझसे वह क्यों कुछ आशा करती है? यह मान करने और रूठने का अधिकार उसे दिया किसने? विश्वास करती है, फिर भी शंका की चाबुक मारकर आहत करने का प्रयत्न करती है!”
कुछ दिन बाद घर-घर में एक नयी अफवाह फैल गयी। गोपालन ने सुना। उसे विश्वास नहीं हुआ। मगर राजम छोड़नेवाली नहीं थी। उसने उसे देखते ही कहा, “अरे, सुना तुमने? कोमल का आदमी शराब पीने लगा है?”
“शराब!” गोपालन के मुँह से निकला। ऐसा लगा उसे जैसे आसमान फट गया हो, या जमीन खिसक गयी हो।
“हाँ, हाँ, शराब, विलायती शराब! मैं तो पहले ही जानती थी। अब तो पोस्टमास्टर घमंड नहीं कर सकेगा!” और एक मुक्का सीने पर मारा, जैसे कोई कमाल किया हो, और मुस्कराती हुई गोपालन की ओर देखने लगी।
“क्यों पीता है वह शराब?” गोपालन ने धीरे-से कहा, “ब्राह्मण का बेटा! एक पवित्र वंश में उत्पन्न होकर ये चांडालों के से कर्म! क्या ऐसे ही वह बाप का नाम चला रहा है? पोस्टमास्टर तो कहते थे कि वह पढ़ा-लिखा है!”
“नाम तो तुम भी ऐसे ही चलाते! वह तो कहो कि अंग्रेजी का काला अक्षर तुम्हारे लिए भैंस बराबर है! वैसे भी क्या कभी तुमने कभी बाप की बात मानी है? मैंने कितनी लड़कियाँ देखीं, लेकिन तुम्हारी टेक तो जैसे पत्थर की लकीर है!”
गोपालन ने उस बात का कोई उत्तर नहीं दिया। दो क्षण बाद उसने कहा, “क्या यह बात सबको मालूम है?”
“अरे बाप रे!” राजम ने हाथ बजाकर कहा, “मालूम कैसे न होगी? क्या सब लोग जहर खाकर सो गए हैं? वह पी-पीकर सड़क की नालियों में गिरता फिरे, और किसी को मालूम न हो!”
गोपालन का चित्त खट्टा हो गया। अतीव घृणा से उसके मुँह में भी एक कड़वाहट-सी फैल गयी। यह क्या हुआ। क्या बेचारी कोमल को कोई सुख बदा नहीं है?
बाहर आकर सुना, बात सचमुच फैल गयी थी। ब्राह्मण समाज ने एक मत से उसका बहिष्कार करने का निश्चय किया था। फिर भी किसी को एकदम आगे बढ़ने का साहस नहीं होता था। वेंकटरामन को सब लोग धनी जो समझते थे। गोपालन विक्षुब्ध हो उठा।
करीब चार महीने और बीत गए। गोपालन के हृदय में एक तूफान सदा हाहाकार करता रहता। ऊपर से देखने में वह पहाड़ की तरह गम्भीर और शांत दिखाई देता।
एक दिन शाम को जब वह पहाड़ से उतरने लगा, तो ताताचारी ने रास्ते में उसे रोककर कहा, “वेंकटरामन मर गया। पोस्टमास्टर की बेटी विधवा हो गयी।”
गोपालन हतबुद्धि-सा खड़ा रह गया। वृद्ध ताताचारी ने कोमल के प्रति उसके स्नेह को जानकर घृणा से मुँह फेर लिया। निस्सहाय कोमल के अंधकारमय भविष्य की बात सोचकर गोपालन का हृदय काँप उठा।
इसके बाद कुछ दिन चुपचाप बीत गए। फिर एक दिन गोपालन चौंक उठा। सामने एक लड़का खड़ा था। उसने लड़के की ओर बिना देखे ही पूछा, “कौन है तू? कहाँ से आया है?”
लड़का उसकी ओर निस्संकोच आँखों से देखकर बोला, “कोमलम्मा ने भेजा है।”
गोपालन जानकर भी अनजान बन गया। उसने अपरिचित की भाँति सिर उठाकर पूछा, “क्या बात है? कहता क्यों नहीं, बेकार क्यों खड़ा है?”
“उन्होंने आपको बुलाया है।” लड़के ने कहकर जीभ काट ली।
गोपालन हँस दिया। उसने कहा, “बुलाया है! क्यों? कह दो जाकर, गोपालन उसका नौकर नहीं है! समझे? जा, चला जा यहाँ से।”
लड़के की जीभ तालू से सट गयी। वह कहना चाहकर भी और कुछ नहीं कह सका। इधर-उधर देखकर चला गया।
गोपालन का हृदय उन्मादजनित संतोष से भर गया। सोचने लगा वह, ‘आज जब कोई साथी नहीं है, तब गोपालन की याद आयी है! किंतु मैं तो एक दरिद्र अर्चक हूँ! वह तो धनी घर में पली है। रुपया पानी की तरह बहा सकती है। वह क्यों मेरी प्रतीक्षा कर रही है?’ और उसको शांति सी अनुभव हुई। ‘आज वह विधवा है। आज वह किसी काम की नहीं है। आज समाज में उसका कोई स्थान नहीं है। दो दिन बाद पुष्करिणी में नहाकर गले में गीला आँचल डालकर आएगी, तब देखूँगा उसका गर्व! जब ब्राह्मण अपने हाथों से उसके गले का तिरमंगल्यम तोड़कर फेंक देंगे। जब उसका यौवन सिर धुन-धुनकर सुहाग के लिए तड़पेगा, तब देखूँ गा उसकी शेखी!’ वह पागलों की तरह हँस उठा। और स्वयं वह? उसके होठों पर घृणा की हँसी सर्पिणी की तरह तड़प उठी। क्या है गोपालन? कुछ नहीं! निरी मिट्टी!
इस द्वंद्व ने उसे पराजित कर दिया। वह छत की ओर देखकर एक बार मन ही मन काँप उठा। सहसा पग-चाप सुनकर सिर मोड़ा। देखा, तो विश्वास नहीं हुआ। सामने वज्राहत-सी, कोमल खड़ी थी। वह आज भी सिर में तेल डाले थी। माथे पर कुमकुम लगा था, हाथों में चूड़ियाँ थीं। पूरी सुहागिन बनी थी आज भी। किंतु आज वह एक प्रेत के लिए अपने-आपको सजाए हुई थी, क्योंकि ग्वारहवें दिन ही धर्म के अनुसार वह अपना यह स्वरूप त्याग सकेगी।
गोपालन को लगा कि कोमल का सारा शृंगार ऐसा था, जैसे स्वर्णचिता लपटें उछाल-उछालकर धधक रही हों। उसकी छाती धक से रह गयी, उसने देखा, और देखता ही रह ही रह गया।
कोमल ने कहा, “आयंगार, मैंने तुम्हें बुलाया था। जानते हो क्यों?”
“नहीं!” उसने कहा, “किंतु सोचता अवश्य हूँ?”
“क्या?” उसने निर्भीकता से पूछा।
“यही कि तुम एक जमींदार की पत्नी हो, और…”
“पत्नी नहीं, आयंगार,” कोमल ने बात काटकर कहा, “विधवा कहो, एक मृत जमींदार की विधवा!” और वह हँस दी।
गोपालन के शरीर में वह हँसी ज्वाला बनकर फैल गयी। उसने नितांत कठोरता से कहा, “विधवा ही सही। किंतु तुम्हारे स्वामी मरकर भी जमीन तो अपने साथ ले नहीं गए। उसकी तो तुम्हीं स्वामिनी हो। धन तो तुम्हारे पास है ही। तभी तुम्हें आज्ञा देना आता है! इसी से बुलवाया था न? मुझे जैसे ब्राह्मण खरीद लेना क्या तुम्हारे लिए कठिन है?”
कोमल मुस्करायी, और बोली, “नहीं आयंगार, यह गलत है! यदि मैं अपने को घर के भीतर रखने का प्रयत्न न करती, तो संसार मेरी ओर उंगली उठाकर कहता कि देखो, मरने का आसरा देख रही थी। उसके जीते ही इसका रास्ता खुल गया।”
गोपालन ने सुना। पर वह कुछ भी नहीं समझ सका। वह चुप खड़ा रहा। कोमल ने फिर कहा, “जानते हो, मैं तुम्हारे पास क्यों आयी हूँ?”
“नहीं! उसका स्वर गूँज उठा! अब भी जैसे उसे उससे कोई संवेदना नहीं थी।”
कोमल कहती गयी, “जानते हो, मेरे स्वामी शराब पीने लग गए थे?”
“जानता हूँ! वह पापी था!” गर्व से उसने सिर उठाकर कहा।
“हूँ!” कोमल हँस दी, “पापी कौन है, यह तो ईश्वर ही जानता है। मैं तो केवल यह जानती हूँ कि वे मेरे स्वामी थे!”
गोपालन ने सिर उठाया। देखा, वह तनिक भी लज्जित न थी, जैसे चिता की राख कभी भी लज्जित नहीं होती, चाहे उस पर कुत्ते चलते रहें या गीदड़!
“स्वामी!” गोपालन के मुँह से निकला, “तो वह शराब क्यों पीता था?”
“डॉक्टर ने कहा था कि दवा के रूप में पियो। किंतु वे भी आदमी ही थे, आदत पड़ गयी। बहुत पीने लगे। स्वास्थ्य गिर गया, किंतु छोड़ नहीं सके। दोष तो मेरे सुहाग का है, उनका नहीं! आखिर गलती आदमी से ही तो होती है!”
गोपालन ऊब गया। उसने पूछा, “तो तुम मुझसे क्या चाहती हो?”
“पिताजी की उनसे लड़ाई थी, यह भी तुम शायद जानते हो। और मैं पिता के घर नहीं जाती, यह भी तुम्हें शायद मालूम है। मालूम है न?”
गोपालन ने सिर हिला दिया।
“आज उनकी मौत पर मेरे पिता ने हर्ष मनाया है! सारा समाज उनकी ओर है, क्योंकि उनके पास पैसा है!”
“पैसा तो तुम्हारे पास भी है!” गोपालन ने व्यंग्य से कहा।
“कहाँ! जब था, तब था! अब तो नहीं है!”
“क्यों? सब क्या हो गया?”
“शराब मुफ्त तो मिलती नहीं?” और वह फिर हँसी। गोपालन अचरज भरी आँखों से देखता रहा।
वह फिर बोली, “तुम्हारे धर्म में पिता पुत्री का शत्रु होकर भी धार्मिक ही रहता है! लेकिन मैं भी सिर नहीं झुकाऊँगी! देखते हो, जो गहने पहनी हूँ! बेच दूँगी इन्हें। पति का क्रिया-कर्म तो करना ही होगा। नहीं मानती न सही; नहीं जानती, न सही! किंतु मनुष्य मरकर प्रेत नहीं होता, यह भी तो नहीं जानती! पुरखे जो कुछ करते आए हैं, उसे कर देना भी जो जरूरी है, आयंगार? और फिर एक जमींदार का क्रिया-कर्म भी तो उसकी प्रतिष्ठा के अनुकूल और अनुरूप ही होना चाहिए न?” वह रुक गई, जैसे श्वास लेने के लिए।
“तो तुम तैयार हो?” दो क्षण निस्तब्ध रहने के बाद उसने कहा, “ब्राह्मण आते नहीं। मैं तो कहीं आ-जा नहीं सकती। तुम अपने ऊपर क्रिया-कर्म करा देने की जिम्मेदारी लेते हो?”
गोपालन चुप रहा।
“नहीं होता साहस?” उसने पूछा, “यदि तुम्हारा धर्म एक बात आवश्यक करके उसका साधन केवल रिश्वत के बल पर दिला सकता है, तो मैं कुछ नहीं कहती! क्रिया-कर्म न होगा, तो न हो! तब मेरा सुहाग भी समाप्त न होगा। जब तक वे प्रेत हैं, तब तक मैं विधवा नहीं हूँ। मैं ऐसे ही शृंगार करती रहूँगी। तब एक दिन लाचार होकर तुम ब्राह्मणों को शायद मेरी हत्या करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रह जाएगा!”
गोपालन के हृदय को जैसे किसी ने जोर से नोंच लिया। प्रेत की पत्नी! कौन? कोमल! नहीं, नहीं, यह अत्याचार नहीं हो सकता! उसने सिर उठाकर दृढ़ स्वर में कहा, “जाओ, लौट जाओ! मैं आऊँगा तुम्हारे सुहाग का अंत करने! जिस धर्म ने ब्राह्मण को सब कुछ बनाया है, उसी ने ब्राह्मण का सबसे बड़ा अपराध धर्म के काम न आना भी कहा है! तुम्हारा पति पापी था। मैं उसकी आत्मा को न केवल प्रेतयोनि से छुड़ाऊँगा, बल्कि उसे पवित्र भी करूँगा। युग-युग के अंधकार में वह नहीं भटकेगा। उसकी प्यास बुझेगी, उसकी भूख मिटेगी। और तुम्हारे सौभाग्य का कुमकुम मिटाकर मैं तुम्हें भी पवित्र कर दूँगा। तुम्हारी यातना को मैं मंत्रों से केवल समाप्त ही नहीं करूँगा, वरन् एकादश के दिन स्वयं प्रेत का यमभोज करूँगा, और वह सीधा स्वर्ग चला जाएगा,” कहकर गोपालन ने उसकी ओर इस तरह देखा, जैसे आशा कर रहा हो कि वह कृतज्ञता से नतमस्तक हो जाएगी, क्योंकि एकादश का यमभोज अग्नि की भेंट किया जाता है, और परम्परा का विश्वास है कि पवित्र वैदिक रीति से चलनेवाला ब्राह्मण उसे खाकर अधिक जीवित नहीं रहता।
किंतु कोमल अप्रभावित-सी खड़ी थी। उसने सिर हिलाकर कहा, “वह सब तो नहीं होगा आयंगार! जो खाली हो गया है, वह तो कभी भी नहीं भर सकेगा। हाँ, क्रिया-कर्म अवश्य हो जाएगा। मैं कृतज्ञ होऊँगी!”
गोपालन किंकर्त्तव्यविमूढ़-सा हो गया। वह क्या कहे?
तभी कोमल ने मुड़कर कहा, “तो आयंगार, कल नवाँ दिन है। कल ही से काम प्रारम्भ होगा।”
“तुम निश्चंत रहो?” गोपालन ने उत्तर दिया।
कोमल झुकी, और प्रणाम किया। उसकी आँखों से दो बूँद आँसू पृथ्वी पर टपक पड़े। उसने कहा, “जाती तो हूँ!…यह मैं जानती हूँ कि मेरे आने के पहले तुम मुझसे क्रुद्ध थे। अब तो नहीं हो?”
“नहीं!” गोपालन ने निर्विकार होकर कहा।
“तुम पूरे पत्थर हो! तुम्हारा हृदय शायद मेरे अत्याचारों के कारण अब बिलकुल निर्जीव-सा हो गया है?”
“नहीं!” गोपालन ने कहकर मुँह फेर लिया। फिर उसने एक क्षण रुककर कहा, “यह गर्व लेकर न जाना कि तुमने मुझे मूर्ख बना दिया है। जो कुछ मैं कर रहा हूँ, वह केवल इसलिए कर रहा हूँ कि ब्राह्मण होने के कारण लाचार हूँ! मैं तुम पर कोई भी एहसान नहीं कर रहा हूँ! और न मैं तुम्हें प्यार करता हूँ!”
कोमल हँस दी। उसके होठों पर एक तरलता सिहर उठी। उसने स्नेह भरे स्वर में कहा, “बालक!”
जब वह चली गयी, तो गोपालन काम में लग गया।
दूसरे ही दिन धूम-धाम से क्रिया-कर्म प्रारम्भ हो गया। पहले तो ब्राह्मण हिचक रहे थे, अब वे अपने-आप आने लगे। गोपालन ने अपने हाथ से कोमल के गहने बेचकर उसके सामने रुपए रख दिए। काम चल निकला। प्रारम्भ के सारे विघ्न राह से हट गए।
इन सबसे जो सबसे अधिक क्रुद्ध हुई, वह राजम थी। उसने पूछा, “क्यों, काफी मिलेगा?”
गोपालन ने उपेक्षा के भाव से कहा, ‘मौत का काम है, शादी का नहीं कि जिद करूँगा! जमींदार की विधवा जो दे देगी, ले लूँगा।”
“ओ हो! अब तो पूरे धर्मात्मा बन गए! यहाँ मुफ्त भर पेट खिलाती हूँ न बाप-बेटे को, इसी से दिमाग आसमान पर चढ़ा जा रहा है! अगर सौ रुपए लाकर मुझे न देना हो, तो यहाँ मुँह मत दिखाना! हयादार होगे, तो आप ही यहाँ लौटकर न आओगे! भली कही! रोज बड़े आदमी मरते हैं, न कि उनका भी काम मुफ्त किया जाए! देने को पैसे न हों, तो मान भी लिया जाए। जमीन तो छाती पर बाँधकर ले नहीं गया! अभी बहुत है। फिर अभी से क्यों फटी जा रही है उसकी छाती? मरे का परलोक सुधारने में भी पैसा खर्च न करेगी! कंजूस कहीं की!”
“भाभी!” पहली बार गोपालन ने कठोर प्रतिकार किया, “मैं कुत्ता नहीं हूँ! समझीं?”
“तो मैं भी गाय नहीं हूँ! समझे? बैल भी जब हल चलाते हैं, तब खाने को पाते हैं। और यहाँ बाप और बेटे दोनों की जुगाली सुनते-सुनते मेरे तो कान पक गए! मैं तो कहे देती हूँ…”
गोपालन से अधिक नहीं सुना गया। चिल्ला उठा, “भाभी! तेरा पाई-पाई चुका दूँगा! जब तूने खिलाया था, तब मैं छोटा था, नहीं तो कभी वह जहर न खाता! पिता वृद्ध हैं। तू जो अपना सुहाग लिए फिरती है, सो अपने पति को तूने नहीं खिलाया था। इस बूढ़े ने ही अपनी हड्डी निचोड़कर उसे खिलाया-पिलाया था! समझी?”
राजम अवाक् देखती रह गयी। गोपालन के चले जाने पर, उसने वृद्ध नयनाचारी को जा घेरा। कहा, “देवर, वेंकटरामन के एकाह (एकादश) में बैठने वाले हैं!”
“सो तो उसे करना ही चाहिए! ब्राह्मण का बेटा है न!” वृद्ध ने कहा। उनकी वाणी हमेशा नम्र रहती।
“और पैसा कुछ भी नहीं मिलेगा!” राजम ने उकसाया।
“न सही!” वृद्ध ने प्रसन्न होकर कहा, “किंतु धर्म का काम तो करना ही होगा। यदि पैसे के बल पर ही क्रिया-कर्म हो, तो मुझ जैसे गरीब का तो कभी न हो सकेगा!”
राजम लाचार हो गयी। वृद्ध के पीछे ही वह बड़बड़ाती थी। सामने कुछ कहने का साहस नहीं होता था। उसने अंतिम बाण मारा, “देवर ब्रह्मचारी हैं। क्या उसका एकाह में बैठना उचित होगा? यदि वह भी नहीं रहेगा तो फिर वंश कैसे चलेगा? कौन देगा हम सबको पानी?”
वृद्ध चौंक उठा। उसने सोचकर कहा, “तो उस मूर्ख से किसने कहा कि वह एकाह में भोजन करे? किसने कहा उससे? बाप के रहते बेटा बैठ जाए, ऐसा तो कभी नहीं सुना! मैं बैठूँगा! घबरा मत! तेरे देवर का बाल भी बाँका न होगा! न जाने मुझे कौन कहता था कि अब समय आ गया! सचमुच समय आ गया!” और वृद्ध गम्भीर हो गया।
दिन बीत गया। साँझ बीत गयी। रात हो गयी। वृद्ध वैसे ही चिंता में मग्न-सा बैठा रहा, जैसे अपने लम्बे रास्ते को मुड़कर देख रहा हो, और अपने पिछले प्रत्येक कर्म को याद कर रहा हो, जैसे उसे उन पुराने पथों से मोह हो गया हो जो अब उसे सदा के लिए छोड़ देने होंगे। वह नहीं रहेगा, नहीं रहेगा, और दुनिया फिर भी चलती जाएगी, चलती जाएगी। किंतु फिर भी उसे दुःख नहीं था, डर नहीं था। जैसे जीवन को उसने स्वीकार किया था, वैसे ही मृत्यु को भी वह चुपचाप स्वीकार कर लेगा। सारा जीवन एक खेल-सा लग रहा था, कल तक सबके केंद्र वही थे, और कल जब वे नहीं रहेंगे, तो बेटा छाती पर पत्थर रखकर रो लेगा। और क्या करेगा बेचारा? सदा के लिए सब काम तो रुकेंगे नहीं। किंतु इसके लिए क्या दुःख? यह परम्परा तो ऐसी ही चलती जाएगी। पिता पुत्र का संसार बनाए, और पुत्र पिता का परलोक बनाए। इसीलिए तो इतने स्नेह, इतनी भक्ति सृष्टि हुई है। एकाह में बैठना होगा। ब्राह्मण होकर केवल धन के लिए मरे, तो वह कुत्ते से भी बदतर! आज ब्राह्मण जो लोलुपता दिखा रहे हैं, इसी कारण तो उनका मान हीं रहा। अब बड्डन (भंगी) भी राहों पर आते समय आवाज देकर हट नहीं जाते। फिर मन में विचार आया, ‘क्या वे मनुष्य नहीं हैं? क्या अब उनकी छाया लगने से भगवान अस्पृश्य हो जाएँगे? नहीं!’ मृत्यु की महान समता के उच्च आदर्श के प्रकाश में वृद्ध ने उस जड़वाद को दुतकार दिया।
कल गोपालन याद करेगा कि वृद्ध यहाँ बैठता था, पूजा करता था। और बैठकर घंटों सोचेगा, घबराएगा। किंतु होते-होते सब ठीक हो जाएगा। समय अपने आप ठीक कर लेगा। वृद्ध का हृदय अतीव स्नेह से एक बार विह्वल हो गया। मृत्यु आकर सब कुछ समाप्त कर देगी। औैर पागल बेटा उस मिट्टी को चिता पर रखते समय रोएगा।
मृत्यु! वृद्ध के मुँह से वेद के महामृत्युंजय मंत्र के शब्द फूट निकले ‘त्र्यम्बकं…’ जैसे आज वह अनेक शक्तियों से पूर्ण महारुद्र त्र्यम्बक का, आवाहन यम को क्षणभर रोकने के लिए, कर रहा हो।
और जो कुछ अभी तक हुआ है, कल ऐसे लगने लगेगा जैसे कभी नहीं हुआ। राख को बहाकर जब पुत्र लौटेगा, तब संसार में नयनाचारी नाम का कोई चिह्न तक नहीं रहेगा। आज तक जिस सबको अपना समझा था, वह सब पराया हो जाएगा। सब पीछे छूट जाएगा, सब रह जाएगा। किंतु केवल वही नहीं रहेगा, ‘कल मैं ही एकाह में बैठूंगा!’ और वृद्ध वैसे ही बैठा रहा। जैसे आज जीवन मृत्यु का महान आवाहन कर रहा हो।
राजम स्तम्भित-सी, डरी-सी सोच-विचार में पड़ गयी, ‘यह बूढ़ा क्या करने वाला है? क्या सचमुच वह जाकर एकाह में बैठ जाएगा? एकाह का भोजन वे अग्नि की भेंट क्यों नहीं कर देते? किंतु उनकी बला से! जब एक मूर्ख ब्राह्मण मिल रहा है, तो अग्नि में क्यों डालें? और दक्षिणा के नाम पर दिखा देंगे सींग! कुछ नहीं! कौन देता है सिधाई से?’ और वृद्ध नयनाचारी और गोपालन के प्रति उसके मन में ममता जाग उठी, ‘कुछ भी हो, अपने तो ये ही हैं! ईश्वर की इच्छा! जो होना होगा, वह तो होगा ही।’
एकाएक वह ब्राह्मण जाति को मन ही मन तिरस्कार से गाली दे बैठी। किंतु फिर ध्यान आया कि वह ब्राह्मण की ही महिमा थी कि वे जान गए कि मरने पर आदमी प्रेत होता है, और…वह डर गयी, और प्रायश्चित्त के रूप में भगवान के समक्ष सिर झुकाकर हाथ जोड़ दिये।
…वह चुपचाप देखती, गोपालन व्यस्त रहता। ब्राह्मणों को कोमल उसी की राय लेकर दक्षिणा देती। सब काम वही करता। कोई-कोई स्त्री उसकी ओर संदेहपूर्ण दृष्टि से देखती कि इसे इस सबमें इतनी दिलचस्पी क्यों है। किंतु वह शोक का काम था, इसीलिए उसकी चर्चा चल न पाती, वर्ना वहाँ कोई ऐसा न था, जो कोमल और गोपालन के सम्बंध के अनौचित्य की सम्भवता पर विचार करना पसंद न करता हो।
उन दोनों के सम्बंध के विषय में संदेह लोगों को बहुत पहले से ही था। अब संदेह सत्य-सा लगने लगा।
राजम को क्रोध आया, ‘तभी सब काम मुफ्त किए जा रहे हैं! रांड़ से लगाव जो हो गया है! देखा तो, ऊपर से कैसा चिकना बादाम लगता था! मगर अंदर की किसे खबर थी?’
ग्यारहवाँ दिन अपनी पूरी भयंकरता के साथ सिर पर आ गया। जब कोमल को देखकर स्त्रियाँ इधर-उधर से आ-आकर छाती पीटकर रोने लगीं तब वाद्यार (पुरोहित) ने अग्नि में आहुति दी। खाना केले के पत्ते पर परोस दिया गया। कोमल चुप खड़ी रही। उसकी आँखों में एक भी बूँद आँसू नहीं थे, बल्कि एक गर्व था कि देखो, किसी के किए कुछ न हुआ, क्रिया-कर्म हुआ और हो रहा है।
वाद्यार और अनेक ब्राह्मणों ने मंत्र पढ़ने शुरू किए। ‘प्रेत’ शब्द साक्षात कराल प्रेत बनकर आग से उठते धुएँ को झकझोर गया। वाद्यार ने एकाएक पूछा, “एकाह में कौन-कौन बैठेगा?”
ब्राह्मण एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। किसी को नहीं मालूम था कि दक्षिणा क्या मिलेगा। व्यर्थ कौन मौत सिर पर मोल लेता? शठकोपन ने बैठे-बैठे ही कहा, “अग्नि को होम करो बृहस्पति!”
“नहीं!” गोपालन ने आगे बढ़कर कहा, “मैं बैठूँगा!”
सबने अचरज से उसकी ओर देखा। वाद्यार रुककर बोला, “तुम्हारा नाम?”
उसी समय गोपालन ने विस्मय से देखा, एक वृद्ध ने पीछे से कहा, “नयनाचारी!”
वाद्यार ने पूछा, “पिता का नाम?”
“विजयराघवाचारी!” उसके मुख पर एक मुस्कराहट फैल गयी।
गोपालन चिल्ला उठा, “पिताजी, यह आपने क्या किया?”
वाद्यार तब तक नयनाचारी पर यम का आवाहन कर चुका था। गोपालन का हृदय भर आया। वह बोला, “किंतु, पिताजी, आप मर जाएँगे! क्या आप नहीं जानते कि पवित्र आचरण रखनेवाला ब्राह्मण इसके बाद अधिक दिन तक जीवित नहीं रहता?”
वृद्ध ने मुस्कराकर कहा, “श्रीनिवास ने स्वप्न में जो कह दिया है, वह क्या झूठ होगा? जा, राजम तेरा विवाह करा देगी। इसके बाद मुझे पितृ-ऋण से मुक्त कर देना।”
किंतु गोपालन नहीं हटा। वृद्ध ने धक्का देकर उसे हटा दिया। और खाने बैठ गया।
वाद्यार मंत्र पढ़ता रहा। कभी-कभी अन्य ब्राह्मण भी स्वर में स्वर मिलाते। उनके गम्भीर शब्द से अग्नि थरथराने लगी, धुआँ चारों और फैल गया, और प्रेत की अनंत यात्रा सजीव होकर आँखों के सामने नाच गयी।
जब वृद्ध खाकर उठा, तो वह मुस्करा रहा था। वाद्यार ने दक्षिणा देने को जब हाथ उठाया, तो वृद्ध ने अंजली लेकर सब ब्राह्मणों को बाँटने का इशारा किया। प्रेतत्व धन पर हट गया। पच्चीस रुपए ब्राह्मणों में बँट गये।
वृद्ध चला गया। क्रिया-कर्म सम्पन्न हो गया। घर-घर नयनाचारी की तारीफ होने लगी! किंतु राजम ने गोपालन और कोमल की बदनामी करनी शुरू कर दी।
वृद्ध घर पहुँचते ही शय्या पर जा लेटा, और जाने क्यों इतना अशक्त हो गया कि उठ नहीं सका। तीसरे दिन जब राजम, गोपालन घर पर नहीं थे, हाथ-पैर फेंककर वह अपने विश्वासों पर बलि हो गया, मर गया।
घर आकर राजम और गोपालन ने देखा, और रो-धोकर उसका दाह कर दिया। किंतु क्रिया-कर्म के लिए रुपए नहीं थे।
गोपालन कोमल के सामने उपस्थित हुआ।
“सुना आयंगार! बहुत दुःख हुआ!” कोमल ने कहा, “तुम्हारे पिता मनुष्य नहीं देवता थे!” और बिना माँगे ही सौ रुपए निकाल कर दे दिए।
गोपालन रो दिया।
कोमल ने कहा, “आयंगार, एक बात कहूँ? बुरा तो नहीं मानोगे?”
“नहीं।” गोपाल ने उसकी ओर देखते हुए कहा।
“जानते हो, दुनिया हमें बदनाम कर रही है?”
“मालूम है!” गोपालन ने छोटा-सा उत्तर दिया।
“डरते तो नहीं?” उसने फिर पूछा।
“नहीं! डरूँ क्यों? क्या हममें अनुचित सम्बंध है!”
“अनुचित सम्बंध तो है, आयंगार! उसे तुम यों नहीं मिटा सकते!” कोमल ने उसके चेहरे पर आँखें गड़ाकर कहा।
“क्या कह रही हो?” गोपालन का स्वर काँप गया।
“क्यों?” कोमल ने कहा, “सम्बंध क्या शारीरिक होने से ही अनुचित होता है, मानसिक होने से नहीं?”
“वह तो केवल धारणमात्र होती है,” उसने सकपकाकर कहा।
कोमल हँस पड़ी। उसने सिर हिलाकर कहा, “तो तुम्हारा प्रेम, उन्माद, पागलपन, सब केवल एक साधारण धारणा थी, जो आयी और चली गयी, फिर जान देने पर क्यों तुले थे?”
गोपालन लजा गया। कोमल ने ही फिर कहा, “हम बदनाम तो हो ही गए! अब और किसी पर तो मैं विश्वास नहीं कर सकती। तुम्हारा ही भरोसा है। तुम्हीं जमींदारी का काम सँभालो। जानते हो, मैं औरत हूँ। सब काम अकेले नहीं कर सकती।”
गोपालन चुप रहा। अर्थात उसने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
राजम को चैन न आना था, न आया। पहले गोपालन रोटियों के लिए उसका मोहताज था, पर अब नहीं रहा। जमींदारी का इंतजाम करता, और बड़ी खूबी से करता। सारा रुपया कोमल को दे देता। वह जो देती, ले लेता। बात पलट गयी। पहले वह रोटियों को तरसता था, अब वह राजम को उल्टे रुपया देता। पहले राजम के दस काम करता था, अब राजम अकेली पड़ गयी। इसी से जब कोई अधिकार जताने और लड़ने को नहीं रहा, तो वह व्याकुल हो उठी। सुहागिन वह अब भी थी, किंतु कुमकुम लगाकर क्या पत्थरों पर सिर पटकती? वृद्ध जहाँ-जहाँ बैठता था, वहाँ-वहाँ उसे बैठकर एक विश्रांति की सांत्वना-सी मिलती है। वृद्ध की मृत्यु का एक मात्र कारण गोपालन को समझकर वह और भी उसके विरुद्ध हो गयी। ढल चली थी, मगर अभी बूढ़ी तो नहीं हुई थी। धीरे-धीरे उसको इस बात से संतोष होने लगा कि कोमल और गोपालन के सम्बंध की बात घर-घर चल रही थी। सब उस पाप को रोकना चाहते थे, किंतु कोई सिलसिले का छोर हाथ में नहीं आता था कि पकड़कर खींच लें, और सारा पर्दा सर से खुल जाए।
कोमल ने गोपालन को देखा, और चिंतित स्वर में बोल उठी, “सुना, आयंगार? अब तो रहना भी कठिन होता जा रहा है! ऐसे कब तक चलेगा?”
गोपालन ने पानों पर चूना लगाते हुए कहा, “तुममें तो साहस था न? फिर डरती क्यों हो?” कहते हुए उसने सुपारी मुँह में डालकर आठो पानों को मुँह में भर लिया, और चबाने लगा।
कोमल कुछ देर तक चुप खड़ी रही। फिर बोल उठी, “डरती हूँ! सच, आयंगार, मैं अपने मन से डरती हूँ।” वह हठात् चली गयी।
गोपालन के हृदय में एक कील-सी चुभ गयी।
साँझ बीत गयी। दीपक जलने लगे। उनके धूमिल प्रकाश में गोपालन ने देखा, कोमल चुपचाप खड़ी थी! वह उसके पास चला गया।
कोमल उसे देखकर सिहर उठी। कुछ देर चुप रहकर उसने कहा, “मैंने तुम्हें बहुत दुःख दिया है! क्यों?”
गोपालन ने सिर हिलाकर अस्वीकार किया। फिर मुँह खोला, और बंद कर लिया।
“कुछ कहना चाहते थे? कहते क्यों नहीं? मैं क्या तुमसे कुछ कहती हूँ? तुम्हारी ही दया से तो सब काम ठीक तरह चल रहे हैं!” कहने को तो कह गयी, पर फिर नीचे का होठ दाँत से काट लिया।
गोपालन ने वह सब नहीं देखा। वह बोला, “दया तो तुम्हारी है, कोमलम्मा! तुम्हारे पास रहकर मुझे जितना सुख मिलता है, उतना और कहीं भी नहीं मिलता।”
“क्यों?” उसने उसे और उकसाया।
“तुम मुझे बड़ी अच्छी लगती हो!” गोपालन ने कहा, “सच बहुत अच्छी लगती हो!”
देखा, वैधव्य में भी वह वैसी ही सुंदर थी, और उसकी मादकता अब भी धीरे-धीरे उस पर रेंग रही थी। गोपालन का हृदय आतुर हो उठा। धुँधला प्रकाश एक नशा-सा दे रहा था। दोनों आँखें खोलकर एक-दूसरे को ऐसे देखते रहे, जैसे चार दीपक और जल उठे हों! गोपालन ने आंदोलित होकर कोमल का हाथ पकड़ लिया। कोमल ने बेसुध-सी होकर आँखें मूँद लीं। किंतु सहसा वह हाथ झटककर खड़ी हो गयी।
गोपालन चौंककर पीछे हट गया। कोमल की आँखों में क्रोध की भीषण ज्वाला धधक रही थी। वह ठठाकर हँस पड़ी। गोपालन भय से काँप उठा।
कोमल ने उसकी ओर उंगली उठाकर कहा, “तुम! तुम एक स्त्री को अकेला जानकर उसका आपमान करना चाहते थे? तुम एक विधवा को अपवित्र करना चाहते थे? तुम कहोगे शरीर से क्या होता है? किंतु मन? मन भी तो तुम्हारा साँप जैसा काला और विषैला है! तुम, जिसे मैंने दया करके इतने दिन खिलाया, मेरी जड़ काटने पर उतारू हो गए! पापी!”
गोपालन जड़ हो गया। चेहरे पर काला रंग पुत गया।
किंतु कोमल चुप नहीं हुई। वह बोलती ही गयी, “घर पर तुम कुत्तों की तरह भाभी की दया पर पड़े थे। एक दिन तुमने मेरी ओर हाथ बढ़ाया था, किंतु मैंने तुम्हें फिर भी अपना स्नेह दिया! और अंत में तुमने यह चाहा कि मैं कहीं की भी न रहूं!”
गोपालन का कंठ अवरुद्ध हो गया। वह कुछ भी नहीं कह सका।
कोमल उसके पास आ गयी। उसकी आँखों में आँसू थे। उसने रोते-रोते उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, “मैं जानती हूँ, आयंगार। समुद्रतीर का बालू पानी सोखती नहीं, तो क्या भीगने से बचा रहता है? तुमने मेरे पीछे ही सब कुछ त्याग दिया! नाम भी छोड़ दिया! मैं जानती हूँ, तुम्हारे मन में मेरे लिए अटूट, अक्षय स्नेह है। एक काम करोगे?”
गोपालन पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ा रहा।
कोमल ने फिर कहा, “जाओ, गोपालन! आज मैंने पहली बार तुम्हारा नाम लेकर पुकारा है! सदा के लिए इस देश से चले जाओ! कौन है तुम्हारा यहाँ, जिसके लिए रहना चाहते हो? आग और फूस साथ नहीं रह सकते गोपालन! मुझे डर है कि मैं इस अग्नि में भस्म हो जाऊँगी। मैं तुमसे भीख माँगती हूँ, मुझे अकेली तड़पने दो, जाओ! कहीं सुदूर चले जाओ। विवाह करके सुखी जीवन बिताओ!…जाओगे?”
गोपालन ने सिर हिलाकर स्वीकार कर लिया। वह निश्चल खड़ा रहा।
कोमल ने कमर से नोटों की एक गड्डी निकालकर कहा, “यह लो, गोपालन! ले लो इसे!”
किंतु गोपालन ने नोटों को नहीं छुआ। वह द्वार की ओर चलने लगा।
कोमल ने हठ करते हुए कहा, “लेते जाओ इन्हें, नहीं तो दर-दर भटकोगे!…ब्राह्मण के बेटे को भीख लेने में लाज क्यों?”
गोपालन ने फिर भी उत्तर नहीं दिया। वह बढ़ता ही गया।
कोमल ने फिर कहा, “भूखों मर जाओगे! यहीं कौन मालिक थे, जो इतनी अकड़ दिखा रहे हो? मुझ पर एहसान रहने दो! तुम दरिद्र हो…”
किंतु गोपालन चला गया।
कोमल ने कुछ देर इधर-उधर देखा, और फिर फूट-फूटकर रो उठी।
अनेक वर्ष बीत गए थे। उसका हृदय अब भी अपमान से तड़प उठता था।
गोपालन ने आँखें खोलकर देखा। वही प्राचीन अंधकार अब भी छा रहा था। वह उठा, और छत पर घूमने लगा। सामने ही कुआँ था नीरव। पेड़ भी निस्तब्ध थे। दूर किसी प्राचीनकाल का वह ऐतिहासिक खंडहर भी मौन था। चारों ओर भयानक नीरवता थी।
“कहाँ है जीवन की ममता का उन्माद?” हृदय अहंकार से पूछ बैठा।
दूर कहीं फुलवाड़ी के किसी पेड़ पर बैठा उल्लू हँस उठा; एक डरावनी हँसी, जो उस प्राचीन मंदिर की ईंटों से टकरा गयी।
और गोपालन विक्षुब्ध-सा देखता रहा अविश्वास के कगारों पर खड़ा, अपनी ही यंत्रणा में घुटा-सा, चुपचाप।
अब वह परदेस में है। कहीं कोई उसका नहीं। जीवन यंत्र सा चलता जा रहा है। इसके अतिरिक्त और चारा भी नहीं।