कहानी: पैकेज डील – सुमन बाजपेयी

कहानी: पैकेज डील - सुमन बाजपेयी

“मुझे बच्चा नहीं चाहिए, इन फैक्ट आई डोंट हैव ए मदर इंस्टिक्ट… कभी हुई तो वी कैन प्लान,” मनसा ने अपने मुंह से च्यूंइगम निकाली और टिश्यू पेपर पर रख उसे कोने में रखे मिकी माउस के डस्टबिन में फेंक दिया। जितनी सहजता से उसने यह बात कही थी, वह उसके लिए मानो उसी चबाई हुई च्यूंइगम को मुँह से निकालकर फेंकने जैसा ही सहज था। या शायद उससे भी कहीं ज्यादा आसान और सहज, क्योंकि उसने इस बात को कहने से पहले पल भर भी उसे चबाया तक नहीं था। फटाक से बिना भूमिका बाँधे, या ढेर सारे तर्कों का पिटारा खोले, बस कह दिया था। च्यूंइगम को तो पहले बेरहमी से चबाया जाता है और कुछ मिनटों बाद स्वाद बिगड़ने पर उसे फेंक दिया जाता है… बस इतना ही साथ होता है च्यूंइगम का मुँह के साथ।

च्यूंइगम और जिंदगी से जुड़ी इतनी अहम बात, दोनों में तारतम्य कैसे हो सकता है? पर मनसा के संदर्भ में वह यह बात कह सकता है।

सुबोध ठिठका पल भर को। कनॉट प्लेस के गलियारे में दोनों घूमने निकले थे। यूँ ही बेवजह… कनॉट प्लेस के चक्कर लगाना मनसा को बहुत पसंद है और सुबोध को उसका साथ देना ही पड़ता है, विंडो शॉपिंग भी करनी पड़ती है और डी पॉल्स की कॉफी भी पीनी पड़ती है। जनपथ से मनसा ऑक्सीडाइज्ड ईयररिंग्स न खरीदे, ऐसा विरले ही होता है। साड़ी पहने या सूट या टाइट जींस के साथ टीशर्ट, ऑक्सीडाइज्ड ईयररिंग्स कानों में अवश्य लटकाती है।

“यू नो, इन्हें पहने से एक एथनिक लुक आता है।” एमबीए करने के बाद, एक कम्पनी में बतौर मैनेजमेंट कंसल्टेंट काम कर रही मनसा का ‘एथनिक लुक’ बहुत अपीलिंग लगता है और बरसों से वह इसे एक ट्रेंड की तरह चला रही है।

लेकिन मनसा रुकी नहीं थी, इसीलिए उसने भी तेज कदम बढ़ाए और उसके साथ चलने लगा। ‘कुछ कहे… पर क्या?’ एक कंकड़ जब झील में फेंकते हैं तो वह जहाँ गिरता है, वहाँ तो लहर उठती ही है, लेकिन फिर लहर फैलती जाती है। दूर-दूर किनारों तक लहरें ही लहरें होती चली जाती हैं। उसके भीतर भी उस समय लहरें उठ रही थीं, कंकड़ बहुत जोर से फेंका था मनसा ने। हैरानी की बात थी कि उसने यह जानने की कोशिश भी नहीं की थी कि उसका रिएक्शन क्या है? दो लोग जब साथ जिंदगी गुजारने वाले हों तो दोनों का निर्णय में सहमति होना भी तो जरूरी है… लेकिन मनसा ने तो अपना फैसला सुना दिया था। मानो या ना मानो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता…

“इतना दिमाग पर बोझ मत डालो, वरना दिल प्यार से नहीं शॉक से धक-धक करने की अपनी स्पीड बढ़ा देगा।” मनसा जोर से हँसने लगी थी। उसका खुलकर हँसना जो अभी कुछ मिनट पहले तक उसे तरंगित कर रहा था, इस समय जोर-जोर से बजते बाजार के बीचों-बीच ऊँचे लगे किसी घंटे जैसा लगा… टन टन टन… रोको, रोको, वरना उसका सिर फट जाएगा।

“यू नो सुबोध, मैरिज एक पैकेज डील की तरह होती है। उसमें सब कुछ नहीं मिलता… कोई चीज बहुत ज्यादा मिल जाती है, तो कहीं नुकसान उठाना पड़ता है। कहीं लड़का अच्छा लगता है तो उसके माँ-बाप पसंद नहीं आते। माँ-बाप अच्छे हैं, पर लड़के की नौकरी पसंद नहीं है। लड़की बढ़िया कमाती है, पर सुंदर नहीं है। लड़का-लड़की, माँ बाप सब खरे उतरे किसी के मानदंडों पर तो लड़की अड़ गयी कि शादी के बाद लड़का उसी के घर में रहे क्योंकि वह अपने माँ-बाप की इकलौती संतान है और उन्हें अकेले छोड़ना नहीं चाहती है।”

मनसा चलते-चलते अचानक रुक गयी। उसने एक और च्यूंइगम निकाली और मुँह में डाल ली। जींस से कुछ हटाने को झुकी, शायद धूल का कोई कण होगा, फिर सीधे होकर उसने अपने टॉप को ठीक किया। सुबोध को पता है कि उसे गंदगी से सख्त नफरत है। क्लीनीनेंस फ्रीक है… यानी पैकेज डील में उसकी सफाई की सनक भी उसके साथ गृह प्रवेश करेगी। उसके होंठों पर मुस्कान थिरकी अपनी ही सोच पर।

“एक कॉफी और हो जाए?” ‘कॉफी कैफे डे’ में अंदर जाते हुए उसने पूछा। जब अंदर कदम रख ही दिया है तो पूछने की जरूरत ही क्या है। पूछना नहीं बताना था। सुबोध के होंठों पर फिर मुस्कान आने को मचलने लगी। पर उसने होंठों पर ऐसे हाथ रख लिया मानो मुस्कान को चेता रहा हो, रुक जरा।

वैसे हैरान होने जैसी बात भी नहीं है। मनसा को जानता है… डेढ़ साल हो गया है दोनों की दोस्ती हुए और अब बात शादी पर पहुँच गयी है। ‘जानता ही है, या समझता भी है,’ किसी ने उसे टोका। भीतर की आवाज हमेशा उसे इसी तरह टोकती, कुरेदती है…जब जवाब ढूँढ रहा होता है या उधेड़बुन में होता है, खासकर जब सवाल मनसा से जुड़े होते हैं। आदतन उसके हाथ कान को सहलाने लगे।

“तुम बच्चा नहीं चाहतीं, यह हमारी मैरिज की पैकेज डील है?” उसने बैठते हुए पूछा।

मनसा ने सुना, उसे किसी निरीक्षक की आँखों से देखा, कुछ तौला, कुछ नापा, फिर ऑर्डर देने लगी।

“डार्क ब्लू और चॉकलेट कलर तुम पर खूब फबते हैं। एकदम बैलेंस कॉम्प्लेक्शन है तुम्हारा, न ज्यादा गोरे, न ज्यादा साँवले…एक गुनगुना-सा रंग पाया है तुमने। पंजाबी तो कतई नहीं लगते हो।” उसकी ब्लू टीशर्ट को अपनी एकदम काली और घनी पलकों वाली आँखों से आँखों में भरते चंचलता से बोली मनसा।

बात क्या चल रही होती और मनसा किसी और पड़ाव पर अचानक पहुँच जाती है। सायास या वह ऐसी ही है, कभी-कभी उसके ऐसा करने से चलती बहस का रुख ही मुड़ जाता है और बिगड़ती बात और बिगड़ने से बच जाती है। उसके ऑफिस में लोग उसकी इस बात के मुरीद हैं। उसकी कलीग और बेस्ट फ्रेंड ने सुबोध को बताया था जब इन दोनों को अपनी इंगेजमेंट पार्टी दी थी अपने-अपने दोस्तों और कलीग्स को। घर में जो फंक्शन हुआ था, उसमें भी वे सब आए थे, पर वहीं अड़ गए थे कि बिना दारू पिए वे मानने वाले नहीं हैं। हालाँकि दारू उन्होंने तब भी सर्व की थी, लेकिन सुबोध और मनसा के पेरेंट्स के सामने बिलकुल सूफी बने रहने का दिखावा करते हुए कमबख्तों ने हाथ तक नहीं लगाया था उसे और इसी बहाने अलग से पार्टी लेने के लिए हल्ला मचा दिया था। ‘एकदम हरामी हैं साले!’ पल भर को सुबोध को हँसी आ गयी। पर तब मजा भी तो किया था उन दोनों ने ही बहुत…जाम के साथ दोनों के होंठ भी तो टकराते रहे थे और ‘कपल किस’ के नाम पर खूब छिछोरापन किया था सबने। होंठ पर तो नहीं, गालों पर खूब किस हुए थे उस दिन।

“कल ही छुटकी खरीद कर लायी थी। उसकी कम्पनी में अकसर सेल लगती है, ले आती है जब-तब।” सुबोध ने टीशर्ट की सॉफ्टनेस को महसूस करते हुए कहा।

“तुम्हारी फैमिली में सब की चॉइस बहुत अच्छी है,” मनसा ने कॉफी का सिप लेते हुए कहा, फिर टिश्यू पेपर से होंठ पोंछे। हर सिप के बाद होंठ पोंछती है… पता नहीं कैसे एंज्वॉय करती होगी खाने-पीने की चीजों को। चम्मच और छूरी के बिना इसका काम नहीं चलता और वह जब तक हाथ से खाना ना खाए और उंगलियाँ ना चाटे उसे मजा नहीं आता। कॉफी कैफे डे में अच्छी खासी भीड़ थी। ज्यादातर कॉलेज के स्टूडेंट होते हैं या डेटिंग पर आए लड़का-लड़की या फिर लैपटॉप खोले काम करते एकदम स्मार्ट एक्जिक्यूटिव टाइप के पुरुष और स्त्रियाँ। बड़े-बुजुर्ग कम ही दिखते हैं।

“यही समझ लो,” मनसा ने टिश्यू पेपर से अपने चेहरे, होंठों और हाथों को पोंछा।

“क्या?” असली बात के बीच इतना लम्बा अंतराल होने के कारण पल भर को तो वह उसे भूल ही गया था।

“यही कि यह पैकेज डील का ही हिस्सा है। अब इतना कुछ तुम्हें मिल रहा है… वह भी सब परफेक्ट, तो इतनी सी कमी तो टॉलरेट कर ही कर सकते हो।”

“पेरेंट्स नहीं मानेंगे।” सुबोध हिचकिचाया। शोर बढ़ रहा था इसलिए थोड़ा जोर से ही बोलना पड़ा।

“सुबोध कालरा, पंजाबी परिवार का इकलौता बेटा और इतनी बड़ी कम्पनी का सीईओ… पिता का लम्बा-चौड़ा व्यापार, माँ का ट्रेंडी बुटीक और छुटकी ब्रांडेड ड्रेसेस बनाने वाली इंटरनेशनल कम्पनी में मैनेजर…परफेक्ट फैमिली, उसमें किसी तरह की कमी की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए।” मनसा की आवाज में तल्खी थी, पर चेहरे पर एक भी शिकन नहीं थी। हमेशा की तरह कम्पोज्ड, शांत और रिएक्ट करने की कोई जल्दबाजी नहीं। ‘बात को आराम से करना चाहिए, चाहे समस्या कितनी भी बड़ी क्यों ना हो, उसे ठंडे दिमाग से सुलझाना चाहिए…’ ऐसे और न जाने कितने थॉट्स उसके ऑफिस के केबिन और बेडरूम में मिल जाएँगे। मोटिवेशन से जुड़ी किताबें पढ़ना और मोटिवेशनल स्पीकर्स के ऑडियो-वीडियो सुनना, देखना उसका समय बिताने का जरिया था। वह मोबाइल या सोशल मीडिया से चिपके रहने वाली लड़की नहीं थी। हर चीज से अपडेट रहती थी, पर अपना स्टेट्स फेसबुक पर अपडेट नहीं करती थी, ना ही इंस्टाग्राम पर टहलती रहती थी। इन सब चीजों को वह मुखौटा कहती थी और खुद की नाकामयाबियों से बचने का एक एक्सक्यूज। जिंदगी में उसके सारे फंडे क्लियर थे, इसलिए कोई दुविधा या ‘इफ्स एंड बट्स’ उसके आसपास भी नहीं फटकते थे।

सुबोध को पता था कि इस बार भी वह एकदम क्लियर है… यानी उसे बच्चा नहीं चाहिए…

‘अब?’ सुबोध ने खुद से पूछा। मनसा से पूछने का तो सवाल ही नहीं उठता था। वह अपना फैसला नहीं बदलेगी। अब उसे ही अपने आप से पूछना होगा या शायद मम्मी-पापा से? वे तो नहीं मानेंगे, इस बात का उसे पक्का यकीन था।

“चलें?” वह उठ खड़ी हुई। पेमेंट वह पहले ही कर चुकी थी। आज उसका टर्न है पेमेंट करने का, ऐसा उसने कहा था। “वही क्यों हर बार पैसे चुकाए,” मनसा का मानना था। कहा न उसकी जिंदगी के फंडे क्लियर हैं—‘नो इफ्स एंड बट्स।’ सबसे एकदम अलग…यही बात उसकी आज तक आकर्षित करती आयी थी और तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद, वह उसे अच्छी लगती थी, तभी तो जीवन साथी बनाने का फैसला किया था, पर इस समय…

मनसा की ओर उसने एक नजर डाली। कोई तनाव नहीं था, कोई उलझन नहीं थी। अपने को लेकर उसका कॉन्फिडेंस, निर्णय लेने की उसकी क्षमता ने सुबोध को हमेशा ही प्रभावित किया है। उसे बहुत समय लगता है। कोई निर्णय लेना हो तो वह गोल-गोल चक्कर काटता है और एक बड़ा-सा वृत बना लेता है, फिर उस घेरे में से निकलने की कोशिशें चलती रहती हैं। थक‑हार कर उसे किसी की मदद लेनी पड़ती है। ज्यादातर मम्मी की राय पर चलता है, पर जब से मनसा मिली है, वह उसे दुविधाओं में से निकालने में मदद करने लगी है। इस बार तो उसने ही दुविधा में फँसा दिया है।

वह उसे इस बारे में दुबारा सोचने के लिए कहे क्या… न… वह अपने निर्णय नहीं बदलेगी और उसने कहा तो कहेगी कभी लगा तो प्लान कर लेंगे। लेकिन कब? मम्मी तो शादी के एक साल बीतते-बीतते हल्ला मचा देंगी कि बच्चा आना चाहिए। अगर उनसे यह बात छुपाकर रखता है तो उनकी भावनाओं को छलना होगा और अगर मनसा की बात से सहमति जताता है तो मन से इस बात क स्वीकार न करने की पीड़ा में खुद को छलनी करता रहेगा और एक तरह से वह भी मनसा को छलना ही होगा।

मनसा पार्किंग की ओर बढ़ने लगी। दोनों की कार साथ-साथ ही खड़ी थीं। हमेशा की तरह दोनों एक दूसरे के गले लगे और निकल गए अपने-अपने रास्तों पर। दोनों के घर एकदम विपरीत दिशाओं में थे… सुबोध साउथ दिल्ली के एक पॉश इलाके में रहता था और मनसा नॉर्थ दिल्ली में सोसाइटी फ्लैट्स में। कार चलाते हुए भी सुबोध लगातार सोच रहा था। बेशक उसका परिवार आधुनिक है, सब पढ़े- लिखे हैं, पैसा भी खूब है, लेकिन पंजाबी कल्चर उनकी सोच में वैसे ही मिला हुआ है जैसे सब्जी में नमक का मिल जाना… निकालना एकदम असम्भव है।

मनसा पंजाबी नहीं है, यह सुनकर मम्मी-पापा दोनों ने एक साथ ही इस रिश्ते के लिए न कर दी थी। “देख बेटा, बेशक जमाना बदल गया है, और यह भी सच है कि जाति, धर्म, रंग-रूप, गुण, पैसा, कुछ भी देखकर प्यार नहीं होता और हम इतनी पुरानी सोच वाले भी नहीं हैं कि इन बातों को तूल दें, लेकिन हर किसी का अपना एक कल्चर होता है। ब्राह्मण लड़की, चाहे वह नौकरीपेशा है, आधुनिक ख्यालों की है और आत्मनिर्भर भी, हमारे घर आकर क्या नॉनवेज खा पाएगी? हमारी तरह बिंदास होकर रह पाएगी? उसे हमारा कल्चर शोर-शराबे और फूहड़ता से कम नहीं लगेगा।” मम्मी ने उसे बहुत तरीके से समझाया था।

“मम्मी, स्मार्ट लड़की है, इंडिपेंडेट है, कैसे एडजस्ट करना है वह भी बखूबी जानती है।” तब उसने घरवालों को मना लिया था। पर इस बार मनाना मुश्किल होगा। सच ही कहा था मनसा ने… पैकेज डील में सब कुछ नहीं मिलता। मनसा में लाख खूबियाँ हों, पर उसका यह निर्णय… सुबोध का लगा कि इस डील की कोई खास वर्थ नहीं है…अच्छा महसूस किया उसने अपने वृत्त से बाहर निकल कर।

समाप्त


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Author

  • सुमन बाजपेयी

    सुमन बाजपेयी पिछले तीन दशकों से ऊपर से साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय हैं। 'सखी' (दैनिक जागरण की पत्रिका ), मेरी संगिनी और 4th D वुमन में वो असोशीएट एडिटर रह चुकी हैं। चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट में उन्होंने सम्पादक के रूप में कार्य किया है। सम्पादक के रूप में उन्होंने कई प्रकाशकों के साथ कार्य किया है। अब स्वतंत्र लेखन और पत्रकारिता कर रही हैं। कहानियाँ, उपन्यास, यात्रा वृत्तान्त वह लिखती हैं। उनके बाल उपन्यास और बाल कथाएँ कई बार पुरस्कृत हुई हैं। वह अनुवाद भी करती हैं। सुमन बाजपेयी अब तक 150 से ऊपर पुस्तकों का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद कर चुकी हैं। हाल ही में प्रकाशित उनके उपन्यास 'द नागा स्टोरी ' और 'श्मशानवासी अघोरी' पाठकों के बीच में खासे चर्चित रहे हैं। उनके बाल उपन्यास तारा की अनोखी यात्रा, क्रिस्टल साम्राज्य, मंदिर का रहस्य बाल पाठकों द्वारा पसंद किये गए हैं।

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