कहानी: कलकत्ते में एक रात – आचार्य चतुरसेन शास्त्री

कहानी: कलकत्ते में एक रात - आचार्य चतुरसेन शास्त्री

कलकत्ता जाने का मेरा पहला ही मौका था। मैं संध्या-समय वहाँ पहुँचा, और हरीसन रोड पर एक होटल में ठहर गया। होटल में जो कमरा मेरे लिए ठीक किया गया, उसमें सब सामान ठिकाने लगा थोड़ी देर मैं सुस्ताया। फिर स्नान कर, चाय पी, कपड़े बदल एक नज़र शहर को देखने बाहर निकला।

बरसात के दिन थे। अभी कुछ देर पहले पानी पड़ चुका था। ठंडी हवा के झोंके मन को हरा कर रहे थे। चलने को तैयार होकर मैं कुछ क्षण तक तो होटल के बरांडे में खड़ा होकर बाजार की भीड़-भाड़, चहल-पहल देखने लगा। गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ, प्रशस्त सड़कें, उन पर पागल की भाँति धुन बाँधकर आते-जाते मनुष्यों की भीड़, मोटर, ट्राम-गाड़ी, यह सब देखकर मेरा दिल घबराने लगा। मैं खड़ा होकर सोचने लगा, ‘आखिर यहाँ मन में कैसे शांति उत्पन्न हो सकती है।’

अँधेरा हो गया था, परंतु बाज़ार बिजली से जगमगा रहा था। कहना चाहिए, बाज़ार की शोभा दिन की अपेक्षा रात ही को अधिक प्रतीत होती है। जो दुकानें अभी दिन के प्रकाश में सुस्त और अंधकारपूर्ण थीं, इस समय वे जगमगा रही थीं। ग्राहकों की भीड़-भाड़ के क्या कहने थे, किसी को पलक मारने की फुर्सत न थी।

कुछ देर बाज़ार की यह बहार देखकर मैं नीचे उतरा। होटल के नीचे ही एक पानवाले की बड़ी शानदार दुकान थी। दुकान छोटी थी, पर बिजली के तीन प्रकाश से जगमगा रही थी। सोडे की बोतलें, सिगरेट, पान सजे धरे थे। सोने के वर्क लगी गिलौरियाँ चाँदी की तश्तरी में रखी थीं। मैं दुकान पर जा खड़ा हुआ। एक चवन्नी थाल में फेंककर दो बीड़ा पान लगाने को कहा। दुकानदार पान बनाने लगा, और मैं सामने लगे कदे-आदम आईने में अपनी धज देखने लगा।

पान और रेज़गारी उसने मेरे हाथ में दिए। मैंने पान खाए, और एक दृष्टि हथेली पर धरे हुए पैसों पर डालकर उन्हें जेब में डालने का उपक्रम करता हुआ ज्योंही मैं दुकान से घूमा कि एक गौरवर्ण, सुन्दर, कोमल हाथ मेरे आगे बढ़कर फैल गया। मैं चलते-चलते ठिठककर ठहर गया। मैंने पहले उस हाथ को, फिर उस सुंदरी नवोढ़ा को ऊपर से नीचे तक देखा। वह सिर से पैर तक एक सफेद चादर लपेटे हुए थी। चादर कुछ मैली ज़रूर थी, परंतु भिखारियों जैसी नहीं। उसने अपना मुख भी चादर में छिपा रखा था। सिर्फ दो बड़ी-बड़ी आँखें चमक रही थीं। आँखें खूब चमकीली और काली थीं। उनके ऊपर खूब पतली, कोमल भौंहें और उनके ऊपर चाँदी के समान उज्ज्वल, साफ, चिकना ललाट। चिकने और घूँघरवाले बालों की एकाध लट उसपर खेल रही थी। यद्यपि एक प्रकार के भद्दे ढंग से अपने शरीर को उस साधारण चादर में लपेट रखा था, परंतु उसमें से उसकी सुडौल देहयष्टि और उत्फुल्ल यौवन फूटा पड़ता था। उसके मुख के शेष भाग को देखने का उपाय न था। परंतु उसपर दृष्टि डालते ही उसे देखने की प्यास आँखों में पैदा हो जाती थी।

मैंने क्षण-भर ही में उसे देख लिया। उसने मुझसे कुछ कहा नहीं। वह एक हाथ से अपनी चादर को शरीर से ठीक-ठीक लपेटे दूसरा हाथ मेरे आगे पसारकर खड़ी रही। उसकी दृष्टि में भीख की याचना थी, और एक गहरी करुणा भी। वह मानो कोई भेद छिपाए फिर रही थी। मैं एकाएक पागल-सा हो गया, कुछ कह न सका। मैंने हाथ के कुल पैसे उसे दे दिए।

पैसे पाकर उसने उन्हें बिना ही देखे मुट्ठी में भर लिया। फिर उसने एक विचित्र दृष्टि से मेरी ओर देखा। वह धीरे-धीरे वहाँ से खिसककर, सड़क के दूसरे छोर पर एक खम्भे के सहारे खड़ी हो मेरी ओर देखने लगी।

मुझे मालूम हुआ, वह मुझसे कुछ कहना चाहती है। मेरे मन में कुछ विचित्र गुदगुदी-सी पैदा होने लगी। बड़े नगर के विचित्र जीवन का मुझे कुछ ज्ञान न था। मैं देहात के शांत वातावरण में रहनेवाला आदमी। परंतु वह स्त्री वहाँ खड़ी मेरी तरफ देखती ही रही। जहाँ वह खड़ी थी, वहाँ काफी अँधेरा था। कुछ देर खड़ा मैं उसे देखता रहा। मुझे उसके निकट जाना चाहिए या नहीं, मैं यही सोचने लगा। अंत में मैं साहस करके उसके पास गया।

मुझे निकट आया देख उसने अपने मुख से चादर का आवरण हटा लिया, और बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी तरफ अभिप्रायपूर्ण दृष्टि से देखने लगी। जैसे अजगर अपनी प्रथम दृष्टि से अपने शिकार को स्तम्भित कर देता है, उसी प्रकार मैं स्तम्भित-सा हो गया। उस अँधकार में भी उसके मुख-चंद्र की आभा फूटकर निकली पड़ती थी। उसने मृदु-कोमल स्वर में कहा, “आप डरते तो नहीं?”

प्रश्न सुनकर मैं अकचका गया। मैंने कहा, “नहीं। कहो, क्या बात है?”

“मेरे साथ आइये, मैं इसी ट्राम पर सवार होती हूँ। आप भी इसी पर चढ़ जाइए, मुझसे दूर बैठिए, मैं जहाँ उतरूँ, आप भी उतर जाइए।”

वह बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए ही सामने जाती हुई ट्राम पर चढ़ गयी, और मैं विकारग्रस्त रोगी की भाँति बिना कुछ सोचे-विचारे कूदकर ट्राम पर चढ़ गया।

बाज़ारों, चौराहों और पार्कों को पार करती हुई ट्राम चली जा रही थी। वह रहस्यमयी स्त्री एक खिड़की के बाहर मुँह निकाले बैठी थी। उसके अंग का कोई भी हिस्सा नहीं दिखाई पड़ता था। मेरा दिल घबराने लगा। कई बार मैंने ट्राम से उतरने की इच्छा की, पर जैसे शरीर कीलों से जड़ दिया गया हो, मैं उठ ही नहीं सकता था।

अब उजाड़-सा मुहल्ला आ रहा था। शायद कोई मैदान था। बाज़ार पीछे छूट गए थे। दूर-दूर बिजली की बत्तियाँ टिमटिमा रही थीं। ट्राम कड़कती जा रही थी। रात अँधेरी थी, और बिजली के खम्भों के चारों ओर अँधकार कुछ अद्भुत-सा लग रहा था। सड़कें सुनसान थीं। बहुत कम आदमी सड़कों पर आते-जाते दिखाई पड़ते थे।

अब मैं ऊब उठा। मेरे मन में कुछ संदेह उठ रहे थे। बड़े शहरों में बहुत-सी ठगी होती है, यह सुना था। इससे मन बहुत चंचल हो रहा था। ज्योंही ट्राम ठहरी, मैं उसपर से कूद पड़ा, साथ ही वह स्त्री भी उतर पड़ी। मैं एक ओर चलने को उद्यत हुआ ही था कि उसने बारीक और कोमल स्वर में कहा, “उधर नहीं इधर आइए।”

मैंने रुककर देखा। उसने पास आकर वही जादू-भरी आँखें मेरी आँखों में डालकर कहा, “तुमने कहा था, मैं डरता नहीं।”

“मैं डरता तो नहीं।”

“तब आगा-पीछा क्या सोच रहे हो, भागने की जुगत में हो?”

“मैं जानना चाहता हूं, तुम क्या चाहती हो।”

“क्या यहाँ खड़े-खड़े आप मेरा मतलब जानना चाहते हैं?”

“अनजाने मैं कहीं जाना नहीं चाहता।”

“तब यहाँ तक क्यों आए?”

“तुम कौन हो?”

“एक दुखिया स्त्री।”

“कहाँ रहती हो?”

“निकट ही, वह क्या मकान दिखाई दे रहा है।” उसने सामने एक साधारण घर की ओर संकेत किया।

“वहाँ और कौन हैं?”

“मेरा पति है।”

“वह कोई काम क्यों नहीं करता? तुम्हें भीख माँगकर उसे खिलाना पड़ता है।”

“आप तो सब बातें यहीं खत्म कर देना चाहते हैं।”

“मैं घर नहीं जाना चाहता, तुम्हें यदि कुछ सहायता चाहिए तो मैं तुम्हें दे सकता हूँ।”

“आप चले जाइए, मुझे आपकी सहायता नहीं चाहिए।” उसने हँसकर कहा और फिर ऐंठकर चल दी।

वह अद्भुत अज्ञात सूंदरी बाला मुझ अपरिचित से सुनसान रात्रि में ऐसी नोक-झोंक से बातें करके चल दी। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह किसी रस्सी से बाँधकर मुझे खींचे लिए जा रही है।

मैंने कहा, “ठहरो, नाराज़ क्यों होती हो?”

वह खड़ी हो गयी।

मैंने पास जाकर कहा, “आखिर तुम्हारा मतलब क्या है? साफ-साफ क्यों नहीं कहती हो?”

उसने क्षण-भर उन चमकीली आँखों से मेरी तरफ देखा, मुख पर से चादर का आवरण हटाया। उस अंधकार में भी मैं उस मोहक लावण्य को देख-कर विचलित हो गया। उसने कहा, “एक औरत से डरते हो?”

“डरता नहीं हूँ।”

“तब चले आओ।”

वह बिना मेरा मत जाने ही चल दी। मैं मंत्रमुग्ध की भाँति उसके पीछे चल दिया।

सड़क से गलियों में और गली से एक बहुत ही सँकरी गली में वह घुसती ही चली गयी। अंत में एक मकान के द्वार पर जाकर उसने कुछ संकेत किया। एक बूढ़े आदमी ने आकर द्वार खोल दिया। वह मेरी तरफ भीतर आने का संकेत कर आगे बढ़ गयी। मैं भी धड़कते हृदय से भीतर घुसकर उसके पीछे-पीछे चल दिया। मेरे भीतर आने पर बूढ़ा द्वार अच्छी तरह बंद करके हमारे पीछे-पीछे आने लगा।

दूसरी मंजिल पर पहुँचकर उसने बूढ़े से कहा, “बाबू को तुम ऊपर ले जाकर बैठाओ। मैं अभी आती हूँ।” यह कहकर वह तेजी से आगे बढ़ गयी। मैं वहीं खड़ा उस बूढ़े का मुँह देखने लगा। उस स्थान पर बहुत अंधकार न था, फिर भी बूढ़े का चेहरा साफ-साफ नहीं दिखलाई पड़ता था। उसने अदब से झुककर कहा, “चलिए।” वह आगे-आगे चल दिया।

मैं उसके पीछे चढ़ता ही गया। चौथी मंजिल पर एक खुली छत थी। उस पर एक अच्छा खासा कमरा था। कमरा बंद था। बूढ़े ने अपनी जेब से चाभी निकालकर उसे खोला, स्विच दबाकर ज्वलंत रोशनी करके मुझे भीतर आने का इशारा किया। भीतर कदम रखते ही मैं दंग रह गया। वह कमरा ऐसे अमीरी ठाठ से सजा हुआ था कि क्या कहूँ? दीवारों पर खूब बढ़िया तस्वीरें लगी थीं। एक ओर पीतल के काम का कीमती छपरखट पड़ा था। फर्श पर आधे में ईरानी कालीन बिछा था, और शेष आधे में बालिश्त-भर मोटा गद्दा, जिसपर स्वच्छ चांदनी बिछी थी। दस-बारह छोटे-बड़े तकिये उसमें सजे थे। फर्नीचर बहुत नफासत से सजाया गया था। कई वाद्ययंत्र और ग्रामोफोन केबिनेट भी वहाँ रखे थे।

यह सब कुछ देखकर मेरी आँखें चौंधिया गयीं। एक भिक्षुक स्त्री का यह ठाठ। उसका मुझे फँसाकर लाने में क्या अभिप्राय हो सकता है। वह भिक्षुकी तो है नहीं, निस्संदेह कोई मायाविनी है। उसके सौन्दर्य को तो मैं प्रथम ही भाँप चुका हूँ। अब उसके धन-वैभव का भी यह रंग-ढंग दिखलाई पड़ रहा है।

मैं महामूर्ख की भाँति हक्का-बक्का होकर कमरे की प्रत्येक चीज़ को देख रहा था। बीच-बीच में घबरा भी उठता था कि कहीं कोई आफत न सिर पर आ टूटे।

वही बूढ़ा एक बड़ी ट्रे में बहुत-सा नाश्ते का सामान ले आया। उसमें अनेक बंगाली-अंग्रेजी मिठाइयाँ, नमकीन, चाय, फल, मेवा और न जाने क्या-क्या चीजें थीं। सब कुछ बहुत बढ़िया था। राजाओं को भी ऐसा नाश्ता शायद ही नसीब होता हो।

बूढ़े ने नाश्ता सामने रखकर कहा, “मालकिन अभी तशरीफ ला रही हैं, तब तक आप थोड़ा जल खा लीजिए।”

मेरा मन क्या जल खाने में था। मैंने अकचकाकर कहा, “तुम्हारी मालकिन कौन हैं, कहाँ हैं? जो मुझे लायी थीं क्या वही हैं?”

बूढ़े ने विनीत स्वर में कहा, “सरकार, यह सब कुछ आप उन्हीं से पूछ लीजिए।”

वह चला गया। मैं उठकर टहलने लगा। जलपान मैंने नहीं किया। अगर इसमें जहर मिला हो तब? कोई धोखे की बात हो तो? मैं उस आफत से भागने की जुगत लड़ाने लगा। परंतु रह-रहकर मेरे पैर जकड़े जाते थे।

मैं अभी सोच ही रहा था कि एक परम सुंदरी युवती ने कमरे में कदम रखा। वह बहुमूल्य साड़ी पहने थी, जिसके जिस्म पर सोफियाने और नाजुक रत्नजटित गहने थे। वह मुस्कराती आयी और मेरे पास मसनद पर बैठ गयी। उसके रूप की दुपहरी मुझसे सही न गयी। मेरी आँखें चौंधियाने लगीं। वह रूप और यौवन, ऐश्वर्य और मादकता! मेरे होश उड़ गए।

उसने वीणा-विनिंदित स्वर में कहा, “आपको बहुत देर इंतज़ार करना पड़ा। आप शायद नाराज हो गए, क्यों?” वह हँस दी। मैं हँस न सका। मेरे मन में उसे देख वासना तो उद्दीप्त हो गयी थी, पर मैं बुरी तरह घबरा रहा था। इस मायाजाल के भीतर क्या है, मैं जानने को छटपटा रहा था। वह और मेरे निकट खिसक आयी। उसने उसी भाँति हँसकर कहा, “आपने नाश्ता भी नहीं किया और अब बोलते भी नहीं। इसका सबब?”

उसने एक तीखे कटाक्ष का वार किया। मैंने देखा और समझा-वही है। परंतु इसका क्या कारण हो सकता है कि यह अद्भुत स्त्री इस प्रकार भिखारिणी बनकर लोगों को फाँसकर ले आती है। मैंने उससे पूछा, “तब वहाँ आप ही थीं?”

“कहाँ?”

“बाज़ार में और मेरे साथ भी?”

“वाह, वहाँ मैं क्यों होने लगी?” वह हँस दी। उसकी प्रगल्भता बढ़ रही थी और वह अधिकाधिक मेरे निकट आ रही थी।

उसने निकट पाकर स्निग्ध स्वर में कहा, “आप शायद मेरी दासी की बात कह रहे हैं।”

“यदि वह आपकी दासी थी तो क्या आप कृपा कर मुझपर यह भेद खोल सकेंगी कि किस कारण आप इस प्रकार जाल में फाँस-फाँसकर लोगों को घर में बुलाती हैं?”

मेरी बात सुनकर वह एकदम उदास हो गयी।

उसने आँखों में आँसू भरकर कहा, “आपको यदि कुछ ज्यादा कष्ट हुआ हो, तो आप जा सकते हैं । मैंने तो आपको एक धर्मात्मा आदमी समझकर इस आशा से कष्ट दिया था कि एक दुखिया अबला का कष्ट आप दूर करेंगे, परंतु मर्द, जैसे सब हैं, वैसे ही आप भी हैं।”

वह सिसकियाँ लेने लगी। मैं बहुत लज्जित हुआ। वास्तव में मैंने बहुत रूखी बात कह दी थी।

मैंने कहा, “आपको इतना क्या दुःख है? मुझसे कहिए, तो मैं अपनी शक्ति भर उसे दूर करने का उपाय करूँ।”

“इस पर मुझे विश्वास कैसे हो?” उसने आँसुओं से भीगी हुई पलकों को मेरी ओर उठाकर कहा।

उस दृष्टि से मैं विचलित हो गया। मैंने कहा, “यद्यपि मेरी आदत नहीं, फिर भी मैं कसम खाने को तैयार हूँ।”

उसके होंठों पर मधुर मुस्कराहट फैल गयी। उसने कहा, “अब मुझे विश्वास हो गया… ” इतने ही में वही बूढ़ा एक ट्रे में शराब की एक बोतल, गिलास और कुछ नमकीन ले आया।

शराब से यद्यपि मुझे परहेज़ न था, परंतु उस समय मैंने शराब पीने से साफ इनकार कर दिया। इसपर उसने बड़े तपाक से कहा, “बस, तो इसीपर आप कसम खा रहे थे। आपने अगर पहले कभी नहीं पी है, तो मैं ज़िद नहीं करती, परंतु यदि पीते हैं, तो शौक कीजिए। गरीबों की आखिर कुछ चीज़ तो मंजूर फर्माइए।”

उसने इस अंदाज से यह बात कही, और बोतल से शराब उंडेलकर मेरे मुँह में लगा दी कि मैं कुछ भी न कह सका। गले में शराब से सिंचन पाकर मैंने मन में उत्तेजना का अनुभव किया। मैं अपनी परिस्थिति को भूल गया। धीरे…

जब मेरी आँख खुली, तो मैंने अपने को अपने होटल के कमरे में पलंग पर पड़ा पाया। धीरे-धीरे मैंने आँखें खोलीं। प्रातःकाल की धूप खिड़की से छनकर कमरे में आ रही थी। मेरा सिर चकरा रहा था, और शरीर में बड़ा दर्द था। कई मिनट तक मैं बिना हिले-डुले पड़ा रहा, जैसे शरीर का सत निकल गया हो। धीरे-धीरे मुझे रात की सब घटना स्मरण हो पायी। मैं हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ। पहले मुझे यह नहीं मालूम हुआ कि मैं होटल में हूँ। पीछे मैंने अपने कमरे को पहचाना। सब बातें स्वप्न के समान आँखों में घूमने लगीं। सिर अब भी दर्द से फटा पड़ता था। मैं उठकर बैठ गया, और दोनों हाथों से सिर को दबाकर बैठा रहा।

मैं यहाँ कैसे आ गया? रात क्या मैं वहाँ नहीं गया था? नहीं-नहीं, सचमुच गया था। मैंने देखा, मेरे शरीर पर वही कपड़े थे, जो मैंने शाम को घूमने जाने के समय पहने थे। एकाएक मैंने देखा, मेरे हाथ की हीरे की अंगूठी गायब है। घड़ी की चेन भी नदारद है। जेब का मनीबेग भी नहीं है।

यह देखकर तो मैं बिलकुल बौखला गया। मैंने घंटी बजाई। नौकर ने आकर बताया कि आप बहुत रात गए पाए थे। आपने ज़्यादा शराब पी ली थी, इससे बदहवास हो गए थे। आपके जिन मित्र के यहाँ आपकी दावत थी, उनके दो नौकर आपको यहाँ गाड़ी पर पहुँचा गए थे।

मैंने जल्दी-जल्दी कोट बदन पर डाला, और धड़धड़ाता हुआ पुलिस-ऑफिस में पहुँचा। सब घटना की मैंने रिपोर्ट लिखाई। मेरा वर्णन सुनकर इंस्पेक्टर मुस्कराने लगे। वे तुरंत ही दो कांस्टेबिलों को लेकर मेरे साथ चल दिए।

मैं अनायास ही ठिकाने पर जा पहुँचा। जिस घर में जाकर मैं बेवकूफ बना था, इस समय उसके दरवाज़े में ताला पड़ा था, और उसपर ‘टू लेट’ का साइन-बोर्ड लगा था। पूछने पर पड़ोस के एक संभ्रांत बंगाली महाशय ने आकर कहा कि यह मकान उन्हीं का है, और किराये को खाली है, तथा कई महीने से इसमें कोई नहीं रहता है। जब मैंने उनसे रात की घटना का जिक्र किया, तो वह हँसने लगे। उन्होंने कहा, “बाबू का दिमाग फिर गया है। आप किसी दूसरे मकान में आये होंगे।” वे हाथ का नारियल पीते हुए भीतर चले गए। हम लोग कोई सुराग न पाकर चले आये।

लगभग ढाई हजार के नोट और जवाहरात के अलावा मेरे बहुत कीमती कागज़ात भी गायब हो गए थे। वे सब उसी दिन मुझे अदालत में पेश करने थे। उसी काम से मैं कलकत्ता गया था। मुझे कोर्ट में यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उनमें से कुछ ज़रूरी कागजात प्रतिपक्षी वकील की फाइल में हैं, और उनसे मेरे विरुद्ध सबूत जुटाया जा रहा है। कहना न होगा, वह चालीस हजार का मुकदमा मैं उन कागजों को गँवाकर उसी तारीख को हार बैठा।

उसी दिन मैंने कलकत्ता त्यागा। घर आकर बहुत कोशिश उस भेद को खोलने की की, पर शोक, कुछ पता न चला। इस प्रकार कलकत्ते की वह एक रात मेरे जीवन में एक काल-रात बन गयी।


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