आज नाटी इमली का भरत मिलाप है। बाबू जयरामदास जी अपने दोनों लड़के-लड़की को लेकर मेला देखने को जा रहे हैं। दोनों भाई-बहिन पिता के दोनों हाथ पकड़ कर बड़ी खुशी के साथ जा रहे थे। भाई का नाम शायद जो कुछ हो, पर रंग खूब गोरा होने से उसे सब लोग साहब कहकर पुकारते थे। साहब की उमर कोई ग्यारह साल की थी पर बहिन की उमर कोई छह सात वर्ष की होगी। उसका नाम तो सुंदर देई था पर लोग प्यार से उसे सुंदरिया कहा करते थे। एक आने की पूँजी लेकर सुंदर मेला देखने चली थी। उसी के भरोसे जो चीजें देखती थी उसी पर टूट पड़ती थी। उसके इस भोलेपन पर साहब बिचारे को बड़ी हँसी आती थी। जब सुंदर दस बाहर चीजों का नाम लेकर कहने लगी, ‘मैं यह मोल लूँगी’, ‘वह मोल लूँगी’। तब साहब ने कहा– “वाह जी! तुम्हारे पास तो तीन-चार पैसे कुल हैं, तुम इतनी चीजें कैसे ले सकती हो? मेरे पास बहुत से पैसे हैं, मैं सब कुछ खरीदूँगा; केला, नारंगी, अमरूद, रेऊड़ी, नानखताई, वगैरह।”
सुंदर पर साहब की इस बात का कुछ भी प्रभाव न पड़ा क्योंकि सुंदर की माँ प्रायः उससे कहा करती थी ‘बेटी तुम भैया से छोटी हो न। तुम्हें सब चीज में भैया से कमती हिस्सा लेना चाहिए।’ माँ की यह बातें सुंदर हमेशा ध्यान में रखती थी, और उसे यह भी दृढ़ विश्वास था कि मैं, चार ही पैसे में सब मोल ले सकती हूँ। इन सब कारणों से साहब का हौसला पूरा ना हुआ। जिसके हृदय में संतोष है उसी ने सब कुछ भर पाया। साहब को सब है और मेरा कुछ नहीं है, यह बात उसे कभी दुःख नहीं दे सकती। निज अवस्था में संतुष्ट रहना और उसी के अनुसार चलना बुद्धिमानों का काम है।
साहब सुंदर की मूर्खता की बातें पिता से कहने लगा; वह बेचारे साहब के मतलब को न समझकर बोले, “हाँ बेटा पहिले मेला देख लो, फिर लौटते वक्त सब ले देंगे।”
लाचार होकर साहब मदरसे के मौलवी जी की तरह अथवा स्कूल के नीचे दर्जे के मास्टर की भाँति बहिन को समझाने लगा। सुंदर का चार पैसा अपने हाथ में लेकर, एक-एक चीज का नाम कहता हुआ एक-एक पैसा सुंदर को देकर बोला, “लो हो न गया। चार पैसे में चार ही चीजें मिलेंगी कि ज्यादे?”
फिर साहब अपना सब पैसा एक हाथ में लेकर एक-एक चीज के नाम से दूसरे हाथ पर रखता गया, और बोला, “देखो मैं तो सब चीजें ले सकूँगा न।”
तब बिचारी सुंदर देई बड़े भोलेपन से भाई के मुँह की ओर ताकती हुई बोली, “तो क्या उसमें से थोड़ा मुझे भी न दोगे भईया?”
सुंदर की इस बात पर साहब को लज्जित होना पड़ा। मेला देखकर निज इच्छानुसार चीजें लेकर दोनों भाई-बहिन पिता के संग घर लौट आए।
एक दिन शाम को साहब के बड़े भाई श्रीराम दिये के उजियाले में बैठकर किताब पढ़ रहे थे, इतने में साहब और सुंदर दोनों आकर वहीं बैठ गये। सुंदर बोली, “बड़े भइया। देखो साहब भइया की किताब में कैसी अच्छी रेलगाड़ी की तस्वीर है, तुम्हारे किताब में तो कोई तस्वीर ही नहीं है।”
इतने में साहब बोल बैठा, “अजी तुम तो तस्वीर की गाड़ी कहती हो। मैं आज जो खेलने की रेलगाड़ी पाँच आने में लाया हूँ सो तुमने देखी ही नहीं।”
यह कहकर साहब चट उस रेलगाड़ी को लाकर बड़े भाई को और छोटी बहन को बड़े उत्साह से दिखाने लगे। सुंदर ने भी एक पैसे में एक मिट्टी का खिलौना खरीदा था, वह भी चट उस खिलौने को ले आयी। सुंदर के इस काम पर साहब हँसकर बोले, “एक पैसे का मिट्टी का खिलौना लेकर चली है दिखाने, देखो मेरी गाड़ी में चाबी लगा देने से कैसी दौड़ती है।”
सुंदर बिचारी उदास होकर बड़े भाई की तरफ देखने लगी, तब श्रीराम हँसकर बोले, “तुम्हारा खिलौना बहुत अच्छा है सुंदर। साहब तो पूरा बेवकूफ है नाहक पाँच आने पैसे दूसरे देश के कारीगर को दे आया।”
साहब ने कुछ रूखेपन से जवाब दिया, “दूसरा देश कैसा? मैं तो रामदीन बिसाती से यह गाड़ी मोल लाया हूँ।”
श्रीराम, “हाँ मोल तो तुमने रामदीन से ली सही। लेकिन रामदीन ने इसे बनाया तो नहीं है, बनाया है जर्मनी के कारीगरों ने, आखिरकार तुम्हारा नहीं तो बिसाती का पैसा उसके यहाँ गया कि नहीं। वे लोग तो हर तरह से मोटे-ताजे हैं और बेचारे यहाँ के जो कुम्हार और कारीगर हैं उन्हें दिन भर में नमक रोटी भी मुश्किल से मिलती है, वे लोग यदि पाँच आने पैसे पावें तो उनको पेट भर खाने को मिल जाय। खैर, सुनो साहब। इस समय हम तुम्हें कुछ न कहते, न तुम्हे रंज होता, किंतु परमेश्वर का यह नियम है कि जो दूसरे किसी को नीचा दिखाना चाहता है, वह पहले आप ही नीचा देखता है। न तुम सुंदरिया को नीचा दिखाते, न आप देखते। तुम चाल चलन में, पढ़ने लिखने में अच्छे हो, पर बड़े ही अभिमानी हो। शायद यह दोष तुम्हारे नाम से उत्पन्न हुआ होगा। अच्छा अबसे तुम अपने असली नाम से ‘हरिराम’ कहकर पुकारे जाओगे। अब इस खिलौने के बारे में दो चार बातें और सुन लो। यह तो तुमने जान लिया कि इसे बनाया है किसने, अब जरा सोचकर देखो, इसे खरीदने से हमारे देश को हानि और दूसरे देश को लाभ पहुँचता है या नहीं। आज तुमने इसे मोल लिया है, दो दिन के पीछे तोड़ फोड़कर फेंक दोगे, परंतु ऐसे-ऐसे तुच्छ खिलौने के लिये कई लाख रुपए हर साल हिंदुस्तान से निकल जाते हैं। इसी तरह सुई, डोरा, कंघी, दियासलाई इत्यादि छोटी मोची चीजों के लिये भी कितने रुपए दूर देश वालों को दे देते हैं, उसका लेखा लगाने से छाती दहल जाती है और उसी के साथ थोड़े से मुनाफे पर चावल गेहूँ आदि गल्ले को बेच डालते हैं। इसमें दूसरों का कुछ दोष नहीं है, हम सब अपनी करनी से दीन से दीन, गरीब से गरीब, अधम से अधम हो रहे हैं। पर तब भी चेत नहीं होता। हम लोगों में यह एक भारी दोष है कि जितना कहते हैं उसका चौथाई भी नहीं कर सकते। यह बात तो सभी कहेंगे कि भारत का सब तरह से सत्यानाश हो रहा है, किंतु उसकी बिगड़ती हुई दशा को सुधारने में बहुत ही कम मनुष्य बचे हुए हैं। आज तुम लड़के हो, कल तुम्हीं युवा पुरुष हो जाओगे, यदि चाहोगे तो अपने हाथ से इस गिरे हुए देश की बहुत कुछ भलाई कर सकोगे। तुमको चाहिए कि अपने देश की भलाई के लिये उपाय विचारो और सीखो – लड़कपन में जिस बात का प्रभाव मनुष्य पर पड़ जाता है, बड़े होने पर वह उसी अनुसार व्यवहार करता है। यदि तुम अभी से देशी चीजें काम में लाओगे, तो मैं स्वदेश की बनी हुई कोई उत्तम चीज तुम्हें इनाम दूँगा।”
ऊपर लिखी हुई बातों को हुए आज बीस वर्ष हो गए हैं। अब बाबू हरिराम वर्मा बि०एल०– शहर के एक नामी वकीलों में से हैं। यद्यपि शहर में कई एक अच्छे‑अच्छे पुराने वकील हैं किंतु देश की भलाई के सब कामों में अगुआ होने के हेतु हरिराम सबसे ऊपर हो रहे हैं। हरिराम ने निज व्यय से मातृ भंडार नामक एक बहुत बड़ी दुकान खुलवाई है, जिसमें हर मनुष्य के काम लायक सब स्वदेशी बनी चीजें मिलती हैं। बाबू श्रीराम अपने छोटे भाई का इस भांति स्वदेश प्रेम और अपने उपदेश का प्रभाव देखकर बहुत ही सुखी होते हैं।
सुंदर देई भी ग्यारह वर्ष की अवस्था में एक जमीदार की पतोहू हो गयी, उसके पति भी एक देशहितैषी सज्जन हैं । अब सुंदर देई अपने घर की मालकिन हुई है, और अपने पति के सद्गुणों और अच्छे कामों की सहकारिणी बनी है।
(यह कहानी 1908 में बालप्रभाकर पत्रिका खंड 3 अंक 1 में प्रकाशित हुई थी। )