लाहौर में स्वदेशी प्रदर्शनी की बड़ी धूम थी। दिन छिपते ही वजहदार स्त्री-पुरुषों के ला हो ठठ-के-ठठ वहाँ जा जुटते थे। इस नुमाइश में उद्योग-धंधे, कला-कौशल की कोई ऐसी चीजें नहीं दिखलाई गयी थीं, जिससे देश के करोड़ों बेकार युवकों या अभागिनी, असहाय स्त्रियों को कोई पेट भरने का धंधा मिले। इसमें सैकड़ों दुकानें ऐसी थीं, जिन पर माँग-पट्टी से चाक-चौबंद, सूट-बूटधारी युवक सुनहरा चश्मा चढ़ाए अपने दिलचस्प ग्राहकों की आवभगत हँस-हँसकर और तीन-तीन बल खाकर करने को डटे खड़े रहते थे। इनकी ग्राहिकाएँ थीं बहारदार लेडियाँ फ़ैशन की पुतलियाँ या मर्दनुमा साहसी युवतियाँ, जिनका फ़िज़ूलख़र्ची एक धंधा ही हो गया है। वे सब एक से एक बढ़कर साड़ियाँ पहने, ऊँची एड़ी के जूते कसे, तितलियाँ बनी फिर रही थीं। प्रत्येक दुकान पर इन्हीं के मतलब का ढेरों माल भरा हुआ था। जहाँ खड़ी हो जातीं, युवक दुकानदार आँखें बिछाते, मुस्कुराहट के जाल फैलाते, बलिहारी जाते और झुक-झुककर जमनास्टिक जैसी कसरतें करते थे।
इन प्रदर्शनियों से और कुछ हो चाहे न हो, पर दो काम तो अवश्य हो जाते हैं — एक तो स्त्रियों को फ़िज़ूल सामान खरीदने के सम्बंध में बहुत काफ़ी उत्तेजना मिल जाती है, जो वे सजे-धजे दुकानदारों से दुगने मोल में ख़रीदती हैं; दूसरे, यारों को आँखें सेंकने का अच्छा स्थान और अवसर मिल जाता है।
शाम होते ही युवकों के झुंड के झुंड टोली बाँधकर प्रदर्शनी में आ जाते हैं। बीसवीं सदी में पंजाब ने जो अल्हड़ बछेड़ियाँ पैदा की हैं, वे किस लापरवाही से अपने मनोरंजक, धारीदार, घुटनों तक लटकते कुर्तों को हवा में फरफराती, सलवार को हिलाती, दुपट्टों को लापरवाही से हवा से अठखेलियाँ करने का अवसर देतीं, अपने रूप को रास्ते में बखेरती फिरती हैं, यह सब देखना इन युवकों का सांध्य कृत्य होता है।
एक-एक की नख-शिख आलोचना होती है । किसके आँख, नाक, बाल कैसे हैं, रंग कैसा है? नज़र कैसी है? कौन किसकी बहू-बेटी, भतीजी-भानजी है? किसकी तरफ़ गर्दन मरोड़कर देखा? किसने कटाक्ष-पात किया? ये ही महान बातें इन पढ़े-लिखे सुसभ्य लाहौरी युवकों की चर्चा का विषय होती हैं। वास्तव में ये प्रदर्शनियाँ स्वदेशी वस्तुओं की नहीं, प्रत्युत विदेशीनुमा प्यारे स्वदेशी युवक-युवतियों की होती हैं। यही कारण है कि इनमें कोई नवीनता न रहने पर भी, फ़िज़ूलख़र्च होने पर भी शाम से जो भीड़ का जमघट जुटता है, तो आधी रात तक रहता ही है।
बसंतलाल हृष्ट-पुष्ट जवान थे। आँखों में रस था, और चेहरा दमकता हुआ, जिससे प्रतिभा झलकती थी। काव्य के प्रेमी और सौंदर्य के उपासक। उन्हें प्राकृतिक दृश्य देखने का बड़ा शौक़ था। कश्मीर, मसूरी, शिमला सब उनका देखा हुआ था। वह बनारस के निवासी थे, प्रकृत साहित्यिक थे। हिंदी के प्रेमी थे, कवि और लेखक भी। अभी अनुभव और विद्या-प्रौढ़ता न थी, पर क़लम में ओज और रस था। उनके यश की चाँदनी धीरे-धीरे हिंदुस्तान भर में फैलती जा रही थी। अपने तीन-चार लाहौरी मित्रों के साथ एक दिन बसंतलाल भी प्रदर्शनी में गये। वह पूरब के पर्दे के अभ्यस्त थे। पूर्व भारत में पर्दा उठा है सही, पर उसे पर्दा उठना नहीं कह सकते। वहाँ की पर्दे में कुचली हुई, मुरझाई हुई, पिलपिली, बासी ककड़ी के समान स्त्रियों को उन्होंने महिला रूप में देखा था। अब जो यहाँ पंजाब में आये, तो पंजाबी बछेड़ियों को देखकर दंग रह गये। महीन तबीयत के आदमी थे, रूप किसी का पसंद न आता था। वह कवित्व की दृष्टि से देखते, एक-आध ऐब दिखलाई ही पड़ जाता। उन्हें यहाँ सबसे बुरा तो यह मालूम हुआ कि वे स्वस्थ, सुंदर, कनक-छरी-सी युवती लड़कियाँ और ललनाएँ किस लापरवाही और फूहड़ ढंग से खोमचे वालों के इर्द-गिर्द बैठकर दनादन पत्ते चाट रही हैं। वह पर्दे के पक्षपाती तो नहीं, पर मर्यादा, सुघराई और शिष्टाचार के हिमायती थे। सोचने लगे, ये हुड़दंगी बछेड़ियाँ हैं या भले घर की लड़कियाँ? किसी भले आदमी की तनख़्वाह तो ये आलू छोलों की चाट में ही उड़ा दे सकती हैं।
सब मित्र घूम रहे थे। बातचीत का ज़ोर बँधता ही जाता था। विवाद के मुख्य विषय थे — टाकी फ़िल्म और हिंदी।
एक मित्र ने कहा, “टॉकी फ़िल्मों का जैसे-जैसे ज़्यादा ज़ोर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे देश में हिंदी का प्रचार भी ख़ूब बढ़ रहा है। हिंदी-उर्दू का भेद भी मिटता जा रहा है।”
दूसरे ने कहा, “अब तो ऐसा मालूम हो रहा है कि बहुत शीघ्र पंजाब में भी हिंदी-ही-हिंदी हो जाएगी। यहाँ औरतों ने तो राष्ट्रभाषा को बहुत कुछ अपना लिया है। सिर्फ़ विलायती सभ्यता प्रेमी मर्द लोगों में ही अभी तक अंग्रेज़ी का बोलबाला है। शायद ये लोग अंग्रेज़ी से राष्ट्रभाषा का काम लेना चाहते हैं। इनकी आँखें कब खुलेंगी?”
शहर में सुलोचना की ताज़ी फ़िल्म आयी थी, यार लोगों ने उसकी भी चर्चा उठा दी। एक मित्र लगे सुलोचना के नख-शिख की आलोचना करने। उस आलोचना में कुछ सौंदर्य-ज्ञान था, कुछ भावुकता, कवित्व और कुछ आवेश। यार लोग सुन रहे थे, हँस रहे थे, फड़क रहे थे। वह मित्र सुलोचना का आपे से बाहर होकर नख‑शिख वर्णन कर रहे थे। एकाएक एक दूसरे मित्र ने कहा, “उस्ताद। इस रूप की प्रदर्शनी में सुलोचना के जोड़ की कोई चीज़ टटोली जाए।” एक ज़ोर के ठहाके के साथ प्रस्ताव का ज़ोरों से अनुमोदन और समर्थन हुआ। मंडली सुलोचना की एक-एक प्रतिमूर्ति की तलाश में प्रदर्शनी में घूमने लगी। वे लोग प्रत्येक स्त्री को, युवती को, कुमारी को देखने अपनी नज़रों में तोलने लगे।
एकाएक बसंतलाल चिल्ला उठे। जिसे देखकर वह चिल्लाए थे, उसने चौंककर उनकी ओर देखा— आँखें चार हुईं, और फिर झुक गयीं। मित्रों ने पूछा, “क्या हुआ?” बसंतलाल ने एक युवती की ओर संकेत किया। सचमुच वहाँ पाँच साल पहले की सुलोचना खड़ी अपनी माधुरी बखेर रही थी। वही क़द, वही रंग-रूप, वही सुडौल शरीर, वही रसीली आँखें, वही मुस्कुराते हुए होंठ।
युवती की अवस्था उन्नीस-बीस वर्ष की थी। उसे देखकर मित्र-मंडली स्तम्भित रह गयी! ऐसा मनोहर रूप-रंग, शरीर सदा देखने को नहीं मिलता। सुंदरी किसी दुकान पर एक ज़री-कोर की सफ़ेद साड़ी खरीदने में व्यस्त थी। साथ में माता और एक नौकर था। मित्रों की पार्टी दूर ही से इस रूप-सरिता का रसपान करने लगी। बसंतलाल के हृदय के किसी अज्ञात स्थल पर एक नवीन वेदना उत्पन्न हुई। वह विकल होकर और भी गम्भीरता से उसे देखने लगे। कुछ ही देर यह मूक, किंतु चंचल अभिनय हुआ होगा कि किसी ने पीछे से बसंतलाल के कंधे को छुआ। देखा, उनके चिरपरिचित पंडित धरानंद हैं। दोनों मित्र मिले। कुशल-प्रश्न के बाद पंडित जी का ध्यान उस परिवार की ओर गया, जिस पर मित्र मंडली के नेत्र भ्रमर की भाँति मंडरा रहे थे। उन्होंने कहा, “अरे, माता जी हैं!” — वह आगे बढ़े। माता जी से मिले, और बसंतलाल को बुलाकर उनसे मिलाया। परिचय दिया, तारीफ़ की।
माता जी ने कहा, “मुझे तो पढ़ने-लिखने का समय नहीं मिलता, किंतु मेरी कन्या आपके लेख बड़े चाव से पढ़ती रहती है। आपसे मिलने से बड़ा आनंद हुआ।”
उन्होंने बसंतलाल का कन्या से भी परिचय करा दिया। फिर दोनों मित्रों को चाय का निमंत्रण देकर आगे बढ़ गयीं। बसंतलाल ने सब-कुछ पा लिया।
चाय पान तो हुआ ही, साथ ही बहुत सी गप-शप भी हुई। बसंतलाल ने देखा, हेमलता केवल अद्वितीय सूंदरी ही नहीं, असाधारण बुद्धिमती और विदुषी भी है। पीछे उन्हें यह भी मालूम हो गया कि वह बी. ए. की तैयारी में है।
कन्या भी बसंतलाल के रूप-गुण, सरलता और भावुकता से बहुत प्रभावित हुई। उसकी आँखों के लजीले भाव, मंद-मंद हँसने की अदा और क्षण-क्षण पर गोरे-गोरे गालों पर खेल करने वाली लाली ने बसंतलाल को कुछ और ही तत्त्व समझा दिया। बसंतलाल की आत्मा मानो झकझोरी-सी गयी। वह कुछ विकल, कुछ चंचल और कुछ अप्रतिभ-से होकर उस दिन वहाँ से उठ आये, पर उस चितेरी की चितवन की कूची से जो चित्र चित्त पर चित्रित हो गया था, वह मिटाए नहीं मिटता था।
परंतु मिलने और आने-जाने का रास्ता तो खुल ही गया था। वह खुला ही रहा। प्रायः प्रत्येक संध्या उनकी वहीं बीतती, कभी-कभी भोजन भी वहीं होता। अनेक बार उन्हें बालिका से एकांत में बात करने का अवसर भी मिला। अंतत: उन्होंने अपना निवेदन कन्या से कह ही दिया। कन्या ने लजीले स्वर में मुस्कुराकर कहा, “जहाँ माता-पिता विवाह कर दें, वहीं ठीक है।” उसकी लाज और मुस्कुराहट की गंगा-यमुना के बीच अनुमति की सरस्वती छिपी हुई सरसा रही थी।
बसंतलाल ने मानों चाँद पाया। उन्होंने धरानंद जी के द्वारा संदेश भेजा। इस संदेश पर विचार होने लगा। उनके कुल वंश और आय-व्यय की जाँच होने लगी। अंत में एक दिन कन्या की माता ने कह दिया और सब तो ठीक है, पर इनकी आमदनी यथेष्ट नहीं, यही बात विचारणीय है।
बसंतलाल जी की आय दो सौ रुपए माहवार थी। यही उनकी सम्पत्ति थी। इसमें संदेह नहीं कि अपनी मौजूदा आमदनी को लेकर वह रायसाहब की अमीरी में पली पुत्री हेमलता को सुख से नहीं रख सकते थे। पर यह बात उन्होंने हेमलता से कह दी थी, और हेमलता ने उन्हें आश्वासन दिया था, “हम लोग सीधे-सादे ढंग से रहेंगे, लिखेंगे-पढ़ेंगे, काव्य और साहित्य में मस्त रहेंगे, दुनिया को हेच समझेंगे, मैं धन-दौलत नहीं चाहती, तुम्हें प्यार करती हूँ। और ईश्वर चाहेगा, तो हमारी आमदनी बढ़ते देर न लगेगी। मैं विवाह रुपए से नहीं, तुमसे करना चाहती हूँ।”
परंतु यह सब व्यर्थ हुआ। बसंतलाल की बात स्वीकार नहीं की गयी। हेमलता की माता का हठ था कि पच्चीस हज़ार मूल्य की जायदाद मेरी लड़की के नाम जो कर देगा, उसी के साथ मैं अपनी लड़की की शादी कर सकती हूँ। यदि बसंतलाल हेमलता से विवाह करना चाहते हों, तो पच्चीस हज़ार का एक मकान खरीदकर पहले उसके नाम लिख दें। जो मेरी कन्या को आलीशान मकान में नहीं रख सकता, वह उसे पाने के योग्य कदापि नहीं।
बसंतलाल अति मर्माहत होकर लाहौर से चले आये। चलती बार उन्होंने हेमलता से अंतिम भेंट की, उसमें दोनों आँसुओं का ही विनिमय कर सके।
बारह बरस बाद
बसंतलाल अब हिंदी-साहित्याकाश में सूर्य की भाँति देदीप्यमान थे। लाहौर में अखिल भारतवर्षीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की धूम थी। बसंतलाल सभापति बनकर आये थे। उनके रूप-रंग में बहुत अंतर हो गया था। अपनी लिखी पुस्तकों से उन्हें हज़ारों रुपये की आय हो रही थी। कई प्रांतों में उनकी किताबें एम.ए. तक कोर्स में थीं। बड़े-बड़े राज परिवारों में उनकी प्रतिष्ठा थी।
लाहौर नगर में उनका जुलूस बड़ी शान के साथ निकला। सम्मेलन सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। आखिरी दिन उन्हें एक पुर्जा मिला। उसमें केवल इतना लिखा था पत्रवाहक के साथ कुछ क्षणों के लिए आइए। अवश्य।
बसंतलाल ने पत्रवाहक को देखा, एक वृद्ध नौकर था। पूछने पर उसने बताया, बीबी जी ने बुलाया है। बीबी जी कौन हैं? यह वह नहीं बता सका। उन्होंने इस कार्य के औचित्य पर कुछ विचार किया, उन्हें कौतूहल हुआ, और अंत में उन्होंने वहाँ जाने का निर्णय किया। वह उसके साथ चल दिये।
एक गली में वह उन्हें ले गया। मकान में घुसकर उन्होंने देखा, मकान साधारण और पुराना है, किंतु ख़ूब साफ़ है। दालान में दो कुर्सियाँ और एक मेज़ पड़ी थी। मेज़ पर एक साफ़ कपड़ा बिछा था। भृत्य ने कुर्सी पर बैठने को कहा। बसंतलाल के बैठ जाने पर वह भीतर चला गया और थोड़ी देर में कुछ फल लाकर आगे धर दिये। मन न होने पर भी बसंतलाल ने फल खाये। वह समझ ही न सकते थे कि मामला क्या था।
उन्होंने भृत्य से कहा, “मुझे जिन्होंने बुलाया है, वह कहाँ हैं? मैं अधिक ठहर नहीं सकता।”
बूढ़े ने कहा, “वह क्षण-भर में अभी आती हैं।”
क्षण-भर में वह आयी। बसंतलाल ने पहचान लिया। हेमलता है। वह उठ खड़े हुए।
उन्होंने पूछा, “आप? मैंने यही सोचा था।”
हेमलता ने शांत स्वर में कहा, “बैठिए, आप प्रसन्न तो हैं?”
बसंतलाल ने देखा, वह दुबली, फीकी, रोगी हो रही है। उसके रसीले नेत्रों का वह तेज, सदा हँसते हुए चेहरे की वह चमक सब मिट चुकी है। आँखों के चारों ओर कालौस दौड़ रही है। वह रूप-लावण्य जाता रहा है।
उनका कलेजा हिल गया। हेमलता की बात उन्होंने सुनी नहीं। उन्होंने पूछा, “परंतु आपको मैं इस दशा में देखने की स्वप्न में भी कल्पना नहीं करता था।”
हेमलता ने हँसकर कहा, “आप साहित्यिक हैं अवश्य, किंतु सभी बातों की कल्पना तो आप कर नहीं सकते। कवि की कल्पनाएँ तो काल्पनिक होती हैं। वस्तु‑दर्शन तो दुखियों को ही होता है।”
बसंतलाल उस हँसी को न देख सके, उनकी आँखें भर आयी। हेमलता भी रोयी।
बसंतलाल ने उसे अपने जीवन की व्यथा कहने को विवश किया। उन्होंने पूछा, “तुम्हारे पति कहाँ हैं?”
“जेल में। कुछ जाल करने के जुर्म में उन्हें सात वर्ष की जेल हुई है। अभी ढाई वर्ष ही व्यतीत हुए हैं।”
“मैंने सुना था, उनकी बहुत जायदाद थी, और वह बड़े आदमी थे। किसी स्टेट में सेक्रेटरी थे।”
“अपनी जायदाद मेरे नाम लिखकर ही उन्होंने मुझसे ब्याह करने में कामयाबी हासिल की थी, क्योंकि माता जी की कमज़ोरी को उन्होंने ठीक समझ लिया था। पर पीछे मालूम हुआ कि जायदाद उनकी सब पहले ही रेहन थी, उन पर काफ़ी क़र्ज़ था। उनका वह हिबेनामा पीछे नाजायज़ ठहरा, सब जायदाद नीलाम हो गयी। कुछ भी न बचा। उन्हें शराब पीने की अज़हद आदत थी, और शराब के साथ जो दुर्गुण हो जाते हैं, वे भी उनमें आ गये थे। नौकरी जाती रही। मुझे माता जी से जो कुछ मिला था, वह भी ख़र्च हो गया।”
“माता जी कहाँ हैं?”
“उनका तो स्वर्गवास हो गया।”
बसंतलाल का कलेजा मुँह को आ रहा था। उन्होंने कहा, “क्षमा करना, मैं जानना चाहता हूँ कि आपकी गुज़र कैसे होती है? रंग-ढंग से तो कुछ-कुछ समझ गया हूँ।”
हेमलता ने ठंडी साँस भरकर कहा, “यहाँ कन्या पाठशाला में एक नौकरी मिल गयी है। सौ रुपए मिलते हैं। पाँच बच्चे हैं। उनकी पढ़ाई में भी काफ़ी ख़र्च हो जाता है।”
बसंतलाल चुपचाप कुछ सोचने लगे। उन्होंने आँख उठाकर हेमलता को देखना चाहा, पर देख न सके।
हेमलता ने हँसकर पूछा, “वह कैसी हैं? कभी दिखलाइएगा नहीं?”
बसंतलाल भी हँस दिये। उन्होंने एक बार हेमलता की ओर देखा, और फिर अन्यत्र देखते हुए कहा, “विवाह मेरे भाग्य में न था, लता। मैंने जीवन-भर अविवाहित रहने का प्रण करके ही लाहौर छोड़ा था।”
हेमलता के सुंदर होंठ काँपने लगे। उसने उसी भाँति काँपते हुए कहा, “क्यों?”
“क्या भूल गयीं? उस रोज़ हम लोगों ने क्या प्रतिज्ञा की थी? तुमने कहा था, मर्द कभी प्रतिज्ञा नहीं निबाहते। उस समय मैं चुप हो गया था। आज भी चुप हूँ। जीवन के अंत में यदि मिल सकोगी, तो कहूँगा, ‘देखो, यह मर्द की प्रतिज्ञा।’”
हेमलता की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। वह बहुत कुछ कहना चाहती थी, पर कुछ कह न सकी। वह बड़ी देर तक रोती रही।
कुछ देर बाद साहस करके बसंतलाल ने कहा, “लता, क्या तुम्हारे मन में मेरा कुछ आदर है?”
“आदर, सिर्फ़ आदर?” हेमलता ने आँसू भरी आँखों से उन्हें देखकर कहा।
बसंतलाल ने इस बार धरती की ओर ताककर कहा, “हाँ लता, सिर्फ़ आदर ही की बात मैं पूछता हूँ, और कोई बात ज़बान पर न लाना।”
हेमलता ने कम्पित स्वर में कहा, “मैं आपका देवता की भाँति आदर करती हूँ।”
“तब तुम मेरी बात सुनो। पति के लौट आने तक मेरा कुछ धन ग्रहण कर लो।”
हेमलता के आँसू सूख गये। उसने कहा, “मेरा पति पतित तो है, पर मैं पति पद की प्रतिष्ठा की रक्षा करूँगी। आपका धन मैं नहीं लूँगी। मुझे कोई कष्ट नहीं है। परंतु आप मेरी एक बात मानें, तो कहूँ।”
“कहो।”
“आप अवश्य ही ब्याह कर लें। मैं विनती करती हूँ, हा-हा खाती हूँ, यदि मेरा दुख दूर किया चाहते हो तो।”
वह धरती पर पछाड़ खाकर गिर पड़ी, फूट-फूटकर रोने लगी।
बसंतलाल का धैर्य च्युत हो रहा था। उन्होंने कहा, “उठो लता, मैं तुम्हें छू नहीं सकता। मेरे सामने इतना न तड़पो, तुम्हारा यह वेश ही मेरे दर्द के लिए बहुत है। अपना अनुरोध भी वापस ले लो। जिस प्रतिष्ठा की रक्षा के विचार से तुम मेरा धन नहीं ग्रहण करतीं, उसी प्रतिष्ठा की रक्षा के विचार से इस जन्म में मैं विवाह नहीं कर सकता। हेमलता, ईश्वर जानता है, मैं तुम्हारी अपेक्षा अधिक सुखी हूँ। अफ़सोस यही है, तुम्हें उस सुख में से कुछ भी नहीं दे सकता।”
हेमलता कुछ देर धरती पर पड़ी रही। बसंतलाल कुछ देर सोचते बैठे रहे। फिर आकर खड़े हुए। उन्होंने कहा, “उठो लता, तुम महावीर स्त्री हो, तुम धन्य हो। मुझे हँसकर विदा दो। मैं जा रहा हूँ।”
हेमलता उठ खड़ी हुई। उसने आँचल सिर पर खिसकाकर ठीक किया। उसकी आँखों में वेदना और करुणा नाच रही थी। उसने कहा, “जा ही रहे हो?”
“हाँ लता।”
“कभी पत्र लिखूँ?”
“नहीं, ऐसा कभी न करना।”
“कभी मिलोगे?”
“नहीं, कभी नहीं।”
“कभी नहीं?”
“नहीं, कभी नहीं।”
कुछ देर वह चुप रही। उसके नेत्रों में एक अद्भुत ज्योति चमकी। उसने धरती पर बैठकर बसंतलाल के चरण छुए, माथा टेका, फिर कहा, “आशीर्वाद तो दोगे?”
“सदैव।”
समाप्त
