कार गयी खाई में… …और कहानी खत्म – योगेश मित्तल

कार गयी खाई में… …और कहानी खत्म - योगेश मित्तल

मैं तब बहुत बोलने वाले लेखकों में शुमार होता था, लेकिन ऐसा नहीं था कि मैं बोलने में ही दिग्गज था, मैं जितना बढ़िया वक़्ता रहा हूँ, श्रोता हमेशा उससे बहुत-बहुत बेहतर रहा हूँ।

इसका भी बहुत लाभ रहा है मुझे।

प्रकाशन जगत की ऐसी कहानियाँ भी मेरी स्मरणशक्ति के बक्से में सुरक्षित हैं, जो आप कभी भी कहीं और, किसी और से नहीं सुन सकते और राममेहर जी को साधुवाद, धन्यवाद कि मेरे दिमाग की बंद खिड़की का दरवाजा ही नहीं खोला, एक तरह से – सेंध ही लगा दी और घटनाएँ कूद-कूद कर खिड़की से बाहर आ रही हैं।

एक घटना दत्त भारती जी के एक उपन्यास के सम्बंध में है, दत्त भारती जी से कभी भी मेरी कोई विशेष मुलाकात नहीं रही। गिनती की तीन मुलाकातें ही हुईं थीं। दो बार रतन एंड कम्पनी में तथा एक बार गर्ग एंड कम्पनी में। उनमें भी कभी कोई ऐसी यादगार बात नहीं हुई, जिसकी चर्चा की जाये।

फिर भी चर्चा के लायक तो वह थे। उन दिनों उनके काफी उपन्यास आते थे। उन्हें पसन्द करने वालों का एक विशेष वर्ग था, किंतु उस में किसी महिला की ‘नो एंट्री’ थी। पुरुष वर्ग में उनकी असीम लोकप्रियता थी।

उसका कारण भी था – उनके तब के उपन्यासों में, उपन्यास की नायिका अथवा किसी अन्य महिला पात्र की, कोई विशेष सम्मानजनक स्थिति नहीं होती थी।

हालाँकि अपने जीवन के आखिरी उपन्यासों में उन्होंने कुछ बदलाव भी किया। कोशिश रही कि उनके पाठकों में महिलाएँ की संख्या भी बढ़े, लेकिन तब बिमल चटर्जी की विशाल लाइब्रेरी का एक मुख्य स्तम्भ होने के कारण मुझे पता है, जिस भी महिला को जबरदस्ती जिद्द करके दत्त भारती को पढ़वाया, उसने उपन्यास वापस करते हुए साफ कहा– “आगे से ऐसा घटिया उपन्यास मत देना।”

जी हाँ, घटिया…।

पर दत्त भारती का लेखन कहीं से भी घटिया नहीं था। गाँधी नगर में पहलवान टाइप के सुरेंद्र सिंह थे, जो बाकी सारी किताबें तो किराये पर पढ़ते थे, लेकिन दत्त भारती का उपन्यास खरीद कर ले जाते थे। उनकी वजह से ही उपन्यास की दो प्रतियाँ लानी पड़ती थीं।

गर्ग एंड कम्पनी के ज्ञानेंद्र प्रताप गर्ग कहते थे, “कुछ तो हुआ है इसकी जिन्दगी में। किसी एक औरत से या कई औरतों से ज़िंदगी में चोट जरूर खायी है पट्ठे ने।” मैं दत्त भारती का प्रशंसक था, मुझे ज्ञान की बातें सही लगती थीं।

दत्त भारती के जीवन में – न जाने कैसी खलिश थी, उनके उपन्यास में महिला चरित्र बहुत ऊँचा स्थान बहुत कम बना पाये।

ज़िंदगी की कड़वाहटें और चुभते हुए डायलॉग, दत्त भारती के उपन्यासों की सदैव विशेषता रहे हैं।

आज हमारी ज़िंदगी में जिस तरह के लोगों की भरमार है, उनके बारे में दत्त भारती ने बरसों पहले ‘मिस्टर एक’ जैसे उपन्यास में लिख दिया है।

यूँ तो उन दिनों दत्त भारती के सभी प्रकाशित उपन्यास मैंने पढ़े हैं, लेकिन ‘मिस्टर एक’ मुझे इतना पसंद आया था कि तब उसकी एक प्रति खरीद कर ही अपने पास रख ली थी। हाँ, अब नहीं है मेरे पास।

वैसे दत्त भारती का आखिरी, जो उपन्यास मैंने पढ़ा था, वह था – ‘कोई शिकायत नहीं’

जब पहली बार रतन एंड कम्पनी में बब्बू बाबू उर्फ सुरेंद्र ने मुझसे दत्त भारती का परिचय कराया तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। दत्त भारती उन लेखकों में से एक थे, जिनकी एक-एक लाइन मुझे पसंद आती थी।

बब्बू बाबू जानते थे, मुझे दत्त भारती पसंद है। बब्बू बाबू वेद प्रकाश काम्बोज से बेशक मुझे नहीं मिलवा पाये थे, पर एक बार जब दत्त भारती की मौजूदगी में, मैं रतन एंड कम्पनी पहुँचा तो उन्होंने सामने खड़े दत्त भारती की ओर इशारा किया और उस समय बब्बू बाबू ने मुझे गुटका भी नहीं कहा। कहा कि “योगेश, तू दत्त भारती से मिलने को कह रहा था न, ले मिल ले, ये रहा दत्त भारती।”

हाँ, बब्बू बाबू ने “ये रहे” नहीं, “ये रहा” ही कहा था।

मैंने खुश होकर दत्त भारती की ओर अपना हाथ बढ़ाया। हाथ मिलाने के लिए।

दत्त भारती जी ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा। मिलाने के लिए न तो हाथ बढ़ाया और ना ही ऐसा कोई उपक्रम किया कि लगे हाथ मिलाने वाले हैं।

मेरे छोटे से कद पर अपनी लम्बी नज़र डालने के बाद वह बोले, “कहाँ तक पढ़े हो?”

शर्म का एक बादल मेरे चेहरे पर छा गया। नजरें झुका धीरे से बोला, “नाइंथ तक तो पढ़ा हूँ।”

“सिर्फ नाइंथ तक…?”

मैं चुप रहा। जवाब में कुछ नहीं बोला।

“आगे क्यों नहीं पढ़े?” दत्त भारती ने कहा। फिर मेरे जवाब से पहले ही बोले, “किसी अच्छे स्कूल में नाम लिखाओ और पढ़ाई करो।”

फिर मेरे सिर पर एक हाथ रख मेरे बालों में हाथ घुमाया और बोले, “लिखना-लिखाना सब फालतू टाइम की चीजें हैं। सबसे जरूरी चीज है – शिक्षा। डिग्री।”

और मेरे सिर पर हाथ फेरकर वह पलट गये। दूसरी बार भी घनिष्ठता नहीं हुई।

गर्ग एंड कम्पनी में जब मुलाकात हुई, तब भी उन्होंने एक सवाल किया, “पढ़ना-लिखना शुरू किया या नहीं?”

मेरे सिर झुका लेने पर कुछ गर्म हुए थे, “तुम जैसे लोगों को कभी अक्ल नहीं आयेगी? पढ़ना-लिखना नहीं है। दिल नहीं लगता पढ़ाई में। बाकी आवारगी में दिल भी लगता है और उसके लिए वक़्त भी बहुत है।”

दत्त भारती के बारे में जितना जाना, वह बड़े ही खुद्दार किस्म के थे। उनके व्यक्तिगत जीवन के परिवार के बारे में कुछ नहीं जान पाया। हाँ, एक बार गोविंद सिंह ने कहा था, “पर्सनल लाइफ़ के बारे में दत्त बहुत खामोश किस्म का इंसान है, पट्ठे ने इश्क़ में तगड़ी चोट जरूर खायी है, इसलिए उसकी कहानियों में औरतों को बहुत इज्जत नहीं मिलती।”

पर दत्त भारती के लेखन के लगभग सभी छोटे-बड़े लेखक कायल थे।

उन्हीं दिनों दत्त भारती का एक उपन्यास आया, जिसमें नायक-नायिका कार में जा रहे होते हैं और कार अचानक खाई में जा गिरती है।

दोस्तों, तब ऐसी बातें कभी कल्पना में भी नहीं आयी थी कि कभी इन्टरनेट होगा। फेसबुक होगा और कभी मैं किताबी दुनिया की बातों से आपका परिचय करवाऊँगा। फिर भी मैं डायरी लिखता था, किंतु गाँधीनगर में रहते ही एक बार बेहद मूसलाधार बारिश में हमारे कमरे की कच्ची छत बुरी तरह टपकने लगी। हालत ऐसी हुई कि घर का कोई भी सामान भीगने से बचाना असम्भव हो गया।

ऐसे में उस समय लिखे जा रहे उपन्यास के पेज तो जैसे तैसे बचा लिये, पर डायरीज़ का ध्यान न रहा।

तेज बारिश के कारण कमरे में भी पानी भर गया था। इतना कि ऐड़ी और घुटने के बीच का हिस्सा पानी में रखे बिना हम खड़े भी नहीं हो सकते थे।

तब मेरी सारी डायरीज़ जलदेवता ने मुझसे पूछे बिना स्वयं को अर्पित कर लीं।

वो जमाना फाउंटेन पेन का था। बॉलपेन जैसी चीज का कहीं कोई नाम था और फाउंटेन पेन द्वारा इंक से कुछ लिखकर पानी में डालिये – सब कुछ पानी-पानी होना निश्चित है।

यह सब आपको इसलिये बता रहा हूँ, क्योंकि उस शानदार उपन्यास का नाम, प्रकाशक का नाम याद नहीं है। डायरीज़ होतीं तो सब सामने होता।

बहरहाल वो उपन्यास मुझे ही नहीं दत्त भारती के सभी पाठकों को लाजवाब लगा। उसमें कथानक का अंत एकदम अनूठा था। अंत के बाद भी हम देर तक उसी उपन्यास के बारे में ही सोचते रहते थे।

हम यानी मैं नहीं – दत्त भारती के सभी पाठक। उस उपन्यास के बारे में, मैंने जिस भी व्यक्ति से बात की, सबने उसके ‘एंड’ को बेहद लाजवाब बताया।

पर असल बात क्या थी, यह मुझे कुछ हफ्तों बाद पता चला, जब मैं गर्ग एंड कम्पनी पहुँचा और ज्ञान से मिला तथा उस उपन्यास की चर्चा की।

ज्ञानेंद्र प्रताप गर्ग ने उस उपन्यास के प्रकाशक को एक गंदी सी गाली दी और कहा कि उसने उपन्यास बेड़ा गर्क करवा दिया।

“बेड़ा गर्क…।” मैं चौंका, “पर उपन्यास तो बेहद शानदार है।”

“खाक शानदार है। दत्त ने मुझे खुद बताया कि पहले तो प्रकाशक ने ज्यादा पेज लिखवा लिये कि विशेषांक छापना है, फिर कहा चालीस पेज कम करने हैं, दत्त ने उसके सामने ही चालीस पेज निकाल लिये और वहाँ देखा क्या लिखा है। वहाँ हीरो हीरोइन कार में किसी पहाड़ी एरिया से गुज़र रहे थे। दत्त भारती ने वहीं दो लाइन लिखीं, कार का एक्सीडेंट कराया, कार खाई में जा गिरी, कहानी खत्म।”

तो दोस्तों, जिस शख्स के बारे में आप पढ़ रहे थे, उसका नाम याद कर लीजिये – दत्त भारती।

(यह लेख लेखक की फेसबुक पृष्ठ पर 30 अप्रैल 2021 को प्रकाशित हुआ था।)


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