मास्टर अंशुमान – सत्यजित राय | मुक्ति गोस्वामी | रेमाधव पेपरबैक्स

समीक्षा: मास्टर अंशुमान -सत्यजित राय

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 104 | प्रकाशक: रेमाधव पेपरबैक | अनुवाद: मुक्ति गोस्वामी

पुस्तक लिंक: अमेज़न

 

 

कहानी

 
अंशुमान को दहशरे की छुट्टियों में एक फिल्म में काम करने के मौका मिल रहा था। उसके ताऊजी के लड़के बिशुदा का कहना था कि जिस फिल्म में इस वक्त काम कर रहे थे उसमें निभाए जाने वाले किरदार के लिए वह एकदम फिट था। 
 
घर वालों ने भी जब फिल्म में काम करने की इजाजत दे दी तो अंशुमान शूटिंग के लिए अजमेर चला गया। 
 
अजमेर में अंशुमान ने फिल्म शूटिंग को तो ध्यान से देखा ही साथ ही एक रोमांचक घटना से भी दो चार होने का मौका उसे लगा। 
 
आखिर क्या थी रोमांचक घटना?
 

मेरे विचार

‘मास्टर अंशुमान’ सत्यजित राय का लिखा किशोर उपन्यास है। उपन्यास रेमाधव पेपरबैक्स द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका पहला संस्करण 2006 में प्रकाशित हुआ था और अब दूसरा संस्करण 2023 में प्रकाशित किया गया है। उपन्यास का अनुवाद मुक्ति गोस्वामी द्वारा किया गया है और अनुवाद अच्छा हुआ है। 
 
प्रस्तुत किशोर उपन्यास के केंद्र में एक किशोर बालक अंशुमान हैं। वह इस कहानी का कथावाचक है। उसके ही नजरिए से हम चीजों को घटित होते देखते हैं।
 
जब दशहरे की छुट्टियों में उसे अपने चचेरे भाई के बदौलत फिल्म में कार्य करने का मौका मिलता है तो वह भी फिल्म के क्रू के साथ साथ अजमेर चला जाता है। अजमेर में उसके साथ क्या क्या होता है? वह फिल्म से जुड़ी किन किन चीजों को देखता है? फिल्म में शामिल किन विभिन्न लोगों से मिलता है? और फिल्म के अलावा उधर से कैसे अनुभव होते हैं? इन सब प्रश्नों  के उत्तर इस उपन्यास में मिलते हैं। 
 
फिल्मों की दुनिया चकाचौंध भरी है। पर इस चकाचौंध के निर्माण के लिए कितने लोग कितनी मेहनत करते हैं यह अक्सर परदे के पीछे छुपा रह जाता है। लोग बस चमकदमक देखकर चमत्कृत रह जाते हैं और उसके पीछे की मेहनत को नजरंदाज कर देते हैं। ऐसे में सत्यजित राय का लिखा किशोर उपन्यास मास्टर अंशुमान इस फिल्मी दुनिया की पीछे की मेहनत की कुछ झलक पाठक के सामने में रखने में कामयाब होता है। 
 
वैसे तो इस उपन्यास में लेखक ने एक रोमांचकथा के तत्व भी रखे हैं लेकिन वो काफी देर में उपन्यास में आते हैं। उपन्यास ग्यारह अध्यायों में विभाजित है और कुछ गड़बड़ होने की आशंका अध्याय सात के अंत में जाकर ही होती है और असल गड़बड़ अध्याय आठ के अंत तक आते आते होती है। यानी उपन्यास के आधा से भी अधिक गुजरने के बाद। इसके अतिरिक्त उपन्यास में लेखक अंत तक एक रहस्य या संशय की स्थिति जरूर बनाकर रखते हैं लेकिन आखिर में चीज वैसे ही होती है जैसे कि शुरुआत में दिख रही होती है। पाठक को लगता है कि आखिर में आकर कुछ ट्विस्ट इत्यादि वो देंगे लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं है। इसके अलावा खलनायक ने जो किया वो क्यों किया इसके ऊपर भी कोई रोशनी नहीं डाली गयी है। ऐसा इसलिए भी जरूरी था क्योंकि किरदार को जिस तरह दिखाया गया उसके अनुसार उसने पहली बार ही ऐसा कुछ किया था। ऐसे में उसने ऐसा क्यों किया इस पर रोशनी डाली होती तो बेहतर होता। इसके अतिरिक्त उपन्यास में एक किरदार के ऊपर हमला भी होता है। उपन्यास पढ़ते हुए ये अंदाजा तो हो जाता है कि यह हमला क्यों हुआ होगा लेकिन आखिर में इसका कारण भी खलनायक के माध्यम से साफ की गयी होती तो बेहतर होता।
 
चरित्रों की बात करूँ तो उपन्यास में चरित्र काफी हैं लेकिन चूँकि कथावाचक अंशुमान है तो जिससे उसका संपर्क होता है वही इसमें दिखते हैं। चूँकि पुस्तक का कलेवर उतना अधिक नहीं है तो कुछ चरित्रों जैसे जगन्नाथ डे और कैप्टन कृष्णन उर्फ केष्टोदा के अलावा और किरदारों को इतना विकसित नहीं किया गया है। यह दोनों ही किरदार रोचक बन पड़े हैं। कैप्टन कृष्णन की कृष्णन बनने की कहानी तो रोचक है ही साथ ही इस किरदार के माध्यम से लेखक फिल्मों में स्टंटमैन कहे जाने वाले अज्ञात नायिकों के महत्व को भी दर्शाया है। बाकी के किरदार कहानी के अनुरूप आते जाते हैं लेकिन ऐसी कोई खास छाप नहीं छोड़ पाते हैं। उपन्यास में मौजूद मिस्टर माहेश्वर का किरदार भी इसी तरह उतनी छाप नहीं छोड़ पाता है। 
 
प्रस्तुत संस्करण में एक और बात थी जो मुझे खली। मास्टर अंशुमान के अध्यायों के दृश्यों को चित्रांकन के माध्यम से दर्शाया भी गया है परंतु चित्रकार के विषय में  कोई जानकारी संस्करण में नहीं दी गयी है।  चित्रकार के हस्ताक्षर तो चित्रों के नीचे मौजूद हैं लेकिन चूँकि वो बांग्ला लिपि में है तो हिंदी भाषियों को उसे पढ़ने में दिक्कत ही होगी। चित्रकार का नाम भी संस्करण में दिया गया होता तो बेहतर होता।
 
अंत में यही कहूँगा कि प्रस्तुत उपन्यास एक अच्छी रोमांचकथा बन सकता था लेकिन ऐसा नहीं हो पाया है। एक बालक के फिल्मी दुनिया के अनुभव के तौर पर इसे देखा जाए तो यह एक पठनीय उपन्यास है लेकिन अगर रोमांचकथा समझकर आप इसे पढ़ेंगे तो निराश हो सकते हैं। 
 
*****
 
 
प्रस्तुत पुस्तक में लघु उपन्यास ‘मास्टर अंशुमान’ के अतिरिक्त सत्यजित राय की दो कहानियों को भी संकलित किया गया है। दोनों कहानियों के ही केंद्र में ऐसे व्यक्ति का होना है जो कि कभी मुख्य किरदार के जीवन में काफी महत्व रखता था लेकिन समय के साथ वह उनसे दूर हो गया और मुख्य किरदार द्वारा भुला दिया गया। 
 
यह कहानियाँ निम्न हैं:
 
नया दोस्त 
 
अमियनाथ सरकार एक उपन्यासकार थे जो कि शांतिनिकेतन जा रहे थे। ऐसे में उनका परिचय  जयंत बोस नामक व्यक्ति के साथ हुआ। इस यात्रा में उनकी उससे ऐसी घनिष्टता बन गयी कि वह उनका नवीन दोस्त बन गया। पर जयंत क्या सच में उनका नया दोस्त था? 
अक्सर स्कूल के दिनों में दूसरों छात्रों के साथ हमारे जो रिश्ते रहते हैं वह हमारे मन में गहरी छाप छोड़ देते हैं। यह वही समय है जब कई छात्र नासमझी में ऐसी हरकतें कर देते हैं जो कि सही नहीं कही जा सकती। लेकिन हम स्कूल से तो निकल जाते हैं लेकिन उन लोगों की वही छवि हमारे मन में बसी रह जाती है। लेकिन हो सकता है कि वयस्क होने पर वह व्यक्ति एकदम बदल चुका हो।  
पुस्तक में संकलित पहली कहानी ‘नया दोस्त’ इसी विषय के इर्द गिर्द है। अमियनाथ सरकार एक उपन्यासकार हैं जो कि जब शांतिनिकेतन जा रहे होते हैं तो उनकी मुलाकात एक अन्य व्यक्ति जयंत बोस से होती है। आगे क्या होता है यह हम उनके शब्दों में ही जानते हैं।  
कैसे कई बार अंजान व्यक्ति के साथ यात्रा के दौरान हुई हमारी दोस्ती प्रगाढ़ हो जाती है और कई बार जिसे हम अनजान समझ रहे होते हैं वो हमारे द्वारा भुलाये गए भूतकाल से तालुक रखता है यही इस कहानी में दिखता है। 
 
 
जोड़ी 
 
रतनलाल रक्षित एक गुजरे जमाने का फिल्म सितारा था जो कि अपनी ज़िंदगी अपने अकेलेपन और अपनी फिल्मों के साथ गुजार रहा था। कभी फिल्मों में उसका जोड़ीदार हुआ करता था लेकिन बोलने वाली फिल्मों के आते ही यह जोड़ी टूट गई और वह जोड़ीदार कहीं गायब हो गया। कौन था ये जोड़ीदार? क्या कभी ये जोड़ी दोबारा बन पायी?
 
संकलन में संकलित दूसरी कहानी ‘जोड़ी’ तारिणी नामक व्यक्ति द्वारा सुनायी जा रही होती है। यह कहानी भी मास्टर अंशुमान के तरह फिल्म और फिल्म कलाकारों  के जीवन के कई पक्ष सामने रखती है। अक्सर देखा गया है कि फिल्म सितारों का जब समय ढल जाता है तो वो अकेलेपन और अपने गुजरे समय में ही जीना पसंद करते हैं। कहानी का मुख्य किरदार रतनलाल रक्षित भी कुछ ऐसा ही है। वहीं कहानी में दूसरा किरदार है शरत कुंडू जो कि रतनलाल के साथ ही काम करता था और उसके जितना ही प्रतिभावान था लेकिन क्योंकि समय के साथ न चल पाया तो गायब हो गया। इस किरदार के माध्यम से फिल्म इंडस्ट्री के चढ़ते सूरज को सलाम करने के तरीके को भी दर्शाता है। कैसे कई बार प्रतिभावान कलाकार भी जब समय के साथ खुद को ढाल नहीं पाते हैं तो वो हाशिये पर कैसे चले जाते हैं यह इधर दिखता है। कई बार बड़े घरों में काम करने वाले सहयकों को देखकर भी अनदेखा कर देता है वह भी इधर दिखता है। 
 
 
यह दोनों ही कहानियाँ पठनीय हैं और अंत में ऐसा घुमाव लाती हैं कि पढ़ने वाला चकित हो जाता है। 
 
लेकिन मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि सत्यजित राय की यह दोनों कहानियाँ इस पुस्तक के लिए उपयुक्त नहीं थी। चूँकि मास्टर अंशुमान एक किशोर उपन्यास है तो अच्छा होता कि उनकी उन्हीं कहानियों को इधर रखा जाता जो कि किशोर पाठकों को ध्यान में रखकर उन्होंने लिखी थी। यह दोनों कहानियाँ वयस्क पाठकों के लिए उचित जान पड़ती हैं। ऐसे में हो सकता है कि किशोर पाठक, जो हो सकता है मास्टर अंशुमान पढ़ना पसंद करें, इन कहानियों को उतना पसंद न कर पाएँ। 
 
*****
 
अंत में यही कहूँगा कि मास्टर अंशुमान एक ठीक ठाक पुस्तक है। कहानियाँ पठनीय हैं। लघु-उपन्यास में रोमांच के तत्व कहानी शुरू होते ही आ गए होते और अभी उनकी जितनी मात्रा है उससे वह थोड़े अधिक होते तो अच्छा रहता। एक बार पढ़ सकते हैं। 
 

पुस्तक लिंक: अमेज़न

 

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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