संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: ई-बुक | पृष्ठ संख्या: 237 | श्रृंखला: विक्रांत गोखले #2
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
मंदिरा चावला एक मॉडल और ऐक्ट्रिस थी जो कि सोशलाईट के तौर पर ज्यादा प्रसिद्ध थी। वह दिल्ली की संभ्रांत पार्टियों की जान समझी जाती थी। न जाने कितने लोग उसके दीवाने थे। न जाने कितने लोग उसका सानिध्य पाने के लिए तड़पते थे।
सुनीता गायकवाड़ एक घरेलू स्त्री थी जो अपने पति से दूर दिल्ली में गुजर बसर कर रही थी। वह एक खूबसूरत महिला था जिस पर उसके पड़ोसी भी आकर्षित हुए बिना नहीं रह पाते थे।
परन्तु अब यह दोनों ही स्त्रियाँ इस दुनिया में नहीं रही थी। इन दोनों की किसी ने बड़ी निर्ममता से हत्या कर दी थी।
पुलिस की माने तो इन दोनों की हत्या एक ही वहशी ने की थी और वह था दिल्ली पुलिस का सब इंस्पेक्टर नरेश चौहान। उनके पास ऐसे सबूत मौजूद थे जो नरेश के गुनाह की चुगली करते थे।
पर विक्रांत को इस चीज में एक घुंडी दिख रही थी। वह विक्रांत ही था जिसने मंदिरा की लाश बरामद की थी। वह नरेश को जानता था और इसलिए उसे पुलिस की दलील से इत्तेफाक नहीं था।
क्या नरेश चौहान सच में बेकुसूर था?
क्या वह किसी साजिश का शिकार हुआ था?
क्या विक्रांत गोखले इस खतरनाक साजिश से पर्दा उठा पाया?
मुख्य किरदार
विक्रांत गोखले – एक प्राइवेट डिटेक्टिव जो दिल्ली में रेपिड इंवेस्टिगेशन्स नाम की डिटेक्टिव एजेंसी चलाता था
नरेश चौहान – दिल्ली पुलिस में सब इंस्पेक्टर
नदीम खान – नरेश का एएचओ
प्रवीण शर्मा – कालका जी का एसएचओ
शीला वर्मा – विक्रांत की सेक्रेटरी
विचार
‘खतरनाक साजिश’ लेखक संतोष पाठक की विक्रांत गोखले श्रृंखला का दूसरा उपन्यास है। अगर आप विक्रांत गोखले से वाकिफ नहीं है तो संक्षिप्त में इतना बताना काफी होगा कि विक्रांत गोखले दिल्ली में रहने वाला एक प्राइवेट डिटेक्टिव है जो कि रैपिड इंवेस्टिगेशन्स नाम से अपनी डिटेक्टिव एजेंसी चलाता है। विक्रांत गोखले श्रृंखला के उपन्यास ज्यादातर प्रथम पुरुष में ही रहते हैं। चूँकि उपन्यास प्रथम पुरुष में रहते हैं तो पाठक को उसके मन में उठने वाले ऐसे भावों का भी यदा कदा पता चलता रहता है जिससे वह कामातुर प्रतीत हो सकता है। वही जो लोग हिन्दी लोकप्रिय साहित्य को काफी समय से पढ़ते चले आ रहे हैं वह विक्रांत गोखले में उसके इसी व्यवहार के कारण सुरेन्द्र मोहन पाठक के किरदार सुधीर कोहली की छाप भी देख सकते हैं।
प्रस्तुत उपन्यास खतरनाक साजिश पर आएँ तो इस उपन्यास की कहानी 1 जून 2017 से लेकर 8 जून 2017 के बीच घटित होती है। इन आठ दिनों के वक्फे में विक्रांत गोखले को ऐसे पेंचदार मामले से दो चार होना पड़ता है जो उसे चकरघिन्नी की तरह घुमाकर रख देता है।
उपन्यास की शुरुआत विक्रांत के मंदिरा चावला के घर से बाहर निकलने से होती है जहाँ पर उसे मंदिरा की लाश मिली है। उस लाश के पास उसे एक ऐसी चीज मिली है जिससे उसका जानकार नरेश चौहान इस गुनाह का गुनाहगार साबित होता है। इसके कुछ देर बाद एक और लाश बरामद होती है और उस लाश के खूनी के रूप में भी जो सबूत मिलते हैं वह उसके जानकार नरेश चौहान को ही खूनी दर्शाते हैं। विक्रांत नरेश को जानता है और उसे यकीन है कि कत्ल नरेश ने नहीं किया है। यही कारण रहता है कि नरेश के कहने पर इस मामले को अपने हाथ में ले लेता है।
इसके बाद शुरू होता है साजिशों का खेल। जैसे जैसे विक्रांत मामले में आगे बढ़ता है वैसे वैसे मामला उलझता चला जाता है। किरदार इस मामले में जुड़ते जाते हैं और विक्रांत के लिए कातिल को ढूँढना एक टेढ़ी खीर हो जाता है। वहीं परिस्थितियाँ ऐसी हो जाती हैं कि नरेश कातिल के रूप में और मजबूत कैंडिडेट बनता सा दिखाई देने लगता है। यही कारण है कि आप उपन्यास से बंध जाते हो। कई सवाल आपके मन में उठने लगते हैं जिनका जवाब पाना जरूरी हो जाता है।
किस तरह विक्रांत इस मामले की तह तक जाता है और इस दौरान कैसे अपराधी उससे दो कदम आगे ही प्रतीत होता है और फिर किस तरह वह अपराधी तक पहुँचने में सफल होते हैं यह सब पढ़ना एक रोमांचक अनुभव होता है। लेखक ने इस बात का पूरा बंदोबस्त किया है कि पाठक कातिल का पता लगाने की कितनी भी कोशिश कर ले वह काफी देर तक कातिल का पता नहीं लगा पाएगा। लेखक ने जिस तरह का कथानक पाठक के लिए परोसा है वह एक रहस्यकथा प्रेमी को बहुत ही ज्यादा पसंद आने वाला है।
जहाँ एक तरफ खतरनाक साजिश एक जासूसी रहस्यकथा है वहाँ इसमें नीलम तंवर के होने के कारण कोर्ट रूम ड्रामा का स्वाद भी लेखक पाठकों को देते हैं। यह सीन कम हैं लेकिन अच्छे बन पड़े हैं। उम्मीद है लेखक भविष्य में नीलम को लेकर कुछ वृहद लिखेंगे।
उपन्यास में रहस्य और रोमांच के साथ ही हास्य का भी कुछ पुट दिया गया है। गोखले एक कामातुर शख्स है और उसके इस रवैये से नीलम और शीला दोनों ही वाकिफ हैं। वह जिस तरह से उसको उपन्यास में बनाती हैं वह कई बार आपके चेहरे पर एक मुस्कान ले आता है।
उपन्यास के किरदारों की बात करूँ तो उपन्यास के केंद्र में विक्रांत गोखले मौजूद है। वह एक दिल फेंक पीडी है जिसके दृष्टिकोण से हम इस उपन्यास में हो रही घटनाओं को देखते हैं। हम न केवल औरतों के प्रति उसके रवैये को इस कारण जान पाते हैं बल्कि दूसरी चीजों के प्रति उसकी राय को जानते हैं। चूँकि हम उसके मन में चल रहे ख्यालों को सुन पाते हैं तो कुछ ख्याल, विशेषकर औरतों के प्रति, ऐसे आते हैं जो आपको असहज कर सकते हैं। विक्रांत गोखले सदचरित्र नहीं है और इसमें दो राय नहीं है। कई बार वह लड़कियों से फ़्लर्ट इस तरह से करता दिखता है जो कि फ़्लर्ट कम बदतमीजी ज्यादा प्रतीत होती है लेकिन बीच बीच में उसके मुख से ऐसी बातें भी निकल जाती है जो कि कुछ हद तक उसके चरित्र को सकारात्मक बना देती हैं। मसलन निम्न वार्तालाप ही देखें:
“जनाब ये तो बहुत घटिया खाका खींच रहे हैं आप उसके चरित्र का।”
“वो थी ही ऐसी एक नंबर की छिनाल।”
मेरा दिल हुआ उससे पूछ लूँ कि अगर वो एक नंबर की छिनाल थी तो उसको देखकर लार टपकाने वाला बजाते खुद वो क्या था। उसे किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
ऐसे लोगों से हर कोई एक न एक बार मिला होगा। कई मर्द और औरतें जिनका खुद चरित्र डामाडोल होता है वो अक्सर दूसरी औरतों को चरित्र प्रमाण पत्र बाँटते हुए दिख जाते हैं। ज़्यादतर मामलों में उनके कही बातें झूठ ही होती हैं।
चूँकि इस उपन्यास में विक्रांत अक्सर पुलिस वालों से भी दो चार होता रहता है तो उसके और पुलिस वालों के बीच का समीकरण देखने को मिलता है। वह नरेश को अपना दोस्त कहता है लेकिन जिस तरह से नरेश उससे पेश आता है वह एक मालिक नौकर का रिश्ता ज्यादा प्रतीत होता है। यह चीज अटपटी भी लगती है क्योंकि वह नरेश को अपना दोस्त कह चुका होता है। अगर दोस्त की जगह जानकार कहता तो शायद बेहतर होता लेकिन फिर वह एक जानकार के लिए इतनी जामारी क्यों करता? यह भी सोचने की बात है।
उपन्यास में विक्रांत के साथ शीला और नीलम भी हैं। इन तीनों का समीकरण रोचक है। जिस तरह वह दोनो उसे सबक सिखाती हैं वह अच्छा लगता है। लेकिन फिर भी शीला के साथ होने वाला एक मामला, जहाँ वो शीला को उसकी मर्जी के बिना चूमता है, पूरी तरह छेड़छाड़ का बनता है और उम्मीद रहेगी कि लेखक ऐसी चीजों को दर्शाते समय तो संवेदनशीलता दर्शाएँ और इसे हँसी मजाक की श्रेणी में न रखें या अगर दर्शा रहे हैं तो ऐसी बदतमीजी करने वाले व्यक्ति को इसका सही खामियाजा भुगतते हुए भी दिखाएँ।
उपन्यास में आखिर में आया सूरज सिंह नाम का किरदार बेहद रोचक है। जिस तरह से उसे दर्शाया है उसके हिसाब से लेखक आगे जाकर उस किरदार का इस्तेमाल करें तो अच्छा रहेगा। मैं जरूर उस किरदार को आगे विक्रांत के साथ या उससे अलग किसी कहानी में देखना चाहूँगा।
इसके अलावा उपन्यास में कातिल के रूप में दिल्ली पुलिस का अफसर फँसता है तो पुलिस भी उपन्यास के काफी हिस्से में दिखती है। पुलिस से जुड़े कई लोग उपन्यास में दिखाये गए हैं और उनके काम करने के तरीके, उनके रवैये को लेखक ने दर्शाने की कोशिश की है। पुलिस वाले कैसे आम मामलों में अपने लोगों को बचाने की कोशिश करते हैं यह भी दिखता है। वहीं किस तरह से पुलिस वाले चाहे तो अपनी वर्दी का बेजा इस्तेमाल कर सकते हैं वह भी नरेश और मंदिरा वाली बात से पता चलता है। और यकीन जानिए ऐसे कई मामले देखने को मिल जाते हैं।
उपन्यास की कमी की बात करूँ तो कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हे बेहतर किया जा सकता था।
ऐसा नहीं है इस गप्पे लड़ाने की फितरत का इन किरदारों को नहीं पता है। उनकी इस प्रवृत्ति को कई बार किरदार भी अंडरलाइन करते हैं। उपन्यास का ही एक हिस्सा है जिसमें विक्रांत कहता है:
मुझे इस वक्त खुद पर बहुत गुस्सा आ रहा था, क्यों एक अहमतरीन काम को अंजाम देने की सोचने के बाद मैं गप्पे लड़ाने बैठ गया।
आगे उनके बीच के वार्तालाप का एक अंश यूँ है:
“तुम सुनो तो, उसका मुलाकाती यहाँ पहुँचा हुआ है।”
“और ये बात तू अब मुझे बता रही है।”
“तुम मुझे बोलने कहाँ देते हो!”
“मैं तुझे बोलने नहीं देता! और इतनी जो कथा करके हटी है वो क्या था!”
“देखो तुम फिर शुरू हो गए।”
उपन्यास में ऐसे वार्तालाप कई हैं जिन्हें हटा दिया जाए तो कथानक और बेहतर हो सकता है। चूँकि उपन्यास प्रथम पुरुष में कहा गया है तो कई बार विक्रांत फलसफे बघारता हुआ भी दिखता है। लेखक को उपन्यास के इस हिस्से पर ज्यादा मेहनत करनी चाहिए। यह फलसफे कई बार सुधीर कोहली से ज्यादा मिलते हुए लगते हैं। चूँकि अंदाजे बयाँ भी लगभग एक जैसा है कई बार पाठक को ऐसा लग सकता है कि आप सुधीर के कारनामें पढ़ रहे हैं। इस चीज से मुझे व्यक्तिगत तौर पर फर्क नहीं पड़ता लेकिन कई पाठकों को पड़ेगा और वह शायद स्टाइल के आगे लेखक की प्लॉट पर की गयी मेहनत को नजरंदाज कर दें। इसलिए लेखक के लिये यह बेहतर होगा कि वह विक्रांत के लिए एक अलग अंदाजे बयाँ विकसित करें जो कि इस बेहतरीन किरदार को सुधीर की छाया से बाहर निकाल सके।
उपन्यास में अगली बात कातिल की पहचान को लेकर है। उपन्यास में लेखक कातिल के रूप में कई कैन्डिडेट खड़े करने में सफल हुए थे। इस कारण पाठक के तौर पर मैं तब तक कातिल का पता नहीं लगा पाया जब तक कि उन्होंने एक व्यक्ति के घर जाकर तलाशी लेने के वक्त के विषय में बात नहीं की। जैसे ही उन्होंने वक्त बताया मुझे अंदाजा हो गया था कि कातिल कौन है। लेखक उधर वक्त न बताकर केवल तलाशी लेने की बात करते तो बेहतर होता। और यदि वक्त बताना जरूरी भी था तो परिस्थिति ऐसे बनाते कि उस वक्त के एक आध और कैन्डिडेट भी होते तो कातिल को पिन पॉइंट करना थोड़ा मुश्किल होता।
अगली बात एक ऐसी चीज को लेकर है जिसके विषय में ज्यादा कुछ कहना स्पॉइलर देना होगा। यहाँ बस इतना ही कहूँगा कि बालों की स्टाइल और कलर बदलता रहता है। ऐसे में लेखक ने जो चीज पाठक को कन्फ्यूज करने के लिए रखा है वह है तो अच्छा लेकिन फिर भी पढ़ने एक बाद यह ख्याल मन में आ ही जाता है कि एक ही तरह के बाल कितने वक्त तक कोई व्यक्ति रखेगा।
उपन्यास की एक कमी उस संस्करण की भी थी जो कि मैंने पढ़ा। मैंने किंडल पर ई-संस्करण पढ़ा था तो इसमें कुछ-कुछ वर्तनी की गलतियाँ भी देखने को मिलती हैं जैसे कश को कस लिखा गया है, सुकून को शकून इत्यादि। चूँकि ये ईसंस्करण है तो लेखक चाहें तो इन कमियों को सुधार सकते हैं।
अंत में यही कहूँगा कि खतरनाक साजिश वाकई में खतरनाक है और पाठक का दिमाग हिलाने का मादा रखती है। उपन्यास शुरू से ही आपको बांध लेता है और आप इसे अंत तक पढ़ते चले जाते हो। यहाँ ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस उपन्यास रूप में लेखक ने पाठक को रहस्य और रोमांच से भरी ऐसी रचना भेंट की है जिससे वह शायद ही निराश होगा। अगर आप एक बेहतरीन मर्डर मिस्ट्री पढ़ना चाहते हैं तो इसे पढ़कर जरूर देखें।
पुस्तक की कुछ पंक्तियाँ जो कि मुझे रोचक लगीं:
लॉकअप तो जनाब सिर्फ गरीब-गुरबा लोगों के लिए होता है। उन लोगों के लिए, जिन्हें रात को पुलिस वालों की बेहिसाब मार खानी होती है। मार भी कैसी बेवजह की, जो भी पुलिसिया उधर से गुजरता है लॉकअप खोलकर जमकर अपना गुस्सा उतारता है और चला जाता है। इस तरह के लोग जियो के अनलिमिटेड ऑफर की तरह होते हैं जितना भी यूज कर लो कोई पाबंदी नहीं, कोई शिकायत नहीं।
साहबान ये बिल्कुल जरूरी नहीं कि आप किसी पर एहसास करें, पर गलती से अगर आप ऐसा कर बैठे हैं तो उसे इस बात का एहसास जरूर कराएँ। वरना आपके एहसान की कोई कीमत नहीं रह जायेगी। ‘नेकी कर दरिया में डाल’ वाली कहावत आज बीते जमाने की बात हो चुकी है। आज के दौर में तो लोग भिखारी को पाँच का सिक्का भी देते हैं तो अगले दिन उसकी फोटो फेसबुक पर पोस्ट कर देते हैं और आपसे रिक्वेस्ट करते हैं कि आप उसे शेयर करें, लाइक करें। हालात तो इतने बदतर हो चुके हैं कि गर्ल-फ्रेंड व्हाट्सएप्प पर किसी बुके की फोटो भेज कर अगले दिन याद दिलाने से बाज नहीं आती कि- जानू मैंने कल रात को फूलों का गुलदस्ता भेजा था, तुमने देखा या नहीं- कहने का तात्पर्य ये है जनाब कि एहसान करने से ज्यादा एहसान को सामने वाले की निगाह में लाना जरूरी होता है।
ऐसी खनकती हुई, दिल में अरमान जगाने वाली हँसी-हँसना तो सिर्फ पराई औरतों को ही आता है। यकीन नहीं आता तो पड़ोसी से पूछ कर देखें, यकीनन आपकी शरीकेहयात के बारे में उसके ऐसे ही उद्गार होंगे। भले ही आप अपनी बीवी की हँसी सुनकर ये कहने से बाज ना आते हों कि मुँह कम फाड़ा कर।
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बहुत उम्दा विकास जी
जी आभार…
Wah very nice 🌹👌
जी आभार …