संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 144 | प्रकाशक: हिंद युग्म
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
उस दिन जब चंदर शादी के लिए लड़की देखने कैफे में दाखिल हुआ था तो उसे पता भी नहीं था कि उसका जीवन किस तरह बदलने वाला है।
चंदर पहली बार सुधा से इस कैफे में मिला था जहां दोनों ने एक दूसरे को देखा था और फिर शादी के लिए एक दूसरे को रिजेक्ट कर दिया था।
लेकिन फिर वह दोनों एक दूसरे को रिजेक्ट करके भी एक ऐसे रिश्ते में बंध गए थे जो कि आगे जाकर उनकी जिंदगी बदलने वाला था।
ऐसा रिश्ता जिसके कारण मुसाफिर कैफे की नींव रखी जानी थी।
ऐसा रिश्ता जो उनको इतने करीब लाने वाला था कि जहां से दूर जाने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं बचने वाला था?
मेरे विचार
हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध किरदारों का नाम अगर पूछा जाए तो सुधा और चंदर का नाम शायद उस सूची में बहुत ऊपर रहेगा। धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों का देवता (Gunahon Ke Devta) के इन किरदारों ने पाठकों को अपने मोहजाल में बांध सा लिया था। आज भी इनकी लोकप्रियता कम नहीं हुई है। ऐसे में अगर कोई लेखक इन किरदारों के नाम पर अपने किरदार रखता है तो वह यह खतरा उठाता है कि उसके किरदारों की तुलना गुनाहों के देवता के सुधा और चंदर से होगी। यह चीज एक तरफ तो लेखक की किताब को इंस्टेंट प्रसिद्धि दे देती है लेकिन इसमें यह खतरा भी रहता है कि कहीं वह पाठकों की अपेक्षा पर खरा न उतरे। अगर उपन्यास कमजोर निकले तो पाठकों को ये प्रसिद्ध किरदारों को भुनाने की बात न लगने लगे। ‘मुसाफिर कैफे’ (Musafir Cafe) में लेखक दिव्य प्रकाश दुबे (Divya Prakash Dubey) ने यह खतरा उठाया है। अपनी बात करूँ तो उन्होंने इन किरदारों को लेकर ऐसी रचना रची है जो कि इनके साथ न्याय ही करती है। इधर यह भी बताना जरूरी है कि इस उपन्यास में मुख्य किरदारों के केवल नाम ही गुनाहों के देवता से लिए गए हैं।
हिंद युग्म (Hind Yugm) द्वारा प्रकाशित ‘मुसाफिर कैफे’ (Musafir Cafe) मुख्य रूप से चंदर, सुधा और पम्मी की कहानी है जिसके केंद्र में चंदर है। चंदर के माध्यम से ही हम बाकी किरदारों से मिलते हैं और उसके जीवन में उनका और उनके जीवन में उसका क्या प्रभाव पड़ता है यह देखते हैं।
चंदर और सुधा दो ऐसे युवा हैं जिन्होंने अपने अपने हिस्से के रिश्ते जिए हैं और अब वह रिश्ते खत्म हो चुके हैं। वो आज के युवा जिनपर एक उम्र के बाद घर वाले शादी के लिए दबाव बनाने लगते हैं। यह ऐसे युवा हैं जिन्हें प्रेम हुआ है लेकिन वो शादी के कगार तक नहीं पहुँच पाया है। ऐसे में अब वह घर वालों के दबाव में आकर लड़की और लड़का देखने वाला कार्य कर रहे हैं। इसी प्रक्रिया में यह एक दूसरे से मिलते हैं और फिर नजदीक आ जाते हैं। इन्हें प्यार हो जाता है। मुसाफिर कैफे इनके इसी प्यार की कहानी है, इनके अलग होने की कहानी है और साथ में उन युवा दिलों की कहानी भी है जो उसी कश्ती में सवार हैं जिसमें चंदर और सुधा सवार हैं।
भारत एक गरीब देश रहा है और ऐसे में यहाँ अच्छे जीवन को पाने का एक ही तरीका लोगों को आता है और वो है पढ़ लिखकर इंजीनियर या डॉक्टर बन जाना है। अभिभावकों की यही इच्छा रहती है कि उनकी संतान ऐसी पढ़ाई करे जिससे वह ठीक ठाक कमाने लगे और फिर इस कमाई को बढ़ाते रहने के लिए वो दिन रात एक चूहादौड़ में शामिल हो जाए। अधिकतर अभिभावक खुशी को आर्थिक सम्पन्नता से आँकते हैं लेकिन वो भूल जाते हैं कि व्यक्ति की खुशी इस पर निर्भर नहीं करती। ऐसे में हमारे यहाँ ऐसे युवाओं की फौज सी खड़ी हो गई है जो पैसा तो कमा रही है लेकिन वो उससे खुश नहीं है। बस ये फौज दौड़ने में लगी है और खुशी को चीजों में तलाश रही है और जब वो नहीं मिल रही तो अवसाद में चले जा रही है। चंदर भी ऐसा ही एक युवक है। वो एक अच्छी नौकरी करता है लेकिन वो उस नौकरी में खुश नहीं है। बस जिंदगी जिए जा रहा है। वो प्यार करना चाहता है, शादी करना चाहता है लेकिन वह इसमें भी कामयाब नहीं रहा है।
ऐसे में वह सुधा से मिलता है जिसके प्रति वह आकर्षित हो जाता है। सुधा चंदर से बिल्कुल अलग है। सुधा अपने करियर से खुश है और उसे चंदर की तरह अपने करियर को लेकर किसी तरह का अवसाद नहीं है। वह प्यार तो करना चाहती है लेकिन नजदीकियों से भी डरती है। वह शादी भी नहीं करना चाहती है। इस सबके लिए उसके अपने कारण हैं।
चंदर और सुधा के अतिरिक्त पम्मी का किरदार भी उपन्यास में महत्वपूर्ण है। इस किरदार का नाम भी गुनाहों के देवता के एक किरदार के ऊपर रखा गया है। पम्मी वह सब कर रही है जो कि चंदर करना चाहता है। वह उपन्यास में 94 पृष्ठ पर आती जरूर है लेकिन उपन्यास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
इन तीनों ही किरदारों के माध्यम से लेखक ने अधिकतर युवाओं की सोच, जीवन के प्रति उनके नजरिए, उनकी परेशानियाँ, उनकी असुरक्षाएँ इत्यादि को दर्शाया है। हम अक्सर ज़िंदगी में सब कुछ नहीं पा सकते हैं। यही हाल भी इन किरदारों का है। अपने अपने चुनाव यह करते हैं और फिर उन चुनावों के परिणामों के साथ रहते हैं। इनमें कोई भी किरदार गलत नहीं है क्योंकि ये अपनी इच्छाएँ एक सीमा के बाद दूसरों पर थोपना बंद कर देते हैं और इतनी हिम्मत रखते हैं कि अपने चुनावों के परिणामों के साथ जी सकें। जीवन में कई बार ऐसे क्षण आते हैं जहाँ पर आप अपने आपको इन तीनों में से किसी न किसी एक की परिस्थिति में पाते हैं। ऐसे में एक जुड़ाव सा इन किरदारों के साथ हो जाता है।
ऐसे में आप जानना चाहते हैं कि इन किरदारों की यात्रा कैसी रहेगी? किस तरह से वह लोग उन चीजों को पाएँगे जिसकी उन्हें तलाश है और इस यात्रा में किन किन चीजों को वो खो देंगे। इनका खोना पाना आपको कहीं कहीं पर अपना खोना पाना लगने लगता है। अपनी ज़िंदगी का अक्स इनकी ज़िंदगी में दिखने लगता है।
उपन्यास का कथानक छोटे छोटे अध्यायों में विभाजित है। भाषा शैली सरल है और कथानक के बीच बीच में लेखक ऐसी बातें भी दे जाते हैं जिन्हें आप बार बार पढ़ना चाहेंगे और पढ़ने के बाद जिन्हें आप सोचना चाहेंगे।
उपन्यास में इक्का दुक्का वर्तनी की गलतियाँ हैं लेकिन यह चूँकि इक्का दुक्का ही हैं इसलिए खटकती नहीं है। हाँ, एक चीज मुझे बड़ी अटपटी लगी। उपन्यास में कई जगह अंग्रेजी के कुछ शब्दों को रोमन में लिखा है और कुछ को नहीं लिखा है। उदाहरण के लिए कन्फ्यूजन, सुसाइड, सिम्पथी को रोमन में लिखा है लेकिन बिहेव, प्लीज जेनरेशन इत्यादि को देवनागरी में लिखा है। हो सकता है लेखक ने यह इसलिए लिखा हो क्योंकि उनके उच्चारण में संशय हो लेकिन इसके लिए आम बोल चाल में प्रचलित उच्चारण का प्रयोग किया जा सकता था।
अंत में यही कहूँगा कि दिव्य प्रकाश दुबे का यह उपन्यास मुसाफिर कैफे मुझे बहुत पसंद आया। शायद इसलिए भी क्योंकि इसके किरदारों से मैं जुड़ाव महसूस कर पाया। उपन्यास पठनीय है। अगर आपने नहीं पढ़ा है तो एक बार पढ़कर देखिए।
पुस्तक के वह अंश जो मुझे पसंद आये
पता नहीं दो लोग एक दूसरे को छूकर कितना पास आ पाते हैं। हाँ, लेकिन इतना तय है कि बोलकर अक्सर लोग छूने से भी ज्यादा पास आ जाते हैं। इतना पास जहाँ छूकर पहुँचा ही नहीं जा सकता हो। किसी को छूकर जहाँ तक पहुँचा जा सकता है वहाँ पहुँचकर अक्सर पता चलता है कि हमने तो साथ चलना भी शुरू नहीं किया। (पृष्ठ 7)
कहानी लिखने की सबसे बड़ी कीमत लेखक यही चुकाता है कि कहानी लिखते लिखते एक दिन वो खुद कहानी हो जाता है। (पृष्ठ 8)
पहली हर चीज की बात हमेशा कुछ अलग होती है क्यूँकि पहला न हो तो दूसरा नहीं होता, दूसरा न हो तो तीसरा, इसलिए पहला कदम ही जिंदगी भर रास्ते में मिलने वाली मंजिलें तय कर दिया करता है। पहली बार के बाद हम बस अपने आप को दोहराते हैं और हर बार दोहराने में बस वो पहली बार ढूँढते हैं। (पृष्ठ 15)
“हनीमून पे तुम्हें ऐसी जगह जाना ही जहाँ समंदर हो और शादी तुम्हें करनी नहीं है। थोड़ी पागल नहीं हो तुम?”
“हाँ हूँ तो, हर कोई थोड़ा सा पागल तो होता ही है।”
“मैं तो नहीं हूँ पागल।”
“तो ढूँढो अपना पागलपन।”
“उससे क्या होगा?”
“थोड़ा सा पागल हुए बिना इस दुनिया को झेला नहीं जा सकता।” (पृष्ठ 22)
जिंदगी की कोई भी शुरुआत हिचकिचाहट से ही होती है। बहुत थोड़ा सा घबराना इसीलिए जरूरी होता है क्यूँकि अगर थोड़ी भी घबराहट नहीं है तो या तो वो काम जरुरी नहीं है या फिर वो काम करने लायक ही नहीं है। (पृष्ठ 23)
कई बार रद्दी में पुराने खोए हुए दिन चाय के निशान के साथ मिल जाते हैं और हम ऐसे ही न जाने दिन रद्दी में कौड़ी के भाव से भेज देते हैं। खरीदने बेचने में हम अभी भी कच्चे हैं। पूरी जिंदगी पता नहीं क्या कमाने की फिक्र में हम समझ ही नहीं पाते कि बचाना क्या है और बेचना क्या। जितनी यादें हमने बनाई होती हैं उस पर वो यादें हमेशा भारी पड़ती हैं जो हम बना सकते थे। (पृष्ठ 40)
एक आधे मोमेंट को पकड़कर छूने का मौका जिंदगी सबको देती है।… हम यादें कहाँ रखते हैं ये तो खैर किसी को पता नहीं होता। काश! कि हम अपनी यादें समझ पाते। काश! कि हम जिंदगी समझ पाते, काश! कि हम मोमेंट थोड़ा लंबे टाइम तक पकड़ पाते। (पृष्ठ 45)
दुनिया ने सालों से नयी बातें ढूँढी नहीं हैं। बस हर बार बातें करने वाले लोग नए हो जाते हैं। इस दुनिया में जो कुछ भी महसूस करने लायक है उसे इस दुनिया के पहले आदमी औरत ने महसूस किया था और इस दुनिया के आखिरी आदमी औरत महसूस करेंगे। जिंदगी एक ऐसा राज है जो बिना जाने हर जेनरेशन बस आगे बढ़ाते जाती है। (पृष्ठ 52)
जो लोग प्यार में होते हैं वो अपने साथ एक शहर, एक दुनिया लेकर चलते हैं। वो शहर जो मूवी हॉल की भीड़ के बीच में कॉर्नर सीट पर बसा हुआ होता है, वो शहर जो मेट्रो की सीट पर आस-पास की नज़रों को इग्नोर करता हुआ होता है। वो शहर जिसको केवल वो पहचान पाते हैं जिन्होंने कभी अपना शहर ढूँढ लिया होता है या फिर जिनका शहर खो चुका होता है। हम सभी ने अपने न जाने कितने शहर खो दिए हैं, इतने शहर जिनको जोड़कर एक नयी दुनिया बन सकती थी। (पृष्ठ 54)
“मालूम है हमारी जेनरेशन की सबसे बड़ी ट्रेजेडी क्या है?”
“क्या?”
“हमारे पास एक-दूसरे की यादें बहुत कम हैं। जब बंदा चला जाता है तो हमें पहली बार याद आता है कि हम तमाम यादें बना सकते थे लेकिन बना नहीं पाए। हम मरने के बाद जाने वाले की वो यादें याद करते हैं जो हमने अभी बनाई नहीं होती।” (पृष्ठ 66)
ज़िंदगी असल में बस कुछ-न-कुछ ढूँढते रहने की ही कहानी है। कुछ न मिला तो वो ढूँढना है जो नहीं मिलता। जब वो मिल जाए तो वो कुछ नया ढूँढना शुरू कर देना। जिस दिन हमें पता चल जाता है कि हम सही में क्या ढूँढने आए हैं ठीक उसी दिन ज़िंदगी हमारी तरफ पहला कदम बढ़ाकर हमें ढूँढना शुरू कर देती है। (पृष्ठ 82)
नयी ज़िंदगी हमेशा नयी उम्मीद लेकर आती है, नयी बातों की, नयी दुनिया की, नयी गलतियों की। जिसने भी कहा था कि दुनिया उम्मीद पर टिकी है उसे जरूर अपने बच्चे की शक्ल देखकर ये ख्याल आया होगा। (पृष्ठ 88)
हमारी असली यात्रा उस दिन शुरू होती है जिस दिन हमारा दुनिया की हर चीज से, हर रिश्ते से, भगवान पर से विश्वास उठ जाता है और यात्रा उस दिन खत्म होती है जिस दिन ये सारे विश्वास लौटकर हमें गले लगा लेते हैं। हम सब केवल किसी न किसी चीज में विश्वास करना सीखने के लिए पैदा होते हैं। भटकना मंजिल की पहली आहट है। कोई सही से भटक ही ले तो भी बहुत कुछ पा जाता है। सच्ची आज़ादी का कुल मतलब अपनी मर्जी से भटकना है। (पृष्ठ 94)
शहरों की नापतौल वहाँ रहने वाले लोगों की नींद से करनी चाहिए। शहर छोटा या बड़ा वहाँ रहने वालों की नींद से होता है। ठिकाना तो कोई भी शहर दे देता है, गहरी नींद कम शहर दे पाते हैं। (पृष्ठ 97)
यादें सिर पर मँडराने वाले मच्छरों के झुंड की तरह होती हैं, कहीं भी भाग जाओ वो सिर पे घेर बनाकर भिनभिनाने लगती हैं। (पृष्ठ 98)
गुस्सा जब बढ़ जाता है तो दुनिया को झेलना बड़ा मुश्किल हो जाता है। गुस्सा जब हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो अपने-आप को झेलना मुश्किल हो जाता है। कमाल की बात ये है कि हम अपने आपस से चाहे जितना गुस्सा हो जाएँ एक सुबह अपने-आप सब सही हो जाता है। (पृष्ठ 103-104)
जिनके पास खोने के लिए कुछ नहीं होता वो फैसले जल्दी ले लिया करते हैं। जिस दिन हमको ये समझ आता है कि यहाँ हममें से किसी के भी पास ज़िंदगी के अलावा खोने को कुछ नहीं है, उस दिन हम अपनी ज़िंदगी का पहला कदम अपनी ओर चलते हैं। बाहर चलते-चलते हम करीब भूल चुके होते हैं कि हमारे अंदर भी एक दुनिया है। (पृष्ठ 109)
कई चोटें इसलिए निशान छोड़कर जाती हैं ताकि हम अपनी सब गलतियाँ भूल न जाएँ। गलतियाँ सुधारनी जरूर चाहिए लेकिन मिटानी नहीं चाहिए। गलतियाँ वो पगडंडियाँ होती हैं जो बताती हैं कि हमने शुरू कहाँ से किया था। (पृष्ठ 119)
दुनिया में अगर देने लायक कुछ है तो वो है ‘एक दिन सब ठीक हो जाएगा’ की उम्मीद। ये दुनिया शायद आज तक चल ही शायद इसलिए रही है क्यूँकि लोग अभी भी जाने अनजाने एक दिन अब ठीक हो जाएगा कि उम्मीद दे देते हैं। (पृष्ठ 124)
जो मूव ऑन नहीं कर पाते वो प्यार की असली यात्रा पर निकलते हैं। जिनके आँसू न बहते हैं, न सूखते हैं, वो ज़िंदगी को करीब से समझ पाते हैं। जिनके गहरी नींद नहीं आती वो समझ पाते हैं कि दुनिया में सुबह से अच्छा कुछ होता ही नहीं है। किसी भी चीज को हम सही से समझ ही तब सकते हैं जब हम उसको पाकर खो दें। पाकर पाए रहने वाले अक्सर चूक जाया करते हैं। (पृष्ठ 129-130)
पुस्तक लिंक: अमेज़न
मैंने ये किताब कई साल पहले पढ़ी थी। मुझे भी अच्छी लगी थी (हालांकि कुछ बातें जो आपने कही हैं वो मुझे ठीक से याद नहीं)। इसके बाद, मैंने दिव्य प्रकाश दुबे जी का एक इंटरव्यू भी किया था। इनकी लेखन शैली कुछ ऐसी है कि आप एक जुड़ाव सा महसूस करते हैं।
जी सही कहा। विषय वस्तु भी ऐसी होती है कि युवाओं का जुड़ाव होना लाजमी है। आपका लिया साक्षात्कार कहाँ प्रकाशित हुआ था? लिंक हो तो देने की कोशिश कीजिए। मैंने भी पढ़ना चाहूँगा उसे।
Writersmelon par publish hui thi, par ab kisi wajah se wo link work nahin kar raha.
oh.. that's bad… it happens a lot on third party websites…