पर्वत की रानी इब्ने सफी का लिखा जासूसी दुनिया श्रृंखला का उपन्यास है। इस उपन्यास का पहला संस्करण सितम्बर 1953 को जासूसी दुनिया हिन्दी कार्यालय इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ था। यह जासूसी हिन्दी दुनिया का नवाँ उपन्यास था। कहानी का अनुवाद प्रेम प्रकाश ने किया था।
इब्ने सफी ने जासूसी दुनिया श्रृंखला में इंस्पेक्टर फरीदी और सार्जेंट हमीद नाम के किरदार बनाये थे जो कि पाकिस्तान ही नहीं अपितु हिंदुस्तान में भी काफी प्रसिद्ध हुए थे। बस उन दिनों हिन्दी अनुवादों में फरीदी को विनोद बना दिया जाता था। इस उपन्यास में भी ऐसा ही हुआ है।
जासूसी दुनिया श्रृंखला में विनोद और हमीद की चुहुलबाजी पाठकों को खासी पसंद आती थी। आज एक बुक जर्नल में हम आपके लिए ‘पर्वत की रानी’ के तीसरे अध्याय ‘विनोद का विचित्र कार्य’ का एक छोटा सा अंश लेकर प्रस्तुत हुए हैं। उम्मीद है यह आपको पसंद आएगा।
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“ओह! तो यही कारण था।” विनोद ने मुस्करा कर कहा।
“आप यह पहेलियाँ बुझवाने की आदत कब छोड़ेंगे। या तो साफ़-साफ़ बता दिया कीजिये या न बताना हुआ करे तो बात ही न छेड़ा कीजिये। यही कारण था… ओह! तो यह बात थी… यह सब मुझे बिल्कुल पसंद नहीं।” हमीद ने मुँह बना कर कहा।
“अभी जिस कुत्ते को तुम देख आये हो उसे मैंने ही मारा है।” विनोद ने कहा।
“क्यों?” हमीद ने तेज होकर कहा। “आखिर यह आप कुत्तों के पीछे क्यों पड़ गये हैं?”
“अगर मैं उसे न मारता तो बहुत बड़ी विपत्ति आ जाती और मेरा सारा कार्यक्रम चौपट हो जाता।” विनोद ने बुझा हुआ सिगार ऐश ट्रे में डालते हुए कहा।
“अच्छा! तो अब दीवारों से पहेलियाँ बुझवाइये, मैं चला।” हमीद ने चिढ़कर उठते हुये कहा।
“बैठो! बैठो! बताता हूँ।” विनोद ने कहा। “यह कुत्ता भी आर्थर ही का था। बहुत ही भयंकर तथा हिंसक नस्ल का, ब्लड हाउंड, इसकी सब से बड़ी विशेषता यह है कि अपने शिकार की गंध पा जाने पर उसे पाताल में भी नहीं छोड़ता। आर्थर ने कदाचित् इसे अपने ऐल्सीशियन की लाश सुंघाकर यलो डिंगो के मार्ग पर लगा दिया था। अतः जहाँ तक डिंगो अपने पैरों से आया था वहाँ तक यह भी उसका पीछा करता हुआ आया था, किन्तु यहाँ आकर वह विवश हो गया। क्योंकि तुम यहाँ से डिंगो को गोद में लाये थे। यह भी एक संयोग था कि जिसके कारण हम लोग बच गये। नहीं तो वह सीधा यहीं आता, और फिर नित नई विपत्तियों का सामना करना पड़ता।”
“तो यह कहिये!” हमीद ने मुस्करा कर कहा। “मैंने तो यह समझा था कि शायद…।”
“दिमाग खराब हो गया है।” विनोद ने वाक्य पूरा कर दिया।
“भला मैं यह कैसे कह सकता हूँ।” हमीद ने हँस कर कहा।
“धन्यवाद! अब बातें समाप्त करो और जा कर अपना आवश्यक सामान ठीक करो। हमें इसी समय यह मकान छोड़ देना है।”
“जी! हमीद चौंक कर बोला।” “क्या मतलब?”
“किसी होटल में चल कर रहेंगे?”
“क्यों?”
“बड़े घामड़ आदमी हो। इतना भी नहीं समझते। इस इलाके में उस कुत्ते पर गोली चलाने का अर्थ यह हुआ कि हम लोग यहीं रहते हैं।”
“आश्चर्य है कि उस अँग्रेज से आप इतना भयभीत हो रहे हैं।” हमीद ने कहा।
“तुम गलत समझ रहे हो, यह बात नहीं है। आर्थर से भयभीत होने का कोई कारण नहीं है। भय केवल इस बात का है कि यदि उसका सामना हो गया तो मैं अपने कार्यक्रम के अनुसार कार्य न कर सकूँगा।”
“आखिर मुझे भी बताइए वह स्कीम क्या है?”
“बताऊँगा घबढ़ाते क्यों हो! अभी जो कुछ मैं कह रहा हूँ उसे करो।”
हमीद ने उठ कर आवश्यक वस्तुएँ एक सूट केस में रखनी आरम्भ कर दी। विनोद भी व्यवस्था में सम्मिलित हो गया। उसने नौकरों को कुछ आवश्यक आदेश दिये और उन्हें काफी रूपये देकर उस समय तक रामगढ़ में रहने के लिये कहा जब तक वह वापस न आ जाये। जिन नौकरों को वह अपने साथ लाया था वह सब पुराने और विश्वासी थे। विनोद और हमीद ने एक सूट केस और होल्डआल उठाये और घर से निकल कर बाहर फैले हुए अँधकार में समा गये। लगभग एक घंटे के बाद वह एक मध्यम श्रेणी के साफ़ सुथरे होटल में यात्री के रूप में प्रविष्ट हुये। उन्हें रहने के लिये कमरे भी सरलता से मिल गये।
“कहिये श्रीमान् जी! अब आपको संतोष मिला या नहीं।” हमीद ने थोड़ी देर बाद कहा।
“हाँ, हाँ!” विनोद चारपाई पर लेट कर हमीद की ओर करवट हुआ और बोला -“क्या पूछना चाहते हो?”
“अब तक आप ने जो माथा पच्ची की है उस का अर्थ क्या है?”
“तुम इसे माथा पच्ची कह रहे हो प्यारे!” विनोद मुस्करा कर बोला।
“जी नहीं! आप तो मानव को अग्रसर करने का प्रयास कर रहे हैं।” हमीद ने कटाक्ष किया।
“और इस प्रयास में तुम भी सम्मिलित रहोगे।”
“मैं तो अपने जीवन से हाथ धो चुका हूँ।” हमीद ने कहा।
“किन्तु इस बार तुम्हें पैर धोने का भी अवसर मिल जायेगा।” विनोद मुस्करा कर बोला।
“हमीद ने कोई उत्तर नहीं दिया।”
“मैंने वह स्कीम बनाई है कि तुम सुन कर उछल पड़ोगे।” विनोद ने कहा।
“ठहरिये मैं उछलने के लिए तैयार हो जाऊँ।” हमीद ने चारपाई पर बैठते हुए कहा। “हाँ! अब कहिये।”
“जॉर्ज फिन्ले अपनी यात्रा के लिये साथी एकत्रित कर रहा है। आज भी दस पहाड़ियों की सेवाएं उसने प्राप्त की हैं। लगभग पचास व्यक्ति उसके साथ होंगे। वह जिधर जाना चाहता है उधर कोई सरल और यथोचित मार्ग नहीं है, इसलिये यात्रा पैदल या खच्चरों पर होगी।”
“तो फिर आपके क्या विचार हैं?”
“हम दोनों भी पहाड़ी मजदूरों के भेष में उस पार्टी में सम्मिलित हो जाएंगे।” हमीद ने कहा।
“और डेढ़ सौ मील पैदल चलकर अंत में खुदा मियाँ को प्यारे हो जायेंगे।” हमीद ने कहा।
“तुम भविष्य के प्रति सदा हतोत्साह क्यों रहते हो, यह आदत अच्छी नहीं! तुम्हें तो स्त्री होना चाहिए था।”
“यही तो मेरा अभाग्य है।” हमीद बोला। “खैर, अपना ब्यान जारी रखिये।”
“कल हम दोनों पहाड़ी मजदूरों के भेष में जॉर्ज फिन्ले से मिलेंगे।”
“किन्तु इससे लाभ! हमारी पोल शीघ्र ही खुल जाएगी। इसलिए कि हम पहाड़ी भाषा नहीं जानते।”
“यह केवल तुम अपने लिए कह सकते हो।” विनोद ने कहा। “मैं इधर की भाषा अच्छी तरह बोल और समझ सकता हूँ।”
“लेकिन मैं क्या करूँगा”?” हमीद ने कहा।
“तुम गूँगे बन जाना।”
“क्या मतलब?”
“तुम्हारे सम्बन्ध में मैं पहाड़ियों में यह प्रसिद्ध कर दूँगा कि तुम गूँगे हो।” विनोद ने कहा।
“बस बस! मुझे क्षमा कीजिये। मैं जीवन भर ऐसा नहीं कर सकता।”
“तो फिर तुम कल घर वापिस चले जाओ।” विनोद ने गम्भीरता धारण करते हुए कहा।
“कल की बात कल होगी।” हमीद ने कहा। “आप कहते रहिये।”
“कहना क्या है। बस इतनी सी बात है कि हमें उन लोगों के साथ चलना है।”
“केवल पीतल की मूर्ति का रहस्य मालूम करने के लिये?” हमीद ने कहा।
“हाँ।”
“किन्तु यह कोई बुद्धिमानी नहीं होगी। यह तो वही कहावत हुई कि शिकार शिकार खेले और मूर्ख साथ फिरे।”
“इस समय तुम इसे मूर्खता ही समझ लो।” विनोद ने कहा। “मैं निश्चय कर चुका हूँ और अपने निश्चय से हटना मेरी प्रकृति नहीं।”
“और यदि मार्ग में जूलिया और आर्थर ने हमें पहचान लिया तो बस कहानी ही समाप्त हो जाएगी।”
“विश्वास रखो! ऐसा कदापि न होने पायेगा।”
“मुझे विश्वास करते करते तो पाँच वर्ष हो गये।”
“विचित्र आदमी हो, न घर वापिस जाना चाहते हो न साथ चलने के लिए तैयार होते हो। आखिर जो कुछ चाहते हो उसे साफ-साफ क्यों नहीं बताते हो?”
“मैं साथ चलने के लिए तो तैयार हूँ, किन्तु चलने का जो क्रम आपने बनाया है उससे मैं सहमत नहीं हूँ। और वह इसलिए कि इस में बड़े बड़े संकटों का सामना करना पड़ेगा। बड़ा दुःख उठाना पड़ेगा। न तो हमारे पास उस प्रकार के कपड़े हैं न जूते।”
“यार! वास्तव में तुम केवल सुख विलास के इच्छुक हो।” विनोद हँस कर बोला। “जरा इस जीवन में भी तो आकर देखो, कितना सुख और आनन्द है।”
“जी हाँ! सुख और आनंद तो प्रस्तावना से ही टपका पड़ रहा है। हूँ! पहाड़ी मार्ग, पैदल डेढ़ सौ मील चलना, धन्य हैं आप… खैर!” हमीद जम्हाई लेता हुआ बोला। “अब नींद आ रही है। नमस्ते।”
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इब्ने सफी के जासूसी दुनिया श्रृंखला के सात उपन्यास हार्पर हिन्दी में प्रकाशित किये गये थे। आप निम्न लिंक पर जाकर उन्हें मँगवा सकते हैं: