‘कायापलट’ लेखक अशफाक अहमद का लिखा उपन्यास है। यह डेविड फ्रांसिस शृंखला का पहला उपन्यास है। डेविड फ़्रांसिस एक अमीरजादा है जिसके तीन ही शौक हैं- यायावरी, कनयाएँ और अपराधियों से दो दो हाथ करना। वह किस तरह ऐसे मामलों में फँसता है और किस तरह इनसे निकलता है यही इस शृंखला के उपन्यासों का कथानक बनता है।
आज एक बुक जर्नल पर हम आपके लिए डेविड फ्रांसिस शृंखला के पहले उपन्यास कायापलट का पहला अध्याय लेकर प्रस्तुत हुए हैं। उम्मीद है यह आपको पसंद आएगा।
मैं…!
मैं यानी डेविड फ्रांसिस… यानी पागलपन की हद तक प्रकृति प्रेमी, परमानेंट यायावर— ख़ूबसूरत लड़कियों से आँखें लड़ाने का शौकीन, सामान्य भाषा में ठरकी— जेम्स बॉण्ड के अवतार में दुनिया के हर अपराधी को उसके अंजाम तक पहुँचाने का ख्वाहा… डेविड! वह डेविड, जिसके बस यही तीन इश्क़-ओ-जुनून थे— यायावरी, लड़की और अपराधियों से दो-दो हाथ करने की अदम्य इच्छा… जो अक्सर मेरी लाइफ को वह किक देते थे, जिसकी मुझे हमेशा दरकार रहती थी। वह डेविड… जिसकी पानी के बुलबुले जैसी, सभी के फटे में टाँग अड़ाऊ प्रवृत्ति के कारण कभी भी खत्म हो जाने की संभावना रखने वाली, लिखने योग्य, अजूबा ज़िंदगी, अपने हर मुख्य टूर पर किसी न किसी लफड़े के एक नए रंग से दो-चार होती ही थी— वही ज़िंदगी पिछले दो महीने से एकदम सादी, कोरी ही गुज़र रही थी… और अब तो मैं सब्र के टूट जाने को आतुर किनारों तक आ पहुँचा था।
अपने पिछले लफड़ामयी, पचड़ाफुल पेशावर दौरे से मैं ऐसा हदसा और दहला था कि पाकिस्तान से निकलते ही और भारत पहुँचते ही शांति की तलाश में हिमालय की तरफ़ निकल खड़ा हुआ था— शायद डेढ़-दो साल बाद… और वहाँ भी महीना भर खूब भटकने के बाद भी पहले की तरह कोई ‘डैमसेल इन डिस्ट्रेस’ मुझसे न टकरायी, जैसा कि मेरा यक़ीन हुआ करता था। मुझे हमेशा ही ऐसा लगता था कि मेरे क़दम ही ऐसे लफड़ाखेज़ हैं कि मैं कहीं दूर-दराज के वीरानों में भी पहुँच जाऊँ तो भी कोई न कोई पंगा हो ही जाना था— लेकिन इस बार यह मिथक भी टूट गया।
पूरे महीने मेरे पहले प्यार यानी प्रकृति के अनूठे सौंदर्य के रसास्वादन से तो मेरी झोली खाली न रही— यहाँ तक कि मेरे दूसरे प्यार यानी ख़ूबसूरत लड़कियों में से भी कुछ ने मुझे अपनी हम-जलीसी का शरफ बख़्शा और मैं उनकी नर्म-गुदाज़ लज्ज़त से लुत्फअंदोज़ हुआ… लेकिन अफ़सोस कि उनमें कोई भी डैमसेल इन डिस्ट्रेस न साबित हुई और मैं अपने तीसरे प्यार को तरस कर रह गया। मुझे इतने दिनों में कोई भी ऐसा फटा मामला न मिला जिसमें मैं अपनी टाँग अड़ा सकता और हार कर मैंने आख़िर यह स्वीकार कर लिया है कि यह सिर्फ मेरा भ्रम था कि मेरे क़दम ही किसी पंगे के सूचक होते हैं।
हिमालय से मायूस हो कर मैं वापस मुंबई लौटा और सात दिन बाद ऑस्ट्रेलिया के लिये रवाना हो गया। ऑस्ट्रेलिया में मैंने तीन हफ़्ते गुज़ारे और इसी बीच हर तरफ बिखरी प्रकृति की अनूठी ख़ूबसूरती ने मेरी आत्मा तक को छुआ— लेकिन कहीं भी ऐसी कोई बात न हुई जो मेरी एक अदद पंगे की भूख़ को शांत कर सकती। इस बीच करीब आठ लड़कियों के जिस्मो में लिखी ग़ज़लों के एक-एक मिसरे को ठोंक-ठोंक कर पढ़ा, लेकिन उनमें से कोई भी संकट में फँसी हसीना न साबित हुई— और यूँ तीन हफ़्तों की घोर निराशा के बाद मैं दुम दबा कर फिजी भाग आया।
अब तीन दिन से मैं फिजी में था और यहाँ भी दिन सोने में, शाम और रात समुद्री किनारो पर मौज-मस्ती करने में गुज़रते थे।
मैं रोज़ हवा में हाथ उठा कर मालिक से एक लफड़े, पंगे की गुहार लगाता था— लेकिन लगता था कि ऊपर वाला भी छुट्टी पर गया हुआ था और अब तो यही दिल करने लगा था की ख़ुद से ही कहीं कोई ओखली ढूँढूँ और उसमें अपना सर दे मारूँ।
इस वक़्त शाम होने की शुरुआत थी— ऑस्ट्रेलिया की तरफ़ लाल सा सूरज सामने मौजूद नीले पैसिफिक में डुबकी लगाने उतर चुका था और अपने स्पर्श से आसपास के पानी को भी सुर्ख़ किये दे रहा था।
मैं नेटाडोला के एक रेतीले बीच के किनारे लाउंज चेयर पर पड़ा अपने अंदर के डेविड, यानी मिनी मी से विचार-विमर्श कर रहा था कि दूर-दराज की शांत या वीरान सी जगहों पर इत्तेफाक से अपराध या अपराधी हो सकते हैं, लेकिन यह इत्तेफाक हर बार हो— यह ज़रूरी भी तो नहीं। मिनी मी का कहना था कि अगर हर हाल में कोई पंगा चाहिये तो मुझे फिजी के बजाय दुनिया के उन बड़े शहरों की ओर जाना चाहिये था, जो अपराधों के लिये बदनाम हैं— लेकिन मेरा कहना था कि अगर मैं वहाँ जाता तो मेरे दूसरे दो जुनून शायद परवान न चढ़ पाते… मेरे दौरों का मतलब तो हमेशा यह ही होता था कि किसी एक स्पेसिफिक जगह में तीनों का संयोजन मौजूद हो— प्रकृति, लड़की और अपराधी!
मिनी मी मुझे प्रवोक कर रहा था कि इस पैमाने पर फिजी खरा नहीं उतरता था, मुझे पैसिफिक से ही पूर्व की ओर उड़ जाना चाहिये— लेकिन अब आया था तो फौरन भागने का मन भी नहीं था… कम से कम हफ़्ता गुज़ारना तो लक्ष्य था ही, जो एक्सटेंड भी हो सकता था। शाम से रात तक का वक़्त यहाँ अच्छा गुज़रता था, लेकिन दिन बोरियत भरा लगता था। आधे डूब चुके सूरज के सामने से कुछ परिंदे गुज़र रहे थे और हम दोनों (मैं और मिनी मी) सोच रहे थे कि वे भले कितना ही उड़ते हों, लेकिन कहीं तो ठहरते होंगे— जहाँ उनका एक घर होगा… फिर अगली सुबह तक वे उस घर की शरण में शायद अपने दिन भर के तजुर्बों को याद करते हों।
परिंदा तो मैं भी था— और मेरे अंदर मौजूद मिनी मी भी। घर तो मेरा भी था ही कहीं, लेकिन उन परिंदों में और मुझमें अंतर यह था कि उनकी उड़ान सीमित इलाके में थी और मैं प्लेनेट अर्थ भर में उड़ कर भी संतुष्ट नहीं था। अगर इंटर प्लेनेटरी यात्राएँ हो रही होतीं तो यक़ीनन मैं उस एडवेंचर से भी पीछे नहीं हटने वाला था। वे सुबह के निकले शाम तक शायद अपने घर लौट आते थे, लेकिन मैं प्रवासी पक्षियों की तरह लंबे गैप से वापस लौटता था।
एक वक़्त था जब माँ-बाप के जाने के बाद मैंने अपनी इस ऊल-जुलूल मगर हंगामाखेज़ लाइफ की शुरुआत की थी— तब मैं कुछ और था, आज कुछ और हूँ… यह सफ़र शायद साढ़े तीन या पौने चार साल का रहा है और इतने वक्फ़े में कम से कम बीस ऐसे मौके आये होंगे, जब मैं किसी पंगे में उलझा। इनमें से ग्यारह मौके तो ऐसे थे कि आज शुरू हो कर अगले दिन ख़त्म हो गये और इस बीच ऐसा कुछ विशेष घटा भी नहीं कि बहुत दिनों तक उसे स्मृतियों में संजोया जा सके— लेकिन नौ पंगे ऐसे थे, जो एक दिन में ख़त्म नहीं हुए थे, उससे ज्यादा चले थे, उस सिलसिले से जुड़ी कई घटनाओं को समेटे थे और जो स्मृतियों में सहेजे जाने लायक थे… जो लिखे जाने लायक थे।
विचार बुरा नहीं है… क्यों न हम उन्हें दर्ज करें डूड? सहसा मिनी मी ने मुझे उकसाया— उन्हें पन्नों पर उकेरें, अपने कारनामों के तौर पर? भले आज की दुनिया इस भारतीय सेक्सटन ब्लैक, नीरो वोल्फ, शर्लाक होम्ज या जेम्स बॉण्ड से परिचित न हो— लेकिन शायद कल परिचित हो, शायद कल लोग जानें… शायद कल लोग जानना चाहें कि डेविड फ्रांसिस नाम के इस मुंबईया छोकरे ने ऐसे कौन से तीर मारे थे, जिनके दम पर उसे किसी जेम्स बॉण्ड, सेक्सटन ब्लैक या नीरो वोल्फ होने का भ्रम हुआ करता था।
मिनी मी ने सुझाया तो इस विचार ने मुझमें भी उत्तेजना का संचार किया। जानता हूँ कि वे कारनामे उस स्तर के हर्गिज़ नहीं थे— लेकिन लिखे जाने लायक तो थे। तो क्यों न मैं फिजी प्रवास का यही फायदा उठा लूँ? मेरी उलझन का मिनी मी ने ‘बकअप’ के साथ सकारात्मक जवाब दिया।
जिन नौ कारनामों को लेकर मुझे पता था कि वे मुझे मेरी क्षमताओं के साथ एक्सट्रीम लेवल तक ले गये थे— टूर के बचे हुए चार दिनों में मैं उन्हें लिख सकता था। या वक़्त कम लगता तो टूर एक्सटेंड भी हो सकता था। मेरे सर पर कौन सी ऐसी ज़िम्मेदारी थी कि मैं समय की परवाह करता… मेरी तो लाइफ ही यही थी। फिर एक ख़्याल ने मुझे रोका— लेकिन हर एक कारनामा किसी किताब जितना कंटेंट रखता है, इतना मैं लिखूँगा कैसे?
हाँ, शायद तुम लैपटॉप पर उंगलियाँ चला कर इतना सब न लिख पाऊँ— लेकिन वायस टाइपिंग का ऑप्शन भी तो है। तुम लिख सकते हो— बाद में वक़्त मिलने पर एडिटिंग होती रहेगी। मिनी मी ने राह सुझायी— कभी जब इस ज़िंदगी से रिटायर हो जाओगे, या बूढ़े हो जाओगे या मारे जाओगे, तो यह सब कारनामे लोगों के सामने तो आने चाहिये— किताबों की शक्ल में। ऐसा हो सके— इसका इंतज़ाम भी सुनिश्चित करना होगा।
मैंने तय किया कि मैं ऐसा ही करूँगा— मिनी मी ने मेरे इस फैसले पर मेरी पीठ थपथपायी, हाई-फाइव दिया।
सूरज के पर्दा कर जाने के बाद जब शाम का धुँधलका बढ़ने लगा तो मैं रिसॉर्ट लौटा— एक फैसले और उस फैसले के कारण उपजे जोश के साथ। आज रात की मौज-मस्ती का अब कोई इरादा नहीं था… आज किसी हसीना के पहलू में गर्क होने की बिलकुल भी तमन्ना नहीं थी, बल्कि अपने आपको सहेजने का इरादा था। लैपटॉप खोलने तक टूर एक हफ़्ता और एक्सटेंड हो चुका था— यानी हर दिन एक कारनामा, एक कहानी मुझे दर्ज करनी थी… और इसकी शुरुआत मैं आज से ही करने वाला था।
रेड वाइन के एक पैग के बाद लिखने का मूड बनाया और लिखना शुरू किया… अपना पहला कारनामा। क़रीब साढ़े तीन साल पहले… दो हज़ार इक्कीस का अक्तूबर— जब मैं अपनी ज़िंदगी में आज़ाद होने को एक्सपीरियेंस कर रहा था और ख़ुद को उन कसौटियों पर परखने लायक तैयार कर रहा था— जिनके पीछे मेरी अच्छी-खासी तैयारी लगी थी। मॉम-डैड को गये चार महीने से ऊपर हो चुके थे और अब मैं उस सदमे से काफ़ी हद तक उबर चुका था। हालाँकि मेरी इस नयी और हंगामाखेज़ ज़िंदगी का पहला कारनामा या कांड, जो भी था— वह मेरी मर्ज़ी पर मुनहसर नहीं था… बल्कि वह खेल तो अनचाहे ही शुरू हुआ था, जिसका कि ख़ुद मुझे भी कोई अंदाज़ा नहीं था।
उस रात मैं मुंबई के खार स्थित अपने घर में सोया था, लेकिन जागा तो उस कमरे में नहीं था, बल्कि जब मेरी नींद या बेहोशी, जो भी थी— जब वापस टूटी थी तो मेरे लिये जैसे सबकुछ बदल चुका था। वह कमरा, कमरे में मौजूद फर्नीचर या कमरे की साज-सज्जा, खिड़की से बाहर दिखता रोशनियों भरा रात का नज़ारा… कुछ भी मेरा जाना-पहचाना नहीं था। न वह जगह और न वह पंद्रह-सोलह साल की लड़की, जिसे मैंने नींद खुलते ही अपने सर पर ‘डैडियो-डैडियो’ करते मुसल्लत पाया था और खास उसी की वजह से और घबरा कर मैं बाथरूम में घुस आया था।
और अब मैं जब उस आलीशान, वैभवशाली बेडरूम के, उसी के अनुरूप ए क्लास बाथरूम में पहुँचा था तो मेरे सर पर आसमान ही टूट पड़ा था। वाश बेसिन के ऊपर लगे आइने में मैं नहीं बल्कि कोई और ही मौजूद था… और मैं विस्मित, अचंभित सा खड़ा उस अक्स को निहारता सोच रहा था कि भला ऐसा कैसे संभव था?
मेरा चेहरा मेरा नहीं था!
मैं— मैं नहीं था!
इस सिच्युएशन पर मेरे अंदर का डेविड तो बेचारा सीधे कोमा में ही चला गया था। मैं… मैं डेविड फ्रांसिस नहीं था… तो फिर कौन था मैं?
और जो मिरर में खड़ा दिख रहा था… यह कौन था? यह कहीं दृष्टि भ्रम तो नहीं था? मैंने बेसिन के नल से पानी के छींटे ज़ोर-ज़ोर से मुँह पर मारे और सर ज़ोर-ज़ोर से झटका— वह चेहरा न रुख़्सत हुआ। मैंने उस चेहरे पर ध्यान दिया… उसकी शक्ल मुझसे काफ़ी मिलती-जुलती थी, बल्कि मैं यह कह सकता था कि शायद पच्चीस-तीस साल बाद में ऐसा ही दिखूँ— लेकिन फिलहाल तो यह मैं नहीं था। ख़ुद को भूल जाने की हिमाकत भला कौन कर सकता है?
मुझे अच्छी तरह याद था कि मैं इक्कीस-बाईस साल का युवक हूँ— लेकिन जो चेहरा शीशे में था, वह अड़तालीस से बावन साल के आसपास शख़्स का था। आँखों के किनारे और गर्दन पर हल्की झुर्रियाँ तक मौजूद थीं, चेहरे पर परिपक्वता थी, सर के बाल चाँद पर हल्के पड़ चुके थे और आधे आखरोटी तो आधे सफ़ेद थे। पंजों के पीछे की त्वचा हल्की ढीली पड़ चुकी थी, साथ ही कलाइयों की कुछ नसें तक चमकने लगी थी— यह निशानियाँ अपने आप में बढ़ी उम्र का पता देती थीं… लेकिन जब मैं नशे में नहीं था, कोई ख़्वाब नहीं देख रहा था, मुझे दृष्टि भ्रम नहीं था, तो यह क्या था? जब मैं स्वयं को इस शरीर में अनुभव कर रहा था तो इसका मतलब यह मैं ही था— लेकिन ऐसा कैसे संभव था? मैं बरसों तक क्या सोया रहा था?
नहीं… अभी कल तक ही तो मैं इक्कीस-बाईस साल का हट्टा-कट्टा नौजवान था और कल रात ही दिल्ली से वापस मुंबई लौटा था— तो एकाएक मैं इतना उम्रदराज़ कैसे हो गया? मैं जवान से अधेड़ हो गया और मुझे ख़बर तक न हुई।
मेरे सर में काफ़ी भारीपन महसूस हो रहा था— कनपटियों में दर्द होने लगा था। मैं दोनों हाथों से सर पकड़ के कमोड पर ही बैठ गया। मेरी उम्र के पच्चीस-तीस साल आख़िर कहाँ गायब हो गये? क्या इतने दिनों तक मेरी याददाश्त ग़ायब रही थी? लेकिन अगर ऐसा भी होता, तो भी इतना तवील वक़्त गुज़रने का मुझे कुछ अहसास तो होता— और फिर मुझे अच्छी तरह याद था की याद्दाश्त जाने जैसी कोई बात ही नहीं हुई थी।
मुंबई एयरपोर्ट से थका-मांदा पंद्रहवीं रोड, खार स्थित अपने बंगले तक पहुँचा था और खा पी कर सो गया था। फिर जब नींद खुली थी तो उस सजे-धजे एश्वर्यपूर्ण, शानदार बेडरूम में— जहाँ एक लड़की आकर ‘डैडियो-डैडियो’ करती मुझे परेशान करने लगी थी, जिससे पीछा छुड़ाने के लिये ही मैं बाथरूम में घुस आया था और जहाँ बेसिन मिरर के सामने पड़ते ही मेरी यह हालत हो गयी थी। हालाँकि मेरे सर में काफी भारीपन था और क़तई ऐसा लग रहा था जैसे मैं खूब सोया होऊँ… लेकिन कितना? क्या कोई पच्चीस-तीस साल तक सोया रह सकता था? या कहीं मैं कोमा में तो नहीं था?
लेकिन न तो मुझे कोई बीमारी थी, न कहीं चोट लगी थी, न मुझ पर कोई हमला हुआ था— फिर कैसे चला गया मैं कोमा में… और इसमें भी यह थ्योरी फिट नहीं बैठती कि मैं कोमा में भी होता तो भी इतना लंबा वक़्त गुज़रने का कुछ अहसास तो होता। फिर उस स्थिति में पिछली स्मृतियाँ या तो धूमिल पड़ जातीं या दिमाग़ से बिलकुल ही निकल जातीं— लेकिन मुझे सबकुछ साफ़-साफ़ याद था मेरी पिछली ज़िंदगी के बारे में… कल की सारी बातें… दिल्ली में कनॉट प्लेस, हौज़ खास और गुरुग्राम में गुज़रे सारे पल— एक-एक मिनट। नहीं यह कोमा की स्थिति नहीं हो सकती। तब फिर क्या था?
याददाश्त पर ज़ोर देने के कारण महसूस हुआ कि मेरे अवचेतन मन में कुछ तो था— कुछ धुँधली, अस्पष्ट आकृतियाँ, जो एक दूसरे में गडमड हो रही थीं और मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। धीरे-धीरे दिमाग़ में भयंकर दर्द होने लगा। क़तई ऐसा लग रहा था कि नसें अत्याधिक दबाव से फट जाएँगी और मैं ब्रेन हैमरेज का शिकार हो जाऊँगा।
मैंने जल्दी से उठ कर शॉवर चालू कर दिया और उसके नीचे खड़ा हो गया। ठंडे-ठंडे पानी के स्पर्श से मेरा पूरा शरीर काँप गया। रोम छिद्र उभर आये— रोंगटे खड़े हो गये।
वह बर्फ़ जैसा पानी मेरा सर सुन्न किये दे रहा था… मेरी बर्दाश्त के बाहर हो गया तो किनारे हट के शॉवर बंद कर दिया और हाँफने लगा। मैंने गीजर की दिशा में देखा और सोचा— मुझे गीजर ऑन करना चाहिये था। फिर मेरे दिल में ख़्याल आया क्यों? मैंने याद किया— जबसे मैं बाथरूम में घुसा था, तभी से वातावरण में ठंड थी, मगर ऐसा क्यों? मुंबई में तो ठंड पड़ती ही नहीं थी। मेरे शरीर पर एक वूलन गाउन था जो भीग चुका था— काँपते-ठिठुरते मैंने उसे उतार कर वहीं डाल दिया। तन पर नीचे कुछ और नहीं था।
मेरी दृष्टि कमोड के ठीक पीछे ऊपर लगे एग्जास्ट पर गयी। मैं नंगे-नंगे उसे पर खड़े होकर पंखे के ब्लेड के बीच से बाहर झाँका— बाहर अँधेरा था, रात थी। वापस उतर कर दरवाज़े की दिशा में घूमा तो उससे लगी दीवार में जड़े ग्लास पर उपलब्ध मर्दाना सौंदर्य प्रसाधन के बीच रखी एक फैंसी टाइमपीस दिखी— जो ग्यारह बजा रही थी। तो क्या मैं कुछ गड़बड़ सोच रहा था… मैं कल रात ग्यारह बजे सोया था और अब उठा था तो इस वक़्त सुबह होनी चाहिये थी, दोपहर होनी चाहिये थी… लेकिन रात! तो क्या मैं चौबीस घंटे सोता रहा था? क्या इसीलिये मेरे सर में भारीपन है? अगर ऐसा है तो भी मैं चौबीस घंटे में जवान से अधेड़ कैसे हो गया? मेरी उम्र के पच्चीस-तीस साल आखिर कहाँ गायब हो गये?
तभी मुझे एक और बात याद आयी… जो मैंने आँख खोलते ही सोची थी। यह बेडरूम, यह बाथरूम, यह घर किसका है? मेरा तो नहीं है— मैं तो अपने बंगले में, अपने बेडरूम में सोया था और उठा था तो किसी अजनबी बेडरूम में। ऐसा कैसे संभव हुआ? सोते-सोते घर कैसे बदल गया?
सोचते और कुढ़ते मेरी नज़र नीचे गयी तो वहीं अटक गयी… दिल धक् से रह गया। मेरी जननेन्द्रिय पर एक बड़ा सा काला निशान था, जैसे तिल हो और उदर के निचले हिस्से पर गोदने से स्टाइलिश फोंट्स में राईन स्मिथ लिखा था— जननांग की लंबाई-मोटाई भी मेरे साइज़ से कुछ ज्यादा ही थी।
मेरा सर चकरा गया।
वह मेरा अंग नहीं था— वह अंग क्या, उसके आसपास का सारा हिस्सा ही मेरा नहीं था। मैंने पागलों की तरह अपना पूरा शरीर देख डाला। पूरे शरीर से ही मुझे अजनबियत की गंध आयी। मैंने फिर सर पकड़ लिया।
हे ईश्वर… क्या माजरा था? मेरा चेहरा मेरा नहीं था, मेरा शरीर मेरा नहीं था, यह घर मेरा नहीं था, मर्द हो कर भी मेरा मन ज़ार-ज़ार रोने को हुआ। मेरा शरीर बदल गया था— मेरी दुनिया ही बदल गई थी। क्या मेरी आत्मा, मेरा दिमाग़, मेरी सोचें, किसी और के शरीर में ट्रांसफर हो गयी थीं? मैं इतनी बुरी तरह कंफ्यूज्ड और नर्वस न होता तो मैं और मिनी मी इस पर काफ़ी अच्छा विमर्श कर सकते थे… मिनी मी मेरे अंदर मौजूद मेरा ही प्रतिरूप था, कह सकते हैं कि मैं अक्सर अपने आप से बातें करता था और यह बातें मुझे किसी निष्कर्ष पर पहुँचने में मदद करती थीं। कुछ लोगों को यह मेरा ख़ब्त या किसी तरह का डिसऑर्डर लग सकता है— लेकिन मेरे लिये तो मिनी मी एक मनोरंजक साथी था… जो शायद पहली बार इतनी बुरी स्थिति देख कर सीधे डीएक्टिवेट ही हो गया था।
तभी किसी ने ज़ोर से दरवाज़ा भड़भड़ाया— साथ ही लड़की की आवाज़ गूँजी, “कमऑन डैडियो— हरी अप! आई एम वेटिंग।”
और यह बाला… आख़िर कौन थी यह लड़की, जिसे मैं ज़िंदगी में पहली बार देख रहा था। इसके ‘डैडियो’ शब्द का अर्थ क्या था? क्या यह शरीर उसके बाप का था? कुछ समझ में नहीं आ रहा था— किसी सवाल का जवाब मेरे पास नहीं था। अपनी इस अवस्था पर मेरी आँखों में आँसू भर आये।
कुछ तो लेकिन करना ही था— आख़िर बाथरूम में बैठे-बैठे सर पीटने से भी क्या हासिल होने वाला था। दरवाज़े पर लगे काँच के रॉड में बाथरोब मौजूद था। मैंने उसे शरीर पर डाला और दरवाज़ा खोल कर बाहर आ गया।
कमरे का वातावरण गर्म था।
अब मैंने महसूस किया कि ऐसा हीटिंग सिस्टम की वजह से था— न कि ऐसा मौसम की वजह से था, जो मुंबई में सहज बात होती।
और वह लड़की बेड पर अधलेटी पड़ी थी— हाथ बेड की पुश्त पर फैलाये, तकिये से पीठ सटाए अपलक मुझे देखती, मुस्कुराती और शायद च्विंगम चबाती। मैंने ग़ौर से उसका जायजा लिया। मैंने सपने में भी पहले कभी उसे नहीं देखा था… उसका दूधिया शरीर और कंधों पर फैले भूरे आखरोटी बाल, उसकी तिलों से भरी सफ़ेद त्वचा और बोलने का लहजा— सबकुछ इस बात की चुगली कर रहा था कि वह पश्चिमी अंग्रेज थी।
चेहरे और शरीर से मुश्किल से पंद्रह-सोलह साल की लगती थी। उसका दूधिया शरीर मेरी आँखों के आगे संपूर्ण रूप से निर्वस्त्र पड़ा था।… बुरी परिस्थिति देख के कोमा में चला गया मेरे अंदर का डेविड— मिनी मी, भी इस हाल में लड़की देख कर जाग उठा।
तुम यह क्यों भूल रहे हो डूड, कि तुम ओरिजिनली क्या हो… भला लड़की से भी इंपोर्टेंट कुछ और हो सकता है क्या? सारी परेशानियाँ एक तरफ़ और एक तराशी हुई ज़िंदा ग़ज़ल एक तरफ़— तुम इसके मतले तो देखो, एक-एक मिसरा वज़न रखता है।
जस्ट शटअप बडी— उसके ‘डैडियो’ शब्द पर भी ग़ौर करो। मैंने उसे डपटने में देर न लगायी।
“कमऑन।” उधर मुझे देखती वह लड़की बड़े चित्ताकर्षक भाव से मुस्करायी।
मैं सिरहाने की तरफ़ जा खड़ा हुआ और उसे घूरते हुए पूछा— “आखिर हो कौन तुम?”
मेरी बात पर उसने असमंजस से मुझे देखा तो मैंने सवाल अंग्रेजी में दोहराया और उसका मुँह आश्चर्य से खुल गया। मेरी भटकती नज़र उसके चिकने पतले पेट के निचले भाग पर वहाँ अटकी जहाँ नाभि के नीचे और गुप्तांग के ठीक ऊपर एक बटरफ्लाई का कलर्ड टैटू बना हुआ था और उसी में गुथा ‘स्मिथ’ लिखा हुआ था। ठीक यही शब्द मेरे उदर के निचले भाग पर भी अंकित थे। क्या अर्थ था इसका— क्या हम दोनों में कोई रिश्ता था? तो क्या उसके ‘डैडियो’ जैसे शब्द का अर्थ पिता-पुत्री जैसा कुछ था? सोच कर ही दिमाग़ भन्ना गया।
“अच्छा यह बताओ— मैं कौन हूँ?” मैंने आगे कहा तो उसका अचरज और बढ़ गया।
मुझे लगा यूँ काम नहीं बनने वाला था… उसकी हरी-हरी आँखों में झाँकते हुए मैं उसके पहलू में ढेर हो गया और उसकी संदली पीठ सहलाने लगा। फिर लहजे में मिठास घोलते हुए मैंने आगे कहा— “देखो बेबी, दरअसल मैं बीमार हूँ। मुझे याद नहीं कि यह कैसे हुआ— लेकिन एकदम से मेरे सर में भयंकर दर्द होता है और फिर मैं हर बात भूल जाता हूँ। जैसे मैं इस वक़्त मैं तुम्हें तक भूल चुका हूँ। क्या तुम मुझे कुछ याद दिलाओगी।”
इस नये शरीर में पहली बार मैं इतना बोला तो मैंने ख़ुद की आवाज़ में भी थोड़ी भरभराहट महसूस की और मेरे बदन में चीटियाँ सी दौड़ गयीं। आवाज़ तो शायद मेरी ही थी— लेकिन उम्र दराज और भारी।
“आप… आप आप डैडियो हैं… स्मिथ… राईन स्मिथ।” वह थोड़ा अटकते हुए बोली— “आप इंडस्ट्रियलिस्ट हैं, आप न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज और कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की दुनिया के इतने बड़े आदमी हैं… आप—” वह फिर अटक गयी और मेरा दिमाग भन्ना गया।
मैं अभी छ:-सात महीने भर पहले रिज़वी कॉलेज से हिंदी साहित्य की पढ़ाई पूरी करके हटा था और मौज-मस्ती के दिन गुज़ार रहा था। मैं शेयर मार्केट से भला कब इनवॉल्व हो गया— वह भी मुंबई में नहीं न्यूयॉर्क में? रही कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की बात है तो इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी से मेरा नाता इतना ही था कि मैं कंप्यूटर ऑपरेट कर सकता था, थोड़ी-बहुत प्रोग्रामिंग भी कर सकता था— भला किसी सॉफ्टवेयर से मेरा क्या ताल्लुक था?
“तुम कौन हो?” मैंने उसे घूरा।
“मैं… मैं तो शेरिल हूँ… आपकी गोद ली हुई बेटी।” उसने कुछ उलझते हुए जवाब दिया।
“बेटी!” मुझे ज़ोर का झटका ज़ोर से ही लगा।
हाथ उसकी पीठ से सरक कर तकिये पर जा पड़ा… बेटी और इस हाल में! मेरा जी चाहा कि मैं अपना सर फोड़ डालूँ। बड़ी कठिनाई से मैंने अपने भावों पर नियंत्रण पाया। काँपते हाथ से इसका कंधा थपथपाते हुए मैंने धीरे से कहा— “अच्छा बेबी, तुम अपने कमरे में जाओ। मैं इस वक़्त बहुत परेशान हूँ। मुझे आराम करने दो।”
“जी।” वह सहमति में सर हिलाती उठ खड़ी हुई।
जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े कपड़े समेट कर पहने और बेड के पास रखी ट्रॉली में पड़ा रिमोट उठा कर कोई बटन दबाया। वह दरवाज़ा खुल गया, जिससे वह आयी थी। उसके बाहर निकलते ही दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया। बेडरूम में तीन दरवाज़े खुलते थे— एक, जिसके पीछे बाथरुम था और जो मैं देख चुका था। दूसरा, जिससे शेरिल आयी या गयी थी और जो कॉरिडोर में खुलता था। इसके सिवा वहाँ एक और दरवाज़ा भी था जो बंद था।
मैंने उस कमरे का भरपूर निरीक्षण किया… वेल डेकोरेटेड, वेल फर्निश्ड, अल्ट्रा-मॉडर्न, आलीशान बेडरूम। दीवारों पर सुनहरे फ्रेम जड़ित सुरुचि पूर्ण तस्वीरें, रंग-बिरंगी छोटी-छोटी मछलियों और उनकी छोटी सी दुनिया वाला एक्वेरियम। डिजाइनर मेटल जड़ित सुनहरा विशाल गोल बेड। वह वैसा ही बेडरूम था, जैसा किसी मिलियनेयर का हो सकता था। मैं अमीर ज़रूर था मगर उतना भी नहीं, जितना यह शख़्स राईन स्मिथ लगता था, जिसके शरीर में इस वक़्त मैं था।
मेरे पेट में कुलबुलाहट होने लगी थी— मुझे खाली पेट और भूख़ का एहसास हो रहा था। अब खाना कहाँ से हासिल होगा? क्या इसके लिये राईन स्मिथ को बाहर जाना पड़ेगा या कोई और उसका हुक्म बजायेगा? कुछ समझ में नहीं आया तो बेड के पास ट्रॉली में पड़ा रिमोट उठाया और उस पर नंबर पड़े कई बटनों में से एक बटन दबाया।
कोई प्रतिक्रिया न हुई— अब पता नहीं रिमोट सेंसर किधर था, या उसकी सही लाइन क्या थी, या सही बटन कौन सा था?
“फार गॉड सेक— इज़ एनीवन हियरिंग मी?” मैं चिल्ला पड़ा।
“यस सर।” तत्काल कमरे में एक आवाज़ गूँजी— “बट व्हाई आर यू शाउटिंग सर। शेरिल टोल्ड मी, यू आर नॉट वेल। शुड आई कॉल द डॉक्टर।”
“नो— नो” मैं सकपका गया, मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि उस कमरे की आवाज़ें कहीं और सुनी जा सकती है— मैंने जल्दी से आगे कहा, “नो नीड इट, बट हू आर यू?”
“दिस इज़ एनी सर।”
“एक्चुअली आई एम हंगरी, यू नो।”
“व्हाट— ओह सॉरी सर, बट यू कैन टेक योर डिनर फ्रॉम ई-विंडो बाय रिमोट। इट्स ऑन सेवेन एंड विंडो इस सिच्युएटेड एट योर लेफ्ट साइड वॉल।”
“थैंक्स।”
“इट्स माई ड्यूटी सर— एनीथिंग एल्स?”
“नो-नो— थैंक्स।”
“ओके सर— प्लीज टेक योर डिनर।” फिर आवाज़ आनी बंद हो गयी।
कमबख्त बड़ा अजीब मशीन पसंद शख़्स था यह राईन स्मिथ— बेडरूम में होते हुए सहवास की कामोत्तेजक सिस्कारियाँ तक किसी नारी को सुनाने का इंतजाम रखता था।
पर डूड— इसका एक अपोजिट पहलू यह भी तो है कि वह अपनी सेवा के लिये लोगों को कम से कम परेशान करता है और बिना इंसानी श्रम के ही सही, पर अपनी ज़रूरत की चीज़ें खुद हासिल कर लेता है। अंदर वाले डेविड ने राईन स्मिथ के एक सकारात्मक पहलू की ओर इशारा किया।
बात तो सही है— हमारे देश में तो इस हैसियत के लोगों को अपने आसपास नौकरों की फौज चाहिये होती है। उनका स्टेटस इसी से मेनटेन होता है। मुझे भी मिनी मी से सहमति जतानी पड़ी।
मैंने अपने बाईं तरफ़ की दीवार की ओर रुख़ कर के रिमोट पर सात नंबर का बटन दबाया।
तत्काल सामने लगी पेंटिंग बिना आवाज़ ऊपर सरक गयी और नीचे से कथित ई-विंडो प्रकट हुई। ओवन जैसी कोई चीज़, जिसके नीचे डिस्प्ले पर कुछ ऑप्शन उपलब्ध थे। मैंने पास जा कर निरीक्षण किया— सामने उपलब्ध बटनों में से ‘मेन्यू’ वाला बटन पुश किया। फौरन सब-मेन्यू की काली पट्टिका पर स्वर्णिमाक्षरों में लिखी व्यंजन सूची चलने लगी। उसमें से कुछ सलेक्ट कर पाता, उससे पहले ही लिस्ट पूरी हो गयी। दोबारा लिस्ट रिपीट हुई तो पिज़्ज़ा आने पर मैंने टच कर दिया। पट्टी हाईलाईट हुई और फिर पिज्जा के कई ऑप्शंस उभर आये। उनमें से मैंने एक किंग साइज वेज पनीर पिज्जा सलेक्ट किया— आर्डर प्लेस करने के साथ ही पाँच मिनट वेट की नोटिफिकेशन फ्लैश हुई और मैं वापस बेड पर आ कर बैठ गया।
वेटिंग पीरियड पूरा होने के साथ ही बेल्ट चलने जैसी आवाज़ उभरी और फिर ओवन का ढक्कन खुल कर नीचे हुआ और स्टैंड की तरह स्थिर हो गया। सामने ही चांदी की तशतरी में पिज़्ज़ा उपलब्ध था। साथ ही पानी और कोल्ड ड्रिंक दोनों ऑप्शन उपलब्ध थे। मैंने वह चीज़ें उठा ली और उन्हें ट्रॉली पर रख कर खाने में जुट गया।
खा-पी कर वापस वे बर्तन मैंने उस ओवन जैसी जगह में रखे और नीचे स्क्रीन पर दिखता क्लोज का बटन दबा दिया।
ओवन बंद हो गया। रिमोट वापस उठा कर मैंने सात नंबर वाला बटन दबाया— ऊपर सरकी पेंटिंग वापस नीचे सरक आयी। यह अय्याश किस्म का शख़्स अब कुछ-कुछ मेरी समझ में आने लगा था।
मैंने रिमोट के दूसरे बट्नों की जानकारी के लिये अगला बटन दबाया। पहले तो कोई प्रतिक्रिया न हुई, फिर बटन दबाये-दबाये रिमोट कमरे में घुमाया— रुख़ दरवाज़े की ओर होते ही दरवाज़ा खुल गया। मैं बाहर झाँका— कॉरिडोर सूना पड़ा था। दरवाज़ा मैंने वापस बंद किया और अगला बटन दबाया। इस बार भी वही क्रिया दोहरायी— बटन दबाये-दबाये उसे चारों ओर घुमाया। इस बार बेड से एक ड्राअर बाहर निकल आयी। ड्राअर में ‘सिंपलेक्स’ नामी एक प्लास्टिक कवर वाली फाइल, एक सुनहरी जल्द वाली ‘स्मिथ’ नाम की डायरी और एक आधुनिक गन, साथ में दो मैगजीन मौजूद थे। मैंने स्मिथ नाम वाली डायरी निकाल कर ड्राअर बंद कर दिया।
अगला बटन दबने के साथ ही बेड सुनहरे किनारो को छोड़ कर मंथर गति से घूमने लगा— गोल-गोल। मैंने उसे घूमने दिया। अगले बटन से दाहिनी दीवार ही सरक गयी— पीछे फ़र्श से छत तक एक कबर्ड थी, जिसमें दर्जनों महंगे सूट, नाईट वेयर, जूते, टाई या और बेल्ट वगैरह थे। एक नाइट गाउन निकाल कर मैंने उसे बंद कर दिया और गाउन पहन लिया। अगले बटन के साथ बेड के सिरहाने, पीछे की तरह दीवार में एक केबिनेट प्रकट हुई— जिसमें हर तरह की शराब मौजूद थी। मैंने गिलास, सोडा और शैम्पेन की बोतल निकाल कर उसे बंद कर दिया। अब आख़िरी बटन बचा था… रिमोट मैंने बेड पर डाला और एक पैग बना कर चुसकने लगा।
इस वक़्त नशा ही मुझे फौरी राहत दे सकता था— मेरे झनझनाते स्नायुओं को सुकून दे सकता था। नशे की गोद में ही मैं वक़्ती तौर पर इस तड़प को भूल सकता था कि एक रात में ही मेरी दुनिया बदल गयी थी, मेरा घर, मेरा चेहरा ही नहीं, मेरा जिस्म तक बदल गया था।
पीते-पीते मैंने रिमोट का आख़िरी बटन दबाया— कमरे में मौजूद तीसरा दरवाज़ा खुल गया, लेकिन उसके पार अँधेरा था। क्या था वहाँ— मैंने जानने की कोशिश नहीं की। पीने के साथ ही मेरे सर का भारीपन बढ़ता जा रहा था, आँखें बंद होने लगी थीं और कनपटियों में दर्द पैदा हो गया था।
यह क्या हो रहा था मुझे… आधा खाली गिलास मेरे होंठों तक आते हाथों से छूट कर बेड के नीचे फर्श पर बिखर गया।
मेरे दोनों हाथ सर पर टिक गये— मैं ज़ोर-ज़ोर से कनपटियाँ दबाने लगा… लेकिन दर्द बढ़ता गया और बढ़ते-बढ़ते दिमाग़ ही सुन्न हो गया। मैंने बस इतना अनुभव किया कि मेरा मुड़ा-तुड़ा शरीर गोल घूमते बेड पर फैल गया था।
इसके बाद मुझे कुछ भी याद न रहा।
पुस्तक विवरण
पुस्तक: कायापलट | लेखक: अशफाक अहमद | प्रकाशन: ग्रेडियाज़ पब्लिकेशन | शृंखला: डेविड फ्रांसिस #1 | पुस्तक लिंक: अमेज़न