किताब परिचय
प्रेम के जादू और इश्क़ के रुतबे से कोई अभागा ही अनजान होगा। जब प्यार किसी से होता है तो प्रेमी ना अपनी पात्रता देखता है और ना प्रेम की अलभ्यता की तरफ़ उसका ध्यान जाता है।
हर्षा एक साधारण, मितभाषी और पढ़ाकू लड़की जिसे ख़ूबसूरत, चंचल और बातूनी पलाश अपने जादू में क़ैद कर लेता है। हर्षा जानती है कि वो पलाश को कभी हासिल नहीं कर सकेगी, लेकिन जब तक पलाश को प्यार करने का अधिकार किसी और के पास ऑफ़िशियली नहीं है, तो हर्षा क्यूँ ना ये इस एकतरफ़ा प्यार को जी ले?
पलाश भी सोचता है कि प्यार करने में प्यार जताने की शर्त थोड़ी ना जुड़ी होती है। कहाँ वो और कहाँ उसका प्यार? कोई मेल ही नहीं। जातियाँ अलग, आर्थिक हालात अलग। जहाँ रहना नहीं मुमकिन उस गली में क्या झाँकना।
अपना प्यार अपने दिल में दबाए पलाश और हर्षा अलग हो गए।
क्या उनके दिल की हूक वो दोनों एक दूसरे से छिपा जाएँगे?
प्रेम क्या प्रेमियों से हार जाएगा?
इश्क़ कभी आशिक़ों का रुतबा ख़ुद से ऊँचा उठने देगा?
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अमेज़न | साहित्य विमर्श प्रकाशन
पुस्तक अंश
पलाश की लत में बिलकुल पागल-सी हो गयी थी मैं। मैं उससे मिली ही क्यूँ? जब नहीं था वो मेरी ज़िन्दगी में तो क्या कमी थी? सब अच्छा ही चल रहा था। यह दर्द, यह टीस देने के लिये ही मिला वो मुझे? क्या पहेली है यह कि ना वो मेरा है और ना पराया ही है? सुन्दर सपनों का नीड़ था दिल मेरा! उसने यह क्या हाल कर दिया है? दिल ना हुआ, एक जबरन खाली करवाया गया कमरा हो गया है। दरवाज़े पर अब भी वो कील धँसी है, जिस पर विंडचाइम झूमते हुए बजती थी। दीवारों पर कीलों के गहरे निशान हैं, जिन पर कभी सुन्दर ड्रीमकैचर लटकते थे। कहीं उसकी तस्वीर हटाने के चक्कर में दीवारों से प्लास्टर उखड़ा हुआ है। कहीं उसकी फ़ोटो फ्रेम के निशान नक्काशी की तरह दीवार पर खुरचे हुए हैं। हर कोने में जैसे बरबादियों के क़िस्से लिखे हुए हैं। दिल, उसके जाने और मेरे खोने-पाने का फटा-चिथड़ा बही-खाता हो गया है। रास ना आयी मुझे यह मोहब्बत!
एक दिन हॉस्टल में भरी दोपहर मुझे रोना आ गया। हर रात अकेले में रोना अलग बात थी, लेकिन इस तरह भरी दोपहर तो मैं हादसा होने पर, चोट का तेज दर्द होने पर भी नहीं रोई थी। उस दिन मेरा सब्र छूट गया। दिल रो रहा था कि पलाश ने एक बार भी मेरी सेहत के बारे में नहीं पूछा। उस दिन के बाद कभी भी नहीं, जब गुस्सा ही किये जा रहा था। यह सहन नहीं हो पा रहा था कि उसे मेरी कोई चिंता ही नहीं। उस दिन मैंने मन कड़ा किया और वो पेपर फाड़ दिया जिसमें उसका फ़ोन नंबर लिखा था। ख़ुद से कहा- ‘अब मैं उसे कभी कॉल नहीं करूँगी। किसके पीछे भाग रही हूँ मैं? जिसे मेरे मरने-जीने से कोई मतलब ही नहीं।’
मैंने फ़ैसला किया कि अब मैं उसे कभी मेल भी नहीं करूँगी। उसे छोड़कर आगे बढ़ जाऊँगी। भुला दूँगी उसको हमेशा के लिये।
‘क्या आज तक तुमने कुछ ग़लत नहीं किया? क्या तुम्हारी ग़लती के लिये तुम्हारे मम्मी-पापा ने तुमसे नाता तोड़ लिया? तुम्हारे भाई-बहन ने तुम्हें अपनी ज़िंदगी से बाहर कर दिया? नहीं। क्यूँकि वो प्यार करते हैं तुमसे। प्यार का दस्तूर है माफ़ कर देना। प्यार करने वाले जताते नहीं कि कितना दुःख उठा रहे हैं तुम्हारे लिये। वो शर्मिंदा नहीं करते तुम्हें कि तुम कितनी अनगढ़ हो। यह प्यार करने का सलीका है। तुम रोना-गाना छोड़कर पहले तय करो कि वाक़ई प्यार करती हो पलाश से? या बस जवानी का जोश चढ़ा था और उसे अपना निशाना बना रही थी?’ दिल में कौन था, जो मुझे ऐसी बातों से झकझोर देता था!
अपने फ़ैसले पर शर्मिंदा होते हुए टूटे दिल ने कहा- ‘अच्छा मेल का दस्तूर निभाती रहूँगी। जवाब भले ही न देता हो लेकिन वो मेल पढ़ता तो है। कभी उसको मेरी ज़रूरत हुई, तो मेरी तरह मायूस न हो कि उसके साथ उसकी दोस्त नहीं। मैंने उससे प्यार किया है और मुझे प्यार करने का सलीका आता है।’
अब दुखी मन से दिन शुरू होता था। मेरा सुबह का ‘आ मुझे छू ले वाला भजन’ बन्द हो गया था। चाल में एक सुस्ती आ गयी थी, मन की थकान हर तरफ़ दिखती थी। मन सूखा ठूँठ हो गया था। कभी-कभी ख़ुद पर बहुत ग़ुस्सा आता था- ‘क्यूँ मरी जा रही हूँ उसके लिये? कोई आत्मसम्मान है कि नहीं मेरा? पलाश ख़ुद को समझता क्या है? मैं मर नहीं जाऊँगी उसके बिना।’
मुझे तो तब लगता था कि मैं एक चलती-फिरती लाश हूँ या शरद ऋतु का मुरझाया पेड़। लेकिन इसके बावजूद कॉलेज के लड़कों में मेरी डिमांड में कोई कमी नहीं थी। मुझे उन लड़कों पर हैरानी होती थी जो मेरे मुरझाने पर भी मुझे रिझाने के चक्कर में तरह-तरह के जतन करते थे। शायद प्यार के दर्द ने मेरे प्यार को, मुझे और भी निखार दिया था। मैं शरद ऋतु के मेपल पेड़ सी सँवर गयी थी, मेरी हर पत्ती में मेरे घावों का खून और पीले पड़े अरमान उतर आये थे। उस समय कॉलेज में जब कोई मुझे अप्रोच करता था, तो पलाश से बदला लेने की इच्छा कभी बहुत ज़ोर मारती थी। मन करता कि उसे दिखा दूँ- ‘देखो, मरी नहीं मैं। ख़ुश हूँ मैं। तुमने ना चाहा तो क्या? मेरे कितने ही दीवाने हैं यहाँ।’ लेकिन फिर घबरा जाती थी। यह बेईमानी! यह धोखा कैसे दूँ अपने आप को? पलाश जाने या ना जाने, पर मैं तो जानती हूँ कि मुझे उसके सिवाय और कोई नहीं चाहिये। जब से यहाँ आई हूँ उस जैसा ही कोई ढूँढ रही हूँ। पर उस जैसा मिला कोई? और मैं उस तड़प, टीस और प्यार को मैला कैसे कर दूँ जो मेरी पूजा है, मेरी इकलौती दौलत है। जिस ख़ुशबू को मैं सिर्फ़ पलाश के लिये सँभालती आई हूँ, वो किसी और को कैसे सौंप दूँ? किसी और को पलाश की जगह देने का ख़याल ही दम घोंटने लगता था। तब साँस लेने को फड़फड़ाती मैं ख़ुद से कहती- ‘अभी यह आगे-पीछे घूम रहा है, जहाँ थोड़ा भाव दिया मैंने तो इसकी भी सींगें निकल आयेंगी, सांड कहीं का। सारे लड़के सांड होते हैं। सब एक जैसे होते हैं। मुझे नहीं चाहिये, मुझे कोई लड़का मेरे आस-पास नहीं चाहिये। भाड़ में जाओ सब।’
इश्क़ की बाज़ी हार गयी तो हार भी ग्रेसफुल ढंग से एक्सेप्ट करूँगी। अगर नसीब में यही है, तो यही सही। जल मेरे दिल, जल! देखूँ तो, पहले आग ख़तम होगी या पहले तू ख़ाक होगा। बिखर मेरे वजूद, जितना बिखर सके बिखर। देखूँ तो, बिखरने की इन्तहां क्या है? बस, मेरी शर्त इतनी ही है कि मेरे फ़ना होने से पहले पलाश को इसकी ख़बर भी ना होने देना। देखूँ तो, जिसके लिये तिल-तिल मर रही हूँ उसकी बेपरवाही कितनी लापरवाह रह लेती है? मर जाऊँगी किसी दिन तो क्या होगा उसका? समेट सकेगा मेरे बिखरे टुकड़े? उसे तब तो परवाह होगी, तब तो अफ़सोस होगा? एक तारा तो उसकी आँखों से भी टूटेगा, जब मुझे नहीं देख सकेगा। दिन अजीब ग़ुस्से, दुःख और आत्मसमर्पण में बीतता था। अब मेरी रातों में गानों की जगह ग़ज़लों ने ले ली थी और एक ग़ज़ल तो रिपीट पर चलती। मेरी आँखें शमा की तरह पिघलती रहती और रंज-ओ-ग़म के मोती सारी रात ढुलकते रहते।
‘प्यार मुझसे जो किया तुमने, तो क्या पाओगी, मेरे हालात की आँधी में बिखर जाओगी’
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लेखिका का परिचय:
हेमा बिष्ट उत्तराखंड में जन्मी, लखनऊ में पली बढ़ी और फ़िलहाल मेल्बर्न में रहने वाली एक साधारण सी गृहणी हैं। लगभग हर मध्यम-वर्गीय इंसान की तरह भटकाव का शिकार भी हैं। शौक़ है लेखन का लेकिन साहित्य पढ़ने की जगह MCA किया है। माँ बनने से पहले TCS में जॉब किया करती थीं। इनकी पहली किताब “तुम तक” एक नाज़ुक सी प्रेम कहानी है। जिसे किसी अलसाई सी दोपहर में ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए।
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