सरयूपार की यात्रा – भारतेंदु हरिश्चंद्र

सरयूपार की यात्रा - भारतेंदु हरिश्चंद्र
अयोध्या

कल साँझ को चिराग़ जले रेल पर सवार हुए, यह गये वह गये। राह में स्टेशनों पर बड़ी भीड़ न जाने क्यों? और मज़ा यह कि पानी कहीं नहीं मिलता था। यह कम्पनी मजीद के ख़ानदान की मालूम होती है कि ईमानदारों को पानी तक नहीं देती। या सिप्रस का टापू सरकार के हाथ आने से और शाम में सरकार का बंदोबस्त होने से यह भी शामत का मारा शामी तरीका अख़तियार किया गया है कि शाम तक किसी को पानी न मिले। स्टेशन के नौकरों से फ़र्याद करो तो कहते हैं कि डाक पहुँचावै, रोशनी दिखलावै कि पानी दे। ख़ैर जों तों कर अयोध्या पहुँचे। इतना ही धन्य माना कि श्री रामनवमी की रात अयोध्या में कटी। भीड़ बहुत ही है। मेला दरिद्र और मैलै लोगों का। यहाँ के लोग बड़े ही कंगली टर्रे हैं। इस दोपहर को अब उस पार जाते हैं। ऊँटगाड़ी यहाँ से पाँच कोस पर मिलती है।

कैम्प हरैया बाज़ार

आज तक तीन पहर का समय हो चुका है। और सफ़र भी कई तरह का और तकलीफ देने वाला। पहिले सरा से गाड़ी पर चले। मेला देखते हुए रामघाट की सड़क पर गाड़ी से उतरे। वहाँ से पैदल धूप में गर्म रेती में सरजू के किनारे गुदाम घाट पर पहुँचे। वहाँ से मुश्किल से नाव पर सवार हो कर सरजू पार हुए। वहाँ से बेलवाँ जहाँ डाक मिलती है और शायद जिसका शुद्ध नाम बिल्व ग्राम है, दो कोस है। सवारी कोई नहीं, न राह में छाया के पेड़, न कुआँ, न सड़क… हवा ख़ूब चलती थी इस से पगडंडी भी नहीं नज़र पड़ती, बड़ी मुश्किल से चले और बड़ी ही तकलीफ़ हुई। ख़ैर, बेलवा तक रो-रो कर पहुँचे वहाँ से बैल की डाक पर छह बजे रात को यहाँ पहुँचे। यहाँ पहुँचते ही हरैया बाज़ार के नाम से यह गीत याद आया ‘हरैया लागल झबिआ केरे लैहैं न’ शायद किसी ज़माने में यहाँ हरैया बहुत बिकती होगी। इसके पास ही मनोरमा नदी है। मिठाई हरैया की तारीफ़ के लायक है। बालूशाही सचमुच बालूशाही भीतर काठ के टुकड़े भरे हुए। लड्डू भूर के, बर्फ़ी अहा हा हा। गुड़ से भी बुरी। ख़ैर, लाचार हो कर चने पर गुज़र की। गुज़र गयी गुज़रन क्या झोपड़ी क्या मैदान। बाकी हाल कल के ख़त में।

बस्ती

परसों पहिली एप्रिल थी, इससे सफ़र कर के रेलों में बेवक़ूफ़ बनने का और तकलीफ़ से सफ़र करने का हाल लिख चुके हैं। अब आज आठ बजे सुबह रें रें करके बस्ती से पहुँचे। वाह रे बस्ती। झख मारने को बसती है… अगर बस्ती इसी को कहते हैं तो उजाड़ किस को कहेंगे? सारी बस्ती में कोई भी पंडित बस्तीराम जो ऐसा पंडित नही, ख़ैर अब तो एक दिन यहाँ बसती होगी। राह में मेला ख़ूब था। जगह-जगह पर शहाब चूल्हे जल रहे हैं। सैकड़ो अहरे लगे हुए हैं, कोई गाता है, कोई बजाता है, कोई गप हाँकता है। रामलीला के मेले में अवध प्रांत के लोगों का स्वभाव, रेल अयोध्या और इधर राह में मिलने से ख़ूब मालूम हुआ। बैसवारे के पुरुष अभिमानी, रुखे और रसिकमन्य होते हैं। रसिकमन्य ही नहीं वीरमन्य भी। पुरुष सब पुरुष और सभी भीम, सभी अर्जुन, सभी सूत पौराणिक और सभी वाजिदअली शाह। मोटी-मोटी बातों को बड़े आग्रह से कहते सुनते हैं। नयी सभ्यता अभी तक इधर नहीं आयी है। रूप कुछ ऐसा नहीं, पर स्त्रियाँ नेत्र नचाने में बड़ी चतुर। यहाँ के पुरुषों की रसिकता मोटी चाल सुरती और खड़ी मोछ में छिपी है और स्त्रियों की रसिकता मैले वस्त्र और सूप ऐसे नथ में। अयोध्या में प्रायः सभी स्त्रियों के गोल गाते हुए मिले। उन का गाना भी मोटी-सी रसिकता का। मुझे तो उन की सब गीतों में ‘बोलो प्यारी सखियाँ सीता राम राम राम’ यही अच्छा मालूम हुआ। राह में मेला जहाँ पड़ा मिलता था, वहाँ बारात का आनंद दिखलाई पड़ता था। ख़ैर मैं डाक पर बैठा-बैठा सोचता था कि काशी में रहते तो बहुत दिन हुए परंतु शिव आज ही हुए क्योंकि वृषभवाहन हुए फिर अयोध्या याद आयी कि हाँ, वही अयोध्या है जो भारतवर्ष में सब से पहले राजधानी बनायी गयी। इसी में महाराजा इक्ष्वाकु वंश मांधाता हरिश्चंद्र दिलीप अज रघु श्रीरामचंद्र हुए हैं और इसी के राजवंश के चरित्र में बड़े-बड़े कवियों ने अपनी बुद्धि शक्ति की परिचालना की है। संसार में इसी अयोध्या का प्रताप किसी दिन व्याप्त था और सारे संसार के राजा लोग इसी अयोध्या की कृपाण से किसी दिन दबते थे वही अयोध्या अब देखी नहीं जाती। जहाँ देखिए मुसलमानों की क़ब्रें दिखलाई पड़ती है। और कभी डाक पर बैठे रेल का दुख याद आ जाता कि रेलवे कम्पनी ने क्यों ऐसा प्रबंध किया है कि पानी तक न मिले। एक स्टेशन पर एक औरत पानी का डोल लिए आयी भी तो गुपला-गुपला पुकारती रह गयी जब हम लोगों ने पानी माँगा तो लगी कहने कि ‘रहः हो पानियै पानी पड़ल हौ’ फिर कुछ ज़्यादा ज़िद में लोगों ने माँगा तो बोली ‘अब हम गारी देब’ वाह क्या इंतज़ाम था। मालूम होता है कि रेलवे कम्पनी स्वभाव की बड़ी शत्रु है क्योंकि जितनी बातें स्वभाव से सम्बंध रखती हैं अर्थात खाना-पीना-सोना-मलमूत्र त्याग करना इन्हीं का इसमें कष्ट है। शायद इसी से अब हिंदुस्तान में रोग बहुत हैं। कभी सरा के खाट के खटमल और भटियारियों का लड़ना याद आया।

यही सब याद करते कुछ सोते कुछ जागते-हिलते आज बस्ती पहुँच गये। बाकी फिर यहाँ एक नदी है उसका नाम कुआनम। डेढ़ रुपया पुल का गाड़ी का महसूल लगा। बस्ती के जिले के उत्तर सीमा नेपाल पश्चिमोत्तर की गोड़ा पश्चिम दक्षिण अयोध्या और पूरब गोरखपुर है। नदियाँ बड़ी इसमें सरयू और इरावती सरयू के इस पार बस्ती उस पार फ़ैज़ाबाद। छोटी नदियों में कुनेय मनोरमा कठनेय आमी बाणगंगा और जमतर है। बरकरा ताल और जिरजिरवा दो बड़ी झील भी है। बाँसी बस्ती और मकहर तीन राजा भी हैं। बस्ती सिर्फ़ चार-पाँच हज़ार की बस्ती है पर जिला बड़ा है क्योंकि जिले की आमदनी चौदह लाख है। साहब लोग यहाँ दस बारह हैं। उतने ही बंगाली हैं। अगरवाला मैंने खोजा एक भी न मिला सिर्फ़ एक है वह भी गोरखपुरी है। पुरानी बस्ती खाई के बीच बसी है। राजास के महल बनारस के अर्दली बाज़ार के किसी मकान से उमदा नही। महल के सामने मैदान पिछवाड़े जंगल और चारों ओर खाई है। पाँच सौ खटिकों के घर महल के पास हैं जो आगे किसी ज़माने में राजा के लूटमार के मुख्य सहायक थे। अब राजा के स्टेट के मैनेजर कूक साहब हैं।

यहाँ के बाज़ार का हम बनारस के किसी भी बाज़ार से मुकाबिला नहीं कर सकते। महज बहैसियत महाजन एक यहाँ है वह टूटे खपड़े में बैठे थे। तारीफ़ यह सुनी कि साल भर में दो बार क़ैद होते हैं क्योंकि महाजन का जाल करना फर्ज़ हैं और उसको भी छिपाने का शऊर नहीं। यहाँ का मुख्य ठाकुरद्वारा दो तीन हाथ चौड़ा उतना ही लम्बा और उतना ही ऊँचा बस। पत्थर का कहीं दर्शन भी नहीं है। यह हाल बस्ती का है। कल डाक ही नहीं मिली कि जाएँ। मेंहदावल को कच्ची सड़क है, इस से कोई सवारी नहीं मिलती। आज कहार ठीक हुए हैं। भगवान ने चाहा तो शाम को रवाना होंगे। कल तो कुछ तबीयत भी घबड़ा गयी थी इससे आज खिचड़ी खायी। पानी यहाँ का बड़ा बातुल है। अकसर लोगों का गला फूल जाता है, आदमी ही का नहीं कुत्ते और सुग्गे का भी। शायद गलाफूल कबूतर यहीं से निकले हैं। बस अब कल मिंहदावल से ख़त लिखेंगे।


FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *