घना’दा एक किस्सागो हैं। जब वे किस्सा सुनाना शुरू करते हैं, तो सुनने वाले मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। घना’दा के किस्सों में इतिहास-भूगोल-विज्ञान से लेकर सस्पेंस-थ्रिल-एक्शन तक क्या नहीं होता है! अपने किस्सों में वे खुद ही नायक होते हैं। हालाँकि उनके व्यक्तित्व में हीरो वाली कोई बात नहीं है— बिलकुल मामूली आदमी नजर आते हैं वे, लेकिन किस्सों में वे अपने से कई गुना वजनी लोगों को धूल चटाने की काबिलियत रखते हैं। ज़ाहिर है कि कूंग-फू-जैसी विधाओं में वे खुद को पारंगत दिखाना चाहते हैं। अपने हर किस्से में वे दुनिया के किसी और देश, किसी और द्वीप, किसी और महादेश में होते हैं। कई बार तो वे दुनिया के ऐसे स्थान पर होते हैं, जिनका नाम तक किसी ने नहीं सुना होता। इसी तरह, कई बार वे ऐसे व्यवसाय से जुड़े होते हैं कि सुनकर लोग दाँतों तले उँगली दबा लें। किस्सों में दुनिया भर के वैज्ञानिकों, जासूसों, खोजियों, सेना-पुलिस के अधिकारियों वगैरह का जिक्र वे इस तरह करते हैं, मानो वे उनके (घना’दा के) लंगोटिया यार रहे हों। किस्सा सुनने वालों को इन बातों से खटका लगता है, अक्सर उन्हें लगता है कि घना’दा गप्प हाँक रहे हैं और कई बार तो सुनने वालों को संदेह होता है कि घना’दा वास्तव में डरपोक व्यक्ति हैं, लेकिन उनके किस्सों में इतना रोमांच, इतनी अद्भुत जानकारियाँ समायी हुई होती हैं कि उनके श्रोता अपने खटके और संदेह को नजरअंदाज कर देते हैं और घना’दा के प्रति उनकी भक्ति जरा भी कम नहीं होती। हर छुट्टी के दिन उनके मुँह से एक नया किस्सा सुनने के लिए उनके शागिर्द लालायित रहते हैं और इसके लिए उनकी खूब खातिरदारी भी करते हैं। वैसे, घना’दा का दिमाग एक चलता-फिरता इनसायक्लोपीडिया है— इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होता।

घना’दा का पूरा नाम है— घनश्याम दास। उनके चाहने वाले उन्हें ‘घना’दा’ पुकारते हैं, यानी ‘घना दादा,’ हिंदी में ‘घना भैया।’
घना’दा का चरित्र गढ़ने वाले लेखक का नाम है— प्रेमेंद्र मित्र (1904-1988)। उन्होंने घना’दा की एक-दो दर्जन नहीं, बल्कि कुल-मिलाकर 65 कहानियाँ लिखी हैं। एक अधूरी कहानी भी है। एक नाटक और 4 उपन्यास भी उन्होंने घना’दा पर लिखे हैं। प्रेमेंद्र मित्र को बंगला साहित्य में विज्ञान कपोलकथाओं का अग्रदूत माना जाता है। घना’दा के अलावे उन्होंने दो शौकिया जासूस— ‘मामाबाबू’ और ‘पराशर बर्मा’— के भी किरदार गढ़े हैं। बाल-किशोरों के लिए उन्होंने ढेरों परीकथाएँ, भूतिया कहानियाँ, विज्ञान कपोलकथाएँ और रहस्य-रोमांच वाली कहानियाँ लिखी हैं।

इस आलेख में आगे दुनिया के उन स्थानों का जिक्र किया जा रहा है, जहाँ-जहाँ घना’दा अपने किस्सों में गये हुए थे। यही इस आलेख का उद्देश्य है।
घना’दा सखालिन में: अपने पहले किस्से (मशा— मच्छर) में घना’दा सखालिन में होते हैं। सखालिन रूस का सबसे बड़ा द्वीप है, जो प्रशांत महासागर में जापान के उत्तर में स्थित है। यह लम्बे कटार के आकार का द्वीप है। जिन दिनों की कहानी है, उन दिनों द्वीप का दक्षिणी हिस्सा जापानियों के कब्जे में था। घना’दा वहाँ किसी कम्पनी की ओर से ‘एम्बर’ संग्रह के काम में गये हुए हैं।
प्रसंगवश बता दिया जाय कि पेड़ की राल या गोंद का जीवाश्म ‘एम्बर’ कहलाता है। प्राचीन काल से इसका इस्तेमाल रत्न के रूप में आभूषण बनाने में होता आ रहा है। इसके अन्य उपयोग भी हैं। हिंदी में इसे ‘कहरुवा’ या ‘तृणमणि’ कहते हैं।
खैर, तो वहाँ एक दिन उनका चीनी नौकर लापता हो जाता है, साथ में अब तक एकत्र किये गये एम्बर का थैला भी गायब होता है। घना’दा अपने अमरीकी सहयोगी के साथ नौकर को खोजने निकलते हैं। एक गिलियाक1 शिकारी द्वारा दी गयी जानकारी के आधार पर वे वहाँ के ‘टियारा’ पहाड़ की ओर बढ़ते हैं। वहाँ उनका पाला एक सनकी जापानी जीव-वैज्ञानिक से पड़ता है, जिसने ऐसा मच्छर बनाने में सफलता हासिल कर ली है, जिसका डंक साँप के जहर से भी ज्यादा घातक है और एक मच्छर बीस से ज्यादा लोगों को मार सकता है। इस मच्छर की डंक से ही घना’दा के नौकर की मौत होती है। जाहिर है कि एक छोटे-मोटे संघर्ष के बाद घना’दा उस जहरीले मच्छर के साथ सनकी वैज्ञानिक का भी खेल तमाम करते हैं।
घना’दा रीगा में: अपने दूसरे किस्से (पोका— कीड़ा) में घना’दा लातविया की राजधानी रीगा में होते हैं। रीगा बाल्टिक राज्यों का सबसे बड़ा शहर है, इसे ‘पूर्व का पेरिस’ कहा जाता है। वहाँ घना’दा की मुलाकात एक पुराने परिचित से होती है, जो प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मन सेना में एक जनरल हुआ करते थे। वास्तव में वे एक यहूदी थे, जो परिस्थितियों के चलते एक पक्के प्रुसी (Old Prussian) बन गये थे और जर्मन सेना में शामिल हो गये थे। दूसरी तरफ, उनका भाई कट्टर यहूदी बनकर अपने समुदाय के प्रति हुए अत्याचारों का बदला सारी दुनिया से लेना चाहता था। एक वैज्ञानिक के रूप में ‘सी-सी मक्खियों’ पर शोध के नाम पर वह अफ्रिका गया हुआ था, वहाँ से अपनी मौत की खबर वह प्रचारित करवा चुका था और गुपचुप तरीके से ऐसे कीट बना रहा था, जो पलक झपकते फसलों को चट कर जाने की क्षमता रखते थे। पूर्व जनरल घना’दा से अनुरोध करते हैं कि वे अफ्रिका जाकर उनके भाई को खोज निकालें और उसे रोकें। घना’दा अफ्रिका जाते हैं। सारा अफ्रिका छान मारने के बाद सूडान में बहर-अल-अरब नदी के किनारे ‘डिंका’ (दुनिया के सबसे लम्बे कद की प्रजाति) लोगों के इलाके में उनकी खोज समाप्त होती है और वे अपने मिशन को अंजाम देते हैं।

घना’दा न्यू हेब्रिड्स में: अपने तीसरे किस्से (नूड़ि— कंकड़) में घना’दा न्यू हेब्रिड्स में हैं। यह आज के वानुअतु देश का पुराना (औपनिवेशिक) नाम है। वास्तव में, यह दक्षिणी प्रशांत महासागर में स्थित एक द्वीपसमूह है, जो 1980 तक ब्रिटेन-फ्राँस का (संयुक्त रूप से) उपनिवेश था। यह ऑस्ट्रेलिया के उत्तर-पूर्वी कोने पर न्यूजीलैंड के ठीक उत्तर में स्थित है। घना’दा यहाँ चंदन की लकड़ी का व्यवसाय करने आये हैं। यहाँ एक फ्राँसीसी व्यक्ति के साथ उनकी उठा-पटक हो जाती है, लेकिन बाद में दोनों में दोस्ती हो जाती है। दो दिनों बाद वह व्यक्ति गायब भी हो जाता है। खैर, पर्यावरण को हो रहे नुकसान को देखकर घना’दा चंदन का व्यवसाय बंद कर देते हैं। इसी दौरान एक ‘भूतिया’ द्वीप के रहस्य पर से पर्दा हटाने के काम में वे लग जाते हैं। द्वीप क्या, समुद्र की सतह से बाहर निकली हुई वह एक खड़ी पहाड़ी थी। स्थानीय लोग उसके तट पर ‘गुआनो’2 लाने जाया करते थे। वहाँ छह लोगों की मौत हो गयी, वहाँ भूतिया मूर्ती दिखायी पड़ी और वहाँ से भूतिया आवाज़ें आने लगी थीं। घना’दा अकेले उस पहाड़ी पर जा पहुँचते हैं। पहाड़ी की चोटी पर एक झील और एक सुरंग होता है। वास्तव में, यह एक ज्वालामुखी का क्रेटर था और झील के नीचे लावा सुलगता था। घना’दा पाते हैं कि वहाँ हीरे की एक खान है और उनका वही लापता चल रहा फ्राँसीसी मित्र वहाँ गुपचुप रूप से हीरे इकट्ठे कर रहा होता है।
घना’दा कुआंजा में: अपने चौथे किस्से (काँच— काँच या शीशा) में घना’दा कुआंजा में होते हैं। कुआंजा अफ्रिकी देश अंगोला की सबसे लम्बी नदी का नाम है, इस नाम के दो प्रांत (कुआंजा सुल और कुआंजा नॉट) भी वहाँ हैं और इसी नाम का एक शहर भी है वहाँ। घना’दा की मंजिल है— बाये पर्वत, जहाँ से कुआंजा नदी निकलती है। जब की कहानी है, तब अंगोला पर पुर्तगालियों का आधिपत्य था, रेलवे अँग्रेजों की थी, द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ ही था और वहाँ जर्मनों का आना-जाना बढ़ गया था। दरअसल, उस पहाड़ में जमीन के नीचे यूरेनियम के मुख्य अयस्क ‘पिचब्लेंड’ का भंडार होने की जानकारी जर्मनों के हाथ लग गयी थी और वहाँ की नात्सी सरकार यहाँ से यूरेनियम हासिल करना चाहती थी। जाहिर है कि हिटलर के लोग अणु बम बनाने की कोशिश में थे। जर्मनों ने इस काम के लिए जिसके नेतृत्व में अपना खोजी दल भेज रखा है, वह घना’दा का पुराना प्रतिद्वंदी है। घना’दा के पास ‘गीजर काउंटर’ (Geiger Counter) देखकर वह समझ जाता है कि घना’दा भी इसी चक्कर में आये हैं। दोनों में फिर शह-मात का दाँव-पेंच शुरू हो जाता है। एक रोमांचक चाल चलकर अंततः घना’दा यूरेनियम-अयस्क के उस भंडार को नात्सियों के हाथ लगने से बचाने में सफल होते हैं।
घना’दा कांगो में: अपने पाँचवें किस्से में घना’दा फिर एक बार अफ्रिका में होते हैं। इस बार घना’दा कांगो में हैं, जिसे उन दिनों बेल्जियन कांगो कहा जाता था। जर्मनी की एक नामी सर्कस कम्पनी और स्पेन के एक चिड़ियाखाने से बायना लेकर घना’दा इस बार जंगली पशु-पक्षी पकड़ने के लिए आये हुए हैं। बेल्जियन कांगो के एकदम पूरब में विषुवत रेखा के थोड़े दक्षिण में किवू और एडवर्ड नाम की दो झीलें हैं। उन दिनों एक बड़े भूकम्प के बाद किवू झील से एक नदी का उद्गम हुआ था।3 घना’दा अपने किस्से में बता रहे हैं कि नदी के उद्गम के समय वे वहीं पर थे। हुआ यूँ कि नाना प्रकार के पशु-पक्षियों और सरीसृपों को पकड़ने के बाद एक बच्चा गोरिल्ला पकड़ने के लिए वे किवू झील के किनारे पहाड़ पर दस हज़ार फुट की ऊँचाई पर पहुँचे हुए थे। वहाँ रात में कबीले वालों का नगाड़ा-संदेश सुनाई पड़ा कि ‘सफेद शैतान को पकड़ना है, तेल की कड़ाही तैयार है।’ घना’दा समझ नहीं पाये कि किसे पकड़ने की बात की जा रही है। अगले दिन एक गुफानुमा दरार में उन्हें एक ब्रिटिश भूगोलवेत्ता मिल गये, जिनसे घना’दा पूर्व-परिचित थे। अमेज़न नदी के किनारे कभी घना’दा ने उनकी जान बचायी थी। आस-पास के कबीले वाले अपने ओझा-पुरोहितों की बातों में आकर उन्हें ही पकड़ने की बात कर रहे थे। घटनाक्रम में उनके साथ घना’दा भी कबीले वालों के चंगुल में फँस जाते हैं। ‘मागुर’ (Cat Fish) जाति की एक मछली को अनोखे तरीके से उछल-कूद मचाते देख घना’दा एक भारी भूकम्प का अनुमान लगा लेते हैं और फिर एक चाल चलकर खुद को और उन भूगोलवेत्ता को बचा लेते हैं।

घना’दा नामचि में: अपने छठे किस्से (टूपि— टोपी) में घना’दा नामचि में होते हैं। नामचि दक्षिणी सिक्किम जिले का जिला‑शहर है। उन दिनों सिक्किम अलग देश हुआ करता था। वहाँ से एक पूर्व-परिचित जापानी खोजी के साथ घना’दा तिब्बत की ओर अभियान पर निकलते हैं। अभियान के दौरान दोनों तुषार-मानव ‘येति’ लोगों को देख पाने में सफल होते हैं, येति लोग बर्फ से खोदकर जिस चीज को खाकर जीवित रहते हैं, वह ‘रून की जड़’ भी हासिल करने में वे सफल होते हैं। एक नाटकीय घटनाक्रम में दोनों एक रस्सी द्वारा एक विशालकाय येति से बँध जाते हैं और वह येति दोनों को खींचते हुए तूफान की गति से बर्फीले पहाड़ों पर भागना शुरू कर देता है। वह येति दोनों को लेकर भागते हुए माउंट एवरेस्ट की चोटी पर पहुँच जाता है। दोनों मरने वाले होते हैं, लेकिन रून की जड़ चबाकर दोनों चमत्कारिक रूप से बच जाते हैं। येति उन्हें लेकर एवरेस्ट के दूसरी तरफ तिब्बत के रोंगबुक ग्लेशियर पर उतरता है, जहाँ रस्सी टूट जाने से दोनों आज़ाद हो जाते हैं और फिर वे वहाँ से तिब्बत की मानव‑बस्ती में पहुँचते हैं। इस दौरान भी रून की जड़ उन्हें ऊर्जा देती है। यानी घना’दा की मानें, तो 1953 (में माउंट एवरेस्ट पर प्रथम मानव-चरण पड़ने) से दस-बारह साल पहले घना’दा एक जापानी खोजी के साथ एवरेस्ट फतह कर चुके थे और निशानी के तौर पर वे एवरेस्ट की चोटी पर अपनी टोपी छोड़ आये थे!
घना’दा रॉस में: अपने सातवें किस्से में घना’दा रॉस में होते हैं। रॉस दक्षिणी ध्रुव के पास एक ज्वालामुखीय टापू है। यह एक निर्जन बर्फीला टापू है, जहाँ सील, पेंग्विन और समुद्री स्कुआ चीलों के सिवा और कोई प्राणी नहीं रहता। होता यूँ है कि घना’दा कैम्पबेल में अपना ठिकाना बनाकर अपने नॉर्वेजियन पार्टनर के साथ दक्षिणी प्रशांत महासागर में व्हेल का शिकार कर रहे होते हैं। 175 फुट लम्बा उनका ‘पेलाजिक’ जहाज, जिस पर ‘वेंड (या स्वेंड) फॉयन की हारपून तोप’ लगी होती है, व्हेल की चर्बी से लबालब भर गयी है, लेकिन फिर भी ‘एम्बरग्रीस,’ जिसे ‘तैरता सोना’ कहा जाता है और जो सिर्फ स्पर्म व्हेल की आँतों में पाया जाता है, पाने की आशा में घना’दा समुद्र में डटे हुए हैं। एक बड़ा स्पर्म व्हेल उन्हें छकाते हुए दो दिनों में उन्हें दक्षिणी ध्रुव रेखा के निकट पहुँचा देता है, वहाँ कई दिनों के भयंकर तूफान में फँसकर उनका जहाज चकनाचूर हो जाता है। घना’दा और उनका पार्टनर दोनों होश आने पर खुद को रॉस टापू पर पाते हैं। एक घटनाक्रम में दोनों एक सुप्त ज्वालामुखी के क्रेटर से फिसलकर अंदर गिर जाते हैं, जहाँ से बाहर निकलने का कोई उपाय उन्हें नहीं सूझता। नीचे उबलते पानी की एक झील होती है और बहुत ज्यादा गर्मी एवं उमस होती है। दो दिनों में तंग आकर घना’दा ज़मीन पर अपनी छड़ी पटकते हैं और ज़मीन से गर्म वाष्प का एक तीव्र सोता फूट पड़ता है। पतली रबर और रेशम से बना हल्का तम्बू घना’दा साथ लेकर चले थे, उसी का गुब्बारा बनाकर उसमें गर्म वाष्प भरकर दोनों उड़कर ज्वालामुखी से बाहर आते हैं और एक तैरते हिमखंड पर उतरते हैं, जो उत्तर की ओर बह रहा होता है। मैक्वेरि द्वीप के पास एक दूसरा जहाज उनका उद्धार करता है।
घना’दा लेब्राडोर में: अपने आठवें किस्से में घना’दा लेब्राडोर में होते हैं। लेब्राडोर एवं न्यू फाउंडलैंड कनाडा का एक प्रांत है, जिसमें से महाद्वीपीय हिस्सा लेब्राडोर है, जबकि द्वीपीय हिस्सा न्यू फाउंडलैंड है। दरअसल, इंग्लैंड से अमेरिका आ रहा एक यात्री विमान, जिसमें तीस यात्री सवार थे, कनाडा के पूरब में समुद्र के एकदम किनारे नोवा स्कोशिया के पास एकाएक गायब हो गया था। उधर ब्रिटिश जासूसों को शक था कि ब्रिटिश सेना के गोपनीय दस्तावेज़ लेकर भागा दुनिया का एक खतरनाक जासूस उसी विमान में सवार था। विमान को वापस लौटने का निर्देश दिया गया था, वह लौट भी रहा था, लेकिन अचानक वह फिर कनाडा की ओर जाने लगा था। लगा था कि वह लिवरपूल या हैलिफैक्स हवाईअड्डे पर उतरेगा, लेकिन वह एकाएक रडार स्क्रीन से गायब हो गया था। उसी की जाँच के लिए एक बड़े ब्रिटिश पुलिस अधिकारी (ज़ाहिर है कि वे घना’दा के पूर्व-परिचित थे) घना’दा को साथ लेकर अमेरिका आते हैं। लेब्राडोर से आयी कुछ मामूली लगने वाली खबरों का विश्लेषण कर घना’दा अनुमान लगाते हैं कि रहस्य का समाधान लेब्राडोर में डाइक झील के आस-पास के इलाकों में मिल सकता है और इस तरह से वे लेब्राडोर में हैं। घटनाएँ कुछ ऐसी विचित्र घट चुकी होती हैं कि वह भागा हुआ जासूस भी उनके साथ हो लेता है। डाइक झील के किनारे उन्हें दूसरे ग्रह से आये लोगों का अड्डा मिलता है और झील में तैरती एक उड़नतश्तरी भी मिलती है। घना’दा उड़नतश्तरी उड़ाने में कामयाब होते हैं, दूसरी उड़नतश्तरियाँ उनका पीछा करती हैं और अंततः घना’दा की उड़नतश्तरी अटलांटिक महासागर पर दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है, हालाँकि मछुआरे उन्हें बचा लेते हैं।

(अगर पाठकों को यह आलेख पसंद आया हो, तो अगली किस्त में अगले कुछ किस्सों के बारे में इसी तरह संक्षेप में बताया जायेगा। यानी इसे धारावाहिक आलेख बनाया जा सकता है।)
- ‘गिलियाक’ वहाँ के एक आदिवासी समुदाय का पुराना नाम है, अब उन्हें ‘निवख’ कहते हैं। अन्य आदिवासी समुदाय हैं— ‘ऐनू’ और ‘उइल्टा’ या ‘ओरोक।’ सबको सम्मिलीत रूप से ‘टुंगुस’ कहते हैं।
- समुद्री चिड़ियों की बीट की ढेर, जिसका उन दिनों व्यवसाय हुआ करता था
- लेखक ने कहानी में 20वीं सदी में नयी नदी के उद्गम का जिक्र किया है, जबकि किवू झील से दक्षिण की ओर नयी नदी ‘रुइजी’ का उद्गम 13,000 से 9,000 साल पहले हुआ था। विरुंगा पर्वत के ज्वालामुखी विस्फोटों के चलते किवू झील का उत्तरी प्रवाह अवरुद्ध हो गया था, तब झील का पानी दक्षिण की ओर नदी बनकर बहने लगा था।
