21 वीं सदी में सोशल मीडिया एक ऐसे चमत्कारिक औजार के रूप में उभर कर आया है जिसने आम आदमी को काफी ताकत और पहुँच प्रदान कर दी है। जहाँ कुछ वर्षों पहले कुछ ही लोगों के पास इतना सामर्थ्य था कि वह अपनी बात कई लोगों तक पहुँचा सकते हैं वहीं आज सोशल मीडिया के माध्यम से कोई भी व्यक्ति अपनी बात को कहीं भी पहुँचाने की कूव्वत रखता है। इस औजार का इस्तेमाल कर सरकारें तक गिराए और बनाई जाने लगी हैं। ऐसे में इस औजार का इस्तेमाल कैसे किया जा रहा है और इसका क्या असर हो रहा है यह बात विचारणीय है।
लेखक गौरव कुमार निगम का नवप्रकाशित उपन्यास ‘द ग्रेट सोशल मीडिया ट्रायल’ सोशल मीडिया के एक स्याह पहलु को केंद्र में रखकर लिखा गया है। उपन्यास का शीर्षक और विषयवस्तु मन में कोतुहल जगाता है। उपन्यास को केंद्र में रखकर हमने उनसे यह बातचीत की है। उम्मीद है यह साक्षात्कार आपको पसंद आएगा।
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प्रश्न: नमस्कार गौरव जी, नवप्रकाशित उपन्यास के लिए हार्दिक बधाई। ‘द ग्रेट सोशल मीडिया ट्रायल’ नाम से ही आकर्षित करता है। उपन्यास के विषय में पाठकों को कुछ बताइए?
उत्तर: नमस्कार, विकास जी। आपकी शुभकामना के लिए हार्दिक आभार। ‘द ग्रेट सोशल मीडिया ट्रायल’ मेरा चौथा, नवीनतम उपन्यास है जो एक ऐसे विषय पर है जिसपर आज से पहले कुछ भी लिखा जाने से परहेज किया गया है या यूँ कहें कि प्रतिदिन विकराल होती जा रही इस समस्या को सरकार और समाज के साथ-साथ अग्रचेता रहने वाला हमारा साहित्यिक समाज भी अभी समस्या के तौर पर पहचानने में आलस दिखा रहा है।
यह उपन्यास उन अपरिपक्व सोशल मीडिया यूजर्स की गतिविधियों से उत्पन्न अवांछित परिस्थितियों को रेखांकित करता है जो किसी भी मुद्दे के हवा में उछलते ही सोशल मीडिया पर ही तत्क्षण न्याय की माँग करने लगते हैं।
यह ना सिर्फ तत्क्षण न्याय की माँग करते हैं बल्कि कई बार अनुचित जल्दबाजी दिखाते हुए उस आरोपित व्यक्ति या समुदाय के प्रति अपने फैसले भी सुना देते हैं जो कि बाद में कई बार गलत भी निकलते हैं।
समाज की अनेक समस्याओं के लिए कई बार उपयोगी सिद्ध हो चुके सोशल मीडिया प्लेटफार्म की यह विडंबना है कि वैश्विक संवाद की यह शक्ति नियंत्रण से बाहर होने के फलस्वरूप कई बार निरंकुश और निरर्थक हो जाती रही है।
प्रस्तुत उपन्यास के दो हिस्से हैं, एक जो वास्तविकता पर आधारित हैं जहाँ एक किशोर के ऊपर सोशल मीडिया में लगे झूठे लांछन के बाद उस किशोर और उसके पिता के जीवन में आई कठिनाइयों की कहानी है कि कैसे सोशल मीडिया पर गैरजिम्मेदाराना रवैये के साथ किया गया व्यवहार किसी दूसरे के जीवन पर गहरा असर डाल सकता है।
उपन्यास का दूसरा हिस्सा कल्पना पर आधारित है कि क्या हो अगर सोशल मीडिया के इस निरंकुश प्रवृति का शिकार बना व्यक्ति परिस्थितियों के सामने आत्मसमर्पण कर देने की जगह उठ खड़ा हो और हमारी परंपरागत न्याय प्रणाली के सामानांतर खड़ी होती जा रही इस आभासी न्याय प्रणाली की अपने ढंग से मुखालफ़त करे।
प्रश्न: उपन्यास लिखने का विचार कैसे आया? क्या कोई विशेष घटना जिसने प्रभावित किया हो?
उत्तर: ‘द ग्रेट सोशल मीडिया ट्रायल’ लिखने का विचार मुझे सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर नित जोर पकड़ते जा रहे सोशल मीडिया ट्रायल के ट्रेंड को देखकर ही आया था। चूँकि मैं एक ब्रांड मैनेजर हूँ और सोशल मीडिया पर होने वाली बड़ी घटनाओं और ट्रेंड्स पर निगाह बनाये रखना मेरे काम का अहम हिस्सा है इसलिए इस प्रवृति पर मेरी निगाह गयी। पिछले कई सालों से सोशल मीडिया पर बात की गंभीरता को समझे बिना ही किसी भी व्यक्ति या समुदाय पर आरोप लगा देने का चलन बढ़ता ही जा रहा है। सोशल मीडिया पर पूर्व में अनेक ऐसी घटनाएँ हुई हैं जब किसी ने दूसरों पर गंभीर आरोप लगाये, सोशल मीडिया पर फैन फोल्लोवेर्स के साथ साथ पैसे भी कमाए लेकिन जब उन आरोपों की बारीकी से पड़ताल हुई तब वो आरोप झूठे पाये गए।
इस पूरी प्रक्रिया में किसी का भी ध्यान उस व्यक्ति पर नहीं जाता है, जिसका जीवन इस तरह के झूठे सोशल मीडिया ट्रायल की वजह से तहस नहस हो जाता है।
हमने कितनी ही बार देखा है कि सोशल मीडिया ट्रायल की वजह से लोगों को बिना गलती के भी अपनी आजीविका से हाथ धोना पड़ा है या फिर सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा है।
प्रश्न: उपन्यास का शीर्षक आपके लिए कितना मायने रखता है? इस किताब के शीर्षक के विषय में बताइए। क्या शुरू से ही यह शीर्षक था या बदलावों के बाद इसे रखने का मन बनाया?
उत्तर: इस उपन्यास का शीर्षक ‘द ग्रेट सोशल मीडिया ट्रायल’ बहुत महत्त्वपूर्ण और सारगर्भित है। जब आपके पाठक इस उपन्यास को पढेंगे तो पाएंगे कि इस उपन्यास का नाम और कवर पेज, दोनों ही अपनी कथावस्तु के साथ सम्पूर्ण न्याय करते हैं।
प्रश्न: ‘द ग्रेट सोशल मीडिया ट्रायल’ एक क्राइम थ्रिलर है। इसके माध्यम से आप लोगों की एक प्रवृत्ति को उजागर कर रहे हैं। समाज पर एक टिप्पणी कर रहे हैं। मनोरंजन के लिए लिखे गये उपन्यासों के साथ अक्सर यह होता है लोग इसके एंटरटेनमेंट कोशेंट को ज्यादा तवज्जो देते हैं। ऐसे में कई बार लेखक की समाज के ऊपर की गयी टिप्पणी गौण हो जाती है। आप इसे कैसे देखते हैं? क्या आपको इससे फर्क पड़ता है कि पाठक आपकी किताब से वो ले पा रहा है या नहीं जो आप देना चाहते हैं?और अगर ऐसा है तो आप कैसे यह सुनिश्चित करते हैं कि लोग उपन्यास पढ़कर रोमांचित तो हो लेकिन अपने साथ सोचने के लिए वो चीजें भी ले जाए जो आप देना चाहते हैं?
उत्तर: मैंने अपने कॉर्पोरेट ट्रेनिंग के सेशंस के दौरान यह पाया है कि ट्रेनीज में मूल्यों की प्रतिस्थापना करने का सबसे सशक्त माध्यम कहानियाँ ही हैं। हम उपदेश भूल जाते हैं, कहानियाँ याद रखते हैं।
हमने कितनी ही बातें अपने बचपन में सुनी कहानियों से सीखी हैं। रामायण, महाभारत की कहानियाँ हमें सत्य की जीत, कर्मफल की अनिवार्यता जैसी बातें सहज भाव से बताती हैं। कोई व्यक्ति अर्केमीडीज का सिद्धांत भूल सकता है, लेकिन क्या कोई उसके बचपन में पढ़ी उस प्यासे कौवे की कहानी भूल सकता है, जिसने इसी सिद्धांत की सहायता से घड़े में कंकड़ डाल डाल कर अपनी प्यास बुझाई थी?
मैंने अपनी पुस्तक ब्रांडसूत्र में भी ब्रांड प्रबंधन के जटिल सिद्धांतों को कहानियों के माध्यम से ही बताया और पढ़ने वालों ने इस तरीके को लाभकारी बताया।
बतौर लेखक, मैं यह ज़रूर चाहूँगा कि पुस्तक को पढ़ने के बाद पाठक सोशल मीडिया के रूप में उसके हाथों में मौजूद असीमिति शक्ति को ना सिर्फ पहचाने बल्कि एक जिम्मेदार व्यक्ति की तरह इस शक्ति का प्रयोग अपनी और दूसरों की मदद के लिए करें।
यह सुनिश्चित करने के लिए मैं जो कहानी रची है वह काल्पनिक है लेकिन वास्तविकता से अछूती नहीं है। आप यहीं, इसी सोशल मीडिया पर ऐसे तमाम केसेज रोज अपनी आँखों के सामने घटित होते हुए देख सकते हैं।
जिन पाठकों ने इसे पढ़ा है, उनमें से कई ने इसे भावुक कर देने वाला उपन्यास करार दिया। सोशल मीडिया ट्रायल से गुजरने वाले व्यक्ति और परिवार की परिस्थिति को पढ़कर कई पाठकों को एहसास हुआ कि सोशल मीडिया की शक्ति का सही उपयोग कितना ज़रूरी है।
कथ्य में रूचि बनाये रखने के लिए इसे काफी तेज़ रफ़्तार और थ्रिलर स्टाइल में लिखा है। अपने इस प्रयास में मुझे कहाँ तक सफलता मिली है, इसका सही निर्णय करने के अधिकारी मेरे सम्मानित और प्रबुद्ध पाठक ही हैं।
प्रश्न: चूँकि उपन्यास सोशल मीडिया ट्रायल पर है तो इसमें कुछ ऐसे किरदार भी होंगे जिन्हें ट्रोल कहा जाता है। आप ट्रॉल्स को कैसे देखते हैं?
उत्तर: ‘ट्रोल’ छोटे कद के, कम आई क्यू वाले जीव हैं जो दिखने में कुछ कुछ इंसानों जैसे होते हैं लेकिन इनका एकमात्र मकसद इंसानों को परेशान करना है, भटकाना है। ये मैं नहीं कह रहा… स्कैन्डनेवियन लोककथाएं ऐसा कहती हैं। ट्रोल दरअसल स्कैन्डनेवियन संस्कृति की लोककथाओं में वर्णित ऐसा ही एक अनोखा, दिलचस्प जीव है जो वैसे तो इन्सानों को नुकसान पहुँचाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में वह अक्सर अपना ही नुकसान कर बैठता है क्यूँकि उसे इतनी समझ नहीं होती है कि वह जो कर रहा है, अप्रत्यक्ष रूप से उसे ही नुकसान पहुँचाएगी।
इंटरनेट पर मिलने वाले ट्रोल भी कुछ ऐसा ही तो करते हैं!
किसी गंभीर मुद्दे पर अनर्गल, असंबंधित टिप्पणियाँ, किसी यूजर के खिलाफ व्यक्तिगत और अपमानजनक भाषा में टिपण्णी…ट्रोलिंग का क्लासिक उदाहरण हैं। इसमें एक किस्म की आत्ममुग्धता का भाव छुपा हुआ रहता है। संगठित रूप से किये जाने पर यह और भी मारक हो जाती है।
आजकल यह संगठित ट्रोलिंग प्रायोजित भी हो सकती है और स्वतः स्फूर्त भी।
ट्रोलिंग से अगर अपमान करने की, मुख्य बिंदु से हटकर टिपण्णी करने की प्रवृति को अगर अलग कर दिया जाये तो सोशल मीडिया एक स्वस्थ विमर्श की जगह बन सकती है।
उदाहरण के लिए अगर कोई व्यक्ति ‘द ग्रेट सोशल मीडिया ट्रायल’ को पढ़ता है और उसमें भूलवश रह गयी किसी कमी की ओर इंगित करता है तो यह आने वाली किताबों के लिए बेहतर बात है, क्यूंकि उस समीक्षा या टिपण्णी से लेखक को कुछ सीखने को मिलेगा जो वह आने वाली किताबों को बेहतर बनाने में इस्तेमाल करेगा, पाठकों को कुछ और भी ज्यादा अच्छा पढ़ने को मिलेगा। लेकिन, अगर कोई व्यक्ति किताब को बिना पढ़े हुए ही टिपण्णी कर रहा है, किताब की जगह लेखक के ऊपर टिपण्णी करेगा तो इससे किसी को किस प्रकार का लाभ पहुँच सकता है?
प्रश्न: उपन्यास का कौन सा किरदार आपको सबसे ज्यादा पसंद है? और इस उपन्यास का कौन सा ऐसा किरदार है जिसे लिखने में सबसे ज्यादा मेहनत आपको करनी पड़ी?
उत्तर: मैंने उपन्यास के हर किरदार पर बराबर मेहनत की है, भले ही वह किरदार कितना भी छोटा हो।
कहानी में किरदारों पर मेहनत करने के मामले में अपने काम को गंभीरता से लेने वाले लेखक के पास यह आप्शन नहीं होता है कि चलो यह मेरा मुख्य किरदार है तो मैं इस पर ज्यादा ध्यान दूँगा और इस किरदार को चार लाईनें ही मिलेंगी, तो इसे ऐवें ही लिख देता हूँ।
आप रामायण को देखिये… रामायण में केवट और शबरी के प्रसंग बहुत छोटे हैं लेकिन उनका कहानी पर इम्पैक्ट बड़ा है।
कहानी का हर किरदार उतना ही इम्पोर्टेन्ट होता है जितना कि मुख्य किरदार…कद में छोटा होने से उसका महत्व कम नहीं हो जाता है।
‘द ग्रेट सोशल मीडिया ट्रायल’ को पढ़ने वाले पायेंगे कि इसमें एक किरदार है लोकेश, जिसको कुल जमा चार लाइनें भी नहीं मिली हैं लेकिन इस किरदार की हरकत ही ऊंट की पीठ पर आखिरी तिनका साबित होती है। आप उसके काम को सेपरेट रूप से देखेंगे तो पायेंगे कि वो एक आम सी प्रतिक्रिया थी लेकिन जब आप उसे चल रही कहानी के बीच में पाएंगे तो उसकी ज़रूरत को नकार नहीं पाएंगे|
ख़ूबसूरती इसी को तो कहते हैं… कोई खुद के खूबसूरत होने पर ऐसे दावा नहीं कर सकता कि मेरे बाल तो रेशम से हैं लेकिन मुंह से पायरिया की बास आ रही है, कुरता तो मखमल का है लेकिन पजामा टाट का है, जूते इटालियन लेदर के हैं और तस्में नारियल की रस्सी के।
ख़ूबसूरती एक ओवरआल पैकेज होता है, जिसमें सबकुछ खूबसूरत होता है।
कई बार जब नये लेखक इस मामले में पूछते हैं, तो मैं उन्हें छोटे किरदारों पर भी बड़ी मेहनत करने की सलाह देता हूँ। इससे लेखक को जी नहीं चुराना चाहिए।
बड़ी से बड़ी मशीनरी में एक छोटा सा नट मिस हो जाये तो पूरी मशीनरी जाम हो जाती है।
इस उपन्यास में मुख्य किरदार कपिल माथुर के अलावा विपुल सिंह, एडवोकेट पंकज पराशर, इकबाल चौधरी और इंस्पेक्टर चंद्रेश मणि त्रिपाठी मेरे खास पसंदीदा किरदार हैं, क्योंकि इनमें हमारी दुनिया के आम इंसानों की तरह कई लेयर्स हैं।
प्रश्न: सोशल मीडिया ने एक आम आदमी के हाथ में बहुत ताकत दे दी है। आप इसे कैसे देखते हैं? (क्या इसके आने से लोगों के व्यवहार में कोई फर्क आया है या फिर जो बातें पहले चार दिवारी में अपने जान पहचान वालों के सामने लोग करते थे उन्हें ही बस यहाँ कहने लगे हैं?)
उत्तर: कोई भी ताकत अच्छी है या बुरी, यह इस बात पर निर्भर करती है कि वो ताकत किसके हाथ में है और उसका इस्तेमाल कौन कर रहा है? सड़क पर कोई लोहे का रॉड थामे हुए आदमी आपकी गाड़ी रुकवाए तो डर लगेगा, कोई फौजी मशीनगन लेकर भी आपकी रुकने के लिए कहे तो खौफ नहीं महसूस होगा।
सोशल मीडिया ने आम आदमी के हाथ में एक ऐसा भोंपू दे दिया है जिससे उसकी बात बहुत दूर तक सुनी जा रही है। आज आप सरकार के टॉप नुमाइंदों तक अपनी बात सीधे पहुँचा सकते हैं, कम्पनियाँ अपने ग्राहकों तक सीधे पहुँच रही हैं और उनकी सुन रही हैं, आप भारत के किसी भी कोने से बैठे बैठे किसी भी देश के साहित्य, संस्कृति, परिवेश के बारे में अनफिल्टर्ड इनफार्मेशन पा सकते हैं।
लोग मुखर हो रहे हैं, उन्हें नई ऑडियंस मिल रही है।
आज सोशल मीडिया ही मेरे लेखन के प्रसार का सबसे बड़ा माध्यम है। पाठक सोशल मीडिया पर ही इसके बारे में जानकारी पाते हैं, पढ़ते हैं और फिर सोशल मीडिया पर इन किताबों के बारे में चर्चा करके इसकी जानकारी दूसरों तक पहुँचने में मदद करते हैं। यह उन्हें एक खास ग्रुप का हिस्सा बनाती है।
यह सोशल मीडिया की ही ताकत है कि आज मेरी किताबें उपलब्ध होते ही भारत के साथ साथ यूनाइटेड किंगडम, अमेरिका, नेपाल जैसे देशों में बिक जाती हैं।
यह अभूतपूर्व है।
आम आदमी के हाथ में इतनी ताकत पहले कभी नहीं रही है कि वह इतने कम एफर्ट में अपनी बात इतने लोगों तक पहुंचा सके।
इस ताकत की लोगों को कद्र करनी चाहिए।
अगर लोग इस ताकत की कद्र करना नहीं सीखते हैं तो या तो यह भस्मासुर बनकर रह जायेगी या फिर दुनिया भर की सरकारें इस ताकत पर जंजीरें डालने की कोशिश करेंगी।
प्रश्न: आपकी ज्यादातर किताबें ई बुक के फॉर्म में ही पब्लिश हुई हैं। आपने स्वयं प्रकाशित की हैं। आप इस माध्यम को कैसे देखते हैं? इसकी क्या खूबी और कमियाँ हैं?
उत्तर: ई बुक्स की कुछ खास खूबियाँ इसे परंपरागत प्रिंट मीडियम से अलग बनाती हैं। जैसे, मेरी किताबें पब्लिश होते ही दुनिया के तमाम देशों में फैले पाठकों द्वारा डाउनलोड होने लगती हैं, पाठक किताब पढ़कर समाप्त करते ही मोबाइल पर एक स्वाइप और करके उसके रिव्यु पेज पर किताब के बारे में अपनी साझा करते हैं जो लेखक के साथ साथ दूसरे पाठकों द्वारा भी पढ़ी और सराही जाती हैं।
परंपरागत प्रकाशन में एक किताब को अपने पाठक तक पहुँचने में हफ्ते दस दिन का वक़्त जाना आम बात है।
ई बुक्स लेखक और पाठक दोनों के लिए सुविधाजनक माध्यम है।
परंपरागत प्रकाशन में कास्ट ऑफ़ प्रोडक्शन ज्यादा होने की वजह से, डिलीवरी सिस्टम की वजह से किताब का दाम ज्यादा होता है। वही किताब पाठक को ई बुक्स के रूप में बहुत कम दामों में उपलब्ध हो जाती है। इनका रखरखाव भी आसान है। कितनी ही बहुमूल्य किताबें सहेज कर ना रखे जाने की वजह से ख़राब हो जाती हैं। यार, दोस्त मांग कर पढ़ने के ले जाते हैं फिर लौटना भूल जाते हैं। आज जितनी किताबें आप अपने मोबाइल में एक साथ रख सकते हैं उतनी किताबें आपको फिजिकल फार्म में रखने के लिए एक अलग घर ही बनवाना पड़ जायेगा। पाठक कहीं सफ़र पर निकलता है तो चार किताबों के लिए सूटकेस में जगह बनाने में दिक्कत होती है, स्मार्टफ़ोन में सैंकड़ों किताबें एक साथ वो अपने जेब में रखे हुए दुनिया घूम आते हैं। ई बुक्स आप मेट्रो में, बिस्तर में, किसी ऑफिस के वेटिंग एरिया में…कहीं भी अपना फ़ोन निकालकर पढ़ना शुरू कर सकते हैं।
आप देखिये, कितने ही पुराने, बड़े लेखकों की प्रिंट से बाहर हो चुकी किताबें भी कितनी आसानी से ई बुक्स के रूप में उपलब्ध हैं।
जब दुनिया में तकनीक का दखल हर क्षेत्र में बढ़ रहा है तो किताबों की दुनिया ही इस लाभ से वंचित कैसे रह सकती है?
अगर हम खामी की बात करें तो ई बुक्स की सबसे बड़ी खामी यह है कि भारत में ई बुक्स को साहित्यिक समाज में अभी भी वैसी व्यापक स्वीकार्यता नहीं मिल पायी है जिसे यह डिजर्व करती है।
प्रिंट मीडियम में छपी हुई किताब, भले ही कैसी भी लिखी गयी हो, लेखक ने अपनी गुल्लक फोड़कर, यार दोस्त के रिश्तेदार की प्रेस से छपवाकर अपनी ही गली में बाँट दी हो… आम पाठक, साहित्यिक समाज या मीडिया में ई बुक्स से कहीं अधिक तरजीह पाती है।
यह काबिलियत से ज्यादा डिग्री को महत्व देने वाली मानसिकता है, जिससे आजाद होने में हमें समय लगेगा।
प्रश्न: अब आप कौन से प्रोजेक्ट्स पर कार्य कर रहे हैं? क्या पाठकों को उनके विषय में कुछ बताना चाहेंगे?
उत्तर: पिछले उपन्यास ‘द स्कैंडल इन लखनऊ’ को वेब सीरीज के रूप में पेश करने के सम्बन्ध में कई फिल्म निर्माता रूचि दिखा रहे हैं। कुछ विश्राम के बाद एक कहानी संग्रह, एक और थ्रिलर उपन्यास और ब्रांड मैनेजमेंट के विषय पर पुस्तकें लाने की योजना है। लेखकों के लिए एक बेहतर और प्रोफेशनल इकोसिस्टम बनाने की दिशा में भी काम शुरू करने की योजना है।
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तो यह थी ‘द ग्रेट सोशल मीडिया ट्रायल’ के लेखक गौरव कुमार निगम के साथ एक बुक जर्नल की छोटी सी बातचीत। यह बातचीत आपको कैसी लगी यह हमें अवश्य बताइयेगा।
द ग्रेट सोशल मीडिया ट्रायल अमेज़न किंडल पर उपलब्ध है। आप अपने मोबाइल में या किंडल डिवाइस में इस किताब को पढ़ सकते हैं। अगर आपको पास किंडल अनलिमिटेड (सदस्यता लेने के लिए इधर क्लिक करें) मौजूद है तो आप इसे बिना किसी अतिरिक्त शुल्क के भी पढ़ सकते हैं।
द ग्रेट सोशल मीडिया ट्रायल: किंडल लिंक
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
लेखक के उत्तम विचार प्रशंसनीय हैं
आपको यह बातचीत पसंद आई जानकर अच्छा लगा सर….
बहुत बढ़िया व रोचक साक्षात्कार
साक्षात्कार आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा….
बहुत दिनों बाद साक्षात्कार पढ़ा,अच्छा लगा ।
साक्षात्कार आपको पसन्द आया यह जानकर अच्छा लगा, मैम। आभार।
अच्छा साक्षात्कार है यह विकास जी । आभार इसके लिए आपका । क्या यह पुस्तक हिंदी भाषा में है ?
जी, सर हिन्दी में ही है और किंडल पर मौजूद है। लिंक इसी पोस्ट में दिया है।
साक्षात्कार आपको पसन्द आया यह जानकर अच्छा लगा। आभार।