सुखमय जीवन की तलाश में भटकती स्त्री की कहानी है ‘इंदुमती’ | सेठ गोविंददास | हिंद पॉकेट बुक्स

संस्करण विवरण

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 122 | प्रकाशन: हिन्द पॉकेट बुक्स | प्रथम संस्करण: 1960

पुस्तक लिंक: अमेज़न 

कहानी 

इंदुमति लखनऊ के प्रसिद्ध वकील अवधबिहारी लाल की इकलौती पुत्री थी। वह एक आधुनिक विचारों की युवती थी जिसका अपने पिता द्वारा दी गई इस शिक्षा पर पूर्ण विश्वास था कि

विश्व में निज का व्यक्तित्व ही सब कुछ है। जो अपने को ही केंद्र मान सब कुछ अपने लिए करता है, संसार की समस्त वस्तुओं को अपने आनंद के लिए साधन मानता है, उसी का जीवन सुखी और सफल होता है।’

इंदुमति को लगता था कि सुखमय जीवन का यह मूल मंत्र है। 

पर क्या असल में कुछ ऐसा था? 

आखिर सुखमय और सफल जीवन जीने का सूत्र क्या था?

 

मुख्य किरदार 

अवधबिहारीलाल – लखनऊ एक प्रतिष्ठित वकील 
सुलक्षणा – अवध बिहारी लाल की पत्नी 
इंदुमति – अवधबिहारीलाल और सुलक्षणा की एक लौती पुत्री
त्रिलोकीनाथ – इंदुमति का सहपाठी 
वजीरअली – इंदुमति का राखी भाई और उसका सहपाठी 
रामस्वरूप – कानपुर के एक करोड़पति 
ललितमोहन – सेठ रामस्वरूप का एकलौता बेटा 
मयंकमोहन – इंदुमति का पुत्र 
वीरभद्र – एक मजदूर 
मुरलीधर – एक अट्ठारह उन्नीस वर्षीय भारतीय छात्र 

मेरे विचार 

अगर मनुष्यों की सबसे बड़ी चाहतों की बात की जाए तो सुखी जीवन बिताना और सफलता प्राप्त करना इन चाहतों की फेहरिस्त में सबसे आगे ही आएगा। यह अलग बात है कि हर किसी के लिए जीवन के अलग-अलग पड़ावों में सुखी जीवन और सफलता की परिभाषा और मापदंड अलग-अलग होते हैं लेकिन अपनी इन चाहतों को पाने के लिए मनुष्य प्रयास करता ही है। यही कारण है कि वह उन सूत्रों के तलाश में रहता है जिससे वह सुखमय जीवन और सफलता प्राप्त कर ले। इन सूत्रों को पाने के लिए वह किताबें पढ़ता है, गुरुओं के पास जाता है और फिर उन्हें जीवन में उतारने का हर संभव प्रयास करता है। लेकिन कई बार यह भी देखने में आया है कि व्यक्ति की जो सुखमय जीवन और सफलता के मापदंड  हैं उन्हें जब वह प्राप्त कर लेता है तो वह पाता है कि यह एक तरह की मरीचिका ही थी और वह सब पाने के बाद वह लोगों की नजर में सफल तो है लेकिन जिस सुखमय जीवन की उसे तलाश थी वह अभी भी उससे काफी दूर है। इसके बाद शुरू होती है फिर से उस मरीचिका रूपी सुखमय जीवन की तलाश की और यह दौड़ कब तक चलती रहती है यह कोई नहीं कह सकता। कई बार यह दौड़ व्यक्ति के जीवन के आखिरी लम्हों तक चलती रहती है और कई बार किसी सच्चे साथी, गुरु या सूत्र के हाथ लगते और उसके सही अर्थ को समझते ही यह दौड़ भी खत्म हो जाती है और वह व्यक्ति वह पा लेता है जो वह चाहता था। 

प्रस्तुत उपन्यास इंदुमती भी एक ऐसी ही महिला की कहानी है जिसने बचपन से ही अपने पिता से सफल और सुखी जीवन जीने का मंत्र पा लिया था और उसे गांठ बांध लिया था। लेकिन जैसे-जैसे जीवन में वह आगे बढ़ती गई वह पाती गई कि शायद यह मंत्र इतना भी सही नहीं था। वह भटकी और लौटकर फिर उस मंत्र तक पहुँची और फिर सब उसे वह सुख न मिला तो फिर भटकी। इंदुमती की यह भटकन कहाँ जाकर समाप्त हुई और जिस सुख की उसे तलाश वह उसे मिला या नहीं यही इस उपन्यास का कथानक बनता है। 

1960 में प्रथम बार प्रकाशित इस उपन्यास का कथानक 1916 से 1943 तक के वर्षों में घटित होता  है और पाठक को इंदुमती  के जीवन के लगभग दो दशकों की कहानी बताता है। इन दो दशकों में उसके जीवन में आए उतार चढ़ाव से पाठक वाकिफ होता है और इंदुमती की भटकन देखते हुए कभी-कभी खुद भी सोच में पड़ जाता है कि क्या वह भी ऐसे ही तो नहीं भटक रहा? 

इंदुमती के जो सवाल हैं वह अधिकतर मनुष्यों के हैं। उसकी जो भटकन है वह अधिकतर मनुष्यों की है और उसकी इस भटकन का जो जवाब है वह भी शायद अधिकतर मनुष्यों की भटकन का होगा। बस जैसे इंदुमती को जीवन के 17 वर्षों के भटकाव के बाद यह चीज समझ आती है वैसे ही अधिकतर मनुष्यों की नियति में भी यह भटकना लिखा है। 

अधिकतर लोगों के लिए जीवन में मौजूद सुख किसी बंद दरवाजे की पीछे की चीज होती है लेकिन यह दरवाजे अनगिनत हैं और उनमें से सही दरवाजा पाना भी आसान नहीं होता है।  अक्सर वह ऐसे कुंजी रूपी सूत्रों की तलाश में होते हैं जिससे यह दरवाजा खुल जाए और उनका जीवन सुखमय हो जाए परंतु सूत्र का सही अर्थ वह ज्ञान होता है जिससे पता होता कि कौन सा दरवाजा उस कुंजी से खोलना चाहिए। अगर सही कुंजी से गलत दरवाजा खुला तो भी तलाश अधूरी रह जाती है। यह भी इस उपन्यास में देखने को मिलता है। 

उपन्यास में इंदुमती का जीवन तो दिखता ही है साथ में 1916 से 1943 के बीच भारत में हो रहे घटनाक्रमों की झलकियाँ भी पात्रों के माध्यम से दिखती हैं। इन झलकियों में राजनीतिक और सामाजिक दोनों तरह की झलकियाँ हैं। अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष, समाज में व्याप्त जातिवाद, वर्ग संघर्ष इत्यादि इधर दिखता है। हाँ, यह सब उतना ही दिखता है जितना कि इंदुमती के जीवन से संबंधित था। लेखक ने इधर मुख्य कथा पर ही अपनी कलम को केंद्रित किया है तो कथानक इस कारण भटकता नहीं है। वरना इधर ऐसे मुद्दे थे जिसमें कमल भटक सकती थी।  

किरदारों की बात करूँ तो उपन्यास के केंद्र में इंदुमती है जो कि एक आधुनिक स्त्री है। वह कड़े फैसले लेना जानती है और फिर वह फैसले समाज के विरुद्ध ही क्यों न हो वो उन्हें लेने में हिचकिचाती नहीं है। इसका खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ता है परंतु वह इस कारण अपने पथ से डिगती नहीं है। ऐसा नहीं है कि वह हर वक्त सही कदम ही उठाती है। वह कई गलतियाँ भी करती है लेकिन उससे सीखती भी है। 

उपन्यास में इंदुमती के जीवन में समय-समय में अलग-अलग पुरुष भी आते हैं। त्रिलोकीनाथ, ललितमोहन, वीरभद्र, मुरलीधर वो पुरुष हैं जो इंदुमती के जीवन के अलग-अलग पड़ावों में उसके जीवन में आते हैं। इस दौरान उसे आकर्षण महसूस होता है, वह प्रेम में भी पड़ती है और वासना का भी अहसास उसे होता है। प्रेम और वासना के अंतर को भी वह पहचानती है और इस दोनों से उपजे मानसिक द्वन्द को भी वह झेलती है। 

इन पुरुषों के अतिरिक्त वजीरअली नामक पुरुष भी इंदुमती के जीवन में महत्व रखता है। वह उसका राखी भाई है और वह जो कार्य इंदुमती के लिए करता है वह दर्शाता है कि प्रेम के रिश्ते कई बार खून के रिश्तों से भी गाढ़े हो जाते हैं। 

उपन्यास के बाकि किरदार कथानक के अनुरूप ही हैं।

29 अध्यायों में विभाजित यह कथानक 121 पृष्ठ में समाप्त हो जाता है। चूँकि उपन्यास छोटा है तो भटकाव की संभावना भी इसमें नहीं है। कथानक के लिए जरूरी चीजों को ही लेखक ने इधर दर्शाया है जो कथानक को चुस्त बना देता है। 

इस संस्करण की कमी की बात करूँ तो उपन्यास में वर्तनी की गलतियाँ काफी हैं। कई जगह शब्द गलत लिखे हुए हैं जो कि पढ़ते हुए आपके पढ़ने की लय को बाधित करते हैं। उदाहरण के लिए:

स्टेशन पर जब आखिरा घण्टी बजी तो ललितमोहन ने पहले सुलक्षणा और फिर अवधबिहारीलाल के पैर छूए। (पृष्ठ 22)

यह सब देख इन्दुमती के मुख पर मुस्कराहट दौड़ गई और अखिों में आंसू भर आए।… क्या मुख मुस्कराहट के द्वारा और आंखें आंसुओं के ज़रिये बोल रही थों? (पृष्ठ 36)

प्रेम मस्तिष्क को चीज़ न हो, हृदय की चीज़ होने पर भी केवल अन्तर्प्रवृत्ति नहीं, उससे परे की वस्तु है। (पृष्ठ 37)

इंदमती ने अपने मन में बार-बार कहा… (पृष्ठ 39)

… और यह दोनों भा कलकत्ता इस राष्ट्रीय महायज्ञ में अपनी आहुतियाँ चढ़ाने पहुँच गए। (पृष्ठ 39)

ऐसी और भी कई सारी वर्तनी की गलतियाँ उपन्यास में  बिखरी हुई हैं।  

अंत में यही कहूँगा कि इंदुमती मुझे पठनीय उपन्यास लगा। इंदुमती जिन प्रश्नों से जूझ रही है वह प्रश्न अक्सर अधिकतर मनुष्यों के अंदर भी यदा कदा उठते हैं। ऐसे में उसकी भटकन की यह दास्तान पढ़ते हुए हो सकता है कि पाठक उसमें अपने भटकन का अक्स देख ले। ये भी हो सकता है इंदुमती को मिले उत्तर ही वह उत्तर हों जिनकी पाठक को तलाश थी और जैसे अंत में इंदुमती की तलाश पूरी हो जाती है वैसे पाठक की भी हो जाए। 

उपन्यास के कुछ अंश जो मुझे पसंद आए:

प्रेमियों के हृदय-क्षेत्र का प्रेम का प्रेम रूपी तरु सदा हरा-भरा रहता है। कुछ वृक्ष जिस प्रकार सभी ऋतुओं में हरे रहते हैं, वह ऋतु चाहे गर्मी की हो या जाड़े की, उसी तरह यह तरु भी वियोग और संयोग सभी अवस्थाओं में हरा रहता है। हाँ, अन्य वृक्षों में और इसमें कुछ अंतर अवश्य है। जैसे अन्य तरुओं के जमने, बड़े होने, फूलने और फलने में समय लगता है, वैसा इसमें नहीं; यह तरु उगते ही जम जाता है और तत्काल फलने-फूलने लगता है। फिर दूसरे दरख्तों में एक ही तरह के पत्ते, फूल और फल निकलते हैं, लेकिन प्रणयपलाशी के पत्र, पुष्प, और फल एक भी प्रकार के नहीं होते; रंग और रूप दोनों में पृथक-पृथक, गुण भी अलग-अलग। ये पत्ते, प्रसून भिन्नभिन्न रंग रूपों और गुणों के इसलिए होते हैं कि पल-पल में उठने वाली उनकी अगणित प्रकार की भावनाओं के रस से पोषित होते हैं। (पृष्ठ 24)

मन की चंचलता के सम्मुख पानी की लहरों, बादलों के टुकड़ों, वायु के झोंकों की चंचलता भी तुच्छ है, किन्तु जब कभी यह किसी दूसरे मन के साथ प्रेम-बंधन में बंधकर बैठता है तब वह अपनी सारी चंचलता छोड़ अचलवत् अचल हो जाता है और जितनी स्थिरता उसे इस स्थिति में प्राप्त होती है, उतनी शायद किसी दूसरी स्थिति में नहीं। (पृष्ठ 24)

प्रेम और वासना का सबसे प्रधान अंतर कदाचित् यही है। शरीरधारियों के लिए शरीर को पृथक रख प्रेम की उत्पत्ति और उत्पत्ति के पश्चात् उसका पोषण तथा तुष्टि दोनों ही शायद संभव नहीं, किन्तु जहाँ प्रेम में शरीर साधन मात्र रहता है, वहाँ वासना में वही साधन और साध्य दोनों हो जाता है। (पृष्ठ 37) 

मृत्यु निष्क्रियता की सबसे बड़ी प्रतीक है। वह मृतक को तो निष्क्रिय बना ही देती है, किन्तु जिस गृह में उसका आगमन होता है, वहाँ भी निष्क्रियता का राज्य हो जाता है।… 

परंतु मृत्यु जैसे निष्क्रियता का प्रतीक है, वैसे ही जीवन सक्रियता का। अतः सदा के लिए मृतक ही निष्क्रिय हो सकता है, जीवित नहीं, इसीलिए जो जीवित हैं, उनके कार्यों द्वारा मृत्यु के निष्क्रिय राज्य का अंत होकर शीघ्र ही फिर से जीवन का सक्रिय राज्य स्थापित हो जाता है। (पृष्ठ 43)

 आँसू से अधिक अनवरत बहने वाली और आँसू से अधिक जल्दी सूखने वाली दुनिया में शायद कोई चीज नहीं। (पृष्ठ 51)

अर्द्ध-मिथ्या पूर्ण मिथ्या से भी बुरी चीज है। पूर्ण मिथ्या अपने सच्चे रूप में प्रकट हुए बिना क्वचित् ही रहती है, और जब वह प्रकट हो जाती है तब उससे होने वाली हानि भी भाऊत दूर तक रुक जाती है, लेकिन अर्द्ध-मिथ्या में चूँकि सत्ययांश मिला रहता है इसलिए एक तो उसका अपने सच्चे रूप में प्रकट होना ही कठिन होता है, दूसरे यदि वह प्रकट भी हो जाए तो पूर्ण रूप से यह सिद्ध नहीं हो पाता है कि वह मिथ्या है। एक दल उसे सत्य कहने लगता है तथा दूसरा मिथ्या; और ऐसी कलहाग्नि उत्पन्न होती है कि दूर-दूर तक उसकी आँच पहुँचे बिना नहीं रह सकती। (पृष्ठ 79)

मनुष्य को आसक्ति रहित सुख तभी प्राप्त हो सकता है जब या तो वह अपने को सबमें और सबको अपने में देखने में सफल हो जाए, या जिस व्यक्ति से यह प्रेम करता है, उसको सबमें और सबका तथा अपना उसमें निरीक्षण कर सके। (पृष्ठ 119) 

 

 

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