19 अगस्त, 2024 (सोमवार)
नई दिल्ली। सत्तर के दशक में आपातकाल लगाने के पीछे इंदिरा गांधी की सत्ता में बने रहने की चाह एक बड़ा और तात्कालिक कारण था लेकिन और भी ऐसे अनेक कारण थे जिनकी वजह से उन्होंने इस कदम को उठाया। उन कारणों को समझने के लिए हमें इतिहास में और पीछे जाने की जरूरत है। क्योंकि देश में उस आपातकाल की पृष्ठभूमि बहुत पहले से ही तैयार हो रही थी जिस पर पहले हमारा ध्यान नहीं गया। यही बात देश के वर्तमान हालात पर भी लागू होती है। आज जिस तरह की स्थितियां हमारे सामने हैं वे सिर्फ़ कुछ बरसों में नहीं बनी है। दरअसल, इनके लिए इतिहास में पहले घट चुकी अनेक तरह की घटनाएं जिम्मेदार है। यह बातें इतिहासकार और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ज्ञान प्रकाश ने अपनी किताब ‘आपातकाल आख्यान : इंदिरा गांधी और लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा’ के लोकार्पण के दौरान कही।
राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित ज्ञान प्रकाश की किताब का लोकार्पण 18 अगस्त, रविवार को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हुआ। इस दौरान अशोक कुमार पांडेय और सीमा चिश्ती ने लेखक से किताब पर बातचीत की। वहीं किताब के अनुवादक मिहिर पंड्या ने अनुवाद के अपने अनुभव साझा किए और किताब से कुछ रोचक अंशों का पाठ किया।
अनुवादकीय वक्तव्य में मिहिर पंड्या ने कहा कि मुझे आधुनिक इतिहास में बीस और सत्तर के दशक में विशेष रुचि रही है। इसका कारण यह है कि इन दोनों दशकों में अनेक ऐसी घटनाएँ घटित हुई जो कई चीजों को बना रही थी और बदल रही थी। उनमें से कई चीजों को हम आज भी पूरी तरह से व्याख्यायित नहीं कर पाए हैं। दूसरा, उस समय देश के नौजवान बहुत सक्रिय रूप से चीजों को बनाने और बदलने में अपनी भूमिका निभा रहे थे। इन्हीं चीजों में मेरी दिलचस्पी ने इस किताब के अनुवाद के लिए मुझे आकर्षित किया।
आपातकाल के ऐतिहासिक कारणों पर बात करते हुए ज्ञान प्रकाश ने कहा, नेहरू के निधन के बाद का जो काल था, उस समय दुनियाभर में राजनीतिक रूप से असंतोष की एक लहर चल रही थी। क्योंकि पिछले कुछ दशकों में आजाद हुए अनेक राष्ट्रों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाकर अपने नागरिकों से बराबरी का वादा किया था। लेकिन दो-तीन दशक बीत जाने के बाद भी सामाजिक और आर्थिक असमानता उसी तरह बरकरार थी। भारत की राजनीति भी उससे अछूती नहीं रही और इसी से इंदिरा गांधी की सत्ता का संकट पैदा हुआ। व्यवस्था के प्रति इस असंतोष ने देश के युवाओं को आंदोलित किया और आजादी की लड़ाई के सिपाही ‘जेपी’ ने उन्हें नेतृत्व दिया। आखिर वह दौर लंबा नहीं चल सका लेकिन आपातकाल से हमें जो सीख लेनी चाहिए थी वो हमने नहीं ली। ज्यादातर लोगों का यही सोचना था कि इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाते ही सारी चीजें ठीक हो जाएगी। मेरा मानना है कि इस तरह की घटनाओं को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखे बगैर केवल व्यक्ति केंद्रित कर देना हमें कोई समाधान नहीं दे सकता।
आगे उन्होंने कहा कि हमारे समाज में, राजनीति में, मीडिया में और पूंजीवादी व्यवस्था में जो बदलाव हो रहे हैं उनके साथ-साथ हमें लोकतंत्र में होने वाले बदलावों को भी नज़र में रखना चाहिए। इस किताब में आपातकाल के ठीक पहले की स्थितियों और लोकतंत्र में आ रहे इन्हीं बदलावों के ऐतिहासिक संदर्भ को समझने की कोशिश की है। मुझे उम्मीद है कि यह किताब पाठकों को देश की वर्तमान स्थितियों के पीछे के ऐतिहासिक संदर्भों को भी समझने के लिए प्रेरित करेगी।
लेखक से बातचीत के दौरान अशोक कुमार पांडेय ने कहा कि इस किताब का अनुवाद बहुत अच्छा हुआ है। इसे पढ़कर ऐसा लगा कि जैसे यह किताब हिन्दी में ही लिखी गई है। अनुवादक ने लेखक की शैली को पहचानकर जैसा अनुवाद किया है, वह वाकई काबिले तारीफ़ है।
इससे पहले, राजकमल प्रकाशन समूह के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी ने अपने स्वागत वक्तव्य में कहा, आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक अप्रत्याशित घटना थी। अवांछित भी। आपातकाल की घोषणा वैधानिक प्रावधानों के जरिये ही की गयी थी। लेकिन तत्काल इसके जो प्रभाव नज़र आए, उनसे स्पष्ट हो गया कि महज तीन दशक पहले आजाद होकर, लोकतंत्र की राह पर आगे बढ़ने वाले देश के लिए यह हत्प्रभ और हताश करने वाला कदम था। दरअसल, हमारे युवा लोकतंत्र के लिए आपातकाल एक चेतावनी साबित हुआ। ज्ञान प्रकाश की किताब आपातकाल आख्यान हमारे हालिया इतिहास की इसी परिघटना की बारीक विवेचना करती है।
आगे उन्होंने कहा, वैसी किताबों को प्रकाशित करना हमारी प्राथमिकता में रहा है जो बौद्धिक उन्नति में सहायक हो। ऐसी किताबें जो समाज, देश और दुनिया को बेहतर बनाने का जरिया बनें। यह भी एक ऐसी ही किताब है। हमें पूरा विश्वास है कि इस किताब से हमें सोचने-समझने की नई ऊर्जा मिलेगी; अपने समय-समाज को देखने-परखने की सम्यक दृष्टि मिलेगी; और एक सजग नागरिक के रूप में समाज, देश और दुनिया के प्रति बेहतर भूमिका निभाने की प्रेरणा मिलेगी।
किताब के बारे में
एक ऐसे दौर में, जब दुनिया एक बार फिर अधिनायकवाद के ज़लज़लों से रू-ब-रू हो रही है, ज्ञान प्रकाश की किताब ‘आपातकाल आख्यान’ आपातकाल (1975-77) को बेहतर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए हमें इतिहास के उस दौर में ले जाती है, जब भारत ने स्वतंत्रता हासिल की थी। यह किताब इस मिथक को तोड़ती है कि आपातकाल एक ऐसी आकस्मिक परिघटना थी जिसका एकमात्र कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री का सत्तामोह था, इसके बरक्स यह तर्क देती है कि आपातकाल के लिए जितनी ज़िम्मेदार इन्दिरा गांधी थीं, उतने ही ज़िम्मेदार भारतीय लोकतंत्र और लोकप्रिय राजनीति के बनते-बिगड़ते नाज़ुक सम्बन्ध भी थे। यह ऐसी परिघटना थी जो भारतीय राजनीति के इतिहास में निर्णायक मोड़ साबित हुई।
ज्ञान प्रकाश आपातकाल के ठीक पहले के वर्षों में घटी घटनाओं का विस्तार से लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए बताते हैं कि लोकतांत्रिक बदलाव के वादे के अधूरे रह जाने ने कैसे राज्य सत्ता और नागरिक अधिकारों के बीच मौजूद नाज़ुक सन्तुलन को हिला दिया था। कैसे उग्र होते असन्तोष ने इन्दिरा गांधी की सत्ता को चुनौती दी और कैसे उन्होंने वैध नागरिक अधिकारों को निलम्बित करने के लिए क़ानून को ही अपना हथियार बनाया। जिसने भारत की राजनीतिक व्यवस्था पर कभी न मिटने वाले घाव के निशान छोड़े और निकट भविष्य में जाति और हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के लिए द्वार खोल दिये।
लेखक के बारे में
ज्ञान प्रकाश प्रिंसटन विश्वविद्यालय में इतिहास विषय के ‘डेटन-स्टॉकटन’ प्रोफ़ेसर हैं। वे प्रभावशाली समूह ‘सबाल्टर्न स्टडीज़ कलेक्टिव’ के 2006 में विघटित होने से पहले तक उसके सदस्य रहे हैं और ‘गुग्गेनहेम’ एवं ‘नेशनल एंडॉवमेंट ऑफ़ ह्यूमैनिटीज़ फ़ेलोशिप’ जैसी अध्येतावृत्तियाँ हासिल कर चुके हैं। उन्होंने कई किताबें लिखी हैं, जिनमें ‘बॉन्डेड हिस्ट्रीज़’ (1990), ‘अनदर रीज़न’ (1999) और बहुप्रशंसित ‘मुम्बई फ़ेबल्स’ (2010) शामिल हैं। चर्चित फ़िल्म-निर्देशक अनुराग कश्यप ‘मुम्बई फ़ेबल्स’ पर ‘बॉम्बे वेलवेट’ (2015) नाम से फ़ीचर फ़िल्म बना चुके हैं। ज्ञान प्रिंसटन, न्यू जर्सी में रहते हैं।