दर्रा दर्रा हिमालय – अजय सोडानी

रेटिंग :  5/5
किताब  दिसम्बर १ २०१६ से दिसम्बर ४ २०१६ से के बीच पढ़ी गई

संस्करण विवरण :
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 155
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
आई एस बी एन: 9788126726943

पहला वाक्य:
वर्ष २००१ के सितम्बर में जब हम लोग गोमुख से तपोवन जा रहे थे, तब गोमुख ग्लेशियर (भमक) पर एक बन्दर को अकेले तपोवन से विपरीत दिशा में जाते देख मैं दंग रह गया। 

दर्रा दर्रा हिमालय अजय सोडानी द्वारा लिखी गयी पुस्तक है। मूलतः ये एक यात्रा वृतांत है जिसमे उन्होंने अपनी दो यात्राओं के विषय में लिखा है।


पहला कालिंदी खाल अभियान (18 मई 2005 से 7 जून 2005)
दूसरा ओडेन कॉल अभियान(30 जून 2009 से 19 जुलाई 2009)


ये यात्रायें, जैसे की शीर्षक से ही जाहिर होता है, हिमालय की है। पहली यात्रा  सन २००५ की यात्रा है और दूसरी यात्रा जो कि सन २००९ में की गयी थीं।

इसके इलावा इन यात्राओं के विषय में दो विशेष बातें हैं:

पहला तो ये कि ये दोनों ही यात्रायें (जो की काफी जोखिम भरी थी) लेखक ने अपने परिवार (पत्नी अपर्णा सोडानी और बेटे अद्वैत सोडानी ) के साथ की थी।

दूसरी बात ये दोनों ही यात्रायें लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड्स में दर्ज हैं। यानी दोनों ही यात्राओं के लिए अजय और उनके परिवार के पास एक एक रिकॉर्ड है।

तो कैसी थी ये यात्रायें? अगर आप जानना चाहते हैं तो इस किताब को पढ़ियेगा जरूर।

घूमना फिरना पुरातन काल से  मनुष्य का स्वभाव रहा है। सबसे पहले मनुष्य घुम्मकड़ ही था लेकिन उस वक्त ये घुमक्कड़ी खाद्द्य पदार्थों के अर्जन के लिए होती थी। लेकिन फिर जब इन्सान ने खेती करना सीखा तो वो एक जगह बस गया। लेकिन फिर भी यायावरी की ये ललक, ये इच्छा कम नहीं हुई। कुछ लोगों में ये इच्छा इतनी ज्यादा है कि वो इसे ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लेते हैं और बाकी कुछ लोग जो ये नहीं कर पाते वो उनके किस्सों को पढ़कर किताब के माध्यम से वो यात्रा करते हैं। घूमने फिरने का थोड़ा बहुत शौक मैं भी रखता हूँ लेकिन काम के कारण ये घूम घाम सीमित रूप से करता हूँ। इसलिए अब मैं दूसरों के यायावरी के किस्से पढने की कोशिश करता हूँ क्योंकि एक तो ये मुझे एहसास दिलाते हैं कि मैं उनके साथ यात्रा पे हूँ और दूसरा ये मुझे एक नई यात्रा पे निकलने के लिए प्रेरित करते हैं। इसी के तहत मैंने कई यात्रा संस्मरणों को मंगवाया है और गाहे बगाहे उन्हें पढता हूँ।

दर्रा दर्रा हिमालय दूसरा यात्रा संस्मरण है जिसे मैंने पढ़ा है। अजय सोडानी जी कि इस किताब के विषय में मैंने सुना था तो दर्रा और हिमालय साथ सुनकर ही मन में किसी एडवेंचर ट्रिप की तस्वीर बनी थी। बर्फ से भरे दर्रों से आप गुजर रहे हैं। जमा देने वाली ठंड, तेज हवाएं और आप। ऐसे न जाने कई चित्र मन में उपजे थे। और सच बताऊँ तो किताब को पढने का अनुभव उन सभी चित्रों से कई गुना ज्यदा अच्छा रहा है।

किताब के रोचक किस्से आपको हिमालय के दर्रों में ले जाते हैं। ये किस्से आपके रोगंटे भी खड़े कर देते हैं और उधर की खूबसूरती को भी महसूस करवाते हैं। किस्सों का विवरण काफी जीवंत है और आपको लगता है आप भी लेखक के साथ ही यात्राओं पर निकले हैं।

इसके इलावा लेखक के माध्यम से आप ये जान पाते है कि हम मनुष्यों ने अपनी इस प्राकृतिक धरोहर का कितना विनाश किया है। इस किताब में, जैसे कि ऊपर बता चुका हूँ, दो यात्राओं का विवरण है। इन दोनों यात्राओं के बीच में कुछ सालों का फर्क है। ये यात्रयें हिमालय में ही होती है तो लेखक ने जो फर्क ऐसी जगहों पर इन सालों में देखे हैं उनका विवरण बिना लाग लपेट के किया है। पढ़ते हुए लगता है कि कैसे अपने स्वार्थ के लिए, विकास के नाम पर हमने प्रकृति का शोषण किया है। और ये आपको सोचने पर मजबूर कर देता है।  ये बात हिमालय के लिए ही नहीं बल्कि जिधर भी आप रह रहे हैं उधर के लिए भी लागू होती है।

इसके इलावा क्योंकि यात्रा के दौरान लेखक को कई धार्मिक स्थलों के आसपास से गुजरना पड़ा था तो उसके विषय में भी उन्होंने टिपण्णी की है। यह स्थल अब धार्मिक कम धनोपार्जन के स्रोत ज्यादा हो गये हैं। उनके इधर के अनुभव रोचक थे। एक नास्तिक के तौर पर मुझे तो तो ये पहले से ही लगता था कि ऐसे स्थल धनोपार्जन का जरिया होता है लेकिन आस्तिक लोग इसे कम ही समझ पाते हैं। या समझते हुए भी न समझने का नाटक करते हैं।

इन यात्राओं के विषय में एक बात जो मुझे अच्छी थी कि यह यात्रायें लेखक ने अपने परिवार के साथ की थी। परिवार के साथ करी गयी कोई भी चीज उस काम के करने के अनुभव को और अच्छा बना देती है। और यदि आपका और आपके परिवार के शौक एक जैसे हैं तो बात ही क्या? यहाँ दी गयी यात्राओं को पढ़कर इसका एहसास होता है।  मुशिकल दौर में लेखक कभी कभार ग्लानि से भी झूझता है कि अपने शौक के लिए वो अपने परिवार की जान भी जोखिम में डाल रहा है। लेकिन इस बात का जवाब जो परिवार के सदस्य देते हैं वो दिल खुश कर देता है। फिर चूँकि इन यात्राओं में एक लम्बा अंतराल है। पहली यात्रा में उनका पुत्र १५ वर्ष का था और दूसरी में १९ वर्ष का। दोनों में उसकी सोच में काफी फर्क आ गया है। ये फर्क पिता पुत्र के बीच में होने वाली बातों में भी दिखता है। इन बात चीतों को पढना भी रोचक था। मैं उम्मीद करता हूँ इस किताब में दी गयी यात्राओं के इतर भी वे कई ऐसी यात्रायें पे निकले होंगे और निकलेंगे।

किताब में इस यात्रा का विवरण तो है ही इसके इलावा एक छोटा सा विवरण लेखक द्वारा की गयी नर्मदा यात्रा का भी है और एक यात्रा से जुडी हुई उनकी लिखी कहानी नमक का मोल भी है। दोनों ही मुझे काफी पसंद आये। मूल यात्रा से अलग एक श्रेणी किताब में यात्रा से परे लेखों की भी हैं। ऐसे छः लेख किताब में हैं जो यात्रा से जुड़े विषयों पर ही हैं और आपको और रूचिकर जानकारियाँ देते हैं।
 
उम्मीद है हमे भविष्य में बाकी यात्राओं को पढने का मौका भी मिलेगा।

किताब मुझे बहुत पसंद आई। ये आपका मनोरंजन तो करती ही है लेकिन इसके साथ ही आपको सोचने के लिए भी मजबूर कर देती है।  हम प्रकृति के साथ क्या कर रहे हैं? और इस गैरजिम्मेदाराना रवैये से निकल कर कब अपनी जिम्मेदारियों को समझेंगे।

हाँ, किताब में केवल 22 तस्वीरों को ही समिल्लित किया गया है। अगर तस्वीरों कुछ और होती तो अच्छा रहता।







किताब के कुछ अंश:


भोज वृक्ष के रोपे गये पौधे तो इन चार वर्षों में चार भी पनपे हों, ऐसा नहीं लगा लेकिन लाल बाबा का आश्रम ख़ूब फैल गया है। हमारे देश की जमीन बहुत उपजाऊ है- बंजर से बंजर जमीन, जहाँ बबूल भी न पनपे, वहाँ भी धर्मगुरु मजे से फलते फूलते हैं।


बादलों की इस गुदड़ी में से अपना सिर निकाले असंख्य पर्वत हमारी ओर देख रहे थे। उनमें कुछ थोड़ी थोड़ी देर में पुनः गुदड़ी में दुबक जाते, पर कुछ ही क्षणों में कुलबुलाकर फिर बाहर झाँकने लगते। कुछ एक अपना पूरा मुँह निकालने के बजाय उस लिहाफ के एक कोने को ऊँचा कर, हम पर नजर जमाए थे।


अभी कुछ आधा घण्टा चले होंगे कि एक तेज आवाज़ से चौंक पीछे देखा और नज़ारा देख गश आने लगा। वह गर्जना पाउडर एवलांच की थी। पाउडर एवलांच बड़ी बड़ी चट्टानों को लुढ़काकर तेजी से उस स्थल को भर रहा था जहाँ रात को हमने टेंट लगाये थे;मानो हमारे छूने से उस स्थान का पहाड़ीपन कम हो गया हो। प्रकृति ने हमारा दिया वह घाव पूरी तरह से ठीक कर दिया था और लगे हाथ ऐसी व्यवस्था भी कर दी थी कि आने वाले कई शताब्दियों तक उस स्थान को कोई नापाक न कर पाए। बाल बाल बचे।


चाल निरन्तर मंथर होती जा रही थी। जहाँ पेयजल का आभाव, प्राणवायु की असघनता, धरा की मानव पदछापों को स्वीकार करने की असहिष्णुता, तीखे सन्नाटे से उपजी असहजता हमारी गति को अवरुद्ध कर रहीं थीं, वही अनजान वादियों का आकर्षण, अनदेखी शक्ति से मिल रहा संरक्षण एवं अनावसादता का अनवरत प्रत्यक्ष दर्शन हमें गतिशील रखे हुए था।

मैं केवल इतना कहूँगा कि अगर आप यात्रा संस्मरणों को पढने के शौक़ीन हैं तो इस रोमांचक यात्रा संस्मरण को पढने का मौका न गवाईयेगा। और अगर आप अभी तक इस विधा से अछूते रहे हैं तो इस किताब से शुरू करिए।

अगर आपने किताब पढ़ी है तो आपको ये कैसी लगी?

अगर आपने इसे नहीं पढ़ा है तो आप इस किताब को निम्न लिंक से मंगवा सकते हैं:
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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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4 Comments on “दर्रा दर्रा हिमालय – अजय सोडानी”

  1. बढ़िया समीक्षा लिखी।
    मैंने यह किताब नहीं पढ़ी है।इसी किताब से यात्रा वृत्तांत पढ़ना शुरू करने की कोशिश करूँगा।

    1. शुक्रिया।पढ़कर बताईयेगा कैसी लगी?

  2. नमस्कार श्रीमान जी। जैसे लेखक ने हिन्दू धार्मिक स्थानों मंदिरों को आस्था की बजाय कमाई का अड्डा बताया है ठीक वैसे ही दर्रा दर्रा हिमालय के लेखक महोदय ने भी हिमालय की यात्रा करके उसे पुस्तक का रूप देना और उसको बेच कर कमाई करना क्या परोपकार है नहीं जी लेखक महोदय भी अपनी यात्राओं का विक्रय ही कर रहे है और वो भी अपनी मनमर्जी के दाम पर जबकि हिन्दू समाज के धार्मिक स्थान मंदिर स्थनो पर आपसे कोई धन की मांग नहीं करता आपकी श्रद्धा है दो या न दो पर सेवा आपकी बिना कोई कीमत लिए भी होती है

    1. आपकी टिपण्णी पढ़ी। मैं अपना अनुभव साझा करना चाहूंगा। पुष्कर गया था पिछले के पिछले साल उधर के पंडों ने भी लोगों को लूटने का धंधा खोला हुआ है। जबदस्ती खींचते हुए ले जाते हैं पूजा के नाम पर और फिर सीधे ३०० रूपये दक्षिणा मांगते हैं। मेरा उधर एक से झगड़ा भी हुआ था। आप इसे क्या कहेंगे???
      हो सकता है आपके ऐसे अनुभव न हुए हों लेकिन उनके ऐसे अनुभव रहे होंगे। मेरे भी ऐसे अनुभव रहे हैं और आदमी अपने अनुभव को साझा करता है।

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