किताब सितम्बर 12,2018 से सितम्बर 16, 2018 के बीच पढ़ी गई
गीताश्री जी कि कहानियों को मैं प्रतिलिपि,अन्य ऑनलाइन पत्रिकाओं और साहित्यिक पत्रिकाओं में पढ़ता रहा हूँ। उनकी कहानियाँ मुझे पसंद आती है इसलिए किताबे लेकर रख लेता हूँ। यह किताब भी खरीदकर रख दी थी। अमेज़न भी यही दर्शा रहा है कि यह किताब पिछले साल अक्टूबर में खरीदी थी। एक साल होने को आया है। अब तो पढ़ना बनता था।
पाँच बेहतरीन कहानियाँ जैसे कि नाम से जाहिर है गीताश्री जी की पाँच कहानियों का संग्रह है। इस संग्रह में निम्न कहानियों को संकलित किया गया है:
रचना और प्रार्थना कभी रूममेट हुआ करते थे। इस बात को नौ साल हो चुके हैं। इन नौ सालों में काफी कुछ बदल गया है। न वो उसके बाद मिली और न ही कभी उनमें कोई बातचीत हुई। रचना का अपना संसार है। एक पति, बच्चे और एक नौकरी। आज जब उसने अखबार में प्रार्थना की तस्वीर देखी तो उसकी यादों के झरोखे खुल से गये थे और वो नौ साल पहले बिताया समय उसकी आँखों के आगे चलचित्र की भाँति चलने लगा।
इन यादों ने उसे आत्मनिरीक्षण के लिए मजबूर सा कर दिया था।
आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्या हुआ था नौ साल पहले?
अच्छाई और बुराई क्या है? समाज,वक्त और लोगों के हिसाब से अच्छाई और बुराई में फर्क आता रहा है। उदाहरण के लिए मेरे घर के तरफ उपन्यास पढ़ना और ताश खेलना बुरा माना जाता है। ऐसी ही कई छोटी छोटी चीजें हैं जिनके कारण हम लोगों को खांचों में विभाजित करके उन पर अच्छे या बुरे होने का टैग लगा देते हैं। यही चीज लड़कियों के प्रति देखने को ज्यादा मिलती है। अच्छी और बुरी लड़की के बीच में फर्क करने के लिए समाज ने अपने हिसाब से कुछ नियम बना रखें हैं।जो उन्हें मानती हैं वो अच्छी हैं और जो उन्हें नहीं मानती वो बुरी। मसलन जो शराब पीती है,सिगरेट पीती है या लड़कों से हँसी ठट्टा करती है उसे बुरा माना जाता है वहीं इसके उलट जो व्यवहार करती हैं उसे अच्छा। भले ही बुरी लड़की किसी का नुक्सान नहीं कर रही हो लेकिन उसे ह्ये दृष्टि से देखा जाता है।
इस कहानी के बीच में भी यही धारणा है। अच्छी और बुरी लड़की की धारणा। एक लड़की है जो अच्छी बनी रही। अपनी इच्छाओं का गला घोंटा और उसके बाद उसने जो पाया उससे वो संतुष्ट नहीं है। वहीं एक बुरी लड़की है जिसको उस अच्छी लड़की ने सभी नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए देखा और अपनी हर इच्छा की पूर्ती करते हुए देखा। अब अच्छी लड़की सोचती है तो पाती है उसने अच्छा बनकर क्या पाया और बुरा न होकर क्या खोया?
हम जब जीवन से संतुष्ट नहीं होते हैं तो अपने चयन पर सवाल उठाने लगते हैं। यह चीज ज्यादा तब हो जाती है जब हमने चयन खुद की इच्छा से नहीं बल्कि सामाजिक कारण से किया। ऐसे में हमे दूसरे लोग जिन्होंने यह नहीं किया वो ज्यादा आज़ाद ज्यादा खुश लगते हैं। यही इस कहानी में दिखता है। हमे इस कहानी में एक पछतावा दिखता है और ग्रास इस ग्रीनर ऑन द अदर साइड की सूक्ति चरितार्थ होते दिखती है।
कहानी पढ़कर मैं यही सोच रहा था कि अच्छी लड़की अगर बुरी होती तो क्या यह जरूरी था वो अपने जीवन से खुश होती? शायद हो सकती थी या शायद नहीं भी हो सकती थी। लेकिन हाँ, उसे एक चीज का सुकून तो रहता कि उसने अपनी मन की करी और शायद इसी सुकून की तलाश हमारी नायिका को भी थी।
एक अच्छी कहानी जो सोचने पर विवश करती है कि हम किस तरह अपना जीवन जीना चाहते हैं?
असावरी पॉवर गेम नामक पत्रिका में एक पत्रकार है। कभी उसकी उधर पूछ होती थी लेकिन अब उसे लगने लगा है कि रंजना सक्सेना के आने से यह पूछ कम हुई है। उसकी काफी रिपोर्ट्स अब छपती नहीं है। रंजना को उसके ऊपर वरीयता दी जाती है। वह बस दो पन्नो वाले कॉलम तक सिमट कर रह गई है।
आखिर ऐसा क्यों हुआ है? और इस चीज को सुधारने के लिए असावरी क्या करती है? यही कहानी बनती है।
अगर आप ऑफिस में काम करते हैं तो ऑफिस में होने वाली राजनीति से भली भाँती परिचित होंगे। अक्सर जब लोगों को लगता है कि किसी औरत को यश मिल रहा है तो वो उसके अन्दर उसकी काबिलियत नहीं बल्कि उसका औरत होना देखते हैं। वो सोचते हैं कि यह बॉस को काम के अलावा कुछ और भी दे रही है। यही सोच मैंने अपने आस पास देखी है। यह सोच केवल मर्दों की नहीं वरन औरतों की भी अक्सर रहती है। ऐसा नहीं है कि इस सोच में कहीं लेश मात्र की सच्चाई नहीं है। कई होती हैं जो इस चीज को कैश करती हैं लेकिन हर कोई ऐसा नहीं होता। जबकि धारणा हर किसी के विषय में यही बनाई जाती है। इस कहानी के मूल में यही सोच है।
असावरी को लगता है उसकी प्रतिद्वंदी रंजना ने जो पाया है वो केवल इसलिए क्योंकि वो बॉस को रिझाने में कामयाब होती है।
वह एक आदमी, एक बॉस, एक मर्द और एक सम्पादक यानी चारों को अलग-अलग हैंडल करना जानती थी। मगर जब से स्साली यह मोटी चमड़ीवाली आई है, बॉस के सामने उसका कोई सिक्का नहीं चल पाता। सारे दाँव खाली जा रहे हैं।
असावरी की सोच में कितनी सच्चाई है यह हमे जानने की जरूरत नहीं है और यह दिखाया भी नहीं गया है। यह कहानी शायद इस सोच को इंगित करने की तरफ ही लिखी गई है। और इसका अंत यही दर्शाता है। इसका अंत मजेदार है। मैने बहुत पहले एक उपन्यास पढ़ा था, उसका अंत भी कुछ इसी तरह का था। बरबस ही उसकी याद आ गई। उसमें एक एक्टर रहता है जिसे काम इसलिए नहीं मिलता क्योंकि वो काम के लिए जवान नहीं समझा जाता है। फिर थक हार कर वह जिस्म फरोशी के धंधे में उतर आता है। उधर काफी नाम कमाता है और खुद की कम्पनी भी स्थापित कर देता है। उपन्यास का अंत जब होता है तो उधर भी उसे एक लड़की यह कहकर रिजेक्ट कर देती है कि उसे उससे जवान मर्द चाहिए। ऐसा ही कुछ इधर भी होता है। समय का चक्र चलता रहता है। एक की जगह लेने के लिए दूसरा आ जाता है। और शंका,डर और आत्मविश्वास की कमी जो पहले हमारे मन में थी वो बरकरार रहती है।
अच्छी कहानी है जो आज के ऑफिस के माहौल को दर्शाती है।
इस कहानी को आप प्रतिलिपि पर इधर जाकर पढ़ सकते हैं। कहानी को रेट करना और उस पर अपनी टिपण्णी देना न भूलियेगा।
सोनाली जरावा आदिवासियों के अध्यन के लिए पोर्ट ब्लेयर आई थी। पाँच दिनों के इस टूर में उसका गाइड मलय बनर्जी था। यहाँ आकर उसने अध्यन तो किया ही लेकिन समुद्र की लहरों को देखते हुए उसे अहसास भी हुआ कि उसकी ज़िन्दगी में समुन्दर के पानी की तरह है जो ऊपर से तो शांत, खूबसूरत नज़र आता है लेकिन भीतर ही भीतर छटपटाता रहता है।
उसका यह दुःख और यह छटपटाहट मलय भी महसूस करता है। लेकिन उसे यह दुःख क्यों है वह यह नहीं समझ पाता। वह सवाल भी करता है लेकिन उसे जवाब नहीं मिलता।
आखिर सोनाली को ऐसा क्यों लगता है? क्या दुःख है उसे? क्या मलय को बता सकेगी?
सोनाली एक पढ़ी लिखी लड़की है। उसके पास सब कुछ है। एक कमाने वाला पति जिसने उसे सब भौतिक सुविधायें दी हैं। बस उसके पास एक चीज की कमी है और वो है आजादी। उसके चारों ओर बंधन है और वो इन बंधनों की जकड़न महसूस करती है। ऐसा नहीं है कि वो इनसे निजाद नहीं पा सकती लेकिन ऐसा नहीं करती है। ऐसा क्यों है? यह सोचने का विषय है। वो सोचती भी है:
क्या वह सचमुच पति की जुटाई सुविधाओं की गुलाम बन गई है…क्या अब वह फोर बेडरूम के आलिशान मकान और लग्जरी गाड़ी के बगैर ज़िन्दगी नहीं जी सकती…
इन सवालों में कुछ हद तक सच्चाई तो है लेकिन शायद यही एक कारण नहीं है। समाज के विचार अभी भी उसके ऊपर हावी हैं और शायद वही उसे वह सब पाने से रोकते हैं जिसकी चाह उसके मन में है। वह कहती भी है:
फिर वह अपने भीतर स्त्री का क्या करे? औरत रगों में रोशनी दौड़ती है….जिसे प्यार और अपनेपन की दरकार है…
कहानी एक मोड़ पर आकर खत्म हो जाती है। इस बार सोनाली अपने कदम वापस खींच लेती है। लेकिन उसे अहसास है कि उसकी ज़िन्दगी में किस चीज की कमी है। उसने कुछ दिनों के लिए ही सही वह चीज पाई है और बहुत मुमकिन है कि कभी वो उस चीज को पाने के लिए कदम बढाए। सोनाली के साथ आगे क्या हुआ? यह मैं जरूर जानना चाहूँगा।
आंचल सिंह आज फिर क्रोधित है। उसे आज फिर उसके बॉस निखिल गुप्ता ने एक मेमो थमा दिया है। यह मेमो उसके कपड़ो के विषय में है। कब तक समाज के ठेकेदारों से उसे जूझना होगा। यही बात उसे परेशान कर रहा है। इसी टेंशन में वो अपनी दोस्त आशा को फोन करती है। आशा का कहना है कि वो उसके घर आये क्योंकि उसने कुछ प्लान किया है। वह उसे ऐसी जगह ले जाना चाहती है जहाँ उसकी टेंशन काफूर हो जाएगी।
आखिर आशा उसे कहाँ ले जाना चाहती थी?
एक लड़की जब से पैदा होती है उसे अनेक इज्जत के ठेकेदारों से रूबरू होना पड़ता है। घर से लेकर बाहर तक ऐसे अनेक लोग उसे मिलते हैं जो कि यह निर्धारित करना चाहते हैं कि उसकी ज़िन्दगी जीने का तरीका कैसा हो। उसके सिर पर संस्कार और इज्जत की टोकरी रखकर उससे अपेक्षा करते हैं कि वो ताउम्र उसे ढोती रहे। फिर चाहे वो खुद उन चीजों को न माने लेकिन एक औरत से अपेक्षा की जाती है कि वह यह सब माने वरना अंजाम बुरा होगा। यह रोका टोकी हमेशा से चलती रही है। यह कहानी भी इसी रोका टोकी को दर्शाती है।आजादी की चाह किसे नहीं होती लेकिन औरत को यह चुरानी पड़ती है।कहानी में एक जगह आंचल से उसके सहकर्मचारी कहते हैं:
मैंने गौर किया है, आप कभी-कभार ही ऐसी ड्रेस पहनकर आती हैं, रोजमर्रा की पोशाक अलग है। आप जो इतने गैप दे देकर पहनती हैं, उसे देखकर मैं अंदाजा लगा लेता हूँ, आपके पति कहीं बाहर गये हैं।
कर्मचारी का यह कथन ही आंचल की बेबसी दिखा देता है। उसके अपने घर में उसे अपने तरह से जीने की आज़ादी नहीं है। इसी आज़ादी को पाने के लिए वो बचपन से छटपटा रही है और न जाने कब तक छटपटाएगी। कहानी हमे एक दूसरी दुनिया में भी ले जाती है। ऐसी दुनिया जहाँ लोग रोज मर्रा की जिंदगी से इतना उकता चुके हैं कि रोमांच के लिए नई नई चीजें करते हैं। नई तरह की पार्टियाँ करते हैं। यह ऐसे लोग हैं जो कि समाज में एक तरह का नकाब ओढे घूमते हैं। इस तरह से समाज के ठेकेदारों के दोगलेपन को भी यह कहानी दर्शाती है।
वेटर ललित ने जब शिवांगी को बताया कि बीजू अब क्लब में नहीं आयेंगे तो शिवांगी के मन के किसी कोने में हल्का सा दुःख हुआ। शिवांगी लगा नहीं था कि उसके ऊपर इस खबर का ऐसा असर होगा।
आखिर कौन था यह बीजू?
महानगरों के जीवन इतने व्यस्त होते हैं कि वक्त ही नहीं मिलता। ऐसे में कुछ अनजाने से रिश्ते अक्सर ऐसी जगहों पर बन जाते हैं जहाँ रोजमर्रा का आना जाना होता है। यह रिश्ते कहीं भी हो सकते हैं: पार्क में, लोकल ट्रेन में या ऐसे बार में जहाँ आप रोज जाते हों।
जब मैं पार्क में घूमने जाया करता था तो ऐसे कई लोगों से पहचान हो गई थी। हम लोगों के बीच रिश्ता यह था कि रोज एक ही जगह आते थे और अभिवादन करते थे। न मैंने उनका नाम कभी जाना और न उन्होंने। हाँ, जब रूटीन टूटता तो बस पूछ लेते कि क्या हुआ था? कभी पता लगता कि वो बाहर थे या उनके रिश्तेदार आये थे। ऐसी ही जान पहचान लोकल में सफर के दौरान भी बन जाती थी।
ऐसे ही एक रिश्ते की यह कहानी है। यह कहानी विशेष इसलिए भी है क्योंकि यह एक औरत और आदमी के बीच के रिश्ते की है। अक्सर औरतों को पता रहता है कि कोई उनसे बात करने आ रहा है तो वो कुछ न अपेक्षा के साथ आ रहा होगा। ऐसे में ऐसे रिश्ते अगर बने जिसमें सामने वाला कुछ अपेक्षा न रखता हो तो वो अजीब और रहस्यमय तो लगेगा ही। कहानी कुछ ऐसी ही है।
कहानी में हम यह भी देखते है कि किस तरह से समाज ने औरत और मर्दों के लिए अलग अलग कानून बनाये हैं। एक जगह निम्न संवाद है:
“..कुछ लोगों को दफ्तर की कोई जिम्मेदारी है नहीं। बस लड़कियों पर गॉसिप करना इनका फैवरेट शगल है। मैं इसलिए यहाँ कम आती हूँ। कभी रमेश(साथ) हुआ तो आ गई।इसलिए गॉसिप से बची हूँ। देखती नहीं,औरतें, लड़कियाँ कितनी कम हैं यहाँ। क्यों आएँ लड़कियाँ यहाँ…? सारे शहर के शराबी यहाँ इकट्ठा हों, और लड़कियाँ रोज आएँ तो उनसे बड़ी ‘छिनाल’ कोई नहीं। हिप्पोक्रेट स्साले..।”
रजनी धाराप्रवाह बोलती जा रही थी।
शिवांगी उसे सुनकर हैरान थी। इतना कुछ भरा है उसके भीतर। मवाद फूट गया है। यह कोई नई रजनी है।
उपरोक्त कथन को पढकर ही हम रजनी की मनोदशा का अंदाजा लगा सकते हैं। रजनी ने आज बोला है क्योंकि दोस्त के सामने है। अक्सर नहीं बोलती क्योंकि उसे पता है कि न समाज बदलने वाला है और न ही सोच। इसलिए बार बार बोलने से भी क्या फायदा। यह रजनी की बेबसी को भी दर्शाता है जब वह किसी चीज को नियति मानकर अपने ही व्यवहार में बदलाव कर देती है फिर चाहे वह खुद गलत न हो। ऐसा करना कितना सही है कितना गलत यह तो नहीं कह सकता लेकिन हाँ आप पढकर सोच तो सकते हैं कि अपने लेवल पर इसे ठीक करने के लिए आप खुद क्या कर सकते हैं।
गीताश्री जी का संग्रह मुझे बहुत पसंद आया। इन पाँच कहानियों की नायिकायें अपने अपने लेवल पर अपनी आजादी के लिए छटपटा रही हैं। जहाँ रचना और असावरी अपनी सोच के बंधन से आज़ादी चाहती हैं वहीं रंजना ,सोनाली,आंचल, शिवांगी और रजनी समाज की डाली बेड़ियों से आज़ादी की चाह रखती हैं। जब हम किसी सशक्त नारी की छवि मन में लायेंगे तो हमारे भीतर जो छवि उभरेगी उससे इस संग्रह की सभी नायिका मैच करेंगी। सभी पढ़ी लिखी हैं, सभी के पास नौकरी है, सभी आजाद खयाल भी हैं लेकिन इस सबके बावजूद सभी एक तरह की आज़ादी के लिए छटपटा रही हैं। अपने लिए एक ऐसा कोना ढूँढ रही है जहाँ वो बिना बंधन के,स्वछन्द अपने मन की उड़ान भर सकें। कई बार जो दिखता है वो होता नहीं है। हम जो सोचते हैं असल में ऐसा होता नहीं है। समुद्र की शांत सतह के नीचे जो छटपटाहट रहती है, वैसी ही छटपटाहट इन आधुनिक नायिकाओं में देखने को मिलती है। यह छटपटाहट कब शांत होगी इसके विषय में मैं तो कुछ कहने में असमर्थ हूँ।
हाँ, इतना जरूर कहूँगा कि आप इन नायिकाओं से मिलिए और इनकी छटपटाहट महसूस कीजिये ताकि शायद आप खुद को बदल सकें। रचना,असावरी,रंजना,सोनाली,आंचल,शिवांगी,रजनी सभी हमारे आस पास हैं। आप इनसे मिलेंगे तो इन्हें पहचानेगे। फिर शायद कुछ बदलाव हो और फिर अपने कोने की तलाश में इन्हें यहाँ वहाँ न भटकना पड़े।
अगर आपने यह संग्रह पढ़ा है तो इसके विषय में अपनी राय मुझे टिप्पणी के माध्यम से बताईयेगा।