फेलूदा एण्ड कम्पनी – सत्यजित राय

किताब मई 9 2020 को बीच पढ़ी गयी

संस्करण विवरण:

फॉर्मेट:
पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 138 | प्रकाशक: हिन्द पॉकेट बुक्स | आईएसबीएन: 978-9-353-49035-5 |  श्रृंखला: फेलूदा | मूल भाषा: बांग्ला
फेलूदा एण्ड कम्पनी - सत्यजित राय
फेलूदा एण्ड कम्पनी – सत्यजित राय


फेलूदा एण्ड कम्पनी
में फेलूदा श्रृंखला की दो कृतियों को एक साथ प्रकाशित किया गया है। संग्रह की पहली कृति बम्बई का दस्यु है जो कि ८० पृष्ठों से ऊपर का लघु-उपन्यास  है, वहीं दूसरी कृति गोसाईंपुर की सरगर्मी भी 50 पृष्ठों से ऊपर की उपन्यासिका है। इस पोस्ट में मैं इन दोनों रचनाओं के ऊपर ही बात करूँगा।
बम्बई का दस्यु (4/5)
पहला वाक्य:
लालमोहन गाँगुली उर्फ़ जटायु के हाथ में मिठाई का डिब्बा देखकर मैं आश्चर्यचकित हो गया।

कहानी:
इस बार जब लालमोहन गाँगुली उर्फ़ जटायु फेलूदा के घर पहुँचे तो वह बहुत खुश लग रहे थे। खुश होना बनता भी था क्योंकि उनकी दिल की मुराद पूरी जो होने वाली थी। जटायु की यह दिली इच्छा थी कि उनके उपन्यास पर हिन्दी  फिल्म बने और अब यह इच्छा पूरी होने वाली थी। उनके उपन्यास बम्बई के दस्यु के ऊपर फिल्म बनना निर्धारित हो गया था और अब वो फेलूदा और तोपसे को लेकर मुंबई जाना चाहते थे।
फिल्म बनते देखने को लेकर तीनो ही उत्साहित थे। यह एक अच्छी छुट्टी होने वाली थी।
लेकिन फिर परिस्थिति ऐसी हो गयी कि एक कत्ल के सिलसिले में जटायु का नाम आ गया। 
यही नहीं पुलिस का मानना था कि जाने अनजाने में जटायु ने एक कीमती हार की तस्करी को भी अंजाम दे दिया था। अब फेलूदा को इस मामले में सुलझाना था।
आख़िर किसके कत्ल में लाल मोहन गाँगुली का नाम आया था?
यह तस्करी का क्या मामला था और जटायु इस मामले से कैसे जुड़े हुए थे?
क्या फेलूदा इस मामले को सुलझा पाया?
मुख्य किरदार:

लालमोहन गाँगुली उर्फ़ जटायु – रहस्य रोमांच कथाओं के लेखक 
प्रोदोष मित्तर  उर्फ़ फेलूदा – एक प्राइवेट डिटेक्टिव 
तपेश रंजन मित्तर उर्फ़ तोपशे – फेलूदा का चचेरा भाई
पुलुक घोषाल – हिन्दी फिल्मो के निर्देशक 
त्रिभुवन गुप्त -जटायु के उपन्यास पर आधारित  फिल्म के डायलॉग लेखक 
वारेन्द्र सान्याल – एक बंगाली प्रोडूसर जो लालमोहन गाँगुली के उपन्यास पर फिल्म बनाना चाहते थे 
विक्टर पेरूमल – फिल्म के स्टंट डायरेक्टर 
इंस्पेक्टर पटवर्धन – सी आई डी का इंस्पेक्टर जो हत्या की तहकीकात कर रहा था 
मिस्टर गोरे – फिल्म के प्रोडूसर
निम्मो – सान्याल का आदमी 

मेरे विचार:

बम्बई का दस्यु सत्यजित राय द्वारा लिखा हुआ फेलूदा श्रृंखला का लघु-उपन्यास है। इस लघु-उपन्यास के शीर्षक की एक खास  बात यह है  एक तरफ यह इस कृति की कहानी बताता है,दस्यु मतलब डाकू या लुटेरा होता है और एक तरह से यह उपन्यास एक दस्यु  की कहानी ही, वहीं दूसरी तरफ यह उपन्यास में मौजूद एक किताब का शीर्षक भी रहता है। यह किताब जटायु का लिखा उपन्यास है जिसे लेकर फिल्म बनाई जा रही है। एक तरह से कहा जा सकता है कि अगर जटायु ने बम्बई का दस्यु न लिखी होती तो उसके जिंदगी में बम्बई का असल दस्यु न आता। उपन्यास में एक बार जटायु भी यही इच्छा जताता हुआ दर्शाया गया है।
लाल मोह्न बाबू हमारे कमरे में हमारे साथ बैठे रह गये और बार-बार सिर्फ यही कहने लगे,”किस मनहूस घड़ी में मैंने किताब का पैकेट लिया था!” फिर वर्तमान संकट के मूल कारण पर विचार करते हुए बोले, “किस मनहूस घड़ी में हिन्दी फिल्म के लिए कहानी लिखी थी!” और सबसे अंत में बोले,”किस मनहूस घड़ी में रहस्य-रोमांच का उपन्यास लिखना शुरू किया था!” (पृष्ठ 58) 
फेलूदा श्रृंखला के उपन्यासों की एक खासियत यह भी  होती है कि फेलूदा और उसके सथियों के साथ पाठक भी  कई जगह घूम लेता है। इस उपन्यास की शुरुआत भी एक यात्रा से होती है। हाँ, यह उपन्यास इस मामले में अलग है कि इस बार यात्रा फेलूदा के केस के कारण न होकर जटायू के कारण होती है।  फिर किस तरह मुख्य किरदार  एक तस्करी के मामले में फंसते हैं और कैसे उससे निकलते हैं यह देखना रोचक रहता है। 
उपन्यास में रहस्य अंत तक बना रहता है। कत्ल के होने के बाद बीच बीच में ऐसी घटनाएं होती रहती हैं जो पाठक को पृष्ठ पलटते जाने के लिए मजबूर कर देती हैं।

उपन्यास में न केवल रहस्य है बल्कि हिन्दी फ़िल्मी दुनिया का चित्रण भी किया गया है। सत्यजित राय फिल्मकार थे। उन्होंने हिन्दी में भले ही दो फिल्में (शतरंज के खिलाड़ी  और सदगति) बनाई हो लेकिन वह हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के तौर तरीकों से बाखूबी वाकिफ रहे होंगे। इस उपन्यास में उन्होंने इसी फिल्मी दुनिया को दर्शाया है। फेलूदा के माध्यम से वह इस पर टिप्पणी करते हैं। हिन्दी और बंगाली फिल्म इंडस्ट्री  के बीच के फर्क को भी उन्होंने कई बार दर्शाया है। अभी भी हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में इतना बदलाव नहीं आया है। 

जटायु बहुत दिनों से सपना देख रहे थे कि उनकी किसी कहानी पर एक फिल्म बने। बांग्ला फिल्म में पैसा नहीं मिलता है, अतः हिन्दी की ओर ही उनका झुकाव था।
(पृष्ठ 10)
फेलूदा ने कहा, “कहानी लेखक की हैसियत से यदि आप नाम की उम्मीद रखते हो तो मुम्बई में आपके लिए कोई जगह नहीं। यहाँ कहानी लिखी नहीं जाती, तैयार की जाती है, मेनूफैक्चर की जाती है- जिस तरह बाज़ार की और और चीजें मैनूफैक्चर की जाती हैं।…पैसा, मिल रहा है, बस इतना ही; जबान पर ताला लगाकर बैठे रहिये। सम्मान की बात भूल जाइए।”
“हूँ….।” लालमोहन बाबू चिंतित हो उठे।”तो फिर बंगाल में मान और बम्बई में ‘मनी’ मिलती है?”
“सही बात है।”- फेलूदा ने कहा।
(पृष्ठ 20)
उपन्यास में जटायु हो और कॉमेडी न हो तो यह बात होनी मुमकिन नहीं है। जटायु के किरदार का कॉमिक रूप इधर दिखलाई देता है। वह अपनी हरकतों से हँसाता है और जब फेलूदा उस पर चिढ़ता है तो उसके लिए बुरा भी लगता है।
उपन्यास में कमी तो नहीं है लेकिन एक जगह प्लाट होल मेरे ध्यान में आया था। उपन्यास की शुरुआत में ही बांग्ला प्रोडूसर का नाम जटायु फेलूदा को बताता है लेकिन बाद में फेलूदा उससे नाम के विषय में पूछता है तो वह नाम पता न होने की बात कहता है। फेलूदा का नाम यूँ भूलना अटपटा लगता है।

..मैंने उसे यह बताया नहीं कि मार के गाइड टू इंडिया और फेलू मित्तर के गाइडेंस के बिना यह काम नहीं हो पाता।”
“यह सज्जन बंगाली है?”
“येस सर! वारेन्द्र सान्याल। बोली में पंछहा खिंचाव है।”
(पृष्ठ 16)
“अच्छा, मिस्टर सान्याल का पहला नाम तो आपको मालूम नहीं है?”
“नहीं, इसके बारे में मैंने पूछताछ नहीं की थी।”
(पृष्ठ ५१)
इस एक छोटी सी बात को छोड़ दें तो लघु-उपन्यास मुझे पसंद आया। अगर रहस्यकथाओं में आपको रूचि है तो यह आपको यह निराश नहीं करेगा।

गोसाईंपुर की सरगर्मी (4/5)


पहला वाक्य:
“गोसाईंपुर में आपका कोई परिचित आदमी रहता है न?” रहस्य रोमांच के उपन्यासकार जटायु अर्थात लालमोहन गाँगुली से फेलूदा ने पूछा।

कहानी:
श्यामलाल मल्लिक गोसाईंपुर में अपने बूढी माँ के साथ रहा करता थे। मल्लिक खानदान के लोग कभी गोसाईंपुर के जमींदार हुआ करते थे। श्यामलाल मल्लिक तक आते आते जमींदारी तो चली गयी लेकिन श्यामलाल मल्लिक ने कलकत्ते में व्यापार कर काफी रकम इकट्ठा कर दी थी। अब सब कुछ अपने बेटे के सुपुर्द कर वह गोसाईंपुर में अपने दिन गुजार रहे थे। 

जब किसी ने श्यामलाल को मारने की धमकी वाला खत भेजा तो श्याम के बेटे जीवनलाल को चिंता हुई। कोई श्यामलाल को उसके पुरखो के पापों की सजा देना चाहता था। इसके बाद कुछ ऐसी परिस्थितयाँ हुई कि जीवनलाल  को यकीन हो गया कि धमकी देने वाला अपनी धमकी पर अमल करने की इच्छा रखता है। 
ऐसे में जीवनलाल ने प्रोदोष मित्तर यानी फेलूदा को मामला सौंपने का मन बनाया। जीवनलाल चाहता था कि
फेलूदा गोसाईंपुर आये और इस मामले की तहकीकात कर धमकी भेजने वाले को उजागर करे। 

आखिर श्यामलाल को कौन मारना चाहता था?
क्या फेलूदा सच का पता लगा पाया?

मुख्य किरदार:
 
जटायु उर्फ़ लाल मोहन गाँगुली –  रहस्य रोमांच उपन्यासों के कथाकार 
प्रदोष मित्तर उर्फ़ फेलूदा – एक प्राइवेट जासूस 
तपेश रंजन मित्तर उर्फ़ तोपसे – फेलूदा का चचेरा भाई 
तुलसीचरण दास गुप्त – एक रिटायर्ड अध्यापक जो कि गोसाईंपुर में रहते थे और जटायु के दोस्त थे
दुर्लभ मल्लिक – गोसाईंपुर का जमींदार 
श्यामलाल मलिक – दुर्लभ का बेटा 
जीवनलाल- श्यामलाल का बेटा 
भोलानाथ – श्याम लाल का मुनीम 
नवीन- जीवनलाल का नौकर 
मृगांक भट्टाचार्य – गोसाईंपुर में रहने वाला व्यक्ति जो कि आत्माओं से बातें कर सकता था 
नित्यानंद – मृगांक का भांजा 
सुधाकर प्रामाणिक – गोसाईंपुर का पुलिस दरोगा  
बेनीमाधव – गोसाईंपुर में रहने वाला एक माईम आर्टिस्ट 
रसिक चक्रवर्ती – वैद्य 

मेरे विचार
गोसाईंपुर की सरगर्मी फेलूदा श्रृंखला की एक उपन्यासिका है।   इस कहानी में फेलूदा, तोपसे और जटायु केस के सिलसिले में बंगाल के एक गाँव गोसाईंपुर पहुँच जाते हैं। गोसाईंपुर एक गाँव जरूर है लेकिन इधर श्यामलाल बेनीमाधव, मृगांक  जैसे रोचक किरदार मौजूद हैं। लगभग पचास पृष्ठों और आठ अध्यायों में विभाजित यह कहानी आपको शरुआत से ही बाँध लेती है और आप अंत तक इसे पढ़ते चले जाते हैं।
कहानी का रहस्य अंत तक बना रहता है। शक के घेरे में कई लोग आते हैं। और असल बात क्या है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल ही रहता है। कहानी क्योंकि  गाँव में बसाई गयी है तो बंगाल के गाँव की छोटी सी झलक भी इसमें दिखती है। यह झलक थोड़ी ज्यादा होती तो और अच्छा होता। मल्लिक खानदान चूँकि जमींदार के परिवार से आता था तो इस प्रथा के ऊपर भी सरसरी टिप्पणी की गयी है। दुर्लभ मल्लिक का किरदार मुझे रोचक लगा। उसके जीवन के इर्द गिर्द अगर कोई उपन्यास लिखा गया होता तो मैं उसे जरूर पढ़ता। बंगाल के जमींदारों के जीवन को केंद्र बनाकर अगर कोई उपन्यास लिखा गया है तो उसके विषय में मुझे जरूर बताइयेगा। मैं उसे पढ़ना चाहूँगा।  श्यामलाल की खब्त एक अलग कोण इस कहानी को दे देती है। ऐसे किरदार मैंने जीवन में ज्यादा देखे नहीं हैं। मैं जरूर एक दो को देखना चाहूँगा।

लाल मोहन बाबू की कॉमेडी जो कि फेलूदा श्रृंखला की खासियत है वह भी इसमें थोड़ा बहुत मौजूद है। उनकी हरकतें हमेशा की ही तरह गुदगुदाती हैं। फेलूदा श्रृंखला की कहानियों में जटायु न हों तो श्रृंखला पढ़ने का मज़ा आधा ही हो जाता है। 

उपन्यास गाँव-शहर में बसे अन्धविश्वास पर भी करारी चोट करता है। लोग कई बार भावना में बहकर ऐसी चीजों पर विश्वास करते हैं जिनका कोई अस्तित्व नहीं होता है।  इस कारण कई लोग ऐसे ठगों का शिकार बन जाते हैं जो कि उनकी भावनाओं को दोहन करते हैं। हबाबाओं द्वारा ऐसे ठगे जाने की खबर आज भी आम है। हमे समझना होगा कि अगर जो हम सुनना चाहते हैं वो कोई हमे सुना रहा है तो इसका ,मतलब यह नहीं है कि वो सच बोल रहा है।  हमे ऐसे लोगों से बचकर रहने की जरूरत है।
 
अंत में यही कहूँगा कि फेलूदा एंड कम्पनी में मौजूद दोनों ही कृतियों: बम्बई का दस्यु और गोसाईंपुर की सरगर्मी  ने मेरा भरपूर मनोरंजन किया।

फेलूदा श्रृंखला के उपन्यासों में  फेलूदा और उसके साथियों के साथ न केवल अलग अलग जगह घूमते  हैं बल्कि जगहों के हिसाब  से ये लोग अलग अलग तरह का भोजन भी करते हैं। अगर आप मेरी तरह भोजन के शौक़ीन हैं तो आपको भोजन के यह  विवरण पसंद आएंगे। किताब में मौजूद कृतियों में हमारे मुख्य किरदार अलग अलग परिवेशों में घूम रहे हैं तो भोजन  भी उसी हिसाब से रखा गया है। यह देखना भी मेरे लिए रोचक था।
 मेरे हिसाब एक अच्छी रहस्यकथा की यह खासियत होती है कि लेखक कहानी के बीच में कुछ ऐसे लिख देता है जो पाठक को उस वक्त तो गैर जरूरी लगता है लेकिन बाद में वही बड़ा क्लू साबित होता है। जब ऐसा होता है तो पाठक को पृष्ठ पलट कर देखना पड़ता है कि लेखक ने सच में ऐसी बात कही थी या नहीं। जब मेरे साथ ऐसा होता है तो पाठक के रूप में मेरा लेखक की तारीफ़ करने को मन कर जाता है। इन दोनों कृतियों में भी ऐसा होता है। फेलूदा जब आखिर में चीजों को साफ़ कर रहा होता है तो वह कुछ ऐसी चीजें बताता है जिन्हें पढ़कर आपके चेहरे पर मुस्कान आ जाती है क्योंकि पढ़ते हुए आपने उस चीज को नजरअंदाज कर दिया था।  यह लेखक की कामयाबी है और  इसलिए मेरे नजर में दोनों  एक अच्छी रहस्य कथाएँ हैं। अगर आप रहस्यकथाओं के शौक़ीन हैं तो इन्हें पढ़कर आप निराश नहीं होंगे।
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किताब के प्रति अपने विचारों से अवगत करवाना नहीं भूलियेगा।
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© विकास नैनवाल ‘अंजान’

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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9 Comments on “फेलूदा एण्ड कम्पनी – सत्यजित राय”

  1. जी सही कहा आपने,
    मुझे बचपन मे रहस्य कथाओ मे रुचि नही थी। यह तो Detective Conan देखने बाद जागी।

    जो चैनल आज Fox life है वह पहले Fox history हुआ करता था। उसपर 1984 का शेरलॉक होल्मस सीरीज हिंदी मे दिखाई जाती थी।

    जो पहला केस मैने शेरलॉक होल्मस का देखा था वह था The Problem of the Thor Bridge और उसने मेरे होश उड़ा दिए थे। ऐसे उस समय मैं एक बच्चा था पर कातिल का पता न लगा पाने मे मुझे बिल्कुल भी दुःख नही हुआ था। जब शेरलॉक होल्मस ने अंत मे सब खुलासे किए तो मज़ा ही आ गया था।

    इसलिए मुझे आज भी कातिल या ट्रिक्स का पता लगाने से ज्यादा मज़ा लेखक द्वारा चकमा खाने मे आता है।

    1. जी मेरा भी यह विचार रहता है और इसलिए मैंने कहा यह लेखक की जीत रहती है कि सब कुछ आपके सामने देकर भी वह रहस्य को छुपा जाये। मौका लगे तो इस किताब को भी पढ़िएगा। आपको मजा आएगा।

    1. इस पुस्तक के विषय में मुझे कोई आईडिया नहीं है। शुक्रिया।

    1. जी मेरे पास ई बुक नहीं है। मैं खरीद कर ही किताब पढ़ने की सलाह दूँगा।

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