किताब परिचय:
पुस्तक अंश
दर्शन करके या मेरा अवलोकन करके उनको भले ही लाभ हो जाए लेकिन मेरा समय खराब हो जाता है।
मेरी हमेशा से ऐसी मान्यता रही है कि जिस से भी मिलने जाओ तो समय निश्चित कर लो। क्या पता वह व्यक्ति किसी और जरूरी कार्य में व्यस्त हो।
मैंने अपने कर्मचारियों को कह रखा था कि किसी भी कंपनी का कोई भी रिप्रेजेंटेटिव मेरे से मिलने आ जाए तो उससे पूछना कि क्या कोई अपॉइंटमेंट है।
अगर नहीं है तो से बाहर का रास्ता दिखा देना। आम तौर पर उनकी यही कोशिश होती थी कि किसी फिजूल व्यक्ति को मेरे पास ना भेजें।
अलग-अलग कंपनियों के रिप्रेजेंटेटिव हमारे दफ्तर आते थे। कैटलॉग लाते थे। सैंपल लाते थे। और हमें समझाते थे कि उनके प्रोडक्ट को हम अपने बनने वाली इमारतों में इस्तेमाल करें। उनकी पूरी कोशिश होती थी कि हमारे जैसे, कम पढ़े लिखे आर्किटेक्ट को बहुत अच्छे से समझा दे कि प्रोडक्ट में क्या खूबियाँ हैं। उनके सीनियर उनको अंग्रेजी में रट्टा लगवा देते थे और वह धाराप्रवाह अंग्रेजी में एक सिरे से दूसरे सिरे तक सारी कथा सुना देते थे।
उनको यह भी नहीं पता होता था कि बोल क्या रहे हैं।
फिर भी अगर हम ना माने तो उनका ऑफर आता था।
कि सर हम आपको कितना पर्सेंट कमीशन दे देंगे।
अब मैं तो मैं ठेकेदार से कमीशन लेता नहीं था। ना इन मैटेरियल सप्लायर वालों से।
तो मेरा कोई इंटरेस्ट नहीं होता था इनके साथ समय खराब करने का।
एक दिन इलेक्ट्रिक स्विच की कंपनी का रिप्रेजेंटेटिव बड़ी अनुनय विनय के बाद मेरे दफ्तर में मेरे से मिलने में सफल हो गया।
मैंने उसको कुर्सी पर बिठाया और बोला फरमाइए।
उसने अपने सैंपल दिखाए, पंपलेट दिए, और धाराप्रवाह अंग्रेजी में धड़ाधड़ बोलना शुरु कर दिया।
मैं चुप करके सुनता रहा। जब उसकी बात खत्म हो गई। मैंने उसको बोला। मुझे अंग्रेजी ठीक से समझ नहीं आती। तू मुझे सारी बात आराम आराम से हिंदी में समझाएगा। तो शायद खोपड़ी में कुछ घुसे। वह मुझे हैरत से देखने लगा। हिंदी में तो उसने रट्टा लगाया नहीं था।
और ऐसा विचित्र प्राणी, यह विचित्र आर्किटेक्ट, उसने देखा नहीं था जो कह दे कि उसे अंग्रेजी नहीं आती
फिलहाल आपको याद हो पुराने जमाने में जो काले काले बिजली के स्विच लगते थे उसमें एक लीवर को हम ऊपर नीचे करते थे। उसके बाद जो स्विच आए उसमें पियानो के बटन की तरह, ऊपरी हिस्से पर हम दबाव डालकर, स्विच को ऑन या ऑफ करते हैं।
इसी वजह से इन्हें पियानो स्विच भी कहते हैं। अब बड़ी-बड़ी कंपनियों को लगने लगा 7 या 8 रूपये का स्विच बेचकर तो ज्यादा कमाई हो नहीं रही। तो क्यों ना बढ़िया क्वालिटी कहकर महंगे स्विच बेचे जाएं। और उन्होंने डिजाइन में थोड़ा परिवर्तन करके मटेरियल में थोड़ा परिवर्तन करके उससे 10 गुने दाम के स्विच निकाल दिए।
और अपने रिप्रेजेंटेटिव को आर्किटेक्ट के दफ्तर में समझाने के लिए दौड़ा दिया।
हम बात कर रहे थे स्विच वाले प्रतिनिधि की।
मैंने उससे पूछा तेरी कंपनी का महंगा स्विच क्यों लगाऊ।
7 रूपये का स्विच आता है तू 70 का बेच रहा है, क्या फायदा।
बोला सर यह पॉलीकार्बोनेट का बना है।
मैंने कहा तो क्या हुआ।
वह बोला बाकी स्विच यूरिया के बनते हैं।
मैंने कहा फिर क्या हुआ। कहता हैं सर वो टूट जाएंगे, यह नहीं टूटेगा।
मेरी टेबल पर लगभग 1 किलो वजन का लोहे का पेपरवेट रखा है। उसे उठाने की कोशिश करो तो इतना भारी है कि लगता है टेबल पर चिपक गया है। दरअसल पेपर वेट बहुत भारी नहीं होते।
उनको सिर्फ उड़ते हुए कागज को रोकना होता है, यह कह सकते हैं, कागज को उड़ने से बचाना होता है।
मैंने उसको कहा यह पेपरवेट देकर मारू तेरे स्विच पर, तो नहीं टूटेगा??
बोला सर टूट जाएगा। मैंने कहा फिर दीवार में लगा हुआ 7 रूपये का स्विच अपने आप कैसे टूट जाएगा।
मैंने कहा और फायदा बता।
बोला सर इसमें सिल्वर कॉन्टेक्ट्स लगे हैं, बाकी स्विच में पीतल के होते हैं।
मैंने कहा तुम खामखा स्विच में चांदी लगा दोगे तो मैं अपने क्लाइंट का नुकसान क्यों करवा दूँ। स्विच के अंदर चांदी लगी हो या पीतल। बाहर से तो कुछ पता नहीं चलेगा। स्विच की चांदी का मेहमानों पर भी कोई रुतबा नहीं पड़ेगा।
मैंने उसको बोला चांदी लगाने का फायदा बताओ। अब उसको तो ट्रेनिंग ठीक से दी नहीं गई थी, चुप हो गया।
वास्तव में अगर उस मूर्ख ने यह सवाल अपने सीनियर से पूछा होता तो वह टेक्निकल लोग उसको बता पाते।
सिल्वर कांटेक्ट के कारण स्विच के अंदर स्पार्किंग से कार्बन कंटेंट कम बनता है और इस वजह से ऐसे स्विच ज्यादा दिनों तक काम देते हैं।
यही ऐसा कारण है कि मैं कंपनी के नुमाइंदों से मिलने में गुरेज करता था।
मुझे कमीशन खानी नहीं… इन मूर्खों को कुछ आता नहीं…मैं इन लोगों को ट्रेन करने में अपना समय क्यों खराब करूँ।
इसी तरह एक साइट पर काम चल रहा था। वॉलपेपर वाले को बुला रखा था।
उसने बोला सर अपना विजिटिंग कार्ड दे दो। मैंने कहा क्या करेगा। सर आप के दफ्तर में मिलूँगा। मैंने कहा यहीं बता दे क्या मामला है। मुझे कोने में लेकर वो बोला… सर हम आर्किटेक्ट को 10 पर्सेंट कमीशन देते हैं। मैंने कहा कुछ बढ़ा सकता है। बोला 15 तक दे दूँगा।
मैंने कहा ठीक है। उसने कहा थोड़ा सा भुगतान दिलवा दो एडवांस। हमारे क्लाइंट जैन साहब थे। मैंने उनको कहा इसको थोड़ा सा पेमेंट दे दो। उस बंदे को कहा पूरी पैमाइश तूने कर ली है। टोटल बिल बना दे और उसमें से 15 परसेंट घटा दे।
बोला सर वह क्यों।
मैं बोला तूने ही तो कहा था हम आर्किटेक्ट को 15 पर्सेंट कमीशन देते हैं। मुझे तो चाहिए नहीं।
यह सारा डिस्काउंट मेरे क्लाइंट को दे दे।
वह मुझे ऐसे देखने लगा। जैसे मैं कोई दूसरी दुनिया का प्राणी हूँ। अब जैसा भी हूँ, वैसा ही हूँ।
ना जवानी में बेईमानी का पैसा मुझे आकर्षित कर पाया।
ना अब।
मेरी कोशिश नहीं होती है कि कहीं से कुछ लूट लो।
कुदरत ने शायद मेरे मटेरियल में कुछ इसी प्रकार के जींस डाल दिए हैं।
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किताब लिंक: अमेज़न
लेखक परिचय:
अशोक गोयल वास्तुकला और आंतरिक डिजाइन पर पुस्तकों के लेखक हैं। उनकी अब तक 2 लाख से अधिक किताबें बिक चुकी हैं। द इकनोमिक टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, सरिता, मुक्ता, गृहशोभा, ब्लिट्ज, ट्रिब्यून, नवभारत टाइम्स जैसी असंख्य पत्रिकाओं एवं अख़बारों में वास्तुकला आतंरिक सजावट, योजना और अन्य सामाजिक आर्थिक विषयों पर उनके लेख प्रकाशित हुए हैं।
उन्होंने बड़ी संख्या में शोरूम, घरों और कारखानों को डिजाईन किया, सजाया और सुपरविजन किया। तीन दशकों से अधिक समय से पत्राचार के माध्यम से आंतरिक सजावट का ज्ञान प्रदान करने वाली अकादमी ऑफ़ इंटीरियर डेकोरेशन के संस्थापक और निदेशक भी वो रहे हैं।
वह प्रवेश परीक्षा के लिए अध्ययन सामग्री तैयार करने में विशेषज्ञ हैं।
अशोक दिल्ली वाला शो नाम से यह यू ट्यूब चैनल पर संचालित करते हैं।
आपने जो अंश इस पोस्ट में दिया है, वह अत्यन्त प्रभावी है विकास जी। यदि संपूर्ण पुस्तक ऐसी ही है तो निश्चय ही पठनीय है। परिचित करवाने हेतु आभार।
अंश आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा। किताब मुझे भी रोचक लगी थी तो सोचा इसे साझा किया जाना चाहिए।