गजानन रैना जब लिखते है अनूठा लिखते हैं। साहित्य को देखने की उनकी अपनी एक नजर है। आज उन्होंने लेखकीय टेल पर कुछ लिखा है। आप भी पढ़ें:
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पोकर या फ्लश के खेल में जितना महत्व पत्तों का होता है ,उतना ही अपने चेहरे के भावों पर नियंत्रण का भी, ताकि सामने वाला आपके पत्ते भाँप न ले । शातिर खिलाड़ियों के हाथ में टाप के पत्ते हों या कूड़ा, चेहरा एक सा रहता है, भावहीन ! इसीलिए भावहीन चेहरे के लिये शब्द बना, पोकर फेस!
मगर ऐसे शातिर खिलाड़ियों के भाव भांप लेने वाले, उनसे भी बढकर शातिर खिलाड़ी भी होते हैं । लगभग हर खिलाड़ी की एक हरकत होती है जो वो अच्छे या रद्दी पत्ते आने पर वो अनजाने कर बैठता है, जैसे टेबल छूना या कान की लौ खींचना या नाक मसलना । ऐसी हरकतों को ” टेल ” कहा जाता है ।
कई लेखकों के लेखन की एक ट्रेडमार्क पहचान होती है। सामाजिक उपन्यासकार राजहंस ‘ था ‘ का खिजाने की हद तक इस्तेमाल करते थे । चंदर वर्तमान की कथा कहते कहते भूतकाल की क्रियाओं का उपयोग करते थे ।
एक शानदार अनाम लेखक, जिसने सूरज और भारत के नाम से अधिकांशत: लेखन किया , की पहचान थी, ” घिघिया कर बोला “, ” दाँत निकाल दिये “, ” धुले धुले से पाँव”, ” एक अच्छी सी मुसकराहट ” आदि।
मनोज के पात्र होठों को दाँतों के नीचे दबाये रहते या आँसुओं को रोकने की कोशिश में होंठ दाँतों से काट काट कर लहूलुहान कर लेते।
अब बात एक परंपरागत साहित्यकार की!
प्रख्यात व्यंग्यकार रवीन्द्र नाथ त्यागी को ‘ जो है ‘ /’ जो होता है’ से गजब लगाव था । उनकी नब्बे प्रतिशत से अधिक रचनाओं में यह देखा जा सकता है ।
यथा, ” पिता जो है, वह एक सदा सशंकित जीव होता है। “
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