गजानन रैना साहित्य की विभिन्न विधाओं पर अक्सर लिखते रहते हैं। इस बार नोबेल पुरस्कार विजेता लुईस ग्लूक की कविताओं पर उन्होंने अपने खास अंदाज में लिखा है। आप भी पढ़िये।
लुईस ग्लूक |
1943 में न्यूयार्क में पैदा हुई लुइस ग्लूक ने कविता के लिये नोबल जीता था।
ग्लूक की कवितायें अपने समय की आहट को भले से पहचानती हैं ।
उनकी कविता के कई छोर हैं । एक को पकड़ें तो आप प्रेम कविता के सामने होते हैं, वहीं दूसरे छोर से पकड़ने पर आप खुद को एक दु:स्वप्न के सामने पाते हैं।
इस बेचैन कवयित्री के रचना संसार में आपकी कभी मुलाकात होती है किसी आशंका से, किसी अनुत्तरित प्रश्न से , कभी किसी अनजानी पदचाप से तो कभी किसी भूली बिसरी याद से।
दैहिक स्वतंत्रता को झंडे की तरह फहराते, चालू नारी विमर्श के नारों से बाहर निकल कर ग्लिक मुद्दे को एक विरल सूक्ष्मता के साथ पकड़ती हैं ।
अपने सृजन में वे कभी-कभी क्लिष्टता का आलाप भले ले लें, अंततः उतरतीं सहजता के सम पर ही हैं।
रसज्ञ पाठकों और विद्वान आलोचकों, दोनों, का मानना है कि, ‘ एकिलीज हील ‘ के साथ, ‘ एरेरैट ‘ दुख , भूख, क्रूरता और मृत्यु पर उनकी लिखी सर्वाधिक प्रभावशाली कविताओं का संग्रह है।
ग्लूक अपनी कविताओं में भाषा का ऐसे इस्तेमाल करती हैं, जैसे कोई निहायत ठंडे दिमाग वाला कातिल अपने चाकू का इस्तेमाल करता है, या कोई माहिर लेकिन असंपृक्त सर्जन।