किताब परिचय
अपनी पहली साँस से लेकर अंतिम साँस तक यूँ तो हर कोई अपनी एक नियत जीवन यात्रा से गुजरता है। चाहे वो उतार-चढ़ाव वाली हो, घुमावदार हो या सीधी सपाट। इस मायने में हर इंसान सैलानी ठहरा। लेकिन ताज्जुब ये कि अंतिम पड़ाव तक पहुँच जाने पर भी उनमें से अधिकतर ये जान नहीं पाते कि वो एक सुहाने सफ़र का हिस्सा थे। वे बस चलते चले जाते हैं, ऐसे जैसे चलता रहता है कोल्हू का बैल कोई। इस चलने में तेल तो बनता रहता है, पता पर उनको चलता नहीं, ना ही उनकी देह के काम आ पाता है।
दुनिया मगर इन जैसों के काँधों पर बैठ नहीं चलती। अपने धुर विगत इतिहास से लेकर अब तक, वो चलती-बढ़ती रही है उन खोजी-मनमौजी घुमंतु लोगों की बदौलत जो दूर-दूर तक ना जाने किस अनंत की तलाश में अथक रास्ते नापते रहे हैं। हमारे पुरखों की उन यात्राओं से ही हमारी दुनिया का ये वर्तमान नक्शा उजागर हुआ है।
मेरी यह यात्रा भी उनके नक्शे-कदम पर चलकर उनकी यात्रा को एक कदम और आगे बढ़ाने की एक कोशिश थी। इस यात्रा वृत्तांत में दुनिया के इसी नक्शे पर ठीक दिल की जगह बसे देश तुर्की का बखान है। मैं उम्मीद करती हूँ ग्लोब का ये अनूठा दिल मेरे दिल की खिड़की में टँगकर विंडचाइम की मीठी ध्वनि की तरह आपका दिल लुभाएगा।
पुस्तक लिंक: साहित्य विमर्श | अमेज़न
पुस्तक अंश
गुफाओं का कस्बा – उरगुप
इस्तानबुल से कैसॅरी के हवाई सफ़र के बाद कुसादासी में तीन दिन बिता कर वहाँ से सड़क के रास्ते अब हम उरगुप जा रहे हैं।
तमाम रास्ता ही बौरा देने के लिए काफ़ी है। बिला शक कुदरत ने बड़े इत्मीनान से अपनी छेनी से तराश कर इस सुंदर लैंडस्केप का निर्माण किया है। जगह-जगह विभिन्न आकारों में आसमान में मुँह उठाए खड़ी चट्टानें। सैकड़ों साल पहले जब यहाँ ज्वालामुखी विस्फोट हुआ, सारा इलाका लावे की कई मीटर मोटी परतों से ढक गया था। पहाड़, पठार, मैदान सब लावे की काली मिट्टी की गहरी परत के नीचे ढककर एकरूप हो गये। उस हिसाब से देखें तो सब मटियामेट। पर उरगुप की कहानी ठीक इसी समतल जगह से शुरू होती है।
जैसे लंबी काली रात के बाद सुबह की उजास बिखरे।
ज्वालामुखी के विस्फोट के बाद प्रकृति ने काम करना बंद थोड़े ही कर दिया था। बाद इसके भी वो बिना थके अनवरत लगी रही। सृजन-विध्वंस यही तो हमेशा उसका शगल रहा। लेकिन कमाल कि दोनों ही पहलुओं में एक स्वरबद्ध लय कभी नहीं छोड़ी उसने। लावे से बनी कोमल चट्टानें आसानी से तराशी जा सकती थी, तो उसने अपनी चिर-परिचित कलाकारी दिखानी शुरु कर दी। चुपचाप बिना किसी शोर-शराबे के। पूरी तन्मयता और तसल्ली से हौले-हौले अपने ही बनाये पहाड़ों की खुदाई करती रही। बिना किसी हड़बड़ी के। इस सिलसिले में ढेरों छोटी-बड़ी गुफाएँ निर्मित हो गईं। सारा का सारा क़स्बा ऐसी गुफाओं के जमावड़े में तब्दील हो गया। ऐसा अलहदा सौंदर्य भी किसी-किसी को ही नसीब होता है। सदियाँ लगी है इस सृजन में।
पहले-पहल ये गुफाएँ लोगों को सुरक्षित पनाहगार के तौर पर रास आई होंगी। फिर रहते-रहते आत्मीय भाव जागा होगा। अपने मन के मोह के अनुकूल उसने गुफाओं को अपने मन मुताबिक ढालना शुरु कर दिया होगा।
कुदरत के साथ रहते-रहते उससे सीखा भी तो है इंसान ने बहुत कुछ। उस गुर को वो उसी अंदाज में आजमाता रहता है। उसके हाथ में रही छेनी-हथौड़ी और रंगों की तूलिका के निशान जो अब इन गुफाओं में जहाँ-तहाँ मौजूद हैं, उसके इस शौक के, क्षमता के गवाह बनकर सिर ताने खड़े हैं।
ये छोटा सा पूरा क़स्बा, मेरे ख्वाबों में बार-बार आकर मेरे दिल के किवाड़ की सांकल को जोर-जोर से खटखटाने वाले ‘कैपेदोकिया’ टाउन का ही जुड़वाँ है। जो इन ढेरों गुफाओं का मकड़जाल बुने अपनी निराली अदा की वजह से पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। तकरीबन हरेक गुफा को पिछली कुछ पीढ़ियों से वहाँ रहने वाले ख़ुशनसीब लोगों ने अपने अदम्य साहस, जोड़-तोड़ की प्रवृत्ति, अपरिमित धैर्य, अनंत ऊर्जा, मौजूद संसाधन और निजी पसंदगी के बूते पर कई ‘स्टार’ वाले निहायत ही ख़ूबसूरत और पुरसुकून एहसास कराने वाले होटलों में तब्दील कर दिया है! अब वे प्रकृति प्रदत्त सुंदरता को निखार कर अपने गुजर-बसर की सीढ़ी बनाकर ऊपर चढ़ रहे हैं। इन कंदराओं में पूर्व में आदिम जनजाति के लोग कैसे बसर करते होंगे, ये थोड़ा सा आभास यहाँ रहकर हमें हो सकता है, हालाँकि इन्हें लक्जरी होटल में बदल देने से वो आदिम अनुभूति तो कतई महसूस नहीं की जा सकती।
प्रकृति जो हमेशा से अपने आप में इतनी मनमोहक है, अपने प्राकृतिक रूप में ऐसी उत्कृष्ट साज-सज्जा के साथ सज-सँवर कर अपना दीदार कराए तो दिल की धड़कनों पर जोर कैसे रहें? दिल लुटाने के सिवाय कोई चारा नहीं बचता। हाल-फिलहाल इससे बेहतरीन जीने की कोई वजह नहीं हो सकती कि मर-मिटने के लिए एक निराला शहर बाँहें फैलाए सामने मौजूद है।
सारे रास्ते उरगुप को निहारते हुए सुबह नौ बजे हम सीधे अपने ‘केव होटल’ में दाखिल होते हैं।
पहुँचते ही यूँ महसूस हुआ मानों ठंडी हवा के झोंके ने बाहें फैलाकर गर्मजोशी से सीने लगा लिया हो। एक साथ ठंडक भी गर्माहट भी, ऐसे मौके बार-बार हाथ नहीं लगते। जब लगते हैं तब बिना हुज्जत किये उन्हें गले लगा ही लेना चाहिए। चटख रंगों के परंपरागत रंगीन हस्तनिर्मित कालीन, कुशन, चादर, वॉल हैंगिंग से युक्त साज-सज्जा से सुसज्जित कमरे में कुछ घंटे ऐसे बीत गये मानो हम ध्यान की अवस्था में हो, आसपास की हरेक बात से निस्पृह। या हो कोई ऐसा मुकाम जहाँ किसी मनोहर नज़ारे को देखकर आँखें अपलक टिक जाए, किसी भी तरह हटे ही ना उससे। स्वर्गिक अनिर्वचनीय आनंद।
होश में तब आए जब भूख ने दस्तक दी। लेकिन उसके पहले एक नशे में डूब कर आना था।
यहाँ प्रवेश करते समय हमें बताया गया था कि होटल में ‘स्पा-बाथ’ (टर्किश हम्माम) का इंतज़ाम है तो बिना हीला-हवाला किये हम तैयार है इसमें जी भर डूब जाने को। भूख को बहला-फुसलाकर थोड़ी देर के लिए हमने एक तरफ बैठा दिया है। वो भी मान गई है, शायद बाद में अपनी अहमियत बताने का मौका वो भी छोड़ना नहीं चाहती। इस साँठ-गाँठ से मामला सुलट गया है। और हम टूट पड़े हैं इस स्नान का मज़ा लेने को। तकरीबन तीन घंटे के बाद बारी-बारी से हम तीनों अपने शाही स्नान का भरपूर आनंद उठाकर उरगुप की फेरी पर निकल जाने के लिए मुस्तैदी से तैयार हैं।
बहुत छोटी सी परिधि में सिमटा हुआ क़स्बा है ये! पैदल ही नापा जा सकता है। हमारे होटल के सामने ही शहर का ‘क्लॉक टॉवर’ है। ये इस बात की निशानी है कि हम शहर के ठीक बीच में मौजूद हैं। यही इसका मुख्य हिस्सा है। जैसे कि अमूमन होता है, हर शहर के बीचों-बीच एक बाज़ार होता है, वैसा ही यहाँ भी है। जिसमें भरमार रेस्तराँ की ही है।
हो भी क्यों ना? एक छोटे से पर्यटक कस्बे में कमाई का साधन और भला क्या हो सकता है? एक अच्छे से रेस्तराँ में जाकर खुल के लग आई भूख को शांत करने के लिए गपागप तरीके से खाने को उदरस्थ कर फिर चल पड़े हैं अपने सुहाने सफ़र पर, उरगुप की सड़कें नापने।
कैसल, घर, म्युज़ियम, रेस्तराँ, होटल, दुकानें, ऑफिस लगभग सब के सब गुफाओं के छोटे-बड़े रूप। बहुत ही कलात्मक ढंग से ढले हुए।
तस्वीरें ही बयाँ करेंगी हाल-ए-माहौल तफ़्सील से सारा। हर बात शब्दों में कहाँ ढल पाती हैं?
वैसे ये ज़िद भी क्या कि हर बात कह कर ही मुकम्मल की जाए!
और भी कई रास्ते हैं उन तक पहुँचने के उन्हें क्यूँ ना आज़माया जाए?
घूमते हुए पूरे कस्बे में सेब, आडू, अनार, खुबानी, वालनट के दरमियानी कद के पेड़ जगह-जगह से उचक के हमें देखते हुए से लगते हैं। अंगूर और चेरी की फलों से लदी लताएँ कमोबेश हर घर के परकोटे की दीवार पर लटकी हुई मन को रिझाती रहती हैं।
दोपहर के बारह बजे से ‘शाम’ के साढ़े नौ बज आए हैं घूमते-घूमते! बीच-बीच में ‘गोट मिल्क’ की बनी तुर्की की खास तरह की आइसक्रीम और चाय कॉफी के दौर बिना रोक-टोक चलते रहे हैं!
आइसक्रीम तो जिस अदाकारी से पेश की जाती है वो बाकमाल। खाने का लुत्फ दोगुना हो जाता है। एक बड़े से गोल हुकनुमा डंडे में आइसक्रीम का कोन फंसाकर काउंटर के उस पार से देने वाला बंदा, इस पार लेने के लिए हाथ बढ़ाए खड़े लोगों को आइसक्रीम देने का उपक्रम करता है। जैसे ही हुक में से आइसक्रीम का कोन उठाने जाओ, कभी आगे कभी पीछे, कभी ऊपर कभी नीचे, कभी दायें कभी बायें, कभी चक्कर लगाकर तो कभी अजीब सी मुद्राएँ बना कर आइसक्रीम को आपके लेने से उसके द्वारा रोका जाता है।
आप पूरी कोशिश से उसे पकड़ने को झपटते हैं। लेकिन आपका बस नहीं चलता। वो आपके हाथ नहीं आती। वो हँसता है और इशारे से कहता है कि ले लें, अबकी बार वो पक्का दे ही देगा। वो अपना हाथ स्थिर करता है आप झाँसे में आ जाते हैं, लपक कर आइसक्रीम का कोन उठा लेने के लिए हाथ मारते हैं वो उससे भी तेजी से हाथ पीछे खींच लेता है। कुछ देर की मस्ती के बाद वो आइसक्रीम आपको थमा देता है। मजाल है जो इस पूरी धींगामुश्ती में एक बूंद भी आइसक्रीम नीचे टपकती हो।
गोट मिल्क की बनी ये आइसक्रीम बहुत कट्ठी होती है अपनी तासीर में। जैसे हमारे बचपन में ‘बंबई की मिठाई’ हम खाते थे, कुछ-कुछ वैसी लेकिन बस रंगत में ही, स्वाद एकदम अलग। हाथ में आने से लेकर मुँह में जाने तक आइसक्रीम का ये सफ़र भी बड़ा मज़ेदार रहा। इसे इसके स्वाद का मज़ा लेने से ज़्यादा खिलाने के तरीके का मज़ा लेने के लिए खाना चाहिए।
आइसक्रीम खाते जितनी देर बैठे रहे उतनी देर ना जाने कितने ऐसे लोग ज़ेहन में घूम गये जो अपनी इन्हीं मस्तमौला हरकतों से मन को कितना हल्का कर दिया करते हैं। होना चाहिए ऐसा भी कि हल्के-फुल्के अंदाज में कुछ पल बिता लिये जायें। हर वक्त की गंभीरता भी बोझिल हो जाती है। काफ़ी समय बस यूँ ही समय के साथ चहलकदमी करते-करते बीत जाने दिया है।
घूमते-घूमते अब फिर भूख ने दस्तक दी है। लज़ीज़ टर्किश खाने का लुत्फ लेने का भी वक्त आ गया है। हमने कस्बे की सैर पर जाने से पूर्व ही होटल से कुछ दूरी पर ही एक रेस्तरां में यहाँ के प्रसिद्ध ‘पाटरी किबाब’ का ऑर्डर दे दिया था। इसे बनाने में लगभग पाँच छः घंटे लगते हैं।
मिट्टी के सकोरे में धीमी आँच पर इसे पकाया जाता है, इसलिए स्पेशल ऑर्डर पर ही इसे बनाया जाता है। हम वहाँ पहुँचते हैं! रेस्तरां की मालकिन आकर हमें हमारी खाने की मेज तक ले जाती है।
हम बैठे हैं डिनर सर्व होने का इंतज़ार करते हुए! वो हमें बताती है कि किबाब के साथ डोमटेसली पिलाव, मटसर इक्मेसी, काकश और स्टिक टार्टर का कॉम्बीनेशन बढ़िया रहेगा। हम उनकी सलाह पर आँख मूँद कर यकीन कर वही मँगवा लेते हैं। खाते वक्त पता चलता है कि कभी-कभी दूसरे की बात मान लेना निराश नहीं करता। आखिरकार अनुभव अपनी भरी-पूरी हैसियत रखते हैं।
गुफा दर गुफा धोक देते-देते थकान अपना एहसास कराने लगी है। अब वापस होटल लौट जाने का दबाव बन रहा है हम पर क्योंकि कल तड़के तीन बजे जाना है अपने चिरप्रतीक्षित ‘ख्वाबों वाले शहर कैपेदोकिया’ का पहले-पहल ‘हॉटएयर बैलून’ से दीदार करने। सूर्य की पहली किरण के साथ कैपेदोकिया।
एक घंटे खाने का आनंद उठाकर हम वापस अपनी नियत गुफा में समा गये है। ठीक आधे घंटे बाद भी हम ज़बरदस्ती अपने आपको सुलाने के लिए ख़ुद को थपकियाँ दे रहे हैं, पर नींद है कि आज फिर जाने कहाँ दुबक कर जा बैठी है, या कौन जाने ये जो अजीब सी हलचल मची हुई है मेरे अंदर कल के मंजर का सोचकर, उससे वो भी हिली हुई है। या कहीं ऐसा तो नहीं वो मेरे पागलपन से होड़ मचा रही है…?
पता नहीं कितनी देर बाद, पर उरगुप की पथरीली ऊपर उठती; ढलान पर लुढ़कती सड़कों पर (जिनके हम आदी नहीं) लगातार चलते रहने की वजह से चली आई थकावट ने अंततः अपना असर दिखाया ही और हम नींद के आगोश में समा गये।
ऐसा ही होता है ना अमूमन लोगों के साथ उरगुप की तरह।
दिल की गहरी गुफाएँ इन्हीं कंदराओं की मानिंद ही तो होती है। दूर तक चली गई दिल की गुफाएँ ही गुफाएँ, अँधेरी स्याह गुफाएँ! फिर हौल खाता है एक आकर्षण कि क्या है इस अँधेरी गुफा में ये देख पाए, शायद कुछ तो अलहदा हो! लोग खिंचे चले आते हैं, उस अनदेखे रहस्य के सम्मोहन में। जो नज़र नहीं आता वो ही नज़र में चढ़ जाता है। जैसा हर बार हर अनजानी चीज़ को जानने की उत्सुकता सिर चढ़ के बोलती है, हर नयेपन का चुंबकीय आकर्षण प्यार समझ लिया जाता है। दिल की गुफा तो हर एक को नैसर्गिक तौर पर मिलती हैं, पर उसमें दाखिल होने वाले लोग, मुँह उठाये चले आते हालात, बनती-बिगड़ती परिस्थितियाँ, पल-पल बदलते भाव, विचार, आवेग, उद्गार, स्वार्थ, प्राथमिकताएँ, सिर उठाती महत्वाकांक्षाएँ, हाहाकार मचाते अहम ये सब भीतर घुसते ही छेनी-हथौड़ी की तरह औजार बनकर ठकठक…. ठकठक…. ठकठक….. करके दिल की गुफा को बहुआयामी आकार देते रहते हैं। कभी हद दर्जे ख़ूबसूरत तो कभी बेहद बदसूरत!
कितना भी ऊँचाई पर उठ जाए, कुदरत से मुकाबला नहीं ही कर सकता इंसान। यहाँ मात खा ही जाता है इसलिए उरगुप शहर जितना हसीन हो पाना, लोगों के प्रारब्ध में कहाँ? मुमकिन ही नहीं।
प्रकृति से ये सबक लेना अभी बाकी है दोस्तों। जो अज़ीज़ लगे उसमें पूरी मोहब्बत से डूब जाना, उसे तराश कर सुंदर आकार देना इतना आसान भी नहीं।
बहुत बड़ा कलेजा चाहिए होता है। एकनिष्ठा के साथ जान लुटा देनी पड़ती है तब कहीं ‘उरगुप’ जैसी जन्नत हासिल होती है। वो धुन ले आ पाना बहुत दुश्वार है।
उसके लिए भटकना छोड़कर एक ठिकाने पर टिके रहना होता है सालों-साल प्रकृति की तरह, पर इंसान की ऐसी फितरत कहाँ? वो तो नित नयी चीजों के पीछे ललचाकर भागता ही रहता है। तभी तो वो हमेशा अपने पीछे छोड़ता आता है दुःख, उदासी और कलप की एक कुरूपता और प्रकृति छोड़ती है ऐसी शाइस्ता खूबसूरती!
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पुस्तक लिंक: साहित्य विमर्श | अमेज़न
लेखिका परिचय
पाली नागर ‘संझा’ जी खंडवा मध्य प्रदेश से आती हैं। इनकी शुरूआती पढ़ाई खंडवा में ही हुई। फिर इंदौर से माध्यमिक और हायर सेकंड्री के अलावा स्नातक भी किया। उज्जैन के माधव कॉलेज से भूगोल में मास्टर्स करते हुए उन्होंने यूनिवर्सिटी टॉप किया। अट्ठारह वर्ष तक अलग अलग शहरों में अध्यापन करने के पश्चात अपने परिवार को समय देने के खातिर उन्होंने फिलहाल नौकरी से ब्रेक ले लिया है।
अब तक उनका एक उपन्यास, एक कविता संग्रह और एक यात्रा वृत्तान्त प्रकाशित हो चुका है।
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