दिल्ली से प्लूटो – हरीश कुमार ‘अमित’ | चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट

संस्करण विवरण

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या:  | प्रकाशन: चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट | संपादन: सुमन बाजपेयी

पुस्तक लिंक: अमेज़न

दिल्ली से प्लूटो - हरीश कुमार 'अमित'  |  चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट

कहानी 

नितिन अपने माता पिता के साथ दिल्ली में रहता था। यह दिल्ली आज की दिल्ली नहीं बल्कि भविष्य की दिल्ली थी। ऐसी दिल्ली जहाँ गाड़ियाँ उड़ा करती थी, घर और बाहर की चीजें रिमोट से संचालित होती थीं।
नितिन के पिता ने इन छुट्टियों में नितिन को प्लूटो ले जाने का वादा किया था। 
आखिर कैसी थी नितिन की ये दुनिया?
छुट्टियों से पहले नितिन की ज़िंदगी में क्या क्या हुआ?
 

विचार 

‘दिल्ली से प्लूटो’ हरीश कुमार ‘अमित’ का लिखा उपन्यास बाल उपन्यास है। यह उपन्यास चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित किया गया है। यह रचना चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित बाल साहित्य प्रतियोगिता के विज्ञान कथा वर्ग में एक प्रविष्टि  दिल्ली टू प्लूटो थी  जिसका प्रकाशन दिल्ली से प्लूटो के नाम से प्रकाशन द्वारा किया गया है। 
इस उपन्यास के माध्यम से लेखक द्वारा एक भविष्य की दुनिया पाठकों को दर्शाई गई है। ऐसी दुनिया जहाँ मनुष्य ने तकनीक तो काफी विकसित कर दी है लेकिन वह प्रकृति से कट भी चुका है। तकनीक के प्रयोग से ही वह प्रकृति का आनंद लेता है। हर चीज बटन से चलती है। उसका जीवन वैसे तो काफी सरल हो गया है लेकिन वो सिमट भी गया है। नितिन और उसके परिवार के माध्यम से लेखक पाठकों का इस दुनिया से परिचय करवाते हैं। उनका रूटीन दर्शाते हैं। उनका खाना, पीना कैसा है यह दर्शाते हैं। मसलन इधर हर चीज की गोली मिलती है।यहाँ तक चाय, कॉफी जैसी चीजें भी गोली के रूप में ही रहती हैं। ऑफिस और स्कूल घर से ही संचालित होता है और व्यक्ति अपनी चाह के अनुसार अपना रूप और रंग बदल देता है। 
इस तरह से लेखक द्वारा एक रोचक दुनिया का निर्माण इधर किया गया है। फिर भी उपन्यास जो अपने शीर्षक से अपेक्षा जगाता है वो पूरी नहीं करता है। दिल्ली से प्लूटो नाम देखकर मैंने जब पुस्तक पढ़ी थी तो उससे लगा था कि ये दिल्ली से प्लूटो तक के रोमांचकारी सफर की गाथा होगी। इसमें ये सफर शुरू तो होता है लेकिन वो आखिरी के पृष्ठ में ही होता है और ऐसा लगता है जैसे कहानी शुरू होने का जब वक्त आया तो लेखक ने कहानी का अंत कर दिया हो। पुस्तक के पीछे के विवरण में भी दर्ज है कि इस दुनिया में रहते हुए वह नित नए अनुभवों से तो गुजरता ही है, साथ ही उसे चाँद और प्लूटो पर भी जाने का मौका मिलता है।  अब नए अनुभव तो उसे अपने आम जीवन के होते ही हैं लेकिन चाँद की एक यात्रा पर् वो निकलता है जो पूरी नहीं होती और प्लूटो की यात्रा पर हम उसे निकलते हुए देखते तो हैं लेकिन वो पहुँचता है या नहीं ये हमें पता नहीं लगता है। ऐसे में पुस्तक जो अपेक्षाएँ पाठक के मन में पैदा करती हैं उसे पूरा करने में सफल नहीं होती है। 
हिंदी पल्प फिक्शन के सुनहरे दौर में  प्रकाशक ऐसे काम अक्सर किया करते थे। वो आकर्षक शीर्षक रखकर आकर्षक विवरण दे देते थे और कहानी कुछ और ही होती थी। ऐसे में पाठक जो अपेक्षा कुछ और लेकर पढ़ता था वो अक्सर कहानी अलग पाकर खुद को ठगा हुआ महसूस करता था।  ऐसे उपन्यासों में कभी नायक के मुँह से किसी डायलॉग में शीर्षक बुलवा कर और विवरण से जुड़ी चीजें एक अनुच्छेद में दिखाकर प्रकाशक अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर देते थे। ऐसा ही इधर होता है जिसमें दिल्ली से प्लूटो जाने की बात किरदार करते हैं और अंत में जाते दिखते भी हैं लेकिन वो कहानी का केंद्र नहीं होता है जो कि शीर्षक से लगता है। इस पुस्तक का अंत कुछ यूँ होता है:
नितिन इतना उत्साहित था कि उसके मुँह से बरबस निकल पड़ा, “दिल्ली से प्लूटो नॉन स्टॉप!”
उनका एक रोमांचक सफर शुरू हो चुका था। (पृष्ठ 64)
यानी जिस चीज को पढ़ने के लिए आपने पुस्तक खरीदी थी वो जब शुरू होती है तो पुस्तक खत्म ही हो जाती है और आप खुद को ठगा सा महसूस करते हैं। 
कहानी में एक जगह जिक्र है कि अभी का हमारा जो जीवन है वो इस दुनिया में 80-85 साल पहले की बात थी। ऐसे में शीर्षक दिल्ली 3000 या ऐसे ही कोई वर्ष से जुड़ा होता तो बेहतर होता क्योंकि इसमें दिल्ली के भविष्य के जीवन को ही दर्शाया गया है। ऐसे में पाठक किसी गलत अपेक्षा से इसे नहीं पढ़ता और निराश भी नहीं होता। संपादकीय टीम को इसका शीर्षक और विवरण लिखने से पहले ये चीज ध्यान में रखनी चाहिए थी।  
कहानी में भविष्य की दुनिया देखने को मिलती है। बस एक चीज मुझे खटकी। चाय और कॉफी द्रव्य पदार्थ हैं इन्हें भी किरदारों को गोलियों के रूप में लेते हुए दिखाया गया। ऐसा क्यों किया गया इसका कारण नहीं दिया गया है। हाँ एक जगह ये बताया गया है कि तकनीक इतनी उन्नत है कि पानी शरीर में अपने आप बनता है और इस कारण व्यक्ति को प्यास नहीं लगती है पर इससे चाय और कॉफी को गोली के रूप में खाने का औचित्य समझ नहीं आता है। जबकि गोली के रूप में लेते हुए भी वो चाय कॉफी को पीना ही कह रहे थे। जबकि ऐसा नहीं था कि दुनिया से द्रव गायब  थे क्योंकि इसी कहानी के अंत में एक बार नितिन और उसके पिता एक दवाई द्रव के रूप में लेते दिखाई देते हैं। ऐसे में वो कॉफी और चाय को द्रव के रूप में क्यों नहीं ले रहे थे इसका कोई कारण समझ नहीं आता है। 

वे लोग खाना खाने लगे। खाने के साथ या बाद में उन्हें पानी पीने की जरूरत महसूस नहीं होती थी। इसका कारण यह था कि वैज्ञानिकों ने एशिया आविष्कार कर लिया था कि आदमी की बाँह में एक सेंटीमीटर लंबा एक यंत्र लगा दिया जाता था। उस यंत्र से अपने आप आदमी के शरीर को पानी की आपूर्ति होती रहती थी। इस तरह किसी को भी प्यास लगती ही नहीं थी। (पृष्ठ 25)

कुछ देर में जब वह लौटे, तो उनके हाथ में दवा की एक शीशी थी। उसमें नारंगी रंग का कुछ द्रव जैसा था। उन्होंने उसमें से एक चम्मच दवाई नितिन को पिला दी। (पृष्ठ 59)
इसके अतिरिक्त आम जीवन में खाने को गोली के रूप में लेना तो समझ आता है लेकिन कहानी में एक बार ये परिवार बाहर खाने के लिए जाता है और वहाँ भी  उन्हें खाना गोलियों के रूप में मिलता है। यह चीज अटपटी लगी। क्योंकि अगर खाना ऐसा ही मिल रहा था तो फिर होटल में जाने की जरूरत ही क्या थी? ऐसी गोलियाँ तो घर मँगवाकर रख ले।  जबकि अगर लेखक ये दर्शाते कि जो खाना हमारे लिए अभी आम है वो आगे जाकर  केवल होटल में मिलेगा क्योंकि महंगा और सीमित होगा तो बेहतर होता। 
उपन्यास  में उस समय के तकनीकी पक्ष को दर्शाया गया है लेकिन बाहर की दुनिया पर कम ही बात हुई है। वह लोग भीतर रहने के लिए क्यों मजबूर हैं। बाहर घूमने फिरने क्यों नहीं जाते? अगर इसका कारण प्रदूषण  है तो जब विज्ञान इतना उन्नत है तो प्रदूषण पर काबू क्यों नहीं पाया गया? क्या वो जिस इमारत में रहते हैं वहाँ के लोगों से बातचीत नहीं करते? नितिन के स्कूल के दोस्त क्या असल में नहीं मिलते? अगर नहीं तो क्यों और अगर हाँ तो वो क्या करते हैं?  ऐसे कई सवाल पढ़ते हुए आपके मन में जागते हैं जिनके उत्तर अनुत्तरित रह जाते हैं। अगर लेखक इनके उत्तर देते तो बेहतर होता।  
अंत में यही कहूँगा कि प्रस्तुत रूप में कहानी निराश करती है। लेखक ने भविष्य की दुनिया की कल्पना अच्छे से की है लेकिन कहानी में वो ऐसा कुछ नहीं दे पाते हैं जिससे पाठक आगे पढ़ते जाने के लिए विवश सा हो जाए। जो चीज वो देते भी हैं यानी यात्रा, जिसके बारे में पढ़ने के लिए ही मैं उपन्यास पूरा पढ़ गया, वो उसे दर्शाने से पहले ही उपन्यास खत्म कर देते हैं जो कि पाठक को निराश ही करेगा।
अगर आपको भविष्य में रह रहे परिवार की दिनचर्या को देखने पढ़ने में रुचि है तो पुस्तक आपका मनोरंजन करेगी लेकिन अगर दिल्ली से प्लूटो की रोमांचक यात्रा को पढ़ने के मन से इस पुस्तक को खरीदेंगे तो निराश ही होंगे।

पुस्तक लिंक: अमेज़न

नोट: ये पुस्तक मैंने नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला (New Delhi World Book Fair) में खरीदी थी। वहाँ का वृत्तान्त आप यहाँ क्लिक करके पढ़ सकते हैं। 

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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