संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 59 | प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास | अनुवादक: प्रीतपाल सिंह रुपाणा | मूल भाषा: पंजाबी
पुस्तक लिंक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास
कहानी
मिठ्ठो और देव बचपन के दोस्त थे। दोनों में रूठना मनाना चलता रहता था। कभी कोई किसी से रूठ जाता तो दूसरा उसे मनाता।
मिठ्ठो रंग से गोरी थी और उसका सपना था कि वह किसी गोरे लड़के से शादी करे।
देव रंग से साँवला था और उसका सपना था कि मिठ्ठो उसकी थाली में उसके साथ तो खा ले। वह तरह से तरह से कोशिश करता लेकिन मिठ्ठो हर बार वादा करके मुकर जाती।
दोनों साथ खेलते हुए बड़े हुए थे। दोनों एक दूसरे से अपने दिल के राज साझा करते थे।
ऐसे में जब मिठ्ठो ने देव से कुछ माँगा तो क्या वो उसको वो दे पाया?
क्या मिठ्ठो और देव का बचपन का सपना पूरा हो पाया?
मेरे विचार
प्रेम अपने आप में अनोखी सी चीज है। यह कब किससे हो जाए कहा नहीं जा सकता। वहीं आदमी प्रेम में पड़कर कब क्या कदम उठा दे ये भी पता नहीं चलता। कई बार प्रेम आपको स्वार्थी बना देता है और जब ऐसा होता है तब आप जिससे प्रेम करते हैं कई बार आप उसका ही नुकसान कर बैठते हैं।
प्रस्तुत लघु-उपन्यास गोरी (Gori) भी एक ऐसे ही प्रेम की कहानी है। गोरी पंजाबी के साहित्यकार गुरुदेव सिंह रुपाणा (Gurudev Singh Rupana) का पंजाबी लघु-उपन्यास है जिसका हिंदी में अनुवाद उनके सुपुत्र प्रीतपाल सिंह रुपाणा (Preetpal Singh Rupana) द्वारा किया गया है।
लघु-उपन्यास के केंद्र में मुख्यतः दो किरदार मिठ्ठो और देव हैं। यह दोनों बचपन के दोस्त हैं जो कि साथ ही खेलते कूदते और बड़े होते हैं।
मिठ्ठो और देव काफी नजदीक हैं लेकिन इनका एक दूसरे को देखने का नजरिया अलग है। जहाँ इनके बीच में प्रेम गहरा है लेकिन इस प्रेम का रूप दोनों के लिए अलग अलग है। प्रेम के इन अलग रूप के होने के कारण क्या होता है और यह क्या कैसे इनकी ज़िंदगी में बदलाव लाता है यही कहानी बनती है।
लघु-उपन्यास प्रथम पुरुष में लिखा गया है जहाँ देव की जुबानी हम जानते हैं कि इनके साथ क्या-क्या हुआ था। उपन्यास में देव चीजों याद कर रहा है। उपन्यास में यह बताया नहीं जाता है कि वह कब इन घटनाओं को याद कर रहा है लेकिन चूँकि उपन्यास में घटनाएँ इनके बचपन से लेकर मिठ्ठो के शादी करने के बाद मायके पहले बच्चे को जन्म देने के लिए आने तक की है तो यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि तभी देव इन चीजों को याद कर रहा है।
मिठ्ठो सुंदर लड़की है जिसे अपनी गोरेपन पर नाज़ है। यह नाज़ इतना अधिक है कि वह अपने सबसे प्रिय मित्र देव का झूठा इसलिए भी नहीं खाती है क्योंकि वो साँवला है। वहीं उसे उनके दूसरे साथी आतू का झूठा खाने में कोई दिक्कत नहीं होती है। वहीं मिठ्ठो का मन बचपन से ही किसी गोरे लड़के से शादी करने का है। किसी काले व्यक्ति से शादी करने की सोच के भी उसे रोना सा आ जाता है।
आतू गोरा था और वह उसका झूठा खा लेती थी। (पृष्ठ 9)
बात बता कर वह बैठ गई और मुँह घुटनों में छिपा लिया।
“यदि काला हुआ?” मैंने शरारत से पूछा।
“गोरा होगा।” वह चीख कर बोली।
“काला-काला-काला…।” मैंने उसे छेड़ा… “काला कलूटा… बैंगन लूटा।”
वह शेरनी की तरह बिफर उठी और मुझे मुक्के मारने लगी। (पृष्ठ 12)
देव मिठ्ठो को चाहता है। उसका सपना है कि वह उसका जूठा खा ले। वह बचपन में अपने इस सपने को पूरा करने के कई जतन करके देखता है लेकिन मिठ्ठो हर बार अपनी बात से पलट जाती है। बचपन की यह दोस्ती कब देव के लिए प्यार में बदल जाती है देव को मालूम ही नहीं चलता है।
उपन्यास में तीसरा किरदार राज का है जो कि देव का जिगरी दोस्त है। देव और राज के बीच के बदलते समीकरण को लेखक ने बहुत अच्छी तरह से दर्शाया है। राज कहानी में देव से ज्यादा समझदार ही प्रतीत होता है।
चूँकि हम देव की नजर से चीजें देख रहे हैं तो किरदार उसके दृष्टिकोण के हिसाब से देखते हैं। बचपन के समय में मिठ्ठो देव से चालाक दिखती है जो कि उसे बातों में लगाकर अपना काम निकालना जानती है। लेकिन जब देव को खुद को ठगा सा पाता है तो वह उसे बातों में लगाकर उसका गुस्सा हरना भी जानती है।
उसकी चिंता ने मेरा दिल नर्म न किया और मैं चुपचाप काम करता रहा।
“तुझे एक बात बताऊँ।” कुछ देर बाद वह बोली… “किसी को भी इसका पता नहीं।”
मैंने उसके चेहरे की ओर देखा। उसने बात बतानी शुरू कर दी।
“हमें कानों से सुनाई देता है। मुझे आज पता चला।”
“तुझे कैसे पता चला।” मुझसे स्वतः ही पूछा गया।
“पहले मैं समझती थी, कहीं हम मुँह से सुनते हैं। मैंने जोर से मुँह बंद कर लिया, फिर भी सुनाई देता रहा। मैंने सोचा आँखों से सुनता होगा। आँखें बंद करने पर सुनाई देता रहा। फिर मैंने कानों में उँगलियाँ दीं, तब कहीं सुनाई देना बंद हुआ।” साथ-ही-साथ वह मुँह बंद करने, आँखें भींचने और कानों में उँगलियाँ देने की अदाकारी करती रही। बात खत्म करके उसने ताली बजायी और हँसने लगी। हँसते हुए उसकज पीला चेहरा लाल सुर्ख हो गया।
“कहता था-मैं नहीं बोलता तेरे साथ, बुलवा लिया न।” वह विजय के लहजे में बोली। मुझे फिर गुस्सा याद आ गया। (पृष्ठ 8)
जैसे जैसे ये बढ़े होते हैं इनके बीच का रिश्ता गहरा होता है लेकीन इनके समीकरण में बदलाव भी आता है। चूँकि मिठ्ठो ऐसे समाज से आती है जहाँ उस पर पाबंदी है तो उसे कुछ चीजों के लिये देव पर निर्भर रहना पड़ता है।
“बात सुन देव।” वह भाव भीने अंदाज में बोली- “हमारी जात भगवान ने ऐसी ही बनाई है… कुछ भी करना हो- मर्द की मुहताज रहती है। अकेली कुछ कर नहीं सकती- तू मेरा सहारा बन।” (पृष्ठ 34)
वहीं देव की स्थिति इस उपन्यास में ऐसी है जैसी स्थिति से अक्सर लड़कों को गुजरना पड़ता है। वह एक ऐसा लड़का है जो ऐसी लड़की से प्यार करता है जो उससे प्यार नहीं करती है। ऐसे में स्वार्थवश वह ऐसी गलती कर देता है जिसका खामियाजा देव राज और मिठ्ठो तीनों को उठाना होता है। चूँकि मिठ्ठो लड़की है तो उसे अधिक ही चुकाना पड़ता है।
चूँकि जब उपन्यास की आखिरी घटनाएँ हो रही होती है तो देव ने दसवीं की परीक्षा पास की होती है तो यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह लोग किशोर ही रहते हैं। ऐसे में किशोरवय बचपना भी किरदारों में देखा जा सकता है। फिर वह मिठ्ठो की गोरे लड़के से शादी की जिद हो, देव की स्वार्थवश की गई गलती हो या फिर देव और राज के बीच बदलता समीकरण हो। यह सब ऐसी हरकतें हैं जो उस उम्र में किशोर करते हैं लेकिन चूँकि आज के बनिस्पत उस वक्त लोगों की शादी उस समय जल्दी कर दी जाती थी तो उन्हें इनसे उभरने का मौका शायद वैसे नहीं मिलता होगा जैसे हमें मिलता है।
कथानक की बात करूँ तो कथानक सीधा सादा है। भाषा सहज सरल है। अनुवाद इस तरह हुआ है कि लगता नहीं है कि आप अनुवाद पढ़ रहे हैं।
लेखक ने देव और मिठ्ठो के बचपन के दृश्य जो खींचे हैं वह बहुत प्यारे हैं। फिर वह उनके खेलने के दृश्य हों, मिठ्ठो के देव को मनाने के दृश्य हों या उसका खुद का काम बनते ही देव को ठगने का दृश्य हो। यह सभी बड़े प्यारे बने हैं। बार बार इन्हें पढ़ने का मन करता है। यहाँ पर जो मासूमियत किरदारों में दिखाई है वह मन मोह लेती है।
मैं गाँव से तो नहीं लेकिन कस्बे से आता हूँ और इन दृश्यों को पढ़ते हुए अपने बचपन में हुई घटनाएँ मुझे बरबस याद आ गई थी। छोटे कस्बों और गाँवों के बच्चों में जो सरलता, जो मासूमियत होती है वह इधर लेखक ने बखूबी दर्शाई है।
कहानी जैसे आगे बढ़ती है वैसे वैसे किरदारों के दर्द, उनकी उलझन और उनकी ग्लानि से आप दो चार होते हो। कुछ चीजें बचकानी जरूर लगती हैं लेकिन उनकी उम्र देखें तो उम्र के हिसाब से सही ही लगती हैं।
उपन्यास का अंत ऐसे मोड़ पर हुआ है जो आपको सोचने के लिए काफी कुछ दे जाता है। आपका मन दुखी हो जाता है और आप सोचते हो कि देव ने मिठ्ठो से अपने मन की बात साझा की होती तो क्या इसका परिणाम कुछ और होता?
कई बार एक व्यक्ति जिस तरह से दूसरे को देखता है हो सकता है दूसरा उसे उस तरह से न देखता हो। कई बार लोग अपने मन की स्थिति सामने वाले पर जाहिर नहीं करते हैं और फिर उनके बीच गलतफहमियाँ हो जाती हैं। वहीं कई बार हम अपने स्वार्थवश कुछ ऐसी गलतियाँ कर देते हैं जिनको फिर हम लाख चाहें हम सुधार नहीं पाते हैं। इस गलती के होने के बाद ग्लानि में जीते रहने का चारा ही हमारे पास बचता है।
वैसे तो यह कहानी देव और मिठ्ठो की है लेकिन इसके माध्यम से लेखक ने गाँव की संस्कृति को भी दर्शाया है। एक उम्र के बाद कैसे लड़कियाँ बंध सी जाती है इधर यह दिखता है। कैसे कई बार अपनी इज्जत के खातिर बेटियों को कुर्बान लोगों को करना पड़ता है यह भी दर्शाया है। कैसे कई बार लड़कियों को अपने इच्छाओं का गला घोंटना पड़ता है यह भी इधर देखा जा सकता है।
वहीं कहानी का अंत जो है वह यह दर्शाता है कि ऐसे समाज में जहाँ लड़की की इच्छा का कोई मोल नहीं है वहाँ कैसे कई बार औरतें अपनी इच्छा पूर्ति के लिए ऐसे कदम भी उठा लेती हैं जो नैतिकता को ताक पर रख देती हैं। पर शायद इसमें गलती तो समाज की है जिन्होंने उन्हें ऐसे कदम उठाने के लिए मजबूर ही किया है।
कहानी खत्म होने के बाद कुछ प्रश्न भी मन में उठते हैं।
मिठ्ठो की शादी किसी ऐसे व्यक्ति से होती जो भले वह न हो जिसे उसने चाहा था लेकिन उसका रूप रंग उसकी चाह जैसा ही होता तो क्या होता? वहीं जहाँ पर उपन्यास खत्म होता है उस समय के दस वर्ष बाद यह किरदार मिलते तो अपनी गुजरी ज़िंदगी को कैसे देखते? यह ख्याल भी मन में आए बिना नहीं रहता है।
अंत में यही कहूँगा कि यह एक पठनीय लघु-उपन्यास है। किरदार जीवंत हैं। आजकल एक शब्द फ्रेंडजोन बहुत प्रचलित है। अक्सर जब कोई व्यक्ति किसी से प्रेम करे और उसके प्रेम का पात्र उसे दोस्त ही माने तो कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति फ्रेंडजोन में है। यह कहानी भी ऐसे ही एक व्यक्ति है जो कि फ्रेंडजोन में रहता है और अपने स्वार्थवश ऐसी गलती कर देता है जो फिर उसके लाख चाहने पर भी सुधरती नहीं है।
पुस्तक लिंक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास
(यह उपन्यास मैंने वर्ष 2019 में नई दिल्ली पुस्तक मेले से खरीदा था। इस मेले की घूम-घाम का एक वृत्तांत भी लिखा था। अगर आप चाहें तो उसे यहाँ क्लिक करके पढ़ सकते हैं।)
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-07-2023) को "आया है चौमास" (चर्चा अंक 4671) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चा अंक में मेरी पोस्ट को शामिल करने हेतु हार्दिक आभार…
सुंदर समीक्षा
लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा। आभार।
जानदार आलेख !
जी आभार सर…