Image by Eli Digital Creative from Pixabay |
हिन्दी साहित्य में मनोरंजक साहित्य और गंभीर साहित्य के बीच में एक दूरी सी हमेशा रही है। कुछ लोगों ने एक तरह के लेखन को साहित्य का दर्जा दिया लेकिन उससे इतर दूसरे तरह के लेखन को केवल इसलिए खारिज कर दिया क्योंकि उसकी विषय वस्तु अलग तरह की होती थी या फिर वह प्रमुख तौर पर चिंतन नहीं मनोरंजन के लिए लिखा जाता था। ऐसा समझा गया कि क्योंकि उसका ध्येय मनोरंजन है तो उसमें चिंतन के तत्व होंगे ही नहीं जो कि एक पूर्वग्रह ही कहलाया जाएगा।
गंभीर साहित्य और मनोरंजक साहित्य से जुड़ी यह बहस आज भी यदा कदा साहित्यिक गलियारों में होती रहती है और लोग इस पर अपने विचार रखते रहे हैं। आज इसी विषय में हम आपके सामने राजीव सिन्हा के विचार प्रस्तुत कर रहे हैं। राजीव सिन्हा हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी रहे हैं और पिछले 17 सालों से दिल्ली में शिक्षक रहे हैं। उन्होंने इस मुद्दे पर अपराध कथा लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों को केंद्र में रखकर कुछ रोचक लिखा है। उन्होंने जो लिखा है वो मनोरंजक साहित्य लिखने वाले कुछ अन्य लेखकों पर भी फिट बैठती है। आप भी पढ़िए।
*****
पिछले कुछ वर्षों से गंभीर साहित्य बनाम लुगदी साहित्य की बहस काफी तेज हुई है। विवाद के केंद्र में हैं हिंदी क्राइम फिक्शन के सर्वाधिक लोकप्रिय लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक और उनके उपन्यास। देश के नामचीन प्रकाशनों से उनकी आत्मकथा के प्रकाशन के बाद सुरेंद्र मोहन पाठक को लुगदी उपन्यासकार कहने वालों के ये हमले तेज हुए हैं। विरोधियों का कहना है कि सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यास साहित्यिक नहीं हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य खालिस मनोरंजन है। मुझे इस पूर्व स्थापना में ही त्रुटि नजर आती है….
- मनोरंजन हमेशा से साहित्य के उद्देश्यों में शामिल रहा है, पर वह साहित्य का एकमात्र उद्देश्य नहीं…
- पाठक साहब के उपन्यास साहित्य नहीं हैं, इसका फैसला कौन करेगा? क्या कोई ऐसी संस्था/प्राधिकार है, जो रचनाओं के साहित्यिक और गैर साहित्यिक होने का निर्णय करे?
- कुछ लोगों को तर्क देते देखा कि पाठक साहब ने खुद कहा है कि वो साहित्य नहीं लिखते। तो साहबान गौर फरमाएँ…. भारतीय साहित्य (सिर्फ़ हिन्दी नहीं) में अन्यतम स्थान रखने वाले तुलसीदास ने कहा था – ‘कवित्त विवेक एक नहीं मोरे, सत्य कहहिं लिखी कागद कोरे’। क्या इस स्वीकारोक्ति के आधार पर रामचरितमानस को साहित्य की श्रेणी से खारिज़ किया जा सकता है? जवाब है- नहीं।
कोई रचना साहित्य है कि नहीं, ये सिर्फ़ रचना ही तय कर सकती है, इससे इतर कोई भी प्रतिमान बेमानी है। वो लुगदी पर छपी है या लंदन से मँगाई चमचमाते कागज पर, उसे मेरठ के एक प्रकाशक ने छापा है या ऑक्सफोर्ड ने… इन सवालों पर सरखपाई वो लोग करते हैं, जिन्हें बर्फी से ज्यादा उसके वर्क की चिंता होती है। वाइट पेपर और ऑक्सफोर्ड प्रेस किसी गधे को घोड़ा नहीं बना सकते।
अब आगे….
साहित्य पर बात करते हुए कुछ विद्वानों ने जो कहा है, वो देखें…
संस्कृत आचार्य मम्मट के अनुसार, साहित्य ‘कांतासम्मित उपदेश’ है। अर्थात् पत्नी या प्रेमिका के मधुर शब्दों में दिया गया उपदेश है। सीधे-सरल उदाहरण से समझना चाहें तो, साहित्य होमियोपैथी की उन मीठी गोलियों की तरह है, जो दवा का प्रभाव तो पहुँचाती हैं, लेकिन उसकी कड़वाहट को खत्म कर देती हैं।
हिन्दी साहित्य के इतिहासकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, साहित्य भावों का साधारणीकरण करता है, अर्थात् पात्रों के भाव, उनके सुख-दुख, उनकी पीड़ा, उनका उल्लास सिर्फ़ उनके न रहकर हर पढ़ने वाले के हृदय में उमड़ने लगते हैं…
ग्रीक दार्शनिक अरस्तू ने ग्रीक त्रासदी नाटकों की चर्चा करते हुए कहा कि साहित्य केथारसिस (विरेचन) का काम करता है। ‘केथारसिस’ चिकित्सा विज्ञान का शब्द है, जिसका आशय दवाओं के द्वारा शरीर के अंदर की गंदगी को साफ करने से है। अरस्तू का मानना है कि जो कार्य विरेचक औषधियाँ उदर में करती हैं, वही कार्य साहित्य पाठक के मन के साथ करता है.. अर्थात्, हमारे मन के दुर्भाव साहित्य के प्रभाव से कम होने लगते हैं।
अब बात करें, पाठक साहब के उपन्यासों की…
क्या आप सच में उनके उपन्यास सिर्फ़ मनोरंजन के लिए पढ़ते हैं? अगर ऐसा है तो रीमा भारती के नाम पर बिदकते क्यों हैं? वो भी तो बहुतों का मनोरंजन करती है ना? अगर साहित्य के सारे गुणों को मनोरंजन में ही समाहित कर लें तो मनोरंजन के कई स्तर सामने आएँगे और आप यह भली-भाँति जानते हैं कि पाठक साहब के उपन्यासों का मनोरंजन इस पैमाने पर कहाँ ठहरता है… साहित्यिकता क्या इससे इतर कोई चीज़ होती?
आप कहते हैं कि उनके पात्रों के विरोधाभास (अगर कोई हैं) की ओर आपका ध्यान नहीं जाता। मैं कहता हूँ ध्यान जाना चाहिये क्योंकि यही विरोधाभास सुमोपा को यथार्थवादी बनाते हैं। सनद रहे, उपन्यास का आविर्भाव ही यथार्थ के दबाव में हुआ। हवाहवाई काल्पनिक यूटोपिया की फंतासी रचते उपन्यासकारों से सुमोपा इसीलिए भिन्न हैं कि उनके पात्रों में विरोधाभास है। क्योंकि यथार्थ ऐसा ही होता। वायवीय चरित्र ब्लैक एंड व्हाइट हो सकते, लेकिन वास्तविक चरित्र तो ऐसे ही होंगे… अंतर्विरोध लिए हुए…
अब आखिरी बात, ‘जिन साहबान को जीवन दर्शन पर आधारित कुछ मसाला चाहिए, उन्हें ‘Self help genre’ की किताबें ज्यादा मुफीद रहेंगी’… क्या सच में? मैंने तथाकथित जीवन दर्शन वाली ये किताबें नहीं पढ़ी। मुझे तो सुमोपा ने ही सिखाया है कि किस तरह दोस्त के लिए सब कुछ दाँव पर लगाया जा सकता है (रमाकांत), किस तरह प्रेम के लिए सर्वस्व बलिदान किया जा सकता है (खुर्शीद), दांपत्य संबंधों में विश्वास की क्या अहमियत है (अनोखी रात, बीवी का हत्यारा)…. तीन दिन का राहुल याद है…? कमाठीपुरे की बाई मिश्री…? इन चरित्रों के गढ़न को ध्यान से देखिए और फिर बताइये, जीवन दर्शन के लिए self help genre की किताबें ज्यादा मुफीद रहेंगी..?
लेखक परिचय
यह भी पढ़ें
- सभ्य कहे जाने वाले, पारिवारिक लोगों द्वारा होने वाली नोच खसोट का आख्यान है ‘जाँच अभी जारी है’
- पुस्तक समीक्षा: ‘तलाश’: क्या-क्यों-कैसे की प्रश्नाकुल पड़ताल
- हिन्दी साहित्य के रिवाजों को तोड़ती है ‘the नियोजित शिक्षक’
- गोन विद द विंड 3: युद्ध की पृष्ठभूमि में रची प्रेम कथा है गोन विद द विंड
- विक्रम की डायरी: पहले पन्ने से अपने मोहपाश में बाँध देती है कागज की नाव
जिस दिन smp की कहानियाँ पाठ्यक्रम मे आएँगी, उस दिन उनकी रचना को साहित्य का तमग़ा लग जाएँगा। पर ऐसा होगा नही।
इस तर्क में खामी है। कई लेखक हैं जिनकी रचनाएँ पाठ्यक्रम में नहीं आती हैं। फिर यह केवल एसएमपी की बात नहीं है। यह मनोरंजक साहित्य की बात है। वैसे गुलशन नंदा के उपन्यास पाठ्यक्रम में हैं तो क्या उनकी रचनाएँ साहित्य समझी जाने लगी????
मेरे कहने का अर्थ था कि लोग उन्ही लेखको के साहित्य को साहित्य मानेंगे जिनकी कहानियाँ पाठ्यक्रम मे आएँगी। ये मेरा नही लोगों का तर्क है।
जी उन्ही लोगों के लिए गुलशन नंदा वाला उदाहरण दिया है। वैसे कई साहित्यिक लेखक भी कोर्स में नहीं होंगे पर उससे उन्हें खारिज नहीं कर सकते। जैसा कि लेख में लिखा रचना का साहित्यक होना केवल उस रचना पर निर्भर करेगा।
जो लिखता है वो लेखक है और हर उस तवज्जो और सम्मान का अधिकारी है जिस का कोई भी दूसरा लेखक होता है।दूसरे, साहित्य के नाम पर जो छपता है वो सारा ही मनोरंजक और पठनीय नहीं होता। लेकिन क्योंकि उस ओर साहित्यिक रचना का ठप्पा लगा है इसलिए रचना कैसी भी हो उसमें गुण खोज निकलने वाले निकल ही आते हैं।
ये बहस बेमानी है कि सुमोपा के उपन्यास साहित्य का दर्जा रखते हैं या नहीं। इस के जेरेसाया इस बात पर जो दें कि आप अपनी राह चलो, रहस्य कथा लेखक को अपनी राह चलने दो। क्या प्रॉब्लम है! जहां सत्य जित रे हैं, वहाँ राजकपूर की भी गुंजायश है। फिर ये न भूलें सुमोपा साहित्यकार जैसा लिख सकता है, साहित्यकार सुमोपा जैसा नहीं लिख सकता। आज़मा के देख लें।
जी सही कहा।
हमारी अपनी भाषा यानि हिन्दी उतनी आगे नहीं बढ़ पायी जितनी विश्व पटल पर विदेशी भाषायें मुखरित हैं। जानते हैं क्यों?
ऑस्ट्रेलिया मे जब बच्चे छठी कक्षा पास कर सेकेंडरी स्कूल पहुंचते है तो उसे स्कूल का एक टूर कराया जाता है उस टूर मे जब वो बच्चे लाइब्रेरी पहुंचते हैं तो लाइब्रेरियन उन्हें एक छोटा सा लेक्चर देता है कि यदि आप इस लाइब्रेरी के सारे उपन्यास(जिसमे सब तरह के उपन्यास होते हैं ) पढ़ डालें तो आप भाषा (यानि अँग्रेजी) मे गणित के समान नम्बर ला सकते हैं। लाइब्रेरियन के उस कथन को भाषा अध्यापक निभाते भी हैं। मेरे बेटी और बेटे दोनों ने लाइब्रेरियन के कहे अनुसार किया और भाषा के नंबरों के दम पर यहाँ के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय मे मनचाही व्यावसायिक शिक्षा मे प्रवेश पाया। यही नहीं यहाँ नॉवेल स्टडी एक विषय भी है उसने भी स्कोर करने मे बहुत मदद की थी।
इसके विपरीत भारत मे उपन्यास पढ़ने वाले की डांट पड़ती है। कक्षा मे अध्यापक के सवाल पूछने पर यदि बच्चा किसी सवाल का जवाब न दे पाए तो वो अध्यापक टॉन्ट करता है कि क्या किताब के बीच मे नॉवेल छिपा के पढ़ते हो? हिंदी के अध्यापक किसी को सौ मे से पचास के ऊपर, नम्बर ही नहीं देना चाहते चाहे कोई कितना भी अच्छा लिखे। जैसे नम्बर उनकी तनखाह से कटने जा रहे हों ।