‘तलाश’ लेखक विनय प्रकाश तिर्की के 32 लेखों का संग्रह है। तीन खंडों में विभाजित इस पुस्तक में उनके यात्रा संस्मरण, जनजातीय संस्कृति से जुड़े आलेख और ईसाइयत से संबंधित उनके आलेख एकत्रित किये गए हैं। लेखक विनय प्रकाश तिर्की की पुस्तक ‘तलाश’ पर डॉक्टर राकेश शुक्ल द्वारा लिखी यह टिप्पणी आप भी पढ़िए।
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बीसवीं सदीं ढलते-ढलते दुनिया के सारे देश स्वाधीन हो गये । इसका प्रभाव समाज-जीवन के हर पहलू पर देखा गया । वैयक्तिक धरातल पर अभिव्यक्त होने तथा अभिव्यक्त करने के नये-नये रास्ते तलाशे गये । इस तारतम्य में छापेखानों की क्रांतिकारी भूमिका साफ दिखती है । पाठकों का टोटा है, पर पुस्तकांे की बाढ़ आयी हुई है । अनेक तरह की पुस्तकों से सजे बाजार में साहित्य विमर्श प्रकाशन से छपी विनय प्रकाश तिर्की की पुस्तक ‘तलाश‘ इसलिए ध्यान खींचती है कि तीन तरह के अनुभवों की त्रयी प्रस्तुत करती है । पहले खण्ड में कई देशों के यात्रानुभवों की झलक है, दूसरा खण्ड आदिम संस्कृति की तह तक ले जाता है, तो अंतिम खण्ड बौद्धिक बहसों का पिटारा है ।
श्री तिर्की ने बीसियों देशों का भ्रमण किया है और कुछ देशों का एकाधिक बार भी । इस तरह वे विविध यात्राओं के अनुभवों के सार-असार का परीक्षण तथा तुलना करने में समर्थ हैं । उन्होंने पुस्तक में आठ देशों की सामाजिक-सांस्कृतिक विशिष्टताओं, जलवायु, जीवन-शैली, भाषाओं, समस्याओं, विषमताओं आदि की सम्यक झाँकी दिखायी है । दरअसल इसे पढ़ना यात्रानुभवों के आकाश में तैरने जैसा है । सारी घुमक्कड़ी के बीच वे कुछ खोजने का उद्यम करते दिखते हैं, ‘गहरे पानी पैठ‘ की ज़िद है और खतरा उठाने का साहस दिखाते हैं ।
यायावरी का पहला पाठ पाकिस्तान यात्रा से शुरू होता है । इस यात्रा का भावनात्मक चित्रण हुआ है, लेकिन सारी बातें दो पड़ोसी देशों की तल्खी के रोमांच में सिमट गयी हैं । यहाँ लेखक जनजीवन या अन्य पहलुओं को भूल जाता है, जैसा दूसरे यात्रा-वर्णनों में हुआ है । लेखक ने पाया कि जार्डन सबसे उदारवादी मुस्लिम देश है । अरब शेखों के लिए बाज पक्षी वैभव का प्रतीक है । यह संयुक्त अरब अमीरात का राष्ट्रीय प्रतीक है । भारतीयों के लिए कल्पनातीत है कि वहाँ बाज के साथ कानूनी तौर पर बिजनेस क्लॉस में हवाई यात्रा की जाती है ।
लेखक घर-शहर छोड़कर गहरी जिज्ञासा के साथ परदेश की यात्रा पर निकलता है, लेकिन अपना देश भीतर धड़कता रहता है । उसे वहाँ कोई भी अच्छी, बुरी या निराली बात देखकर अपने देश की याद आती है । आस्टेªलिया के बंदर-कौवे देखकर भी भारत के बंदर-कौवे आँखों में झूल जाते हैं – ‘बंदर की कुछ प्रजातियाँ भी यहाँ पायी जाती हैं, जो कि आकार में एक भारतीय चूहे से बड़े नहीं होते‘ । लेखक ने आस्ट्रेलियाई कौवों के विषय में रोचक अनुभव दर्ज किया है – ‘यहाँ के कौवे भी अजीब हैं । हिन्दुस्तानी कौओं से विपरीत रंग में कुछ हल्का कालापन लिए हुए और लगभग एकाकी रहने के आदी । कौवे काँव-काँव नहीं करते, बल्कि किसी बच्चे के कराहने की आवाज निकालते हैं । अजनबी को इसका भ्रम भी हो सकता है । सच कहूँ तो ऐसी आवाज सुनकर मुझे बड़ी खीझ होने लगी थी । इन्हें देखकर और इनकी खीज पैदा करने वाली आवाज सुनकर, अपने हिन्दुस्तानी कौवे बड़े भले लगने लगे थे कि कम से कम इतनी दर्द भरी कराह तो नहीं निकालते और झुंड में रहकर सहअस्तित्व का बोध तो कराते हैं ।‘
आदिवासी समाज से लेखक का नाभि-नाल संबंध होने के कारण उनके जीवन व संस्कृति के बारे में कही-सुनी बातों की जगह आपबीति सामने आती है । यह इस पुस्तक का सबसे सशक्त पक्ष है । ‘जब मुझे घोटुल से विदाई दी गई‘ तथा ‘विलुप्त होती घोटुल संस्कृति‘ लेखों में घोटुल प्रथा के बारे में बड़ी तर्कपूर्ण बातें आयी हैं । इससे कथित सभ्य समाज की भ्रांतियों का निवारण होता है । डोडो की तरह विलुप्त होती बिरहोर जनजाति, ओराँव जनजाति का धर्म परिवर्तन-एक विश्लेषण, आदिवासी युवकों में पादरी बनने का घटता आकर्षण, आदिवासी ईसाइयों की जीवन-शैली में पादरियों का हस्तक्षेप, मदिरापान तथा बंदर का आखेटन बनाम आदिवासी संस्कृति, बदलते परिवेश में जनजातीय समाज के दीपावली पर्व और जादू वगैरह लेख सँग्रहित हैं । इसमें छोटा नागपुर की तब और अब की जनजातीय स्थितियों पर ब्यौरा मिलता है । अधिकांश लेख आंतरिक उद्वेलन के साथ लिखे गये हैं । जनजातीय जीवन में रूचि रखने वालों के लिए एक ही ज़िल्द में विस्तृत तथा प्रामाणिक जानकारी समाहित होने के कारण यह हैण्डबुक जैसा होता, लेकिन आँकड़ों का अभाव इसमें बड़ी बाधा है ।
आदिवासी संस्कृति पर गैरआदिवासियों द्वारा बहुत चिंतन किया जा चुका है । सरकारों तथा समाजशास्त्रियों ने सैंकड़ों सेमिनारों में चर्चा की है कि आधुनिक समय में प्राचीन जनजातियों को न उनके हाल पर छोड़ना चाहिए, न म्यूजियम की प्रदर्शन-वस्तु बनाकर रखना चाहिए, प्रत्युत उन्हें उन्नत तकनीक व सुविधाओं का लाभ देने के लिए समाज की मुख्यधारा में लाना चाहिए । लेखक का दृष्टिकोण भी समान है । ‘समाप्ति की कगार पर है जनजातीय संस्कृति‘ लेख का समापन यूँ होता है: ‘आवश्यकता इस बात की है कि परिवर्तन की यह प्रक्रिया जनजातीय समाज और संस्कृति को विघटन की ओर उन्मुख न करे तथा जनजातीय जीवन की अच्छाइयों को लुप्त न होने दे । संस्कृति को बचाए रखने के नाम पर किसी मानव समूह या समाज को बदतर स्थिति में छोड़ देना किसी तरह से उचित नहीं है, बल्कि प्रयास यह होना चाहिए कि जनजातीय समाजों की विशिष्टताओं को अक्षुण्ण रखते हुए उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाया जाए ।‘ इस निष्कर्ष पर सर्वसहमति के बाद भी यक्ष प्रश्न यही है कि दोनों बातें साथ-साथ कैसे हो सकती हैं ? स्वयं लेखक के पास इसका वैकल्पिक नक्शा अथवा सुझाव नहीं है । फिलहाल यह समाज सघन संक्रमण के दौर से गुजर रहा है । आने वाले समय में संक्रमण और बाहरी हस्तक्षेप तीव्र होगा, क्योंकि उन्हीं पहाड़ों तथा सघन वनप्रांतरों में, जिनमें उनके धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतीक हैं, प्रचुर व मूल्यवान खनिज सम्पदा छिपी है ।
‘तलाश‘ के तीसरे भाग में सवर्ण ईसाई बनाम दलित ईसाई, क्रूसेड, मिश्र में बालक ईसा मसीह और वर्जिन मेरी ट्री जैसेे महत्वूर्ण लेख हैं । यहाँ ईसाइयत और ईसाई समाज का अंतरंग बिना दुराव-छिपाव प्रकट हुआ है । ईसा मसीह के जीवन से जुड़े स्थलों और जेरूशलम क्षेत्र को मुस्लिम आधिपत्य से मुक्त कराने के लिए मसीहियों के सुदीर्घ संघर्ष का वृतान्त ‘क्रूसेड‘ पठनीय है । पोप उर्बन द्वितीय की पहल पर 1095 में शुरू हुआ क्रूसेड ईसाइयत का स्वर्णिम अध्याय बताया जाता है । दो सौ साल के संघर्ष में हजारों-लाखों क्रूसेडरों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया । उनकी धारणा थी कि वे पापी हैं और क्रूसेड्स में कष्ट भोगकर वे परोपकार और प्रेम के रूप में पश्चाताप करना चाहते थे । इस तरह इसमें भाग लेना उनके लिए पवित्र मिशन बन गया था । माना जाता है कि क्रूसेड न हुआ होता, तो दुनिया के बड़े भू-भाग से ईसाई धर्म का नामोनिशान मिट जाता ।
श्री तिर्की ने इज़राईल को सबसे रहस्यपूर्ण देश माना है, जहाँ पूरी फिलिस्तीन सीमा को सीमेंट की ऊँची दीवारों से घेर दिया गया है । प्रत्येक प्रसंग में लेखक ने क्या-क्यों-कैसे की पड़ताल की है, जैसे, जेरूशलम में ईसा की कब्र पर निर्मित सेपलचर चर्च की चाबी मुस्लिम परिवार के पास होने का प्रसंग है । अचरज में डालने वाली ऐसी अनेक जानकारियाँ पुस्तक में दर्ज हैं । छह ईसाई सम्प्रदाय इस चर्च से जुड़े हुए हैं । लेखक ने कारण का खुलासा करते हुए लिखा है – ‘साझा करने वाले सम्प्रदायों में से किसी एक सम्प्रदाय को चाबी सौंपने का आशय यह होता कि बाकी के सम्प्रदाय उनके प्रभुत्व को स्वीकार करते हैं, इसलिए यह नायाब तरीका निकाला गया कि चाबी इनमें से किसी को ना सौंपते हुए एक मुस्लिम परिवार को सौंपी जाए ।‘ इससे मिलती-जुलती कहानी नैटिविटी चर्च की है, जो ईसा मसीह का जन्म स्थान होने के कारण अनुयायियों की श्रद्धा का सर्वोच्च केन्द्र है । चर्च के स्वामित्व पर तीन ईसाई सम्प्रदायों में विवाद है । ‘स्वामित्व विवाद व कानूनी अड़चनोें के कारण ईसाई धर्म का मूल केन्द्र तथा एक विश्व धरोहर, मरम्मत के अभाव में खण्डहर में तब्दील होता जा रहा है ।‘ इस पर दुख-क्षोभ स्वाभाविक है । केवल दो हजार वर्षों में ईसाई धर्म अनेक सम्प्रदायों में बँट गया है । मुख्य सम्प्रदायों के अतिरिक्त और भी सैंकड़ों सम्प्रदाय बन चुके हैं । सभी धर्मों के भीतर इसी तरह फिरकों की भीड़ है, इसलिए सारे धार्मिकों को मंथन करना होगा कि धर्म एकजुट करने के बदले विभक्त क्यों करता है और क्या मानव समाज धर्म की अपरिपक्व व्याख्या में फँस गया है!
यह पुस्तक समाज, संस्कृति, धर्म और मानव जीवन में रूचि रखने वालों के अलावा इतिहास, भूगोल, जैविकी, पर्यटन आदि अनेक अनुशासनों में रूचि रखने वालों को लुभाने में सक्षम है । इसका प्रवेश-द्वार यानि शेख राशिद बख्श द्वारा लिखी भूमिका अच्छी है । सचमुच लेखक ने संसार की सैर पर्यटक की तरह नहीं की, वे केवल देखते नहीं, दृश्यों को अनुभव करते हैं, इसीलिए उनके वर्णन रिपोर्ट की तरह शुष्क नहीं हैं तथा पाठक जुड़ा हुआ महसूस करता हैे । जनजातीय जीवन तथा ईसाइयत के सामने खड़े प्रश्नों पर जैसा खुला विश्लेषण प्रस्तुत हुआ है, वह अपूर्व और आँखें खोलने वाला है । इसमें संशय नहीं कि ‘तलाश‘ व्यापक रूप से पढ़ी जायेगी तथा लेखक को पहचान मिलेगी ।
-डॉ. राकेश शुक्ल
किताब: तलाश: विदेशी एवं आदिवासी संस्कृति के अनछुए दस्तावेज | लेखक: विनय प्रकाश तिर्की | प्रकाशक: साहित्य विमर्श | पुस्तक लिंक: अमेज़न | साहित्य विमर्श
टिप्पणीकार परिचय:
डॉ. राकेश शुक्ल
तीन दशकों सेे अव्यस्थित लेखन । समीक्षा मूलक छायावादोत्तर आख्यान काव्य) प्रकाशित । विभिन्न विषयों एवं विधाओं में लिखा-पढ़ी । छत्तीसगढ़ के राज्य सचिवालय में पदस्थ।
पता: 12, पल्लवी विहार, रोहिणीपुरम, रायपुर (छ.ग.)
ई-मेल: chiranjeevishukla@gmail.com