संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: ई-बुक | प्रकाशक: तुलसी कॉमिक्स | प्लैटफॉर्म: प्रतिलिपि | चित्रांकन: विकास कुमार | कथानक: आफताब खान | कैलीग्राफी: आराधना वर्मा | सम्पादन: प्रमिला जैन
कॉमिक बुक लिंक: प्रतिलिपि
कहानी
शहर में पिशाचों के कारण खौफ का माहौल था। रोज रात को यह पिशाच शहर और उसके आस-पास के में आकर आतंक मचा रहे थे।
विकास इसी शहर में रहने वाला एक पेंटर था जिसे लगता था कि पिशाचों के उत्पात के पीछे उसका हाथ था। यह पिशाच उसकी पेंटिंग से ही निकले थे।
आखिर विकास को ऐसा क्यों लगता था? क्या सचमुच पिशाच उसकी पेंटिंग से निकले थे?
क्या इन पिशाचों पर काबू पाया जा सका?
विचार
तुलसी कॉमिक्स जब प्रकाशित होती थी तो उन्होंने हॉरर चित्रकथाएँ भी काफी प्रकाशित की थी। ऐसी कई कॉमिक्स अब प्रतिलिपि पर मौजूद है जिन्हें मैं गाहे-बगाहे पढ़ता रहता हूँ। इस बार इसी शृंखला का जो कॉमिक बुक मैंने पढ़ा वो ‘पेंटिंग के पिशाच’ था।
‘पेंटिंग के पिशाच’ मुख्य रूप से एक चित्रकार विकास की कहानी है जो कि शहर से दूर मौजूद एक पहाड़ी इलाके में आता है और वहाँ मौजूद डाक बंगले में पेंटिंग रुककर पेंटिंग बनाने लगता है। इस डाक बंगले में आकर वह एक ऐसी डरावनी पेंटिंग बनाता है जिसमें चित्रित पिशाच ज़िंदा होकर आस-पास तबाही मचाने लते हैं। ऐसे में विकास कैसे इस मुसीबत से पार पाता है वही कॉमिक बुक की कहानी बनती है।
कहानी का कन्सेप्ट अच्छा है। पेंटिंग से पिशाचों का ज़िंदा होकर निकलना और उनका आतंक मचाना एक तरह का प्रश्न आपके मन में खड़ा कर देता है कि ऐसा क्यों हुआ? और इसी प्रश्न का उत्तर जानने के लिए आप कॉमिक पढ़ते चले जाते हो।
कॉमिक में इस दौरान एक्शन भरपूर रहता है। जहाँ एक तरफ पिशाचों की हरकतें खौफनाक हैं वहीं लोगों और पुलिस का उनसे दो चार होना कहानी में एक्शन बनाए रखता है। कहानी में विकास के भतीजी और भतीजे पायल और निर्मल भी हैं जो कि इस मामले को सुलझाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हैं। इस चीज से कहानी में जासूसी का पुट भी आता है और आपको यकीन होता है कि इन दोनों बच्चों को डाकबंगले में कोई ऐसी चीज मिलेगी जो कि पेंटिंग के किरदारों के जीवित होने पर कुछ प्रकाश डालेगी। लेकिन अफसोस ऐसा होता नहीं है।
डाकबंगले में बच्चों और विकास को कुछ मिलता तो है और वहाँ एक्शन भी होता है जिससे बच्चों की दिलेरी से ये लोग बचते हैं लेकिन मूल बात का जवाब फिर भी नदारद रहता है। कहानी अंत हो जाती है और एक बड़ा अनुत्तरित प्रश्न यह आपके सामने छोड़ जाती है कि वह पेंटिंग के जीव ज़िंदा क्यों हुए। ऐसा लगता है जैसे अंत में लेखक को अचानक अहसास हुआ कि वह तय पृष्ठ संख्या तक पहुँच गया था और उसने फिर जल्दी जल्दी कहानी को निपटा दिया।
तुलसी से प्रकाशित कई कॉमिक बुक्स में मैंने ऐसा देखा है। वहाँ पर कान्सेप्ट तो अच्छा होता है लेकिन अंत तक आते-आते लेखक आलस्य में डूब जाता है और जैसे-तैसे कहानी निपटाकर कॉमिक की इति श्री कर देता है।
इस कॉमिक में भी कहानी खत्म होती है और आप खुद को कहीं न कहीं थोड़ा सा ठगा हुआ महसूस करते हो। आखिर तक आपको लगता है कि कहानी में कोई ट्विस्ट आएगा लेकिन उसे न आना था और न वो आता है। अगर लेखक केवल पिशाचों के उस डाकबंगले में ज़िंदा होने का कोई कारण दे देते तो शायद यह एक ठीक-ठाक कॉमिक बुक बन सकता था। दो चार पृष्ठ जोड़कर ये किया जा सकता था। लेकिन मुख्य बात के जवाब के नदारद होने से एक तरह का असंतुष्टि का भाव इस कॉमिक को लेकर आपके मन में रह जाता है।
कॉमिक में यह चीज इसलिए भी खलती है क्योंकि कॉमिक केवल एक लेखक का माध्यम नहीं होता है। इसके साथ कहानी के लेखक के साथ उसके चित्रकार, संपादक, लेटरर इत्यादि जुड़े हुए होते हैं। ऐसे में इन सभी लोगों की नज़रों से इस महत्वपूर्ण चीज का बचकर निकलना एक तरह से इनका अव्यवसायिक दृष्टिकोण दर्शाता है। ऐसे लगता है जैसे उन्हें बस चीजें खत्म करके आगे सरकानी थी और वो उन्होंने किया।
कॉमिक बुक में आर्ट विकास कुमार का है। इन आर्टिस्ट का नाम मैंने सुना नहीं है लेकिन आर्ट मुझे ठीक ठाक लगा। कहानी के कुछ दृश्य भयावह हैं।
अंत में यही कहूँगा कि कॉमिक बुक एक मुख्य सवाल का जवाब न देने के कारण अधूरेपन का अहसास कराती है। एक बार पढ़ना चाहे तो पढ़ सकते हैं। कॉमिक के पीछे के विचार को कोई इस्तेमाल कर इसके ऊपर ढंग का कुछ करे तो शायद बेहतर हो।
कॉमिक बुक लिंक: प्रतिलिपि
डाक बँगले अक्सर भूतिया ही बताए जाते है फिल्मो और उपन्यासों मे।
लेखक महोदय को लगा होगा कि यह इतनी स्वाभाविक बात है कि उन्हें उसे लिखने की जरूरत नही,
पाठक खुद ही समझ जाएंगे।
लेकिन स्पष्टीकरण देना चाहिए,
क्या पता विकास के पास ही यह शक्तियाँ थी?
अगर शक्तियाँ होती तो सभी तरह की तस्वीरों पर काम करती। लेकिन ऐसा नहीं होता है। इसलिए भी अटपटा लगा। अगर इसके पीछे कोई तगड़ा कारण होता तो एक रोचक कॉमिक बन जाती ये।