संस्करण विवरण
फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 40 | प्रकाशक: राजा पॉकेट बुक्स | शृंखला: राजन-इकबाल
कहानी
शहर में जवाहर रोड का इलाका अजीब घटनाओं का केंद्र बना हुआ था। लड़कियाँ डरी हुई थी क्योंकि रात के वक्त जवाहर रोड के इर्द गिर्द एक काला जीव अमीर घर की लड़कियों पर हमला कर रहा था।
यह कौन था ये कोई नहीं जानता था।
वहीं जवाहर रोड में मौजूद एक कोठी में आत्मा का वास बताया जा रहा था। हैरानी की बात यही यह थी कि जब राजन शोभा इस मामले की जाँच हेतु गए तो आत्मा ने शोभा को भी अपना शिकार बना लिया था।
क्या घर में सचमुच किसी आत्मा का साया था?
शहर में जो साया मौजूद था वह क्यों लड़कियों पर हमला कर रहा था?
क्या राजन इकबाल शहर हो रही इन अजीबो गरीब हरकतों का पता लगा पाये?
किरदार
राजन इकबाल – सीक्रेट एजेंट
शोभा – राजन इकबला की तरह एक सीक्रिट एजेंट
नफीस – एक कान्ट्रैक्टर और इकबाल का दोस्त
बनारसी लाल – जवाहर नगर की कोठी नंबर 12 का मालिक
श्यामली – बनारसी लाल की बहन
मोहनलाल – बनारसी लाल का पड़ोसी
बलवीर सिंह – पुलिस इंस्पेक्टर
विचार
पुस्तक के कथानक के केंद्र में दो मामले हैं जिनसे इस बार राजन और उसकी टीम जूझती हुई दिखती हैं।
एक मामला तो अमीर लड़कियों का एक जीव के हमले के बाद घर से भाग जाने का है और एक मामला एक ऐसी कोठी का है जहाँ प्रेत का वास बताया जाता है। यह दोनों मामले किस तरह जुड़े हुए हैं और कैसे भाग दौड़ करके राजन की टीम इन्हें सुलझाती है यही कथानक बनता है।
‘लड़कियों का हंगामा’ एक टिपिकल राजन-इकबाल शृंखला का कारनामा है। चालीस पृष्ठों की इस उपन्यासिका में राजन-इकबाल के साथ शोभा भी मौजूद हैं। वहीं राजन द्वारा बनाई गई रेड फोर्स भी मामले में एक मजबूत भूमिका निभाती है। कथानक में नफीस भी है जो कि इकबाल के साथ मिलकर कथानक को और मनोरंजक बनाता है।
कहानी में रहस्य है जो कि नायकों की टीम को उलझाता है। ऐसी घटनाएँ भी होती हैं जो कि रोमांच पैदा करती हैं। राजन हर बार की तरह सबसे ज्यादा जानता है जिस कारण कहानी के अंत में कुछ ट्विस्ट्स भी आते हैं। वहीं खलानायक के मामले में भी लेखक ने कुछ मोड़ लाने की कोशिश की है। लेकिन फिर भी यह रचना प्रभावी नहीं हो पाती है। इसके अलावा सलमा का न होना भी कहीं खलता है।
कथानक की कमी की बात करूँ तो कुछ कमियाँ इसमें मुझे लगी।
इस चालीस पृष्ठों के कथानक में लेखक ने काफी चीजें डालने की कोशिश की है जिससे चीजें गड्डमड्ड सी हो गयी लगती हैं। जैसे यहाँ पर लड़कियों पर हमला करने वाला जीव है, घर की आत्मा है और आगे जाकर इसमें भारत के गुप्त रहस्य को विदेशियों को बेचने वाला कोण भी जुड़ जाता है। चूँकि लेखक को इसे कम पृष्ठों में करना था तो आखिर में वह इन तीनों ही चीजों को व्यक्तियों के एक ही समूह द्वारा दर्शाया गया दिखा देते हैं। यह चीज कथानक को उस तरह से खिलने नहीं देता है जैसे की तब होता जब लेखक केवल एक ही परेशानी से राजन-इकबाल को जूझते हुए दर्शाते। यानी अगर लेखक ढंग से लिखते तो भूत वाले मामले में अलग उपन्यासिका बन सकती थी, लड़कियों पर हमले वाले मामले में एक अलग उपन्यासिका बन सकती थी और भारत के खुफिया रहस्य बेचने के मामले में एक अलग उपन्यासिका बन सकती थी।
कथानक में खलनायक भी एक ही इलाके में काम करते दिखते हैं और वह इलाका वही रहता है जहाँ वह रहते थे। अगर कोई भी समझदार खलनायक होगा तो वह अपने रहने की जगह के इर्द गिर्द कुछ भी उल्टा पुलटा करने से बचेगा ताकि शक के घेरे में न आए। फिर एक ही जगह चीजों को केंद्रित करके खलनायकों ने नायकों के लिए चीजें काफी आसान कर दी थीं। यह भी मुझे थोड़ा सा खला।
कथानक उलझा हुआ जरूर है लेकिन राजन और उसकी टीम को संयोग से ऐसे सबूत मिलते रहते हैं जो कि आगे बढ़ने में उनकी मदद करते हैं। जैसे इकबाल को जवाहर रोड के नजदीक खलनायिका की तस्वीर वाला डिब्बा मिलता है और वह उस तस्वीर को लेकर घर जाता है। उस तस्वीर को देखकर राजन इकबाल को ब्यूटी क्लब जाने को कहता है और उसे वहाँ संयोग से उस गिरोह की सदस्या मिल जाती है जो कि इस पूरे मामले के पीछे है। यह संयोग उनकी तहकीकत को काफी आसान कर देते हैं। मुझे लगता है इकबाल उस लड़की तक संयोग की जगह तहकीकात करके पहुँचता तो बेहतर होता। इसके बाद संयोग से ही उन्हें एक बोना और वो तस्वीर वाली लड़की मिलती है और फिर इकबाल और नफीस उसके पीछे पड़ जाते हैं। यह भी संयोग के बजाए तहकीकत करके होता तो बेहतर होता।
कथानक में शोभा भी आत्मा के प्रभाव आने के बाद जड़ हो जाती है। इस आत्मा का रहस्य उजागर होने पर ये नहीं बताया गया कि शोभा के साथ जो हुआ वो कैसे हुआ।
राजन इकबाल शृंखला की उपन्यासिकाओं में अक्सर यह दर्शाया जाता है कि राजन को बाकी टीम से मसले की अधिक जानकारी रहती है। इसमें भी यही हुआ है। जैसे राजन उस तस्वीर वाली लड़की के विषय में कुछ तो जानता है और इसलिए इकबाल को ब्यूटी क्लब भेजता है। लेकिन वह क्या जानता है और क्यों इकबाल को भेजता है यह दर्शाया नहीं गया है। अगर इस बिन्दु पर आखिर में राजन कुछ रोशनी डालता तो बेहतर होता।
वहीं कथानक पर शीर्षक ‘लड़कियों का हंगामा’ भी फिट नहीं बैठता है। यह बात जरूर है इसमें एक मुख्य खलनायिका है लेकिन शीर्षक से ऐसा लगता है जैसे लड़कियों की कोई गैंग सक्रिय हो जो कि हंगामा मचा रही हो। लेकिन ऐसा कुछ इधर नहीं होता। एक गैंग जरूर सक्रिय है जो कि लड़कियों का अपहरण करती है लेकिन फिर वह अपहरण करके जो उनसे करवाती है उसको न तो दिखाया गया है और जो उसके विषय में बतायाया गया है वह हंगामा सरीखा नहीं है। हाँ अगर इस उपन्यासिका का शीर्षक लड़की का हंगामा होता तो शायद बेहतर होता।
फिर कथानक में कुछ चीजें थीं जो मुझे अटपटी लगीं। जैसे:
पृष्ठ चार में बताया गया है कि जवाहर रोड में कोठी की आत्मा ने पुलिस वालों को चेतावनी दी और बम फोड़कर उन्हें भगाया और फिर फिर छः में बलबीर कहता है कि घटना औरतों के सामने घटित हुई और उनके सामने नहीं हुई। यह अटपटी बात है। क्या पहले जो पुलिस गयी थी उसमें औरतें ही थी?
पुलिस ने जब कोठी की तलाशी ली, तो उन्हें एक स्त्री स्वर सुनाई दिया- “मैं जानती हूँ- तुम लोग पुलिस वाले हो – कानून के रक्षक।…”
इस चेतावनी के बाद भी जब पुलिस वाले तलाशी लेते रहे तो, दो धमाके हुए। पुलिस वाले सिर पर पाँव रखकर भागे। (पृष्ठ 4)
बलबीर और राजन का संवाद:
“एक बार तुम भी कोठी के अंदर गए थे- एक बार में भी अंदर जा चुका हूँ, लेकिन हमारे सामने कोई घटना नहीं घटी। औरतों के साथ ही घटना घटती है। हमने कोई आवाज नहीं सुनी। “
“आपका मतलब है- इस घटनाक्रम में सिर्फ औरतें ही शिकार हो रही हैं।” (पृष्ठ 6)
ऐसे ही पृष्ठ 33 में दिखाया गया है कि इकबाल के हाथ बंधे हैं और वह चाय भी किसी और के पिलाने पर पीता है। लेकिन फिर पृष्ठ 34 में वो चपाती और डाल इन्हीं बंधे हाथों से खाता हुआ दिखाया गया है। इसके बाद वह और नफीस इन्हीं बंधे हाथों से टहलने निकल जाते है। यह बात भी मुझे अटपटी लगी। पहली बात तो मैं अगर किसी को कैद करूँगा तो उसके हाथ ही नहीं पैर भी बाँधूँगा ताकि वह कहीं आ जा न सके। केवल हाथ बांधने का तुक मुझे समझ नहीं आया। फिर जब एक बंधे हाथों से चाय भी किसी के सहारे पी रहा है तो वह आदमी चपाती और दाल कैसे खा सकता है? यह बात भी मुझे अटपटी लगी।
“पहले हाथ खोलोगी तभी तो चाय पियूँगा।”
“मैं ऐसा नहीं कर सकती।”
“क्यों?”
“मैं तुम्हें अपने हाथों से चाय पिलाऊँगी।”
इकबाल ने दो घूँट भरे और फिर पूछा…. (पृष्ठ 34)
एक थाली में दो चपाती व दाल रखी थी। इकबाल उन्हें चट कर गया और फिर बोला-… (पृष्ठ 35)
इसी के साथ सायरन बजा और वह लड़कियाँ भाग गईं। इकबाल और नफीस के हाथ अभी भी बंधे हुए थे। (पृष्ठ 36)
अंत में यही कहूँगा कि यह राजन इकबाल का यह कारनामा मुझे औसत से कमतर ही लगा। हाँ, नफीस और इकबाल कुछ जगहों पर मनोरंजन करने में सफल होते हैं और कुछ प्रसंग जैसे मौत की झोपड़ी वाला प्रसंग भी रोचक थे। इसके पीछे का विचार रोचक था लेकिन उसे ठीक तरह क्रियान्वित करने की जरूरत थी।
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