पुस्तक अंश: आशा – सुरेन्द्र मोहन पाठक

हिन्दी अपराध साहित्य के मकबूल लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक ने अपने अपराध लेखन से पाठकों का भरपूर मनोरंजन किया है। अपराध लेखन के अलावा उनके लेखन की बात की जाए तो अपनी जीवनी,  बाल उपन्यास और सामाजिक उपन्यास भी उन्होंने लिखे हैं।

हिन्दी लोकप्रिय साहित्य में सामाजिक उपन्यास वह उपन्यास कहलाते थे जो कि अपराध लेखन के दायरे में नहीं आते थे। इनके विषय प्रेम, रिश्ते या समाज की कुरीतियों पर ही आधारित होते थे। सुरेन्द्र मोहन पाठक द्वारा लिखा गया उपन्यास आशा एक ऐसा ही उपन्यास है। यह उपन्यास आशा नाम की लड़की की कहानी है जो कि एक फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर के दफ्तर में सेक्रेटरी की नौकरी करती है। वहाँ रहते हुए उसके जीवन में क्या क्या होता है और किस तरह से लोगों से उसका पाला पड़ता है यही उपन्यास में दर्शया गया है। आशा  प्रथम बार 1968 ने प्राकशित हुआ था।
एक बुक जर्नल में हम आपके सामने आशा का एक छोटा सा अंश प्रस्तुत कर रहे हैं। 
यह अंश उपन्यास के मुख्य किरदार आशा और उसकी सहेली सरला के बीच का संवाद है। आशा जहाँ ईमानदारी से, मेहनत से अपना जीवन यापन करना चाहती है वहीं उसकी दोस्त सरला अपने हुस्न का प्रयोग अपनी आकाँक्षाओं को पूरा करने के लिए करती है। दोनों के ही नैतिक मूल्य अलग हैं और इस बहस में दोनों अपने अपने पक्षों को सामने रख रहे हैं। 
इन दोनों किरदारों का आगे चलकर क्या होता है यह तो आपको उपन्यास पढ़कर ही जान पाएंगे। उम्मीद है यह अंश आपको पसंद आएगा।
आशा - सुरेन्द्र मोहन पाठक

*****
र अब बेटा भी तुझ पर आशिक है?”
“वह है।” 
“लेकिन तुम नहीं हो?”
“नहीं।”
“क्यों?”
“क्योंकि उसकी लाइन ऑफ़ एक्शन भी लगभग वैसी ही है जैसी उसके बाप की थी।”
“हर्ज क्या है! बाप तो बूढ़े होते हैं लेकिन बेटे तो जवान होते हैं।”
“हर्ज है मुझे हर्ज दिखाई देता है। मुझे गंदी नीयत वाले मर्द पसंद नहीं हैं।”
“नीयत तो दुनिए के हर मर्द की गंदी होती है लेकिन पैसा किसी किसी के पास होता है।”
“मुझे पैसे की इतनी चाह नहीं है।”
सरला कुछ क्षण विचित्र नेत्रों से आशा को घूरती रही और फिर यूँ गहरी साँस लेकर बोली, जैसे गुब्बारे में से हवा निकल गई हो- “हाय वे मेरे रब्बा।”
“क्या हो गया!”- आशा केतली उठा कर अपने कप में दुबारा चाय उढ़ेलती हुई बोली- “भगवाल क्यों याद आने लगा है तुम्हें?”
“आशा!”- सरला तनिक गम्भीर स्वर से बोली – “सोच रही हूँ कि तुम्हारे सिन्हा साहब या उनके बाप जैसे मर्द मुझ से क्यों नहीं टकराते?”
“तुम्हें उनकी गंदी हरकतों से कोई ऐतराज नहीं है?”
“कोई ऐतराज नहीं है, बशर्ते वे अगले दिन मुझे जोहरी बाज़ार या मुम्बा देवी ले जाकर मेरी मनपसन्द का हीरों का हार खरीद लेने के अपने वादे पर पूरे उतरें।”
“और अगर वे अपना वादा पूरा न करें?”
“कोई तो अपना वादा पूरा करेगा। सारे ही तो बेइमान नहीं होते।”
“तुम्हें तजुर्बे करते रहने में कोई ऐतराज दिखाई नहीं देता?”
“नहीं।”- सरला सहज स्वर में बोली- “आशा, जिंदगी उतनी छोटी नहीं जितनी दार्शनिक सिद्ध करने की कोशिश करते हैं और जवानी भी मेरे ख्याल से काफी देर टिकती नहीं है।”
“मुझे ऐतराज है।”- आशा तनिक कठोर स्वर में बोली।
“क्या ऐतराज है?”
“मैं कोई एक्पेरिमेंट की चीज नहीं जो किसी निजी ध्येय तक पहुँचने की खातिर जिस तिस की गोद में उछाली जाऊँ।”
“क्या हर्ज है अगर जिस तिस की गोद में उछाल मंजिल तक पहुँचने का शोर्टकट सिद्ध हो जाए।”
“मेरी मंजिल इतनी दुर्गम नहीं है कि मैं हर अनुचित परिस्थिति से समझौता करने वाली भावना को मन में पनपने दूँ। मैं आसमान में छलाँग नहीं लगाना चाहती।”
“लेकिन मैं तो आसमान पर छलाँग लगाना चाहती हूँ।”
“ठीक है लगाओ। कौन रोकता है? अपनी जिंदगी जीने का हर किसी का अपना-अपना तरीका होता है लेकिन एक बात तुम लिख लो।”
“क्या?”
“जब कोई इनसान बहुत थोड़ी मेहनत से बहुत बड़ा हासिल करने की कोशिश करता है या वह गलत और भविष्य में दुखदाई साबित होने वाले तरीकों से ऐसी पोजीशन पर पहुँचने की कोशिश करता है, जहाँ पहुँच कर मजबूती से पाँव टिकाए रह पाने की काबिलियत उसमें नहीं है तो उसका नतीजा बुरा ही होता है।”
“तुम बेहद निराशावादी लड़की हो।”- सरला ने अपना निर्णय सुना दिया।
“यह बात नहीं है। मैं तो..”
“छोड़ो”- सरला बोर ही होती हुई बोली- “तुम्हारी ये बातें तो मुझे भी निराशावादी बना देंगी और मुझे जो हासिल है, मैं उसी से संतुष्ट होकर बैठ जाऊँगी।”
“और वास्तव में आजकल तुम हो किस फिराक में?”
“मैं आजकल बहुत ऊँची उड़ाने भरने की कोशिश कर रही हूँ और, सच आशा, अगर मेरा दाँव लग गया तो मैं वक्त से बहुत आगे निकल जाऊँगी।”
“किस्सा क्या है?”
“सच बता दूँ?” सरला शरारत भरे स्वर से बोली। एक क्षण के लिए जो गम्भीरता उसके स्वर में थी वह एकाएक गायब हो गई थी।
“और क्या मेरे से झूठ बोलेगी?”
“आजकल मैं एक बड़े रईस आदमी के पुत्तर को अपने पर आशिक करवाने की कोशिश कर रही हूँ।” -सरला रहस्यपूर्ण स्वर में बोली।
“आशिक करवाने की कोशिश कर रही हो!” – आशा हैरानी से बोली-“क्या मतलब?”
“हाँ और क्या! आशिक ही करवाना पड़ेगा उसे खुद आशिक होने के लिये तो उसे बम्बई फिल्म इंडस्ट्री में हजारों लड़कियाँ दिखाई दे जाएँगी।”
“फिर भी वह तुम पर आशिक हो जायेगा?”
“होगा कैसे नहीं खसमांखाना!” सरला विश्वास पूर्ण स्वर में बोली -“मैं बहुत मेहनत कर रही हूँ उस पर।”
“लेकिन अभी तुम बम्बई की फिल्म इंडस्ट्री की हजारों लड़कियों का जिक्र कर रही थी….”
“वे सब मेरे जैसे होशियार नहीं है।”- सरला आत्मविश्वास पूर्ण स्वर में बोली- “मर्द की और विशेष रूप से कच्चे चूजों जैसे नये नये नातजुर्बेकार छोकरों को फाँसने के जो तरीके मुझे आते हैं , वे उन हजार खसमाखानियों को नहीं आते जो उस छोकरे को फाँसने के मामले में मेरी कम्पीटीटर बनी हुई हैं या बन सकती हैं। मैं बहुत चालाक हूँ।”
“तुम तो यूँ बात कर रही हो जैसे चालाक होना भी कोई यूनिवर्सिटी की डिग्री हो।”
“बम्बई में तो डॉक्टरेट है। तुम्हारी बी ए की डिग्री के मुकाबले में मेरी यह तजुर्बे की डिग्री ज्यादा लाभदायक है। तुम तो जिंदगी भर सिन्हा साहब के दफ्तर में टाइप राइटर के ही बखिये उधेड़ती रह जाओगी लेकिन मेरी जिंदगी में कहीं भी पहुँच जाने की अंतहीन सम्भावनाएँ हैं।”
“और बर्बाद हो जाने की भी अंतहीन सम्भावनाएँ हैं।”
“आशी”- सरला उसकी बात अनसुनी करके ऐसे स्वर में बोली जैसे कोई ख्वाब देख रही हो – “शायद किसी दिन तुम्हें सुनाई दे कि तुम्हारी सरला बहुत बड़ी हीरोइन बन गई है या किसी करोड़पति सेठ की बीवी या बहु बन गई है और अब नेपियन सी रोड के महलों जैसे विशाल बंगले में रहती है और…”
“या शायद”- आशा उसकी बात काटकर बोली – “किसी दिन मुझे यह सुनाई दे कि सरला खड़ा पारसा में अपने लगभग मुर्दा शरीर पर धज्जियाँ लपेटे बिजली के खम्बे से पीठ लगाये फुटपाथ पर बैठी, भीख माँग रही है या वह रात के दो बजे खार की सोलहवीं सड़क पर खड़ी किसी भूले भटके ग्राहक का इन्तजार कर रही है या वह किसी सरकारी हस्पताल के बरामदे में पड़ी किसी बीमारी से दम तोड़ रही है या बरसों के गन्दे समुद्री पानी में एक औरत की लाश के अवशेष पाए गये हैं जो कभी सरला थी या….”
इतनी भयानक बातें सुनकर भी सरला के चेहरे पर शिकन नहीं आई।
“हाँ”- उसने बड़ी शराफत से स्वीकार किया -“यह भी हो सकता है लेकिन ये बहुत बाद की बल्कि यूँ कहो कि आखिरी हद तक की बातें हैं। फिलहाल मेरे सामने इन बातों का जिक्र मत करो। मेरा सपना मत तोड़ो। मुझे बेपनाह पैसे वाले के संसर्ग, बीस-बीस फुट लम्बी विलायती करों और मालाबार हिल और जूहू और नेपियन सी रोड और ऐसी दूसरी शानदार जगहों के विशाल और खूबसूरत बंगलों के खूब सपने देखने दो।”
“सपने देखने से क्या होता है।”
“सपने देखने से बहुत कुछ होता है। सपने देखने से मन में निराशा की भावना नहीं पनपती। सपने देखने से अपने लक्ष्य पर आगे बढ़ने की इच्छा हर समय बनी रहती है। और सबसे बड़ी बात यह है कि सपने देखने से अपने आप को धोखा देते रहने में बड़ी सहूलियत रहती है।”
“तुम अपने आप को ही धोखा देती हो।”
“कौन नहीं देता?”
“तुम तो फिलासफर होती जा रही हो।”
“बड़ी बुरी बात है।”
“बुरी बात क्या इस में?”
“फिलासफर होने का मतलब यह है कि मुझ में अक्ल आती जा रही है। और औरतों को अकल से परहेज करना चाहिए।”
“क्यों?”
“क्योंकि अकल आ जाने से बहुत सी बुरी बातें बेहद बुरी लगने लगती हैं। फिल्म उद्योग में तरक्की करने के कई स्वभाविक रास्ते बेहद गलत लगने लगते हैं। जैसे हीरोइन बनने के लक्ष्य तक पहुँचने का वह रास्ता जो फिल्म निर्माता के बैडरूम से होकर गुजरता है। इसी प्रकार अकल आ जाने से आप तरकीब का बड़ा ख्याल रखने लगती हैं अर्थात जो काम पहले होना है, वह पहले हो, जो काम बाद में होना है, वह बाद में हो। अक्ल आ जाने पर लड़की उलटफेर पसंद नहीं करती कि हनीमून तो पहले हो जाए और शादी बाद में हो।”
“बड़ी भयानक बातें करती हो तुम?”
“बड़ी सच्ची बातें करती हूँ मैं। जब आप असाधारण नतीजे हासिल करने की कोशिश कर रही हो तो इसके लिये आपको असाधारण काम भी तो करने पड़ेंगे।”
“इनसान का धर्म ईमान भी तो कोई चीज होती है।”
“कभी होती होगी। अब नहीं होती। अब तो पैसा ही इनसान का धर्म ईमान है। आज की जिंदगी में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना ही सबसे बड़ा धर्म है।”
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उम्मीद है बातचीत का यह छोटा सा अंश आपको पसंद आया होगा।
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© विकास नैनवाल ‘अंजान’

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