परिचय:
मोहन मौर्य |
जयपुर में जन्में मोहन मौर्य जी को बचपन से ही किस्से कहानियों और कॉमिक बुक्स पढ़ने का शौक था। कहानियाँ पढ़ते पढ़ते वो कब खुद ही कहानियाँ, किस्से, कवितायें कहने लगे इसका उन्हें भी पता नहीं लगा। बहरहाल वो बचपन में ही कहानियाँ, कवितायें लिखने लगे जिस पर थोड़ा ब्रेक कॉलेज पहुँचने से कुछ वर्ष पहले लगा लेकिन कॉलेज पहुँचने पर फिर दोबारा इस शौक ने उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया। और वहीं उनकी पहली पुस्तक का जन्म भी हुआ।
मोहन जी ने कॉलेज में इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और अब एच पी सी एल में कार्यरत हैं।
कॉमिक बुक्स से विशेष लगाव रखते हैं। इस लगाव को इसी बात से जाना जा सकता है कि दोस्तों के साथ मिलकर इन कॉमिक किरदारों को लेकर बनी गयी फिल्म में एक कॉमिक किरदार निभाया था।
उनकी अब तक निम्न रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं:
(किताबें आप ऊपर दिए गये लिंक्स पर क्लिक करके खरीद सकते हैं।)
‘एक बुक जर्नल’ की साक्षात्कार श्रृंखला के अंतर्गत हम आज आपके समक्ष मोहन मौर्य जी के साथ हुई बातचीत पेश कर रहे हैं। इस बातचीत में हमने उनके लेखन के तरीके, उनकी प्रेरणा और उनकी आने वाली कृतियों के विषय में बातचीत की है। आशा है मोहन जी से हुई यह बातचीत आपको पसंद आएगी।
प्रश्न: मोहन जी कुछ अपने विषय में बताइये- आप मूलतः किधर से हैं, बचपन किधर बीता, पढ़ाई किधर से हुई?
उत्तर: मेरा जन्म जयपुर जिले के एक छोटे से गाँव बल्लुपुरा में हुआ था। जयपुर का प्रसिद्ध तीर्थ गलताजी हमारे गाँव से 3-4 किलोमीटर दूर है। परिवार में कोई भी ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था। मेरे दादाजी चमड़े की जूतियाँ बनाया करते थे, जो हमारी जाति का खानदानी काम था। पिताजी भी ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे, पर पढ़ाई का महत्व अच्छी तरह से समझते थे। चौथीं(4थी) कक्षा तक गाँव के ही सरकारी स्कूल तक पढ़ा, फिर हम गाँव छोड़कर शहर मानसरोवर में रहने आ गए थे। उच्च प्राथमिक मैंने निजी स्कूल से की, फिर कुछ आर्थिक समस्या की वजह से 9वी में सरकारी विद्यालय में प्रवेश किया जहाँ का माहौल पढ़ाई के लिए सही नहीं था तो पापा ने बारहवीं (12वी) कक्षा के लिए फिर से निजी विद्यालय में प्रवेश करा दिया। मेरी इंजीन्यरिंग भी मानसरोवर के ही निजी कॉलेज से हुई थी। फिर इंजीन्यरिंग के पश्चात जयपुर में ही एक आईटी कंपनी में जॉब लगी, जहाँ मैंने 8 साल से ज्यादा नौकरी करी। अभी वर्तमान में एचपीसीएल में कार्यरत हूँ और विशाखापट्नम में निवास कर रहा हूँ।
प्रश्न: मोहन जी साहित्य के प्रति आपकी रूचि कब जागी? घर वालो का आपके साहित्य अनुराग के प्रति क्या नजरिया था?
उत्तर: साहित्य के प्रति रुचि कब जागी, ये कहना तो थोड़ा मुश्किल है। हाँ कहानियाँ पढ़ने का शौक बचपन से ही था। जब छोटी कक्षा में था तो बड़ी कक्षा की हिन्दी की किताबों में कहानियाँ पढ़ा करता था। स्कूल में लाइब्ररी थी जहाँ पर चम्पक, नन्दन जैसी कहानियों की किताबें मिला करती थी। स्कूल की लाइब्ररी से ही पहली बार कॉमिक्स पढ़ने को मिली। फिर मुझे कॉमिक्स पढ़ने का ऐसा शौक लगा कि हर गली में कॉमिक्स की दुकान ढूँढ-ढूँढ कर कॉमिक्स पढ़ने लगा। हाँ, पहले पैसो की कमी से ज्यादा नहीं पढ़ पाता था लेकिन फिर एक एसटीडी शॉप देखी जो एक आंटीजी चलाती थी। वहाँ पर कॉमिक्स, पत्रिकाएँ और उपन्यास रखे हुए थे। मैं स्कूल के बाद उनकी दुकान में बैठने लगा। मेरा काम था जिस किसी का भी फोन आता उसको घर से बुला कर लाना, बदले में मुझे वहीं बैठ कर कॉमिक्स और कहानियों की किताबें पढ़ने को मिल जाती थी। फिर कॉमिक्स से नॉवेल और बाकी पत्रिकाएँ भी वहीं से पढ़नी शुरू की। पापा पढे लिखे नहीं थे, पर पापा के ऑफिस में उनके जो बड़े अधिकारी थे, ज्यादातरों के बच्चे इंजीन्यरिंग और मेडिकल में थे और मेरे पापा भी मुझे उन जैसा ही बनाना चाहते थे। मैं 10वी के बाद हिन्दी साहित्य लेना चाहता था, पर मजबूरी में गणित और विज्ञान लेना पड़ा और उसी में कैरियर भी बनाना पड़ा, इसी से आप समझ सकते है कि घरवालों का मेरा साहित्य के प्रति कैसा नजरिया था।
प्रश्न: एक पाठक के रूप में आपको कैसा साहित्य पसंद है? कुछ अपनी पसंदीदा पुस्तकों और लेखकों के विषय में बताएं?
उत्तर: पढ़ने में कोई विशेष पसंद नहीं है, बस हिन्दी में होनी चाहिए। मुझे प्रेमचंद भी पसंद है और सुरेन्द्र मोहन पाठक भी। वैसे अपराध साहित्य की किताबें मुझे ज्यादा आकर्षित करती है। कॉमिक्स पढ़ना मुझे आज भी पसंद है और कॉमिक्स अपने बेटे को भी पढ़ने के लिए प्रेरित करता हूँ। मेरी पसंदीदा पुस्तकों में मुंशी प्रेमचंद की गोदान, निर्मला, पाठक सर की तीन दिन, कागज की नाव, डायल 100 इत्यादि शामिल है। वैसे मुझे आज तक सबसे ज्यादा पसंद वेद प्रकाश शर्मा जी की रामबाण पसंद आई थी, पर जब मैंने पेचेक देखी तो ना जाने क्यों रामबाण लिस्ट से हट सी गई है।
प्रश्न: मोहन जी उपन्यास लेखन की तरफ आपने कब कदम बढ़ाया? आपको कब लगा कि आपको अपने विचारों को पुस्तक के रूप में दर्ज करना चाहिए?
उत्तर: लिखना तो मैंने जब 7-8 वी में था तभी कर दिया था। शुरू में कहानी लिखता था। फिर रुझान कविता लिखने की तरफ मुड़ गया। एक समय मैंने लगभग 30 के आस पास कहानियाँ और 100 के ऊपर कवितायें लिखी थी पर जिस डायरी में वो सब लिखी थी, वो खो गई। उस दिन मेरा दिल टूट गया था और फिर लिखना बंद कर दिया था। कॉलेज में आने के बाद वापस से लिखना शुरू किया था। मेरे पहले उपन्यास एक हसीन कत्ल की रूप रेखा भी तभी बनी थी। उस समय दिल्ली पब्लिक स्कूल में एक सेक्स स्केण्डल हुआ था, जिसका एमएमएस लीक हुआ था। उसी घटना को आधार बना कर मैंने एक हसीन कत्ल लिखा था, पर वो सब मेरी डायरी में ही कैद रहा। 2014 में नौकरी के सिलसिले में हैदराबाद आना हुआ, जहाँ पर कॉमिक कॉन में मेरी मुलाक़ात मिथिलेश गुप्ता जी से हुई जो कि तिरंगा के गेटअप मे थे। धीरे धीरे वो मेरे मित्र बन गए। उस दौरान उनकी पहली किताब वो भयानक रात प्रकाशित हो चुकी थी। एक दिन वो मेरे घर पर आए, उन्होने मेरी डायरी में मेरी लिखी हुयी कहानी देखी तो उनके मुंह से निकला-“अरे आप इतना अच्छा लिखते हो फिर इसे प्रकाशित क्यों नहीं करवाते? इसे प्रकाशित करवाने में मैं आपकी मदद करूँगा।” बस फिर मैंने उस कहानी पर दुबारा से काम किया और उसे एक नए सिरे से लिखना शुरू किया और फिर जल्दी ही सूरज पॉकेट बुक्स से एक हसीन किताब के रूप में मेरे और पाठकों के हाथों में थी।
प्रश्न: उपन्यास लेखन में आपकी प्रेरणा कौन कौन से लेखक रहे हैं? आपने उनसे क्या क्या सीखा है?
उत्तर: मैंने हिन्दी उपन्यास जगत के लगभग सभी लेखकों को पढ़ा है। मुझे पाठक साब का वास्तविक जगत से जुड़ा हुआ लेखन पसंद है, वहीं पर वेद जी की उपन्यासों में जो ट्विस्ट होते है वो बहुत पसंद है। अनिल मोहन जी, परशुराम जी, वेद प्रकाश कंबोज जी यहाँ तक की भूत लेखक केशव पंडित से भी कुछ ना कुछ सीखा ही है। इसलिए आपको मेरे उपन्यासों में किसी विशेष लेखक से प्रेरित कुछ ना कुछ जरूर मिलेगा।
प्रश्न: मोहन जी आपके उपन्यास लिखने का तरीका क्या है? ऐसी कौन सी घटनाएं हैं जो आपको अपनी कलम उठाने के लिए मजबूर कर देती है? क्या अपने अब तक प्रकाशित उपन्यासों का उदाहरण देकर आप इस बात को समझा सकते हैं?
उत्तर: समाज में अकसर होने वाली घटनाएँ मुझे कलम उठाने के लिए मजबूर कर देती है। जैसा कि आपने एक हसीन कत्ल में देखा होगा कि किस प्रकार आज की युवा होती पीढ़ी जिस प्रकार नशे और सेक्स के जाल में फँसती जा रही है उसको उठाने की कोशिश की है। जिस उम्र में कैरियर की नींव बनती है उसमें पढ़ाई के अलावा सब कुछ युवा पीढ़ी करती है। उसी प्रकार ऑपरेशन ट्रिपल ए और चक्रव्युह में राजनीति और समाज में होने वाली घटनाओ पर लिखने की कोशिश की है।
प्रश्न: अक्सर ऐसा कहा गया है कि अपराध साहित्य में दो तरह के लेखक होते हैं – पैंटसेर और प्लॉटर? पैंटसेर वो लेखक होते हैं जो एक विचार के जन्म लेते ही उपन्यास लिखना शुरू कर देते हैं और फिर किरदार ही उपन्यास के चरित्र कहानी आगे बढ़ाते हैं। वहीं प्लॉटर उपन्यास का पूरा प्लाट पहले तैयार करते हैं और फिर लिखना शुरू करते हैं। आपको खुद को कैसे देखते हैं?
उत्तर: मैं मोटे तौर पर कहानी की रूपरेखा पहले तैयार कर लेता हूँ। शुरू कहाँ से करनी है और अंत कहाँ पर होना है ये लगभग तय रहता है। कहानी में कौन कौन से पात्र होंगे और किसे ज्यादा विस्तार देना है वो पहले ही तय कर लेता हूँ बाद में कहानी लिखते लिखते उसको विस्तार देता हूँ और घटनाएं जोड़ता जाता हूँ। कई बार ऐसा हुआ है कि शुरू में सोचा कुछ और था और बाद में लिखा कुछ और। जैसे एक हसीन कत्ल शुरू में जब लिखा था तो उसमे स्कूल में एक चौकीदार भी था और एक ड्रग्स बेचने वाला भी था, जो स्कूल के बच्चो को ड्रग्स बेचता था। कातिल भी इन दोनों में से ही एक था पर जब कहानी को विस्तार दिया तो ये दोनों ही पात्र पूरे उपन्यास से ही गायब थे। इसी प्रकार ऑपरेशन ट्रिपल ए में पहले पाकिस्तान का भी जिक्र था पर उस समय शुभानन्द जी का उपन्यास मास्टरमाइंड आया तो फिर कहानी को फिर से रिवाइज़ किया।
प्रश्न: आपके पहले उपन्यास एक हसीन क़त्ल का काफी हिस्सा स्कूल में होने वाले प्रेम को दर्शाता है। बाद में यह उपन्यास अपराध साहित्य का रूप ले लेता है। आपके अब तक के उपन्यास अपराध साहित्य शैली के अंदर आता हैं। क्या अपराध साहित्य से इतर कुछ आप लिख रहे हैं?
उत्तर: मैंने अपराध साहित्य ही ज्यादा पढ़ा है, तो जाहीर सी बात है, अपराध लेखन के प्रति मेरा झुकाव ज्यादा है। पर आपने एक हसीन कत्ल में और थोड़ा बहुत ऑपरेशन ट्रिपल ए में देखा होगा कि प्रेम को भी दर्शाने की कोशिश की है। एक हसीन कत्ल में जहाँ लड़कपन का प्रेम दिखाया है, जिसमे प्रेम के बजाय विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण ज्यादा है वहीं पर ऑपरेशन ट्रिपल में परिपक्व प्रेम दिखाया है। इसलिए मैं सिर्फ अपराध साहित्य लिखता हूँ, ये कहना थोड़ी ज्यादती होगी। वैसे भविष्य में मैं एक ऐसा उपन्यास जरूर लिखना चाहूँगा, जिसमे सिर्फ प्रेम हो, अपराध नाम मात्र का भी ना हो।
प्रश्न: आजकल आप किस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं? क्या उसके विषय में पाठको के विषय में कुछ बताना चाहेंगे?
उत्तर: अभी वर्तमान में मैं ‘मैं बेगुनाह हूँ’ नाम के उपन्यास पर काम कर रहा हूँ। ये एक 22 वर्षीय हैदराबाद निवासी युवती ‘रश्मि’ पर केन्द्रित है जो एक बहुराष्ट्रिय कंपनी में अच्छे खासे पैकेज पर काम करती है पर ड्रग्स सप्लाइ करने के जुर्म में गिरफ्तार है। वो सबसे यहीं कह रही है कि वो बेगुनाह है, पर किसी को भी उस पर यकीन नहीं है। तब उसे बेगुनाह साबित करने की ज़िम्मेदारी लेता है, एक 40 वर्षीय आईटी सैक्टर में काम करने वाला शादीशुदा व्यक्ति, जो फिलहाल घर में अकेला रह रहा है। जासूसी नॉवेल पढ़ कर वो खुद को किसी जासूस से कम नहीं समझता। पर उस लड़की की मदद करने की कोशिश में वो खुद एक बड़ी मुसीबत में फँस जाता है। अब क्या वो खुद को बचा पाएगा और रश्मि को बेगुनाह साबित कर पाएगा, ये जानने के लिए आपको उपन्यास का इंतजार करना पड़ेगा जो जल्दी ही पाठकों के हाथों में होगा।
इसके अलावा एक हसीन कत्ल की पूर्व कड़ी पर भी काम चल रहा है जिसमे इंस्पेक्टर धीरज के इंस्पेक्टर बनने से पहले की कहानी है।
प्रश्न: मोहन जी आपने एक शार्ट फिल्म में भी काम किया था? उसका अनुभव बताइये। क्या एक्टिंग में आपकी रूचि है? क्या आगे भी ऐसा कुछ करने का इरादा है? क्या जब आप उपन्यासों को लिखते हैं तो मन में कहीं यह विचार भी होता है कि इनके ऊपर फिल्म का निर्माण होना चाहिए?
उत्तर: सच कहूँ तो मेरी एक्टिंग में कोई खास रुचि नहीं थी। मैं एक अंतुर्मुखी स्वभाव का व्यक्ति हूँ जो कम बोलता है और मंच पर तो जाने के नाम से ही घबरा जाता है। मैंने स्कूल कॉलेज में कभी किसी भी नाटक में भाग नहीं लिया। हाँ जब मैं कॉलेज में था उस समय एक स्कूल में पार्ट टाइम पढ़ाया करता था तब ‘कर चले हम फिदा’ गाने पर एक्टिंग जरूर की थी, वो भी इसलिए कर पाया क्योंकि उसमें कोई डायलोग नहीं था। हाँ, मुझे लिखना पसंद था और मैंने कविताएं और गीत लिखे थे है। मैं गीतकार या कहानीकार बनना चाहता था। मैं अपने लिखे हुये गीत संगीतकारों को पोस्ट भी किए थे। पर मैं नहीं जानता था कि उसके लिए धक्के खाने पड़ते है। जब हैदराबाद में मिथिलेश जी से मुलाक़ात हुई, उसके बाद हमारा एक कॉमिक्स ग्रुप बन गया था जिसमे मिथिलेश जी के अलावा जोधा भाई, सिद्धार्थ भाई थे। उस समय मिथिलेश जी ने एक क्रूकबॉन्ड और बांकेलाल को लेकर एक कहानी लिखी थी। मुझे देखते ही उन्होने कहा था कि आप इसके क्रूकबॉन्ड बनोगे। मुझे बड़ी हँसी आई और मैंने उनसे कहा- “क्या यार एक 32 साल के आदमी से 18 साल के लड़के का रोल करवा रहे हो?” पर उन्होने कहा नहीं आप ही क्रूकबॉन्ड के चेहरे के लायक हो और फिर उनकी बात मान कर पहली बार मैंने एक्टिंग की थी। ये अलग बात है कि लोगो को मेरा काम भी पसंद आया। उसके बाद मेरी झिझक खुली तो मैंने अपने ऑफिस में भी शॉर्ट प्ले स्टेज पर खेले है। अब जब भी मौका मिलता है मैं एक्टिंग कर लेता हूँ। रही बात मेरी किताब पर फिल्म की तो वो बहुत दूर की कौड़ी है। मैं ऐसा कोई भी विचार मन में नहीं लाता। लोग मेरी किताब पढ़ते है, वही मेरे लिए खुशी की बात है।
शोर्ट फिल्म:
प्रश्न: आजकल ऑडियो बुक्स तेजी पर है। आपकी भी कुछ कृतियों की ऑडियो किताबें बनी है। आप किताबों के इस माध्यम को किस तरह से देखते हैं?
उत्तर: वैसे सच कहूँ तो किताबें मुझे हाथ में ही अच्छी लगती है। मुझे किताब को डिजिटल किंडल पर भी पढ़ना अच्छा नहीं लगता। पर जैसा की कहा जाता है, बदलाव दुनिया का नियम है और हमे हर बदलाव को स्वीकार करना ही पड़ता है, इसलिए ऑडियो बुक्स भी मैं सुनने लगा हूँ। वैसे भी ऑडियो बुक्स आज प्रचार का एक अच्छा माध्यम बन गया है। ऑडियो बुक्स आप कभी भी कहीं भी सुन सकते है। अगर लेखक को किसी भी तरह अपनी बात कहने का मंच मिल रहा है और ज्यादा लोगो तक वो अपनी पहुँच बना पा रहा है तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो किताब हार्ड कॉपी में है, किंडल पर है या फिर ऑडियो में।
प्रश्न: आखिर में आप अपने पाठकों को क्या इन प्रश्नों के इतर भी कुछ और कहना चाहेंगे? अगर आप उनसे कुछ कहना चाहते हैं या उन्हें कुछ संदेश देना चाहते हैं तो आप उनसे अपनी बात कहें।
उत्तर: पाठको तो मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा अगर कोई नया लेखक है तो उसकी किताब पढ़िये, उसकी किताब की बढ़ाई ना करे कोई बात नहीं पर उसकी कमियों को जरूर बताए। मैं तो हर किसी से बोलता हूँ कि आपको जो भी कमी मेरी किताब में नजर आए वो मुझे जरूर बताए, आखिर आग में तपने से तो सोना निखरता है। बाकी इस कोरोना काल में आप खुद भी स्वस्थ रहे और दूसरों को भी स्वस्थ रहने में मदद करे बस इतनी सी आप सबसे गुजारिश है।
मोहन मौर्य जी की किताबें |
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तो यह थी मोहन मौर्य जी से हुई हमारी बातचीत। आशा है यह साक्षत्कार आपको पसंद आया होगा। साक्षात्कार के प्रति अपने विचारों से हमें जरूर अवगत करवाईयेगा।
एक बुक जर्नल में मौजूद अन्य साक्षात्कार आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
बढ़िया साक्षात्कार..मोहन जी को उनकी आगामी किताबों के लिए शुभकामनाएं
जी आभार,आनन्द भाई….
धन्यवाद आनदं भाई
बेहद उम्दा साक्षात्कार। मोहन जी को शुभकामनाएं
जी आभार, शुभानन्द जी…
मोहन नाम के व्यक्ति अंतर्मुखी क्यों होते हैं, मुझे नही मालूम है। मेरा नाम भी मनमोहन है और अंतर्मुखी हूँ। मोहन जी के इंटरव्यू से उनके व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ मालूम हुआ। आपराधिक पृष्ठभूमि पर लिखने वाले मोहन जी को उनके उज्ज्वल साहित्यिक भविष्य के लिए हार्दिक शुभकामनाएं
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जी अंतर्मुखी मैं भी हूँ लेकिन नाम मे मोहन नही है, पर "मन" जरूर है😋
जी सर….लगता है अब किन्हीं बहिर्मुखी मोहन को ढूँढना होगा…. आभार सर…
जी सही कहा….अमन भाई….
बढ़िया साक्षात्कार था।
जी आभार अमन भाई….
बहुत ही बेहतेरीन साक्षात्कार. मोहनजी की जिंदिगी का कई अनछुए पहलुओं की जानकारी मिली. उनके संघर्ष और जज़्बे को सलाम. और ऐसे बढ़िया साक्षात्कार को शेयर करने के लिया विकास जी को साधुवाद.
जी आभार सर….
सादर नमस्कार,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार
(12-06-2020) को
"सँभल सँभल के’ बहुत पाँव धर रहा हूँ मैं" (चर्चा अंक-3730) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है ।
…
"मीना भारद्वाज"
जी मेरी इस पोस्ट को चर्चा में शामिल करने के लिए आभार,मैम
साक्षात्कार बढ़िया तरीके से लिया गया है
जी आभार….
बहुत ही रोचक साक्षात्कार।
मोहन मौर्य जी का उपन्यास 'मैं बेगूनाय हूँ।' पढा, इस उपन्यास का समापन बहुत अलग हटकर है।
धन्यवाद।
वाह!!मैं भी जल्द ही उसे पढ़कर देखता हूँ….