परिचय:
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सबा खान जी |
सबा खान जी नवी मुंबई में रहती हैं। मराठी, उर्दू, अंग्रेजी और हिन्दी भाषा की जानकार हैं। उन्होंने लाइफ साइंस में पीएचडी की है। अभी एक विद्यालय में बतौर शिक्षिका कार्य कर रही हैं।
पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से रहा है और आज भी यह उनकी पहली पसंद है। उन्होंने साहित्य की दुनिया में पहला कदम अनुवाद से रखा था। अब तक उनके तीन अनुवाद और एक उपन्यास आ चुके हैं। नया उपन्यास शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है।
पढ़ने लिखने के आलावा सबा जी को टीवी सीरीज और फिल्मे देखना पसंद हैं।
थ्रिलर फिल्में और सीरीज उन्हें ख़ास तौर पर पसंद आती हैं।
आप लेखिका के साथ निम्न तरीकों से सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं:
प्रकाशित रचनाएँ:
एक बुक जर्नल की साक्षात्कार श्रृंखला की यह पाँचवी कड़ी है। इस कड़ी में हम आप सबके समक्ष
सबा खान जी का एक साक्षात्कार प्रस्तुत कर रहे हैं। सबा खान जी ने तीन उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद किया है जिसे पाठकों ने काफी सराहा है। अनुवाद के साथ सबा जी अब लेखन भी कर रही हैं।
रमाकांत मिश्र जी के साथ मिलकर उन्होंने महासमर नाम से एक महागाथा लिखी है जिसका पहला भाग प्रकाशित हो गया है। इस उपन्यास को भी पाठकों की काफी प्रशंसा मिली है। उपन्यास का अगला भाग जल्द ही आने की उम्मीद है।
सबा जी से हमने उनके जीवन, लेखन और अनुवाद से जुड़े कुछ प्रश्न पूछे। उम्मीद है यह बातचीत आपको पसंद आएगी।
प्रश्न: सबा जी कुछ अपने विषय में बताइये। आप कहाँ से हैं? शिक्षा कहाँ से और किस विषय में ली? आपके परिवार में कौन कौन हैं?
उत्तर: मैं मूलतः एक महाराष्ट्रियन मुस्लिम परिवार से हूँ तथा कोंकण क्षेत्र से ताल्लुक रखती हूँ। वर्तमान में नवी मुंबई मेरा मुकाम है। प्रारंभिक शिक्षा उर्दू, मराठी माध्यम से हुई है। तत्पश्चात विज्ञान विषय से उच्च शिक्षा एवं यहीं से लाइफ साइंस में पीएच०डी० हूँ। परिवार में ईश्वर की कृपा से माता, पिता, दो भाई एवं दो बहनें हैं। ख़ुद के परिवार में पति और दो बेटे हैं। इसके अतिरिक्त एक बेटी है जो खुदाई नेमत के तौर पर हमारे पास है।
प्रश्न: 2. आपका साहित्य से जुड़ाव कब हुआ? आपको किस तरह का साहित्य पढ़ना पसंद है? आपके पसंदीदा लेखक कौन से हैं?
उत्तर: साहित्य से जुड़ाव की भी एक दिलचस्प कहानी है, जिसके जड़ें मेरे बचपन के आस पास हैं। ऐसे ही कोई साल 92 के आसपास की बात है। छठी जमात में थी। पापा की उस समय ग्रोसरी स्टोर था। उस इलाके में एक भंगार (कबाड़, रद्दी) वाले थे। रफीक चाचा। यहाँ मैं ये भी जोड़ना चाहूँगी कि उनके नाम के साथ लगा ये ‘चाचा’ महज़ मेरे द्वारा उनके बड़प्पन को दिया जा रहा सम्मान मात्र भर न था। वे जगत चाचा थे और उनकी अब्बा की उम्र के लोग भी उन्हें चाचा ही कह बैठते थे। मेरी बड़ी दीदी (अब मरहूम) के बाद मेरा ही नंबर था। घर के सारे भागदौड़ वाले काम का जिम्मा मेरा ही था। रफीक चाचा बड़ी धीमी जुबान में ठहर ठहरकर गुफ़्तगू करने वाले, पांच वक्त के नमाज़ी, हर किसी के गमों में शिरकत करने वाले बड़े प्यारे इंसान थे। उस दौर में न केवल उस इलाके, बल्कि आस पास के कई इलाकों में वे ऐसे वाहिद शख्स थे, जो भंगार का काम करते थे। लिहाज़ा उनके बारे में कई बातें बतौर किंवदंती भी दर्ज़ थीं। मसलन इनकी मुंबई में ग्रांट रोड पर भी एक दुकान है जहाँ सुई से लेकर कटे हुए जहाज़ के पुर्जे तक बिक जाते हैं। जामा मस्जिद के पीछे उनका गोदाम है। अक्खी मुम्बई में जिस मशीन का कोई पुर्जा न मिल रहा हो जूना (पुराना), वो उनके यहाँ जरूर मिलेगा। उनके बीवी, बच्चों के बारे में कोई ख़बर नहीं थी। लेकिन सुना था रत्नागिरी में कहीं हैं। मगर मैंने अपने होशोहवास में तो कभी उन्हें अपने गाले से कभी गायब नहीं देखा। मशहूर होने और इलाके की इकलौती दुकान होने की वजह से उनकी दुकान पर गर्दी (भीड़) भी बहुत होती थी। हर महीने पड़ोस की एक लड़की जो उम्र में मुझसे दो एक साल बड़ी थी, के साथ मैं और अब्बू की दुकान पर काम करने वाला कोई बंदा ठेली पर घर, दुकान का काफी सारा कबाड़ लादकर चाचा की दुकान पर पहुँचता थे। मेरी जिम्मेदारी बिकने के बाद पैसे हासिल करके अम्मी के पास बाइज़्ज़त पहुंचाने की होती थी। गोलमाल करने का कोई सवाल न होता था क्योंकि दो गवाह साथ होते थे। फ्रॉक पहनती थी, तो खीसे का टोटा होता था। मुट्ठी में दबाए वापसी के वक़्त कभी कभार ख़रीज़ में से एक दो ज़रूर, मेरी बदकिस्मती से सड़क से लगकर बहने वाले नाले में जा पड़ते। घर जाने के लिए वो नाला भी जरूर पार करना पड़ता। नतीज़ा बड़ा हाहाकारी होता था। हमेशा दो चार थप्पड़ का प्रसाद मिलता जरूर था, वो तो दीदी थी जो हमेशा मेरे चक्कर में हमसे दो तीन हाथ ज्यादा ही बेवज़ह खा जाती थी।
ऐसे ही एक बार चाचा की दुकान पर जाना हुआ। उस दिन भीड़ कदरन ज्यादा थी। लिहाज़ा हम लोगों को बाहर ही खड़ा रहना पड़ा। एक बुजुर्गवार चार गोनी (बोरे) भरकर लाये थे। काफी वज़्न दार गोनियाँ थीं। उत्सुकतावश मैं उधर देखने लगी। ढेरों किताबें थीं। उर्दू, मराठी, अंग्रेज़ी, हिंदी, गुजराती। ऐसे ही छिटककर एक क़िताब मेरे पास आ गिरी। मैंने उसे उठाकर देखा तो वो एक पत्रिका थी। नाम सत्य कथा। उलट पुलट कर देखने के बाद बीच से खोला और पढ़ने लगी। पाँच मिनट ही पढ़ा होगा कि मुझे जबरदस्त रस सा लगा उस कहानी में। आज कहानी का नाम जरूर भूल गई हूँ, मगर उसके पात्र नूरा, चौधरी आदि याद हैं। आगे किस्सा ये है कि मैं चाचा से पूछकर वो पत्रिका घर ले आई। घर आकर अम्मी को पैसे दिए और दीदी के कमरे में आ गई। दीदी ने पत्रिका देखकर डाँटा, छीन भी ली, मगर मेरे थोड़ी मनुहार करने पर दे भी दी। मैंने वो कहानी पढ़ी। वो इंस्पेक्टर नवाज़ खान थे। उनकी कोई कहानी थी। दिलचस्प कहानी, पुलिस इन्वेस्टिगेशन, सस्पेंस वगैरह की भरपूर खुराक। मज़ा आया। बाकी की कहानियों में दो एक देखीं, मगर वो बात नहीं थी। फिर ये मामूल बन गया। मैं चाचा के पास रोज़ जाती, और पहले वाली किताब वापस करती और कोई भी सत्य कथा उठाती। उसमें इंस्पेक्टर नवाज़ खान को देखती और ले आती। इसी सिलसिले में डी०एस०पी० मलिक सफदर हयात, मिर्ज़ा अमज़द बेग एडवोकेट, मोहिउद्दीन नवाब वगैरह को भी पढ़ डाला। एक बार चाचा ने पूछा ‘इस किताब में क्या पढ़ती है।’ हमने बताया। वे आगे कुछ नहीं बोले, और एक उर्दू का मोटा ताज़ा रिसाला हमारे हवाले कर दिए। नाम जासूसी डाइजेस्ट। घर आकर उसे पढ़ना शुरू किए फिर वही हुआ जो होना चाहिए था। पढ़ना भाया था, और पढ़ने की ख्वाहिश ने सिर उठाया था। चाचा ने कभी पैसे नहीं लिए। लेकिन एक से एक किताबें देते गए। आज जब मैं सोचती हूँ कभी कभार उन चाचा के बारे में तो कई सवाल मन में उठते हैं। क्या वाकई चाचा पढ़े लिखे न थे? क्योंकि मैंने कभी उन्हें किसी किताब, हत्ता कि अख़बार तक का मुत’आला करते न देखा। हाँ हिसाब करते वक़्त वो जो चिट बनाते थे, उसमें उर्दू के हरूफ़ बड़ी साफ ख़ुशकत में होते थे। डिजिट्स भी वे उर्दू ही इस्तेमाल करते थे। लेकिन हैरत इस बात की होती थी कि उन्होंने ही छठी जमात में जिस तरह से recommendations किये वो सिलसिला आगे बारहवीं तक (उनके इंतकाल तक) चला। और उस पूरे वक्फे में उन्होंने मुझे उन उर्दू के मोटे मोटे रिसालों से निकालकर प्रेमचंद, बेदी, इस्मत चुगताई, कृश्नचन्दर, निर्मल वर्मा से गुज़ारते हुए john Grisham और सिडनी शेल्डन तक पहुँचा दिया था। यहाँ एक बात और भी जो मुझे आश्चर्यचकित करती है कि कैसे उनकी मालूमात का दायरा इतना वसीह था?
मुझे साहित्य में हर तरह का साहित्य पढ़ना पसंद है, अलबत्ता ठेठ रोमानी उपन्यासों से अरुचि रहती है। ऐसे भी साहित्य से दूरी बना लेती हूँ जिसकी भाषा सिर्फ और सिर्फ लेखक को ही समझ में आती है और उनके चंद मुसाहिबनुमा तथाकथित प्रशंसकों को जो उसे महान एवं उच्च कथा साहित्य का तमगा देते रहते हैं हर प्लेटफार्म पर। मेरी पहली पसंद क्राइम थ्रिलर्स हैं। इसके अलावा फंतासी, एडवेंचरस, सुपरनैचुरल एलिमेंट्स वाला साहित्य भी पढ़ना अच्छा लगता है। फिर अपना हिंदी साहित्य तो है ही।
अब पसंदीदा लेखक कोई एक दो तो हैं नहीं। सबकी अपनी खूबियाँ हैं। लेकिन नाम ही लेने हैं तो मैं पैट्रीशिया कॉर्नवेल, कैथी रीख, तेस गरितसन, जो नेस्बो, डॉन विनस्लो, केन फोलेट, रयान केसी, क्रिस रेयान, सिडनी शेल्डन, क्लाइव कस्लर, हिगाशिनो के अलावा और भी बहुत सारे हैं। इसी तरह उदय शतपथी, अंकुश सैकिया, कल्पना स्वामीनाथन, विष धमीजा आदि हैं। प्रियंवद, उदयप्रकाश, संजीव, श्रीलाल शुक्ल, डॉक्टर राही मासूम रजा, अब्दुल बिस्मिल्लाह, सुरेन्द्र वर्मा, शिव प्रसाद सिंह आदि तमाम नाम हैं जिन्हें पढ़ना अच्छा लगता है। इसी तरह हिंदी क्राइम फिक्शन लेखकों में ओम प्रकाश शर्मा जी, सुरेन्द्र मोहन पाठक जी को पढ़ना पसंद है।
प्रश्न: लेखन में आपकी रूचि कब विकसित हुई। आपने कौन सी उम्र में लिखना शुरू किया?
उत्तर:अब लेखन जैसा कुछ हुआ है, इस संबंध में स्पष्ट रूप से कुछ कहना मुहाल है। अगर ख़ुद के लिए सही शब्द का चुनाव करूँ तो बस यही कहूँगी कि मैं सिर्फ ‘एक्सीडेंटल राइटर’ हूँ। यूँ तो लेखन का जहाँ तक सवाल है, तो वो तो शोध से लेकर आगे फिर शोध पत्रों, विषय संबंधी छोटे मोटे लेखों तक तो काफी पहले से ही होता रहा है। लेकिन व्यावसायिक लेखन या यूँ कहिये लोकप्रिय साहित्य लेखन में हाथ आजमाइश कदरन हालिया ही है। वो भी महज़ टाइमपास करने के लिए की गई कोशिश का ही नतीज़ा थी, जिसे आप हमारी बुलंद किस्मत कहिये कि वो कोशिश थोड़ी बहुत परवान चढ़ गई। दरअसल हम सबके जीवन की अपनी एक गति होती है, चाल होती है, और कभी कभार या यूँ कहिये कि अक्सर इस गति को कण्ट्रोल करने वाले एक्सीलेरेटर पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता। तो ऐसी ही गति से चलते हुए मुंबई छोड़कर लखनऊ में रहने का इत्तेफ़ाक हुआ। अब वहाँ करने को कुछ ख़ास तो नहीं था, लिहाज़ा पढ़ने के अलावा फेसबुक पर सक्रिय रहने लगी। वहीं एक बार यूँ ही कुछेक कहानियों का अनुवाद डाल दिया, जो लोगों को काफी पसंद आये, और इसी के चलते सूरज पॉकेट बुक्स की ओर से डॉक्टर रुनझुन सक्सेना के अंग्रेजी नावेल ‘द सीक्रेट ऑफ़ चालीसा’ को अनुवादित करने का ऑफर मिला, उसी के साथ जेम्स हेडली चेज़ का भी एक कर डाला। जो छपते ही पाठकों द्वारा हाथो हाथ लिया गया। फिर इसी क्रम में एक बड़ी सफलता ली चाइल्ड के उपन्यास ‘वन शॉट’ का अनुवाद थी। जो आज भी पाठकों द्वारा पसंद किया जा रहा है। तो जहाँ तक लिखने की उम्र का सवाल है तो तकरीबन तीस-बत्तीस बरस की उम्र में लिखना शुरू किया।
प्रश्न: आपने लेखन की दुनिया में अनुवाद से कदम रखा। आपने सीक्रेट ऑफ़ चालीसा, जेम्स हेडली चेस के उपन्यास और फिर ली चाइल्ड के उपन्यास का अनुवाद किया। अनुवाद के विषय में आपके क्या विचार हैं? अक्सर हमारे देश में इसको उतना महत्व नहीं दिया जाता जितना दिया जाना चाहिए। इस विषय में आप क्या सोचती हैं?
उत्तर:विकास जी, आज दुनिया का दायरा काफी सिमट चुका है। आज तकनीक के चलते भौगोलिक दूरियाँ उतना मायने नहीं रखतीं। जैसा कि मैंने अभी कहा कि मैं एक्सीडेंटल राइटर ही कहूँगी ख़ुद को, तो अनुवाद भी मैंने कोई सोच समझकर नहीं किया था। वो तो बस वक़्त था, तो कर दिया था। लेकिन जब हो गया, पाठकों की प्रतिक्रियाएं हासिल हुईं, तो एहसास हुआ कि अरे यार, ये तो इतना बुरा भी नहीं था। ऊपर से अनुवाद करते समय शब्दों से खेलते, भावों को अपने हिसाब से लिखने में मज़ा भी खूब आया। किसी भी देश की संस्कृति, वहाँ का मनोविज्ञान, उनके विचारों का प्रभाव उनके लेखन पर भी पड़ता है। अनुवाद के माध्यम से इन चीज़ों से आम पाठक भी परिचित होता है। अनुवाद एक तरह से दो संस्कृतियों या यूँ कहिये कि दो भाषाओं के बीच का अपना ख़ुद का सुखन है।
हमारे देश में इसे इतना महत्व न दिया जाना, अहम नहीं हैं। एक तरह से आपका ये सवाल थोड़ा अधूरा सा है, इसे रिफ्रेज़ करके अगर मैं ये कहूँ कि ‘हिंदी में इसे उतना महत्व नहीं दिया जाता’ तो कहीं ज्यादा प्रासंगिक होगा। अगर देश की बात होती, तो क्यों मराठी में दुनिया के हर विधा में लिखने वाले लेखक मौजूद हैं? मराठी भी तो इसी देश के एक महत्वपूर्ण राज्य की भाषा है! मैं वैसे अभी ख़ुद को इस स्थिति में नहीं पाती कि इस विषय पर कुछ कह सकूँ। लेकिन इतना कहूँगी कि हिंदी में इमानदाराना प्रयासों की कमी है। आज भी हिंदी साहित्य में क्राइम फिक्शन को लेकर छि छि थू थू जैसी भावना है। इसलिए भी विश्व अपराध कथा साहित्य का हिंदी में अभाव है। भेड़ चाल के चलते या फिर अपना पोर्टफोलियो थोड़ा भिन्न दिखाने के लिए कोई प्रकाशक अगर ये करता भी है तो दो स्तरों पर चूक जाता है। पहला, हिंदी की मानसिकता और मनोविज्ञान को देखते हुए हिंदी में अनुवादित होने के लिए उपन्यास का चुनाव, दूसरा, क्राइम फिक्शन को अनुवादित करने के लिए किसी बेहतरीन ‘न्यूरो सर्जन’ के पास जाने की बजाय ‘हमारे यहाँ सभी प्रकार के रोगों का सटीक एवं गारंटीशुदा इलाज़ होता है’ नुमा हकीम के पास पहुँच जाना। नतीज़ा, आप भी जानते हैं। क्योंकि आप जितना देशी विदेशी साहित्य पढ़ते हैं, जिस रफ़्तार से पढ़ते हैं, उसकी तो मैं भी कायल हूँ। हमारी हिंदी बिलाशक भावों के प्रदर्शन में दुनिया की सबसे सशक्त भाषा है। बस जरूरत है इसे समृद्ध करने के लिए इमानदाराना कोशिशों की। और इस दिशा में अच्छे अनुवादकों की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसे समर्पण और जूनून की तरह किये जाने की जरूरत है। ये सोचकर किये जाने की जरूरत है, कि ये हिंदी की सेवा है। मैं फिर यहाँ सीमित दायरे में बोली जाने वाली मराठी भाषा का ज़िक्र करूँगी कि उन्हें, यहाँ के प्रकाशकों में, अपनी भाषा से प्यार, उसे समृद्ध करने के लिए जो जोश दिखता है, वो अन्यत्र दुर्लभ है। यहाँ प्रकाशकों के बीच कॉम्पिटिशन रहता है कि कौन सबसे ज्यादा विश्व साहित्य को छाप लेता है। अब बिकता है, तभी तो छपता है। विश्व भर का न केवल मुख्यधारा का साहित्य, बल्कि क्राइम फिक्शन से लेकर फंतासी तक सब मौजूद है। क्यों? बस इसी जूनून की जरूरत हिंदी को है।
प्रश्न: एक अच्छे अनुवाद में आप क्या क्या खूबी देखती हैं? आपके अनुवादों को हर किसी ने सराहा है। नए अनुवादकों को आप क्या सलाह देना चाहेंगी?
उत्तर:मेरे ख्याल से जो भी टेक्स्ट सरस, प्रवाहमय और सोर्स भाषा के मूल भाव को समाहित करते हुए है, वो बेहतरीन अनुवाद है। हर जुबान की अपनी एक संरचना होती है। वाक्य विन्यास होता है, उसके अपने ख़ुद के मुहावरे होते हैं। कई दफा जो बातें उनके यहाँ बतौर जोक्स इस्तेमाल होती हैं, उनका टारगेट लैंग्वेज में कोई दूसरा ही अर्थ और इस्तेमाल होता है, इसकी समझ बहुत जरूरी है। एक लेखक को लिखने के लिए भले ही भाषाशास्त्री होना जरूरी न हो, लेकिन एक अच्छे अनुवादक को भाषा शास्त्र का ज्ञान उसे बेहतर, बहुत बेहतर बनाता है। मैं अनुवाद में लिटरल ट्रांसलेशन की हामी नहीं। आप मूल भाषा के भाव को समझने के लिए वाक्य को तब तक पढ़िए जब तक कि लेखक कहना क्या चाहता है, समझ में न आ जाए और उसे फिर हिंदी में अपने हिसाब से लिखिए। एक तरह से उत्कृष्ट अनुवाद भी एक तरह से लिखना ही है। अनुवाद के मुतल्लिक केट ब्रिग्स का कथन गौर तलब है कि ‘अनुवादक का काम, अनुवाद को लिखना है।’ तो कहा जा सकता है कि अगर अनुवाद ने मूल कृति की तरह हँसाया, रुलाया, रोमांचित न किया, तो बिलाशक अनुवाद ने मूल कथा की रूह को मार दिया है। अनुवादक को रीड बिटवीन द लाइन्स पढ़ना होता है।
मेरे किये गए अनुवादों में बहुत खामियाँ हैं। शायद ईश्वर की ही कृपा है, जो पाठकों को वे पसंद आये। नए अनुवादकों को मैं सलाह क्या दूँगी, जब ख़ुद ही सलाह की तलबगार हूँ, और सलाहियात के मुकाम पर ख़ुद में कोई भी ख़ूबी नहीं पाती। मगर अपने पिछले तज़ुर्बे से बस यही कहूँगी कि जिस लेखक को अनुवादित करने का इरादा बनाया है, पहले उसको समझो, उसको जानो। फिर उसकी रचना को जानो, उस रचना की आत्मा को जानो। फिर उसके अनुवाद को लिखो। ये सोचकर लिखो कि ये हिंदी में वो काम होने वाला है जो सिर्फ मुझसे और मुझसे ही अपेक्षित है।
प्रश्न: आपका लिखा उपन्यास महासमर एक पर्यावरण केंद्रित रोमांचक उपन्यास है। यह उपन्यास आपने रमाकांत मिश्र जी के साथ मिलकर लिखा है। उपन्यास का विचार कहाँ से आया? साथ में उपन्यास लिखने का अनुभव कैसा रहा? कहा जाता है लिखना अकेले में किये जाने वाला काम है, ऐसे में आपने टीम में काम किया। यह अनुभव कैसा था?
उत्तर:चाचा (मिश्र जी) ने एक बेहतरीन क्राइम थ्रिलर उपन्यास लिखा था ‘सिंह मर्डर केस’। जब मैंने उसे पढ़ा, तो काफी प्रभावित हुई थी, उस समय मैं फेसबुक पर क्राइम लेखकों पर आलेख लिखने के साथ साथ पढ़े जाने वाले अपराध कथा उपन्यासों की समीक्षा भी लिखती थी। इसी सिलसिले में सिंह मर्डर केस पर की गई मेरी समीक्षा उनसे परिचय की बुनियाद बन गई। जब परिचय हुआ तो कृतित्व से इतर व्यक्तित्व के आधार पर भी उन्हें जाना तो पाया कि वे बहुत ही सात्विक और सहृदय व्यक्ति हैं। एक अरसे तक वे हमें तो यही समझते रहे कि हम कोई प्रौढ़ उम्र की प्रोफ़ेसर हैं जो क्राइम फिक्शन पढ़ने में रूचि रखते हैं और पढ़ पढ़कर काफी ज्ञान बटोर लिए हैं। वो तो उन्हें बहुत बाद में झटका लगा कि अगर उनकी कोई बेटी होती तो हमारी ही उम्र की होती। वो साझा पसंद, सोच, विचारों का साम्य समय के साथ पिता और बेटी के संबंध में विकसित हो गया। एक दिन चर्चा के दौरान ही उन्होंने बताया कि तकरीबन पचीस साल पहले एक ऐसा उपन्यास लिखने का सोचा था, मगर न लिख पाया। हमने जिद कर ली कि अब यही लिखना है आपको और पचीस साल पहले की घटनाओं को आज के साथ जोड़कर लिखिए। अब बेटी हठ के आगे वे हार गए और जैसे तैसे लिखकर कोई 230 पन्नों का उपन्यास उन्होंने देखने को भेजा। पढ़ने के बाद मुझे लगा कि इसमें अभी ये गुंज़ाइश है, अभी ये हो सकता है। ये सोचकर मैंने उन्हें सुझाव बताये। कुछेक उन्होंने किये। फिर हमने कुछ और सुझाव बताये। उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। बोले बिटिया अब इसका स्वरुप बदल रहा है, इसका स्कोप वृहद हो रहा है। मैं तुम्हारी मेहनत को तब ही स्वीकार करूँगा जब इन चीज़ों को तुम ख़ुद लिखोगी और इसकी सहलेखिका बनोगी, क्योंकि अब मुझे एहसास हो रहा है कि क्यों इसने लिखे जाने का पचीस बरस इंतजार किया। इसे तुम्हारा इंतजार था। इसे अपने नाम से छपवा कर मैं बेटी के अधिकार को हड़प कर पाप का भागी नहीं बनना चाहता। काफी मान मनुहार के बाद ही ये इस स्वरुप में आ पाया। किसने क्या लिखा, किसका क्या काटा ये अब हमें ही याद नहीं। मगर काफी दिलचस्प रहा इसका लेखन। अगर सच कहूँ तो कोई बड़ी समस्या नहीं आई इसे मिलकर लिखने में। वज़ह? वज़ह सिर्फ यही रही कि कहीं कोई लेखकीय अहम का टकराव न था, और लिखते समय रिश्ते का लिहाज़ न था कि बिटिया ने लिखा है तो चलो रहने देते हैं, इसे काट दिया तो दुखी होगी, या चाचा ने लिखा है, हमने हटाया तो चाचा आहत होंगे और सोचेंगे कि कल की लड़की हमें सिखा रही है। दूसरी बात कहानी को दोनों अपने अनुसार आगे ले जाने को स्वतंत्र थे और दूसरा उन्हीं सूत्रों को लेकर आगे लिखता था। और 230 पन्नों की वो किताब आज तकरीबन 1000 पन्नों से अधिक की महागाथा बनकर तैयार हो गई। जो सिर्फ अभी भूमिका मात्र है।
प्रश्न:महासमर का एक भाग आ चुका है जो कि पाठकों को खूब भाया है। इसका दूसरा भाग आने वाला है। इससे पाठक क्या उम्मीद लगा सकते हैं?
उत्तर: जी, नए तरह का लेखन, मौलिक कथानक, नई घटनाएँ आदि ने पाठकों को खूब रोमाचित किया। दूसरा भाग जो आने वाला है वो पहले भाग से भी ज्यादा रोचक, तेज़ रफ़्तार है और कई घटनाक्रमों के राज़ खोलेगा तो कई नए घटनाक्रमों को जन्म देकर अपने अंज़ाम तक पहुँच जायेगा।
प्रश्न:महासमर के बाद पाठको को और क्या पढ़ने को मिलेगा? क्या आप कुछ नए प्रोजेक्ट्स पर काम कर रही हैं? क्या पाठकों को उनके विषय में बता सकती हैं?
उत्तर:इस बारे में अभी स्पष्ट रूप से तो कुछ कहना मुहाल है क्योंकि कई प्रोजेक्ट्स हैं। अब कौन सा कब पूरा होकर सामने आएगा, ये समय और परिस्थिति पर निर्भर है। मगर इतना आश्वासन जरूर दूँगी कि बहुत लंबा समय भी न जाएगा, और अनुवाद के साथ साथ मौलिक काम भी आता रहेगा। मैं अनुवाद में हमेशा सक्रिय रहना चाहती हूँ ताकि हिंदी में ज्यादा से ज्यादा चीज़ें उपलब्ध हो सकें।
प्रश्न:हिन्दी में पाठक कम हो रहे हैं और इसका मुख्य कारण यह है कि हम नए पाठक नहीं बना पा रहे हैं। नए पाठक इसलिए नहीं बन पा रहे हैं, क्योंकि रोमांचक बाल साहित्य की मार्केट में काफी कमी है। आपका इस संदर्भ में क्या विचार है? क्या आप कभी बाल साहित्य में हाथ आजमाएंगी?
उत्तर: बिलकुल, मैं आपकी बातों से पूर्णतया सहमत हूँ कि पाठकों का अभाव हो रहा है। इसकी कई वज़ूहात हैं। पहली वज़ह तो यही है जो आपने बताई कि नयी पीढ़ी में पाठक नहीं पैदा हो रहा क्योंकि उसके बचपन में पढने लायक उसे कुछ हासिल नहीं हुआ। सच भी यही है, आज जिधर देखो, उधर बच्चों के हाथ में स्मार्टफोन थमा दिया जा रहा है। जिस उम्र में उन्हें कुछेक किताबें देकर उनके अंदर पढ़ने की आदत विकसित की जा सकती है, उस उम्र को वे गेम खेलने में बिता दे रहे हैं। अभिभावकों के पास चॉइस भी नहीं। हमारे बचपन में काफी बाल पत्रिकाएं आती थीं, लेकिन अब उनका भी चलन कम हो गया है। बहुत सी तो बंद ही हो गईं हैं। तो आंशिक रूप से स्तरीय बाल साहित्य का अभाव भी कारण है। लेकिन नए पाठकों की कमी का ठीकरा मैं पूरी तरह से बस इसी एक कारण के सिर नहीं फोड़ना चाहती। कहीं न कहीं हमारी हिंदी और इसके रचनाकार भी दोषी हैं। मैं बे हिचक ये कहूँगी कि साजिशन ऐसा किया गया। ऐसा रचा गया कि आम पाठक उसमें रस न ले सका। एक ऐसी मानसिकता विकसित कर ली गई कि जो सर्व सुलभ हो गया, वो चीप। लिहाज़ा सर्व सुलभ साहित्य जिसे लुग्दी साहित्य कहके खारिज़ कर दिया गया वो आम पाठकों तक तो पहुँचता रहा और पाठक मौजूद रहे। लेकिन जो ये विभाजन बनाया गया, इसकी खाई दिन ब दिन गहरी होती गई। साहित्य चंद लोगों तक सीमित रह गया और लोक प्रिय साहित्य आम लोगों का ‘सस्ते लोगों’ का साधन बना रहा। कमी आनी नब्बे के दशक के बाद से शुरू हुई। चीज़ें बदलनी शुरू हुईं। बाज़ार बदला, तकनीक ने पाँव पसारने शुरू किये, मनोरंजन के अन्य साधन सुलभ होने शुरू हुए, तो पाठक, जो किताबों में मनोरंजन ढूंढता था, वो दूसरी ओर विमुख होने लगा। कारण एकरसता भी रही है। उन दिनों जो लिखा जा रहा था, या लिखा गया, (हालाँकि मैं अभी उस विषय पर पूरे अधिकार से कुछ कहने का दावा नहीं रखती क्योंकि उतना पढ़ा नहीं है, मगर जितना पढ़ा है, उस आधार पर) वो बदलते समय के साथ, नई पीढ़ी के युवाओं की सोच के साथ ख़ुद को ढाल न पाया। हिंदी अपराध कथा लेखन फार्मूला लेखन ही बनकर रहा। और जो चीज़ें, जो गिमिक्स, जो घटनाएँ पाठकों को रोमांचित कर देती थीं, वो अब नई न रहीं। तो युवा भी दूसरे साधनों में मनोरंजन ढूँढने लगा। बाल साहित्य भी घटता चला गया। आगे हालात ये हुए कि लोक प्रिय साहित्य ने अपना रीडर बेस खो दिया। और दूसरा कुछ पढ़ने के लिए ‘एलीट लॉबी’ में गया नहीं। यहाँ एक बात और गौर तलब है कि हिंदी के जिस विशाल पाठक समूह की चर्चा होती है, जिसके खो जाने का गम महसूस होता है, उस विशाल वर्ग के उद्भव की जड़ें आदरणीय देवकीनंदन खत्री से शुरू होकर बारास्ता वेद प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश काम्बोज, जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा एवं सुरेन्द्र मोहन पाठक तक फैली हुई हैं। हिंदी की किताबें पढ़ने का शौक इन्हीं लोगों का दिया हुआ है। जब यहाँ से निराशा हाथ लगनी शुरू हुई, तो वो विशाल वर्ग भी खोने लगा। वरना तथाकथित महान साहित्य के किस पुरोधा के पास ये तमगा है कि उसे पढ़ने मात्र के लिए लोगों ने हिंदी सीखी? आप ख़ुद ही देखिये हाल के वर्षों में लोक प्रिय साहित्य के लेखन में जब नए तेवर, नई भाषा लेकर कई युवा लेखक आये हैं, तो रीडर्स भी बढे हैं। उस दौर के इकलौते लेखक पाठक साहब ही हैं, जिन्होंने समय के साथ आ रहे बदलाव को पहचाना, ख़ुद को बदला और आज भी एक समर्पित विशाल पाठक वर्ग के साथ पूरी मजबूती से मैदान में हैं।
हिंदी में स्तरीय और आम पाठक को भी सुलभ साहित्य अगर मौजूद रहेगा, तो पाठक भी रहेंगे। दुनिया का कोई भी तन्त्र किताब को उसके स्थान से हटा नहीं पायेगा। बस किताब के नाम पर वो चीज़ मिले रीडर को, जिसमें उसे अपनी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में पल पल होते रोमांच और घटनाक्रम की झलक भी दिखे, किसी समस्या का निदान भी दिखे, उसे अपने आँसूं भी दिखें, तो कहीं अपने मन के भीतर की भावनाओं को स्वर भी मिलते दिखें। अपने आस पास का सुखराम पंसारी दिखे, उसकी मक्कारी दिखे, तो ये भी दिखे कि किस तरह कई स्तरों से गुज़रते हुए कोटे पर चार रुपया किलो मिलने वाला चावल उसकी दुकान पर पहुँचकर ३० रूपये किलो बिक रहा है। इसका खुलासा उसे जोड़ेगा।, उसे रोमांचित करेगा। बाकी आगे मैं क्या कहूँ। ख़ुद की हैसियत इतनी बड़ी नहीं। हाँ, बच्चों के लिए देर सबेर जरूर लिखूँगी।
प्रश्न:नए लेखकों को आप क्या सलाह देना चाहेंगी?
उत्तर: हा हा हा, आपने भी अच्छा मजाक किया। नए लेखक से, जो अभी है भी या नहीं, उससे ये पूछना कि नए लेखकों को क्या सलाह देंगी? बस वही जो सब देते हैं, लेखक से पहले अच्छे पाठक बनो। अपनी ओर से इतना जोड़ना चाहूँगी कि मगर हार्ड ड्राइव न बनकर रैम ही रहो। जो पढ़ो, कुछ समय बाद भूल भी जाओ। टूल्स याद रखो। तब लिखोगे तो मौलिकता पर जोर रहेगा।
प्रश्न:आप लेखन से जुड़े होने बाद भी काफी चीजें पढ़ने के लिए वक्त निकाल देती हैं। आपकी वेबसाइट में आई हुई समीक्षा से पाठक इस बात को जानते समझते हैं। क्या आप पाठकों से अपनी कुछ पसंदीदा किताबों के विषय में बता सकती हैं। आपको वह क्यों पसंद हैं? क्यों वो आपके दिल के करीब हैं?
उत्तर:पढ़ना तो मुझे हमेशा से ही पसंद रहा है। इसके लिए वक़्त भी निकाल ही लेती हूँ। ये भी सही है। मगर मेरे लिए आपके द्वारा पूछा गया ये साधारण सा लगने वाला सवाल बहुत मुश्किल है। अब पसंदीदा किताब कोई एक दो हों तो कुछ कहा भी जाए। फिर भी नाम के लिए कहा जाए तो ब्लडलाइन, मुझे चाँद चाहिए, राग दरबारी, माई नेम इज़ रेड, मिलेनियम ट्रायोलॉजी, काला जल, कटरा बी आरज़ू, टोपी शुक्ला, द स्नोमैन, द अदर साइड ऑफ़ मिडनाईट, द कार्टेल, द फ़ोर्स, महाभोज आदि। और भी बहुत सारे हैं, मगर सबका नाम एक साथ बता पाना मुमकिन नहीं।
प्रश्न: अब आखिर कोई ऐसी बात जो आप पाठकों को कहना चाहें तो उन्हें कहें। जो भी आपके मन में हो।
उत्तर: अपने पाठकों से बस इतना ही कहना चाहूँगी कि धन्यवाद, इतना मान, सम्मान एवं आशीर्वाद देने के लिए। आज हिंदी अपराध कथा लेखन के क्षेत्र में नए नए तेवर के लेखक आ रहे हैं, जो बहुत ख़ुशी की बात है। आपके शब्द ही हमारी प्रेरणा होते हैं, लिहाज़ा आप हर नई कोशिश को, हर लेखक को आपने आशीर्वाद से जरूर नवाजें। ये साथ रहा तो ये कारवां भी बहुत आगे तक जायेगा। हिंदी हमारा अभिमान है। हमें इससे प्यार करना है। जब प्यार करेंगे तो ही इसके सम्मान के लिए खड़े होंगे, लड़ेंगे। और एक गुज़ारिश आपसे बस इतनी कि आपस में, अपने लोगों से, संवाद का माध्यम हिंदी बनायें। काम आप भले ही जिस भाषा में करते हों, आप अपनी व्यावसायिक भाषा चाहे जो इस्तेमाल करें, मगर हिंदी का प्रयोग ज्यादा से ज्यादा करें।
तो यह थी लेखिका सबा जी के साथ हुई बात चीत। उम्मीद है यह बातचीत आपको पसंद आई होगी। आशा करता हूँ आप इस बातचीत के पर अपनी राय अवश्य देंगे।
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साक्षात्कार
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
बहुत बेहतरीन साक्षात्कार, सबा जी के नये उपन्यासों की प्रतीक्षा है।
जी, आभार आनन्द जी।
सबा जी का सिर्फ एक अनुवाद पढ़ा है, चालीसा का रहस्य, बेहतरीन अनुवादक हैं। इस साक्षात्कार में बहुत कुछ सीखने को मिला। चौमुखी प्रतिभा सम्पन्न सबा जी को नमस्कार।
जी आभार मनमोहन सर। मुझे भी काफी कुछ सीखने को मिला। ब्लॉग पर स्वागत है।
बहुत खूब। बेहतरीन साक्षात्कार।
जी आभार,सर।
सबा जी कृत अनुवाद पढे हैं, वास्तव में बहुत अच्छी अनुवाद करते हैं। 'महासमर' पढना बाकी है।
साक्षात्कार अच्छा लगा, धन्यवाद।
जी आभार गुरप्रीत जी। मुझे भी दूसरे भाग का इन्तजार है फिर साथ में दोनों भाग पढूँगा।
बेहतरीन….. महासमर के अगले भाग का बेसब्री से इंतज़ार है।
जी आभार हितेष भाई।
बहुत बढिया साक्षात्कार। आप काफी विस्तृत जानकारी लाते हैं जो अन्यत्र दुर्लभ लगती है। धन्यवाद ।
जी आभार विजय जी। साक्षात्कार आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा। ब्लॉग पर आते रहियेगा।
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जरूर।
सबा दीदी का सब किताब पढ़ लिया है हमने। महासमर-2 भी अब आने ही वाला है। उसका बहुत बेचैनी से इंतज़ार किया है हमने। पहला पार्ट पढ़ने के बाद हर व्यक्ति बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा है।
जी सही कहा। अगली किताब की सभी को प्रतीक्षा है। ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
Very nice interview
आभार तस्कीन जी। ब्लॉग पर आपका स्वागत है। आते रहियेगा।
हा हा हा, काफी लंबा साक्षात्कार था।
काफी बढ़िया।
लम्बा साक्षात्कार लेकिन पता ही नहीं चला खत्म कब हुआ । बहुत बढ़िया और रोचक साक्षात्कार ।