किताब जनवरी 4 2017 से फरवरी 27 ,2017 के बीच पढ़ी गयी
संस्करण विवरण :
फॉर्मेट : पपेरबैक
पृष्ठ संख्या :
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
अनुवादिका : नीरू
सहलेखिका : ज्योति सभरवाल
पहला वाक्य :
सच कहूँ तो मैंने बहुत आत्मकथाएँ नहीं पढ़ीं हैं और न मैंने आत्मकथा-लेखन की शैली से ही परिचित हूँ।
अमरीश पुरी जी की ही तरह मैंने भी अभी तक ज्यादा आत्मकथायें नहीं पढ़ी है। वो इतनी हैं कि उन्हें मैं उँगलियों पे गिन सकता हूँ। इसलिए इस पुस्तक का पहला वाक्य पढ़ा तो मैं उनसे रिलेट कर सकता था।
अगर आप हिंदी फिल्मों में रूचि रखते हैं तो अमरीश पुरी एक ऐसा नाम है जिसके विषय में आपको पता होगा। ऐसा हो नहीं सकता कि आप हिंदी फिल्मों के शौक़ीन हों और अमरीश जी के निभाये किरदारों से रूबरू न हों।
और अगर ऐसा है तो आपको अपने आप को अमरीश जी के काम से वाकिफ करवाना ही चाहिए। खैर,मैं अपनी बात करूँ तो मेरी सबसे पहली याद अमरीश पुरी जी के साथ जो जुडी थी वो मोगाम्बो के रूप में है। उससे पहले मैंने उनकी फिल्में देखीं जरूर होंगी लेकिन अमरीश पुरी नाम के साथ जो किरदार सबसे पहले मन में उठता है वो मोगाम्बो का ही है। इसके बाद अमरीश पुरी जी की बाद की फिल्मे देखीं तो उनका एक अलग सा प्रभाव मन में हुआ। वो मुझे एक ऐसे वृद्ध रिश्तेदार की तरह लगते थे जो कि ऊपरी तौर पर कठोर जरूर है लेकिन जिसका मन बहुत कोमल है। जैसे परिवार में नाना जी या दादा जी होते हैं। मेरे नाना जी की आवाज़ उनसे मिलती है तो यह भी उनके प्रति मेरी ऐसी भावना होने का एक कारण हो सकता है।
मोगाम्बो |
परदेस फिल्म का एक दृश्य |
इन सब के बावजूद मैं इधर ये कहना चाहूंगा इस किताब को पढने का मेरा कारण केवल ये था कि अमरीश जी मेरे पसंदीदा अभिनेताओं में से एक रहे हैं। उन्होंने हर तरीका का रोल किया और उसमे अपनी छाप छोड़ी। चाहे फिर वो नायक का ऐसे मुख्यमंत्री का हो जिससे आप कुछ समय पश्चात घृणा करने लगते हैं या परदेस के बाबूजी जी का जिनका आशीर्वाद आप लेना चाहते हैं या वृद्धाश्रम में रहने वाले ऐसे बुजुर्ग का जो कि केवल इसलिए अपने अमीर होने का झूठा प्रचार करता है क्योंकि उसे लगता है अमीर होने से ही इज्जत मिलती है। विरासत में एक गाँव में रहने वाला पिता जब अपने बेटे से गुस्सा होता क्योंकि वो गाँव में नहीं रहना चाहता तो उसका वो गुस्सा वास्तव में उसका दुःख होता है और आप उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते हो। या घातक का वो सीन जब अमरीश पुरी अपनी बेटे काशी की जान की भीख माँगता है आज भी मेरे शरीर में झुरझुरी पैदा कर देता है। ऐसे असंख्य किरदार उन्होंने निभाये जिन्होंने अमिट छाप दर्शकों के मन में छोड़ी है।
अमरीश पुरी के विषय में मेरी मम्मी भी कहा करती थी कि ये आदमी भले ही विल्लैन का रोल करता है लेकिन ऐसा लगता है कि ये अच्छा इंसान होगा। मैं उस व्यक्ति को जानना चाहता था जिसने इन भूमिकाओं को परदे पर इतनी खूबसूरती से अदा किया। और इस किताब ने मेरी इस इच्छा को पूरा किया है।
वैसे, तो किताब मूल रूप से अंग्रेजी में द एक्ट ऑफ़ लाइफ के नाम से प्रकाशित हुई थी और इसको हिंदी में नीरू ने अनूदित किया है। लेकिन यह अनुवाद इतना बढ़िया बना पड़ा है कि आपको कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि आप किसी अनुवाद को पढ़ रहे हैं। इस अच्छे अनुवाद के लिए मैं सबसे पहले नीरू जी को धन्यवाद देना चाहूँगा।
अब आते हैं किताब के ऊपर तो किताब को अमरीश जी ने ज्योति सभरवाल जी के साथ मिलकर लिखा था। ज्योति जी एक पत्रकार रही हैं जिन्होंने सबसे पहले उनका विडियो इंटरव्यू लिया था। किताब में मुख्यतः निम्न भाग हैं:
- प्राक्कथन
- भूमिका
- संघर्ष काल
- द्वितीय अंक : शो बिज़नस
- जीवित रहने की कला
इनके इलावा उन नाटकों, फिल्मों की सूची है जिनमे अमरीश जी ने काम किया था और इसके इलावा पुरस्कारों एवं सम्मानों की सूची है जिनसे उन्हें नवाज़ा गया था।
प्राक्कथन में नीरू जी ने बताया है कि वे मूलतः वैज्ञानिक पुस्तकों का अनुवाद करती रही हैं और ये पहली सिनेमा से जुडी किताब हैं जिसका अनुवाद उन्होंने किया है। इस अनुवाद को पढने के बाद मैं तो कहूँगा कि उन्हें ऐसे और अनुवाद करने चाहिए।
भूमिका ज्योति सबरवाल जी ने लिखी है जिसमे उन्होंने अमरीश जी से जुड़े अपने अनुभव तो बयान किये ही हैं लेकिन इसके इलावा अमरीश जी को जानने वाले लोगों जैसे उनके दोस्त, वो डायरेक्टर जिनके साथ उन्होंने काम किया के विचार भी इसमें लिए हैं।
अब आते हैं मूल आत्मकथा पर तो आत्मकथा को तीन भागों में बाँटा गया है।
पहले भाग में अमरीश जी के बचपन से लेकर उनके फिल्मों में आने से पहले का सफ़र है। उनका बचपन किधर बीता, घर-परिवार में कौन कौन था, एक्टिंग में कैसे गये और इस दौरान उनके जीवन में क्या क्या हुआ इत्यादि। इसमे एक प्रसंग है जिसमें वे अपनी चार साल के होने का जिक्र करते हैं लेकिन पढ़ते वक्त मुझे चार साल रुपी अमरीश जी की कल्पना करने में बड़ी मुश्किल हुई। क्योंकि उनकी एक विशेष उम्र में वो जैसे दिखते थे उसकी छाप मेरे मन में पड़ी हुई है और वो कभी छोटे भी रहे होंगे ये सोचना भी अजीब सा लगता है।
दूसरे भाग का नाम शो बिजनिस है तो नाम से जाहिर होता है कि ये फिल्मो से जुड़ा है। इस भाग में विभिन्न फिल्मों के दौरान हुए उनके अनुभव हैं। अनेक रुचिकर प्रसंग हैं। अमरीश जी ने हॉलीवुड की कुछ फिल्मों में भी काम किया था तो उसके संस्मरण भी इधर दिए गये हैं। इस भाग को पढ़ते हुए आपको फ़िल्मी दुनिया के विषय में काफी कुछ पता चलता है।
आखिरी भाग जीवत रहने की कला है। इसमें अमरीश जी बात करते हैं उन चीजों की जिन्होंने उन्हें एक सफल जीवन जीने में मदद की है। स्टारडम से जुडी बातें। उन्हें क्या क्या मुश्किलें हुई जैसे अंडरवर्ल्ड से धमकी, आयकर विभाग की रेड इत्यादि। इसके इलावा फिल्मो में उनके साथ घटी दुर्घंटनाओं का भी विवरण है।
किताब की रेटिंग से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि ये मुझे कितनी पसंद आई। इसके बावजूद कुछ बातें ऐसी है जो मेरे अनुसार अगर किताब में होती तो किताब और अच्छी हो सकती थी।
१. किताब में पहले हिस्से यानी संगर्षकाल के दौरान की कोई भी तस्वीर नहीं है। उधर बचपन की तस्वीर, थिएटर की तस्वीर और उस जीवन से जुडी तस्वीर होती तो किताब पढने में और अच्छा लगता।
जो तसवीरें दी हैं वो उनके द्वारा निभाये विभिन्न किरदारों की ही हैं। यानी सिनेमा से इतर उनका जीवन कैसा था उसके विषय में पाठक को तस्वीरों के माध्यम से ज्यादा पता नहीं चलता है।
२. किताब के मुख्य तीन भागों और छोटे अध्यायों में बाँटा जा सकता था। यानी उदाहरण के लिए संघर्ष काल को और छोटे छोटे अध्यायों में बाँटा जा सकता था। जैसे : बचपन के दिन, कॉलेज के दिन, नौकरी नाटक मण्डली में जुड़ने से पहले, नाटक मण्डली के दिन इत्यादि। छोटे अध्याय में पाठक के पास ऐसी सहूलियत रहती है कि वो इसक टुकड़े कभी भी पढ़ सकता है। अभी अगर मुझे कुछ विशेष पढना हो जैसे उनके हॉलीवुड के संस्मरण को मुझे काफी मेहनत करनी होगी। फिर छोटे भागों का एक फायदा मुझे जैसे पाठकों को भी होता है जो एक साथ कई किताब पढ़ते हैं तो एक दिन में एक अध्याय हम इसका पढ़ सकते थे। अभी किताब को कहाँ छोड़े ये तय करने में दिक्कत होती थी।
अगर ऊपरी दो बातें किताब में होती तो मुझे लगता है इसमें चार चाँद लग जाते।
अब एक बात किताब से हटकर मैं कहना चाहता हूँ। जब भी मैं बॉलीवुड फिल्मो के कलाकारों की जीवनियाँ देखता हूँ तो अचरच में पड़ जाता हूँ कि हिंदी में काम करने वाले व्यक्ति अपनी जीवनी अंग्रेजी में क्यों लिखना पसंद करते हैं? जब हिंदी में काम करते हैं तो उन्हें हिंदी में ही लिखना चाहिए जिसका बाद में अंग्रेजी में अनुवाद हो सकता है।
वैसे इसमें एक बार मैंने ये भी सुना एक एक्टर जब हिंदी में अपनी किताब लिखना चाहते थे तो प्रकाशक ने उन्हें बाज़ार न होने का हवाला देते हुए अंग्रेजी में लिखने की सलाह दी थी। मैं अक्सर हिंदी जगत यानी फिल्मों और गीत संगीत से जुडी हस्तियों की किताब को हिंदी में ही पढता हूँ। यही जगजीत सिंह जी के लिए किया था और अमरीश जी के लिए किया। शायद अपने एलटिस्म से बहार निकलकर बॉलीवुड अदाकारों, विशेषकर उन्हें जिनकी हिंदी की पकड़ मजबूत है, को इस बात पर ध्यान देना चाहिए। हाँ, जिन्हें हिंदी आती नही है वे अंग्रेजी में लिखे तो बेहतर हो। वैसे भी ज्यादातर किताबें सहलेखक या सह्लेखिकाओं की मदद से लिखी जाती हैं इसलिए बहाना तो उनके पास भी नही होना चाहिए।
अंत में इतना कहना चाहूँगा कि किताब बेहतरीन है। आपको इसे जरूर पढना चाहिए। अगर आप अमरीश जी के फैन रहे हैं तो इसे पढ़कर आपका उनके प्रति प्यार और बढ़ जाएगा और फैन नहीं रहे है तो शायद हो जायें।
वैसे तो इस किताब में कई बहुमूल्य कोट्स है लेकिन मैं इधर उनमे से कुछ ही लिख रहा हूँ। बाकी के लिए आपको किताब को पढना होगा :
मुझे आजतक याद है कि जब मैं लगभग तीन चार वर्ष का था तो मैंने सड़क किनारे कुछ पैसे जमीन में दबा दिये थे, इस आशा से कि यहाँ मनीप्लांट उगेगा परंतु अगले दिन मैंने देखा कि पैसे गायब थे। शायद किसी ने मुझे जमीन खोदते देख लिया था।
कोई कलाकार श्रेष्ठ नहीं होता, केवल भूमिकायें होती हैं जिनका श्रेष्ठ ढंग से निर्वाह किया जाता है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह किसी भूमिका में अपना कितना योगदान देता है।
जब तक यह रूपान्तरण नहीं होता, उसमे वास्तविक भावना जागृत नहीं हो सकती। यदि मैं सब समय अमरीश पुरी ही बना रहूँ तो वह संभव नहीं होगा। मुझे पात्र बनना पड़ता है। निर्देशक एक मनोविज्ञानी की भाँती आपको सम्मोहित करके आपके भीतर के पात्र को निकाल लेता है। मुझे इस प्रकार के अनुभव अनेक बार हुए हैं , जब मैं समझ ही नहीं पाता कि एक विशेष प्रकार के दृश्य को मैंने कैसे निभाया। यह सब आपके अवचेतन मस्तिष्क से उपजता है।
मुझे याद है कि मुझे अपने चरित्र की अपेक्षाओं के अनुसार महँगे सिगार पीने के लिए दिए गये। एक दृश्य में धुआँ मेरे सिर में चला गया। मैं घबरा गया और मेरे संवाद भी गड़बड़ा गये। मुझे लगभग 25 रिटेक देने पड़े। यह बहुत अपमानजनक था और उस रात मैं अपने बिस्तर में रोया था।
दुर्भाग्य से फिल्मों में अभिनय करते हुए स्थितियाँ भिन्न होती हैं। पूरी पटकथा के आभाव में आपको केवल निर्देशक के मार्गदर्शन में चलना होता है। इसलिए फिल्म नाटक की भाँती कलाकार की फिल्म नहीं होती अपितु निर्देशक की होती है। आपने चाहे कितना भी बढ़िया अभिनय क्यों न किया हो, फिल्म के समस्त पक्ष उसी के नियंत्रण में होते हैं।
इस फिल्म को करते हुए मैं जान पाया कि फिल्मों में दिलीप साहब का जिस स्तर का अभिनय देखने को मिलता है, उस स्तर तक पहुँचने में वे अपना समय लेते हैं। उस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए वे जितना अभ्यास करते, उतना ही उनके प्रति प्रशंसा का भाव बढ़ जाता और मैं सोचता कि मुझे कितना कठोर परिश्रम करना पड़ेगा।
सर्वाधिक उपयुक्त ही जीवित रहता है। किसी समय पर आप चाहे कितने ही ऊँचे स्तर पर क्यों न पहुँचे हों, अपने अच्छे दिनों में चाहे आप कितने ही बड़े अभिनेता क्यों न रहे हों, यह उद्द्योग किसी का पक्षपात नहीं करता। ..यदि आपकी आवश्यकता नहीं है तो आपकी आवश्यकता नहीं है। आप इसके लिए चाहे कितना कठोर प्रयास भी क्यों न कर लें परन्तु यदि आपकी आवश्यकता है तो वे आपको आपकी कब्र अब भी निकाल लाएँगे और आपसे काम करवायेंगे।
किताब को आप निम्न लिंक से मंगवा सकते हैं :
अमेज़न
अगर आपने किताब को पढ़ा है तो इसके विषय में अपनी राय जरूर दीजियेगा।
एकदम बेहतरीन रिव्यु!
अमरीश पूरी जी के बारे में मैं भी पढना चाहता था मगर मेरे मन में भी यही दुविधा थी की मूल अंग्रेजी में पढ़ा जाए या हिंदी अनुवादन को।
अब मुझे पूरा यकीन है की ये हिंदी में ही ज्यादा मजेदार रहेगा।
आपकी यह समीक्षा और उसका अंदाज़ बहुत ही पसंद आया।
शुक्रिया गोरब, भाई। आपकी टिपण्णी प्रोत्साहित करने का काम करती है। मुझे उम्मीद है किताब आपको पसंद आयेगी।