व्यंग्य: मैं धोबी हूँ – शिवपूजन सहाय

व्यंग्य: मैं धोबी हूँ - शिवपूजन सहाय

मैं धोबी हूँ, भगवान भी धोबी हैं। मैं कपड़े धोता हूँ, वे पाप धोते हैं। किंतु वे पतितपावन कहलाते हैं, मैं सारे समाज की मलिनता का परिष्कार करके भी अछूत कहलाता हूँ! फिर भी, उन्होंने ही मुझे अपने-आपसे भी अधिक पतितपावनता दी है। वे तो केवल उसी पतित या पापी का उद्धार करते हैं जो उनकी शरण में पहुँच जाता है; पर मैं तो स्वयं घर-घर पहुँचकर लोगों का पातित्य दूर करके पवित्रता वितरित करता हूँ। तो भी मैं अस्पृश्य क्यों हूँ? इसका एक पौराणिक कारण है!

जब ब्रह्मा ने मुझे पहले-पहल पैदा किया, मैंने उनसे पूछा, “मैं कहाँ रहूँ, क्या करूँ?” वे बोले, “तुम्हें इंद्र के पास रहना होगा, उन्हीं के कपड़े धोने होंगे; क्योंकि वे देवताओं के राजा हैं, सबसे बड़े शौकीन और विलासी हैं।” फिर क्या, मैं पहुँचा इंद्र-लोक। वहाँ नंदन-वन के कमल-कुमुद-मधुप-मराल-सेवित सरोवरों में कपड़े धोने लगा। उन धुले कपड़ों में हंसों की उज्ज्वलता और कमल-कुमुदों की सुरभि आ जाती थी। अन्नदाता प्रभु इंद्र मेरे हाथ की सफाई से बड़े संतुष्ट हुए। उनके दरबार की अप्सराएँ भी मुझ पर ढलीं। अब मेरे घाट पर रंग-बिरंगे कपड़ों का पहाड़ खड़ा हो गया। महाकवि ‘बिहारीलाल’ के शब्दों में ‘मरगजे चीर’ खूब मिलते थे। ऐसी-ऐसी महीन साड़ियाँ जो मुट्ठी में समा जाती थीं। उन्हें निचोड़ने में जितना रसानुभव मैं करता था उतना तो गरीबों को चूसनेवाले नीबू-निचोड़ सूदखोर लहनदार भी न करते होंगे। मैं क्रमशः घार वसन-व्यसनी बन गया।

एक दिन, संयोग की बात, ऐसी सनक सवार हुई कि मैं उर्वशी और रम्भा की साड़ियों और कुर्तियों को एकांत में सूँघ रहा था। उनकी मानसोन्मादिनी सुरभि से मस्तिष्क ऐसा आमोदपूर्ण हो गया कि आँखों में मादकता की गहरी लाली उतर आयी। बोतलवासिनी देवी की उपासना से भी किसी दिन वैसा उग्र उन्माद न हुआ था। मनोवेग के आवेश में या नशे की झोंक में, न जाने क्यों, मैं उन्हें बार-बार मुट्ठियों में कसकर दबाता और झकझोरता। इसी तरह उन्हें चूमते और सूँघते-सूँघते मैं साड़ियों के गट्ठर पर ढेर हो गया।

शायद उसी समय नंदन-वन-विहारिणी अप्सराओं का झुंड सरोवर-तट पर आ पहुँचा। मुझे बँधी मुट्ठियों में साड़ियाँ दबाये अचेत पड़ा देख वे मेरे मुँह पर जल के छीटें देने लगीं। उन शीतल सुरभित विमल जल की फुहारों में मेरी आँखें खुल पड़ीं। देखा तो सामने सौंदर्य की देवियाँ खड़ी मुस्कुरा रही थीं। मैं थरथरा उठा। मुट्ठियाँ अनायास ही खुल पड़ी; पर जबान न खुली।

मंजुघोषा देवी ने पूछा, “तुम्हें हो क्या गया?”

मैं त्रासवश बगलें झाँकने लगा।

तब तक मेनका देवी बोल उठीं, “यह महाराज इंद्र का अन्न खाता है, विलासिता के कीटाणु इसके रक्त में भी घुस गये हैं।”

इस पर घृताची देवी ने स्वयसाची की तरह भ्रू-चाप चढ़ाकर कटाक्ष-बाण छोड़ते हुए कहा, “यह हम लागों के कपड़ों को अपवित्र मन से धोता और काम में लाता है, इसलिए इसको दंड देना चाहिए।”

इतना सुनते ही उर्वशी और रम्भा, जिनकी साड़ियाँ और कुर्तियाँ मेरे हाथों से छूटकर मेरे आगे गिर पड़ी थीं, अपने तमतमाये हुए चेहरे के रोब से मेरे प्राणों को सुखाती हुई कहने लगीं, “जा, तू स्वर्गभ्रष्ट होकर मर्त्यलोक में अपने मन की मलिन वासनाएँ पूरी कर। यह देवलोक है, यहाँ वासनाओं का गुपचुप खेल नहीं चलता, यहाँ तो लालसाओं की स्वच्छंद लीला हुआ करती हैं। कपड़ों की मलिनता दूर करने की शक्ति तुझमें नहीं है। यह काम तो वरुणदेव (जल), पवनदेव और सूर्यदेव की किरणों के प्रताप से होता है। वे हम लोगों के वस्त्रों को दिव्य बनाते थे, तू अपनी वासना से उन्हें बसाता था। क्यों? ऐसी ढिठाई? एक दिन देवसभा में सुर-सम्राट् महाराज देवराज ने बहन सुकेशी को व्यंग्यपूर्वक कहा था कि तुम सत्स्यगंध कब से हो गयी हो। आज ही उनके व्यंग्य का रहस्य खुला है। हम लोगों के कपड़ों की तरह में छिपकर तेरी वासना महाराज तक पहुँच गयी। तू कर्त्तव्यच्युत अपराधी है। विधाता ने तुझे पतितपावन बनाकर शुभ कर्म सौंपा, तू मनोविकार का शिकार हो गया। तेरी पूर्वकृत सेवाओं का स्मरण कर केवल इतना ही दंड दिया जाता है कि पृथ्वीतल के मानव-समाज में तू अस्पृश्य समझा जाएगा; क्योंकि वासना तेरी नस-नस में बस गयी। किंतु तेरे शुभ्र कर्म का जो गुण पवित्रीकरण है उसके प्रभाव से तेरा दर्शन यात्राकाल में सदा मंगलप्रद माना जाएगा। देवलाोक से तेरा निकाला जाना ही कल्याणकर है।”

मैं अपनी करनी का फल पा गया! गदहे पर चढ़ाकर सुरलोक से निकाल दिया गया। वही गदहा मेरी सनातन सवारी है! भगवान की तरह अब भले ही मैं पतितपावन नहीं रह गया; पर मेरी-उनकी श्रेणी एक ही है, इसमें कठहुज्जत न कीजिए। मेरी सवारी गर्दभ है दूर्वाकंद-निकंदन वैशाखनंदन! उनकी सवारी गरुड़ है सर्पकुल-निकंदन विनतानंदन! ‘ग’कार और ‘र’कार का मेल दोनों सवारियों के नाम में है। गरुड़जी को गर्व है जगतपिता की सवारी होने का और गर्दभ को गर्व है जगदम्बा की सवारी होने का। माता कपूत को भी अपनाती है। लक्ष्मी-वाहन को देख लिजिए। मुझे शीतलावाहन इसीलिए मिला है कि ‘मार्जनीकलशोपेतां शूर्पालङ्कृतमस्तकाम्’ जगदम्बा भी सफाई के हथियारों (झाड़ू और सूप) से लैस हैं। मेरी सवारी के रासभ, गर्दभ, खर आदि नामों को सुनकर वे बहुत प्रसन्न होती हैं; क्योंकि वह सफाई के काम में एकाग्र मन से सहयोग देता है समाज का मल ढोकर तीर्थतट तक पहुँचा देता है और वहाँ से स्वच्छता का प्रसाद लाकर वितरण करता है। इसी गुण पर मोहित होकर असुर-सम्राट् रावण-जैसे विद्वान् वीर ने उसको अपने मस्तक पर स्थान दिया था! ‘रावण’ और ‘रासभ’ की मात्राएँ पिंगलानुसार बराबर ही हैं! तुलसीदासजी ने इस पर मुहर लगा दी है ‘पुरोडास चल रासभ खावा।’ इसके सिवा भी कई विशेशताएँ उसमें हैं। तत्सम ‘गर्दभ’ का तद्भव रूप ‘गदहा’ भी संस्कृत का एक तत्सम ही शब्द है। आरोग्यदाता अश्विनीकुमार से पूछिए न। ऐसे विलक्षण शब्द कम ही होंगे जिनका ‘तद्भव’ भी ‘तत्सम’ का मज़ा देता हो।

मेरी धोबिन तो बस हरी धनिया है ‘यस्याः पाणिसरोज-सङ्गमवशात् वासो मलं मुचति।’ भगवान की धोबिन गंगा हैं ‘यस्यास्तीरतरङ्गसङ्गमवशात् पापी मलं मु´चति।’ मेरा और भगवान् का पुराना नाता है। रामावतार में जब लंका-विजय करके लौटे, रजक-रजकी का प्रणय-कलह सुनकर सीताजी को वनवासिनी किया। कृष्णावतार में पहले-पहल ननिहाल (मथुरा) आये तो मेरे ही कपड़ों में सजकर मामा (कंस) के पास गये। भगवान् ने मुझे अपना समकक्ष समझकर ही ऐसी तीव्र स्मृतिशक्ति दी है कि हजारों कपड़ों के लेन-देन में कभी भूल नहीं होती। हाँ, जब कभी कोई ‘धोबी का छैला’ मुझे मधुशाला की गली दिखा देता है, तब जान‑बूझकर चूक हो जाती है।

फिर मेरी सामाजिक महिमा भी कुछ कम नहीं है। रानी और सेठानी की साड़ी और कंचुकी का दरस-परस या तो राजा या सेठ को नसीब होता है या मुझे ही। कवि तो केवल मनमोदक खाते हैं, यहाँ सुंदरी-से-सुंदरी युवतियों की रंग-बिरंग साड़ियों और कुर्तियों से नित्य मेरा घर गमगमाया करता है। उन्हें केवल कचारता ही नहीं हूँ बिछाता भी हूँ, पहनता भी हूँ; क्योंकि मुझ शापभ्रष्ट की चिरसंगिनी वासना-सखी यही कलि-कौतुक पसंद करती हैं। उस समय मैं तो रजक ही रहता हूँ, पर मेरी रजकी तो ‘रजक’ (बारूद) बन जाती है। बस, मैं भी अपनी ‘हरी धनिया’ के लिए ‘हरा पुदीना’ बन जाता हूँ।

(साप्ताहिक ‘समाज’ (काशी), कार्त्तिक को 1943 ई. में प्रकाशित)


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