समुद्र में खून – सुरेन्द्र मोहन पाठक

रेटिंग: ३/५
उपन्यास २७ जून से २९ जून के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण :
फॉर्मेट : इबुक
प्रकाशक : न्यूज़ हंट
सीरीज : सुनील #२

पहला वाक्य 
सुनील उस समय बाथरूम में था और गला फाड़ फाड़कर ‘कम सैप्टेम्बर’  टाइटल ट्यून कि टाँग तौड़ रहा था।

धरती का स्वर्ग एक पानी का जहाज था जो कि मैरीना बीच से तीन मील दूर खड़ा रहता था। वो एक कुख्यात जुए का अड्डा था जो कि केवल इसलिए चल रहा था क्यों कि समुद्र में  तीन मील के बाद किसी एक राष्ट्र का हक़ नहीं होता। इस अड्डे को दीनानाथ और मुरलीधर नाम के दो साझीदार चलाते थे। वे लोग अपने ग्राहकों को जरूरत पड़ने पर पैसे उधार भी देते थे और बदले में एक प्रोनोट लिखवा लेते थे। एक ऐसे ही प्रोनोट उन्हें दीपा नामक युवती ने दिया था। दीपा एक अमीर बाप कि बिगड़ी हुई संतान थी जिसकी हरकते शादी के बाद भी नहीं बदली। दीपा के पिता ने इस कारण अपनी सारी दौलत अपनी पोती बबली के नाम कर दी थी। इस बात का फायदा दीपा का पति रविन्द्र उठाना चाहता था। वो प्रोनोट हासिल करके दीपा से तलाक और बबली कि कस्टडी लेना चाहता था ताकि उसकी दौलत का भी मालिक बन सके।

उसकी इस बात से दीपा कि दादी कलावती वाकिफ थी और इसलिए वो सुनील के पास मदद माँगने पहुँची थी। सुनील मदद करने के लिए तैयार हो जाता है। लेकिन उसे इस बात का अंदेशा नही होता कि मुरली का क़त्ल हो जाएगा और वो क़त्ल का एक सस्पेक्ट बन जाएगा। क़त्ल कि सस्पेक्ट उसकी क्लाइंट दीपा भी है।

किसने किया मुरली का क़त्ल? क्या सुनील प्रोनोट हासिल कर पाया? अपने और अपनी क्लाइंट दीपा को बेगुनाह साबित करने के लिए सुनील के पास एक ही चारा था कि वो असली कातिल को ढूँढ निकाले। क्या वो ऐसा कर पाया? जानने के लिए आपको उपन्यास को पढ़ना होगा।

समुद्र में खून सुनील का दूसरा कारनामा है। यह पहली बार १९६४ में प्रकाशित हुआ था और अब न्यूज़ हंट के सौजन्य से दोबारा पढने का मौका मिला। उपन्यास एक हु डन इट है। मुरली का क़त्ल इस तरीके से होता है कि शक कि सुई कई लोगों पर घूमती है। यहाँ तक कि सुनील भी इसके घेरे में आ जाता है। फिर सुनील कैसे रहस्यमय गुत्थी को सुलझाकर कातिल तक पहुँचता है, ये ही उपन्यास कि कहानी बनती है।

क़त्ल कैसे हुआ और किसने किया ये बात अंत तक पता नहीं चलती है। और जब अंत में सुनील ने रहस्य से पर्दा उठाया तो मुझे एहसास हुआ कि कैसे मुझ से वो हरकत नज़रअंदाज हुई जिसे सुनील ने पकड़ लिया।
 हाँ, उपन्यास चूँकि १९६४ में पहली बार छपा था तो पैसे कि कीमत पढकर अजीब सा लगता है। आज के ज़माने में ७००० और १००० रूपये बड़ी बात नहीं रह गयी है इसलिए पाठक को जब ये उपन्यास लिखा गया था उस वक़्त को ध्यान में रखकर इसे पढ़ना होगा।  रमाकांत और सुनील के बीच का मज़ाक कम है लेकिन जितना भी है उसे पढ़कर मज़ा आता है।
हाँ एक बात सुनील के किरदार में शुरू से ही थी वो सच्चाई का पता लगाने के लिए कानून को थोड़े तोड़ने मरोड़ने से भी नहीं झिझकता है। शायद वो एंड जस्टिफाईज द मीन्स को मानता है इसलिए थोड़ा बहुत सबूतों से छेड़ छाड़ करने में नहीं हिचकिचाते है। उसका ये रूप इधर भी दिखता है।

उपन्यास एक हुडनइट है जिसे पढने में मुझे बहुत मज़ा आया। उपन्यास का कथानक तेज गति से भागने वाला है और  उपन्यास पढ़ते वक़्त समय कब व्यतीत हुआ इसका कुछ अंदाजा मुझे नहीं लगा।उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है।

उपन्यास को आप निम्न लिंक पर प्राप्त कर सकते हैं पर पढने के लिए आपकी न्यूज़ हंट एप्प का इस्तेमाल करना होगा।
न्यूज़हंट

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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2 Comments on “समुद्र में खून – सुरेन्द्र मोहन पाठक”

  1. 'समुद्र में ख़ून' मूल रूप से 'धरती का स्वर्ग'
    शीर्षक से प्रकाशित हुआ था । मुझे भी पाठक साहब का यह छोटा-सा (क्योंकि उन दिनों उपन्यासों की पृष्ठ संख्या आज की तुलना में बहुत कम होती थी) उपन्यास बहुत पसंद है । क़ातिल को मैं भी सुनील द्वारा रहस्योद्घाटन किए जाने तक नहीं पहचान सका था । उन दिनों रुपये का मूल्य सचमुच इतना कम था कि आज की पीढ़ी इसमें दी गई राशियों पर विश्वास ही नहीं कर सकती । उपन्यास के अंत में सुनील कलावती से चैक पर सात रुपये बारह आने की रकम लिखने के लिए कहता है जिसका हिसाब वह बताता है – 'ढाई-ढाई रुपये की दो सिनेमा की टिकट, दो रुपये टैक्सी के और बारह आने इस बिल्ली के यानी उसकी मित्र प्रमिला के गोलगप्पों के लिए' । आज ऐसी राशियों की बात को पढ़ना और उस ज़माने के बारे में सोचना अपने आप में मनोरंजक है । आपने समीक्षा बहुत अच्छी लिखी है विकास जी । हार्दिक अभिनंदन ।

    1. जी आभार। साहित्य की ये खूबी भी होती है कि हमे वो उस समय के विषय में जानकारी देते हैं जो कि गुजर चुका है। पुराने उपन्यास पढ़ने का यही मज़ा है।

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