संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: 136
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
आईएसबीएन: 9788126702572
रुकोगी नहीं राधिका – उषा प्रियम्वदा |
पहला वाक्य:
कुछ भी नहीं बदला।
दो साल विदेश में बिताने के बाद आखिर राधिका वापिस भारत आ ही गई थी। इन दो सालों में उसने सोचा था कि भारत काफी बदल गया होगा। पर वापस पहुँचकर उसे लगा जैसे सब कुछ वैसे ही है जैसा वो छोड़कर गई थी। खैर, जो भी हो उसे आगे की ज़िन्दगी यहीं बितानी थी।
कुछ कारण थे कि दो साल पहले उसे भारत छोड़कर विदेश जाना पड़ा था और कुछ कारणों के चलते ही उसे वापस आना पड़ा था।
राधिका को भारत छोड़कर क्यों जाना पड़ा? वह वापस क्यों आई? अब वापस आकर वह क्या करने वाली थी ?
इन्ही सब प्रश्नों और राधिका के जीवन के कई पहलुओं से यह उपन्यास आपको वाकिफ करवाएगा।
मुख्य किरदार:
राधिका : उपन्यास की नायिका
विद्या – राधिका की सौतेली माँ
अक्षय – विद्या की मित्र अंजलि का छोटा भाई
रज्जू मामा – राधिका के मामा
सुनीति – रज्जू की पत्नी
विनय – राधिका का बड़ा भाई
डेनियल पटेरसन – एक पत्रकार
मनीष – डेनियल का दोस्त
शंकर – अक्षय के पड़ोसी
प्रेमा – शंकर की पत्नी
अनीला,नीना – शंकर की पत्नी
रमा – विद्या की बहन
‘रुकोगी नहीं राधिका’ राधिका की कहानी है। राधिका के ही चहुँ ओर इस उपन्यास का कथानक घूमता है। उसके अतीत और वर्तमान और इन वक्फों में उसके जीवन में आने वाले विभिन्न किरदारों से पाठक परिचित होता है।
वह दो साल बाहर रहकर भारत आई है। भारत वह लौटी तो अपनी मर्जी सी है लेकिन उसे वह ख़ुशी नहीं होती है जिसकी उसने कल्पना की थी। यह अनुभव उसे परेशान करता है। राधिका एक सम्प्पन घर में पैदा हुई है। उसके पास अच्छा जीवन जीने के पर्याप्त साधन है। संपन्न परिवार में पैदा होने से रोज़मर्रा की जद्दोजहद उसके लिए उतने मायने नहीं रखती है। इसके इतर उसके आगे कुछ और प्रश्न हैं जिनसे वो परेशान हैं। अपने परिवार से भी उसके रिश्ते इतने नज़दीक नहीं हैं जितने की उसे इच्छा है। अपने समृद्ध भाई से ज्यादा वो अपने रज्जू मामा के यहाँ अपनत्व पाती है। पैसे वालों की दुनिया में जो कृत्रिमता है वह भी उसे परेशान करती है। वह इन सबके बीच एक सामंजस्य स्थापित करना चाहती है, एक तरह का खुशहाल जीवन जीना चाहती है और इसी के लिए पूरे उपन्यास में प्रयास करती रहती है।
वहीं उसके इर्द भी कुछ किरदार हैं जो अपनी अपनी परेशानियों से जूझ रहे हैं।
एक अक्षय है जो पढ़ा लिखा तो है लेकिन कुछ मामलों को लेकर रूढ़ि वादी है। यह रूढ़िवादिता उसे राधिका के प्रति अपनी प्रेम को पूरी तरह स्वीकार करने से रोकती है। दुनिया बड़ी तेजी से बदल रही है। हम जिस माहौल में बड़े हुए थे, अब अचानक से वो माहौल बदल गया है। औरतों और मर्दों बीच समीकरण बदल गया है। जीवन जीने का तरीका बदल गया है। कई बार हम इस बात को ऊपरी तौर पर समझते भी हैं लेकिन अंदरूनी तौर पर इसे स्वीकार नहीं कर पाते हैं। ऐसा नहीं है कि हमे पता नहीं है कि हम गलत है पर जो महसूस कर रहे हैं उसे बदल नहीं सकते हैं। अक्षय जैसे कई लोगों से मैं मिला हूँ। अब उदाहरण के लिए समलैंगिकता प्राकृतिक है। यह मैं जानता हूँ लेकिन अगर मेरा कोई रिश्तेदार समलैंगिक निकला तो क्या मैं उसे सहजता से स्वीकार कर लूँगा? शायद नहीं। मैं स्वीकार करूंगा लेकिन असहज भी रहूँगा। ऐसी कई चीजें हैं जो परिवरिश के कारण इतने अंदर तक समा जाती है कि उनके गलत होते हुए भी हमे उन्हें मन से निकालने में दिक्क्त होती है। अक्षय की इस मनः स्थिति को मैं समझ सकता हूँ। प्रेम जैसे मामले में अगर कोई चीज खटके तो शुरुआत में तो प्रेम के जोश में आप उसे अनदेखा कर देते हो लेकिन बाद में वही चीज रिश्ते में दरार और कुढ़न का कारण बनती है। अक्षय इससे भली भाँती परिचित है।
अक्षय के अलावा राधिका के जीवन में मनीष नाम का लड़का है। मनीष से वो तब मिली थी जब वह किसी और पुरुष के संग थी। मनीष की उस वक्त प्रेमिका कोई और थी। मनीष के पास सब कुछ है लेकिन फिर भी वो दौड़ रहा है। वो हर चीज से ऊब जाता है यहाँ तक कि अपनी प्रेमिकाओं से भी। उसके पास सब कुछ है लेकिन वो शान्ति वो ख़ुशी नहीं है जिसे वो पाना चाहता है। ऐसे दौड़ हम में से कई लोग दौड़ रहे हैं। अच्छा फोन,अच्छे कपडे, बड़ा रूतबा और अथाह पैसा। कई लोग इसके पीछे भाग रहे हैं बस यह सोचकर कि यह हमे ख़ुशी देगा लेकिन जब हम यह पा लेते है और फिर भी जीवन में खालीपन महसूस करते हैं तो एक तरह का अवसाद हमे घेर लेता है। आसपास कई लोगों से ग्रस्त आप देखते होंगे।
राधिका अक्षय और मनीष दोनों को पसंद करती है। अक्षय में एक तरह का ठहराव है जिसकी उसे चाह है परन्तु उसनका व्यक्तित्व उसे मामूली लगता है जबकि मनीष का व्यक्तित्व और जीवन शैली उसे मानसिक और शारीरिक रूप से आकर्षित करती है।उसे क्या चाहिए यह तय कर पाने में वह खुद को असमर्थ पाती है।
इन दो लोगों के आलावा अपने पिता के साथ भी उसके रिश्ते उसकी परेशानी का सबब हैं। इन दो किरदारों के समीकरण को पढ़ना मेरे लिए रोचक था। कहा जाता है कि अक्सर बेटी पिता के नज़दीक रहती है और बेटे माता के करीब रहते हैं। अगर बच्चे के माँ या बाप में से एक अभिभावक न हो तो ये लगाव बहुत ज्यादा हो जाता है। किसी के साथ उन्हें साझा करना मुश्किल हो जाता है। कई बिंदुओं पर मैं राधिका के मनोभावों को समझ पाता हूँ और कई जगह समझने की कोशिश करता हूँ।
राधिका,अक्षय और मनीष के माध्यम से लेखिका ने युवाओं द्वारा आजकल भोगी जा रही मानसिक परेशानियों को बखूबी दर्शाया है। राधिका एक एक्सिस्टेंशियल क्राइसिस से गुजर रही है। कई बार मेरे साथ भी ये हो चुका है तो मैं उसकी परेशानी समझ सकता था। वहीं अक्षय और मनीष द्वारा भोगी जा रही कुछ परेशानियों को मैंने खुद भोगा है या ऐसे लोगों को जानता हूँ जो भोग रहे हैं।
इन सब किरदारों के अलावा एक समीकरण था जिसने मुझे कंफ्यूज किया। वह विद्या, राधिका की विमाता, और राधिका के पति के बीच का रिश्ता था। विद्या आखिर में एक कदम उठाती है जिसका कारण मुझे समझ नहीं आया। इन दोनों के बीच रिश्ता बड़ी तेजी से शुरू होता है और आखिरकार इनका विवाह हो जाता है। पाठक के रूप में मुझे पता है कि राधिका इस रिश्ते से खुश नहीं है। यह बात विद्या और राधिका के पिता को भी पता है। राधिका के जाने के बाद इनके रिश्ते में कुछ होता है। क्या होता है यह पूरी तरह साफ नहीं है। हम कयास लगा सकते हैं और कुछ हद तक मैं समझ सकता हूँ कि क्या हुआ होगा, लेकिन अगर यह साफ़ होता तो बेहतर होता। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि यह उपन्यास में एक बड़ा महत्वपूर्ण बिंदु बनकर उभरता है।
इस बात के अलावा सभी किरदारों और उनके भीतर चल रहे द्वंदों को बड़ी खूबसूरती से दर्शाया गया है।
उपन्यास का अंत मुझे थोड़ा अजीब लगा। राधिका ने जो निर्णय लिया शायद वो मैं नहीं लेता। शायद रुकता।
भले ही उपन्यास 1967 में पहली बार प्रकाशित हुआ था लेकिन आज भी वह उतना ही प्रासंगिक है।आज के समय के युवाओं के मन के भावों को यह बड़ी सटीकता से दर्शाने में कामयाब होता है। उपन्यास मुझे तो काफी पसंद आया और मैं चाहूँगा कि आप लोग भी इसे पढ़े।
मेरी रेटिंग: 5/5
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लव स्टोरी है ???
ज़िन्दगी की कहानी है। ज़िन्दगी में प्रेम भी होता है तो वह हिस्सा भी इधर मौजूद है।
💕💕 लिखते बढ़िया है
शुक्रिया। आते रहियेगा।
बहुत बढ़िया समीक्षा!!!
जी, शुक्रिया। उपन्यास पढ़कर लगता ही नहीं कि यह इतने पहले लिखा गया था। वही परेशानियाँ हम लोग भी महसूस कर रहे हैं।
अंत स्पष्ट नहीं होता। कई बातें अधूरी सी लगी उपन्यास में जैसे विद्या द्वारा उठाया गया कदम। अक्षय का आचरण जबकि उसे शुरू से ही पता था कि राधिका का भूतकाल क्या है। कई बातों में हमें कयास लगाते रहना पड़ता है। अक्षय और राधिका की आखरी मुलाकात वगैरह। पर फिर भी उपन्यास पठनीय है, रोचक है और मन को छूता है। मनीष और राधिका दोनों के असमंजस की तस्वीर अच्छी तरह पेश की गई है उपन्यास में। मेरी रेटिंग 3.5/5
जी…कई बार ज़िन्दगी में चीजें अस्पष्ट ही रहती हैं….अक्षय जैसी कई लोग भी हैं जो कई बार आधुनिक बनने की कोशिश भी करते हैं लेकिन उनकी अपनी परवरिश से पैदा हुए रूढ़िवादी विचार उन्हें ये चीजें मानने से रोकती हैं… इस कारण वह कभी राधिका को एक्सेप्ट नहीं कर पाया था….अब तो कहानी पढ़े काफी वक्त गुजर चुका है…काफी कुछ भूल गया हूँ….आपकी टिप्पणी ने फिर से पढ़ने की ललक जगा दी है….
मैंने ये किताब नहीं पढ़ी है। ये कहानी वैसे तो दिलचस्प लग रही है पर मुझे ऐसा लग रहा है जैसे बहुत सारे किरदार हैं, और कई सारे सब-प्लॉट। वैसे आपकी समीक्षा बेहतरीन है। आप किरदारों के नाम भी लिखते हैं, ये बात अच्छी लगती है मुझे।
आपने इनकी 'उसके हिस्से की धूप' पढ़ी है?
जी, पढ़िएगा। आपको पसंद आएगी। 'उसके हिस्से की धूप' तो मृदुला गर्ग जी की है। उषा की पचपन खम्भे लाल दीवारें भी काफी प्रसिद्ध है।
ओह, अच्छा हाँ। माफी चाहती हूँ। आपने वो पढ़ी है? 'पचपन खंभे…' का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ा है मैंने। और वो सीरियल दूरदर्शन पर आता था। मुझे बेहद पसंद था।
जी उसके हिस्से की धूप पढ़ी है। इसके विषय में अपने विचार इधर लिखे थे:
उसके हिस्से की धूप