लेखक योगेश मित्तल ने कई नामों से प्रेतलेखन किया है। कुछ नाम ऐसे भी हुए हैं जिनमें उनकी तस्वीर तो जाती थी लेकिन नाम कुछ और रहता था। ऐसा ही एक नाम रजत राजवंशी है। इस नाम से उन्होंने कई उपन्यास लिखे हैं। ऐसा ही एक उपन्यास था ‘रिवॉल्वर का मिज़ाज’। इसी उपन्यास को लिखने की कहानी लेखक ने मई 2021 में अपने फेसबुक पृष्ठ पर प्रकाशित की थी। इसी शृंखला को यहाँ लेखक के नाम से प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है पाठको को शृंखला यह पसंद आएगी।
-विकास नैनवाल
छपना, न छपना अलग बात है, लेकिन कोई नया लेखक मेरठ जाये और धीरज पॉकेट बुक्स में न जाये और धीरज पॉकेट बुक्स में जाये, किन्तु किसी कारणवश धीरज पॉकेट बुक्स के सर्वेसर्वा श्री राकेश जैन से न मिले तो समझ लो उसने मेरठ ही नहीं देखा और देखा भी तो उन बेहद खूबसूरत लम्हों से वंचित रह गया, जो श्री राकेश जैन के साथ बैठने पर हासिल होने वाले थे।

राकेश जैन की मुस्कुराहट और मुस्कुराते हुए कुछ चुटीले अल्फ़ाज़ कहकर, कहकहों का सुर बिखेरने की क्षमता उनकी लोकप्रियता का खास कारण था। आप यदि उन दिनों राकेश जैन के सम्पर्क में रहें हों और उनसे बात चीत की हो तो एक खास बात नोट की होगी कि राकेश जैन स्वयं कितनी ही बड़ी टेंशन में हों, सामने वाले की टेंशन पलक झपकते दूर कर देते थे।
राकेश जैन की धीरज पॉकेट बुक्स एक ऐसी फर्म रही है, जिसका नाम दिल्ली के प्रकाशकों में भी आरम्भ से अब तक इज्जत से लिया जाता रहा है। कभी अवसर मिला तो इस पर भी विस्तार से लिखूँगा कि तुलसी पॉकेट बुक्स और तुलसी पेपर बुक्स से पहले और बाद में ही धीरज पॉकेट बुक्स के बुलन्द रुतबे का कारण क्या था और क्यों?
पर इस समय धीरज पॉकेट बुक्स का जिक्र इसलिए क्योंकि एक दिन सुबह सुबह राजभारती जी मेरे घर आये और आते ही पूछा – “तैयार है?”

“तैयार तो हूँ, मगर चलना कहाँ है?” मैंने पूछा।
“मेरठ।” भारती साहब ने कहा।
“मेरठ क्यों?” मैंने पूछा।
“वो यार… अग्निपुत्र सीरीज़ का नॉवल कम्पलीट हो गया है। दे आते हैं।”
“ठीक है, चलो।” मैंने कहा।
दोस्तों, आप मुझे किस मिट्टी का बना समझेंगे, मालूम नहीं, लेकिन जब मैं बिमल चटर्जी और कुमारप्रिय के संसर्ग में था, उनकी एक आवाज़ पर उनके साथ चल देता था।
खैर, उनके साथ तो वैसे भी बहुत वक़्त बीतता था, पर मेरी यही आदत अरुण कुमार शर्मा, नरेश कुमार गोयल अथवा फूलचन्दं के साथ थी।
बाद में यशपाल वालिया, राजभारती, एस. सी. बेदी, एन. एस. धम्मी,(आर्टिस्ट) पृथ्वी सोनी (आर्टिस्ट), सरदार मनजीत सिंह (आर्टिस्ट), श्रीकृष्ण ओबराय (आर्टिस्ट), हरी उर्फ स्वपन (आर्टिस्ट), सरदार मनोहर सिंह तथा और भी मित्रों के साथ बहुत बार ऐसा वक़्त आया, जब उन्होंने साथ चलने को कहा और मैं अपने सारे काम छोड़, उनके साथ निकल लिया।
तो उस समय भी मेरठ में देने के लिये मेरा कोई काम तैयार नहीं था, पर भारती साहब ने कहा तो मैं चल दिया।
रास्ते में भारती साहब ने पूछा – ” ‘रिवॉल्वर का मिज़ाज’ चालू किया?”
“किया…।” मैंने कहा – “पर कहानी का प्लॉट बदल दिया। पिछले दिनों वेद प्रकाश काम्बोज का अलफांसे सीरीज़ का एक उपन्यास पढ़ा था। वो इतना जमा कि सोचा, इसी पर अपने पारस अम्बानी को खड़ा कर दूँ।” इतना कहकर मैं भारती साहब को वेद प्रकाश काम्बोज के उपन्यास की कहानी सुनाने लगा। साथ-साथ यह भी बताता जा रहा था कि ‘रिवॉल्वर का मिज़ाज’ में उसे किस परिवर्तन के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
“पारस की कोई स्पेशलिटी भी रखी है?” भारती साहब ने पूछा।
“स्पेशलिटी तो बहुत सारी रखी हैं, पर एक ही नॉवल में, पहले नावल में पता नहीं सारी दिखा पाऊँगा या नहीं?” मैंने कहा।
“यह बता क्या क्या स्पेशलिटी रखी हैं?” भारती साहब ने पूछा।
मैंने बताना आरम्भ किया – “सबसे पहले तो हमारा पारस अम्बानी एक अरबपति है। उसे मैं हिन्द महासागर के एक छोटे से टापू का मालिक दिखाऊँगा, जहाँ छोटी-छोटी सोने की कई खानें हैं और वह अपने लिए हर दृष्टिकोण से बेहतरीन एक लड़की की तलाश में भारत आया है और वह भारत में एक घुमक्कड़ सैलानी की तरह घूम रहा है। भारत के हर बड़े शहर के किसी बैंक में उसका एकाउंट भी है, जिसमें करोड़ों रुपये होते हैं। आवश्यकता पड़ने पर वह जब चाहे जितने चाहे रुपये निकाल सकता है। इसके अलावा पारस साइन्स में एम. एस. सी. पी.एच. डी. है। इलेक्ट्रॉनिक्स में वह गज़ब का उस्ताद है। वह जानवरों की भाषा भी समझता है और आवाज फेंकने की कला का माहिर है। मुँह से हर तरह की आवाज निकालनी भी वह जानता है।”
“यह आवाज फेंकने की कला क्या हुई?” भारती साहब ने पूछा।
“इसके बारे में मैंने किसी साहित्यिक किताब में कुछ पढ़ा था कि पुराने जमाने में कुछ आदिवासी जातियाँ थीं, जो इस कला में माहिर थीं। इसकी खूबी यह है कि पारस आपके बिलकुल पास खड़ा होकर कुछ ऐसा बोल सकता है, जो आपको लगेगा कि दूर किसी खम्बे से आवाज़ आ रही है और अगर वह बहुत दूर है और आपके पास कोई कौवा बैठा है तो दूर से बोलेगा तो पारस, पर आपको लगेगा कि पास बैठा कौवा ही आपसे इनसानी भाषा में बात कर रहा है।”
“कमाल है।” भारती साहब ने कहा – “है तो बिलकुल यूनिक आइडिया, पर एक काम कर, तू उसे सोने की खानों का मालिक दिखा रहा है तो एक आइडिया मेरे दिमाग में भी आया है, वो यह कि तू उसके पास एक सोने का रिवॉल्वर भी दिखा दे।”
“पर सोना तो हीट से मेल्ट हो जाता है। बार-बार गोली चलाई जायेगी तो धातु पिघल जायेगी। रिवॉल्वर की शेप खराब हो जायेगी।” मैंने कहा।
“कैसे हो जायेगी भारती साहब बोले –”तेरा पारस अम्बानी साइंटिस्ट भी है और तू कुछ ऐसा दिखा कि जर्मनी या फ्रांस की किसी कम्पनी ने ऐसे दो या तीन रिवॉल्वर बनाये थे, बस। उनमें से एक पारस के पास है।”
यह बात मुझे जँची। मैंने कहा – “ठीक है, पर पारस के सोने के टापू की और उसकी अमीरी की बातें आरम्भिक उपन्यासों में नहीं होंगी और वह क्यों शहर-शहर घूम रहा है, यह भी। यह सस्पेंस तब खुलेगा, जब उसे अपने से इक्कीस लड़की मिल जायेगी और वह उसे लेकर अपने टापू जायेगा।”
“चल, ठीक है। पारस का कैरेक्टर तो टनाटन हो गया। उसके साथ किसी और को भी रखना है?”
“अभी सोचा नहीं।”
“तो सोच, कोई ऐसा कैरेक्टर – जिसके नाम से थोड़ी बहुत केशव पंडित की सी आवाज़ आती हो। और उसकी कुछ अलग ही खूबी हो।”
“केशव पंडित जैसा क्यों? विक्रांत जैसा क्यों नहीं?” मैंने पूछा।
भारती साहब बोले – “पारस के साथ विक्रांत जैसा कैरेक्टर नहीं जमेगा। पर पारस के साथ एक कैरेक्टर रखना जरूरी है। एक भारी कैरेक्टर के साथ एक हल्का कैरेक्टर रहने से सही रहता है ।कोई पारस की तारीफ करे न करे, समय-समय पर वो दूसरा कैरेक्टर ही खूब तारीफ करेगा। इससे कैरेक्टर डेवलप भी होगा।”
“बढ़िया…।” मैं हँसा।
“हँसा क्यों?” भारती साहब ने पूछा।
“कैरेक्टर डवलप हो न हो।” मैंने कहा – “दूसरा कैरेक्टर रखने से एक जबरदस्त फायदा तो मिलेगा।”
“वो क्या…?”
“अगर कभी उपन्यास में पेज कम पड़ेंगे तो दो तीन चैप्टर दोनों कैरेक्टर्स की आपसी बातचीत में फिजूल नोंक-झोंक दिखाकर बढ़ाये जा सकते हैं, जो कहानी का हिस्सा न भी हों तो पढ़ने वालों को मज़ा जरूर देंगे।”
मेरी इस बात पर भारती साहब भी हँसने लगे। फिर पूछा – “तो क्या सोचा है दूसरे कैरेक्टर के बारे में?”
“सुदामा पंडित रखते हैं।” मैंने कहा – “पंडित शब्द से उसमें केशव पंडित जैसा आभास हो जायेगा और सुदामा से उसके बेहद गरीब होने का। सुदामा पंडित एक गरीब ब्रह्मचारी होगा, लेकिन ज्योतिष शास्त्र और सामुद्रिक ज्ञान में अव्वल, चाँद तारों से बात कर आने वाली घटनाओं का पूर्वाभास करने वाला।”
“बढ़िया…।” भारती साहब ने सुदामा पंडित पर स्वीकृति की मोहर लगा दी।
सुदामा पंडित जैसा कैरेक्टर मैंने पारस के साथ रखने का विचार तो पहले से कर रखा था, किन्तु उसकी फाइनल रूप रेखा नहीं बनाई थी और नाम भी फाइनल नहीं किया था, किन्तु मेरठ के रास्ते ही रास्ते में सब कुछ फाइनल हो गया था।
यह और बात है कि जैसी कि मैंने प्लानिंग की थी कि ‘पन्द्रहवें उपन्यास’ में अच्छी तरह सुदामा पंडित की कहानी डाल कर उसकी खूबियाँ दिखाऊँगा और उसके बाद पारस को उसकी मेहबूबा से मिलवाएँगे, जिसे कई उपन्यासों में दिखाएँगे। फिर पारस अम्बानी के टापू का सफर दिखाएँगे। उसका अवसर नहीं आ सका।
तब मैं रोज अपनी दिनचर्या की भी डायरी लिखता था। अपने उपन्यासों के प्लॉट का एक एक सीन पहले उस डायरी में लिखता था, बाद में उपन्यास में सीन लिखता था।
मैं नये लेखकों को भी सुझाव दूँगा कि वह डायरी लिखा करें, किन्तु डायरी में हमेशा सच लिखें। अगर वह सच आपको शर्मिन्दा करने वाला भी हो तो भी पूरी ईमानदारी से अपनी डायरी में उसे अवश्य लिखें। अगर कोई बात आपके मन में किसी प्रकार के गिल्ट का भाव पैदा करने वाली है तो भी उसे लिखें। बेबाक होकर लिखें। आपके मन का गिल्ट अवश्य ही कम होगा।
उस दिन हम ग्यारह बजे तक मेरठ पहुँच गये। सवा ग्यारह तक हम धीरज पॉकेट बुक्स के दफ्तर में थे।
हमें देखते ही राकेश जैन ने अपनी हल्की सी सौम्य मुस्कान बिखेरते हुए आवाज बुलन्द की – “क्या बात है! कहाँ-कहाँ घूमते आ रहे हैं?”
“कहीं नहीं, सीधे तेरे पास ही आ रहे हैं?” भारती साहब ने कहा।
“अच्छा, शकल से तो थके लग रहे हो?”
“कौन थका लग रहा है?” मैंने कहा – “मैं तो लग नहीं सकता। मैं तो हमेशा चुस्त-दुरुस्त लगता हूँ।”
“आपकी तो बात ही क्या है योगेश जी, आपकी मैं बात भी नहीं कर रहा, पर भारती साहब थके लग रहे हैं।” राकेश जैन ने कहा।
राकेश जैन ने भारती साहब के बारे में थके होने का अनुमान कैसे लगाया, पता नहीं। पर राकेश की बात पर भारती साहब ने स्वीकार किया, उस रोज वह रात भर के जागे हुए हैं। आम तौर पर भारती साहब देर रात तक लिखने का काम तो करते थे, लेकिन रात भर काम करने की उनकी आदत नहीं थी। फिर भी कभी कभी ऐसा हो जाता था, जब वह किसी उपन्यास का एंड लिख रहे हों।
और उस रात उपन्यास पूरा करने के बाद वह सीधा मेरे यहाँ आ गये थे। मुझसे भारती साहब ने इस बारे में कोई जिक्र नहीं किया और मुझे भी कोई एहसास न हुआ था, पर राकेश जैन ने यह बात कैसे जान ली, कैसे महसूस की, मुझे नहीं मालूम।
तब कई प्रकाशक ऐसे थे, जो मेरी शक्ल देखते ही अपने प्रकाशन के नये सैट की कम्प्लीमेंटरी कॉपी मेरे लिए निकलवा देते थे, राकेश जैन भी ऐसे ही दरियादिल थे।
चाय-वाय के दौर तथा भारती साहब के अग्निपुत्र सीरीज़ के उपन्यास का लेन-देन निपटाने के बाद राकेश जैन मुझे नयी किताबों का पैक किया सैट थमाते हुए बोले – “योगेश जी, अगले हफ्ते आपने अपना काम करना है। मैं सारे प्रूफ भारती साहब के पास पहुँचा दूँगा। भारती साहब आपको पहुँचा देंगे।”
यहाँ राकेश जैन के ‘अपना काम’ कहने में एक पूरा मैसेज छिपा था, जो शायद मेरे दोस्त समझ नहीं पाये होंगे, इसलिए मैं विस्तारपूर्वक विवरणसहित बताता हूँ।
भारती साहब की राइटिंग मेरठ के कम्पोजीटर्स ठीक से नहीं पढ़ पाते थे, इसलिए उनके धीरज पॉकेट बुक्स में शुरुआती उपन्यासों में बहुत ज्यादा गलतियाँ थीं, जो भारती साहब ने नोट कीं तो राकेश जैन ने एक ही बात कही कि मेरठ के कम्पोजीटर्स और प्रूफरीडर भी उनकी राइटिंग ठीक से नहीं पढ़ पाते, इसलिए गलतियाँ छूट जाती हैं।
भारती साहब ने कहा – “इसका कोई तो सोल्युशन तो निकालना होगा।”
राकेश जैन ने कहा–”सोल्युशन यही है कि प्रूफरीडिंग आप करवा दिया करो। प्रूफरीडिंग की पेमेंट मैं कर दूँगा।”
तब भारती साहब ने दिल्ली आकर मुझसे बात की। उन्होंने कहा – “मेरठ के एक प्रकाशक अपने एक उपन्यास की प्रूफरीडिंग करवाना चाहते हैं। एक नॉवल के कितने लेगा?”
तब उपन्यास बारह फार्म अर्थात एक सौ बानवे (192) पेज के छप रहे थे।
मैंने भारती साहब से कहा – “मेरी तो एक ही रीडिंग काफी होगी। उसी में सारी गलतियाँ निकल जाएँगी। एक रीडिंग के चार सौ रुपये लूँगा।”
तब भारती साहब ने यह नहीं बताया था कि प्रूफरीडिंग उनके उपन्यास की होनी है।
चार सौ रुपये मेरठ के प्रूफरीडिंग के उस समय के रेट से कई गुना से अधिक थे, पर राकेश जैन ने मुझे चार सौ रुपये देना स्वीकार कर लिया, तब से राज भारती जी के अग्निपुत्र सीरीज़ के सभी उपन्यासों की प्रूफरीडिंग मैं ही करता आ रहा था। एक बार ऐसे में एक मजेदार बात हुई।
एक बार राकेश जैन ने मुझसे कहा –”योगेश जी, इस बार बहुत गलतियाँ रह गयी हैं।”
बिना एक सेकेंड की देरी किये मैं बिफर कर बोला –”सवाल ही नहीं होता। करेक्शन करने वाले कम्पोजीटर ने ठीक से करेक्शन नहीं लगाई होगी। आप मेरे द्वारा करेक्शन लगाये फार्म निकलवाइये, मैं अभी मिलवाता हूँ।”
राकेश जैन हँसने लगे – “हाइपर क्यों हो रहे हो? मज़ाक कर रहा हूँ। बहुत अच्छी रीडिंग की है। पर योगेश जी, मानना पड़ेगा, आपका कॉन्फीडेंस गज़ब का है।”
तो राकेश जैन के यहाँ राज भारती जी के उपन्यास की प्रूफरीडिंग करनी थी और उस फर्म में यही काम मेरा अपना काम था।
धीरज पॉकेट बुक्स के आफिस से उठने से पहले चाय का एक दूसरा दौर भी चला। चाय के उस दौर के मध्य अचानक राकेश जैन ने राज भारती जी से पूछा – “एस. पी. साहब को भी नॉवल दे रहे हो क्या?”
“नहीं तो… ” भारती साहब बोले – “पर यह क्यों पूछा ?”
“चचा पूछ रहे थे – आपके बारे में..।” राकेश जैन ने कहा – “मैंने सोचा, नॉवल की बात हुई होगी।”
“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं हुई। और मेरे पास टाइम कहाँ है।” भारती साहब बोले।
“फिर भी एक बार मिल लेना। मुझे कोई प्राब्लम नहीं है, आप किसी को भी नॉवल दो। मुझे मेरी अग्निपुत्र सीरीज़ मिलती रहनी चाहिए।”
“उसके बारे में तू निश्चिन्त रह…। अग्निपुत्र सीरीज़ हमेशा तुझे ही मिलेगी।” भारती साहब ने राकेश से कहा। राकेश जैन से वह काफी घनिष्ठ थे और आप, तुम से तू के सम्बोधन पर भी अक्सर आ जाते थे।
चाय का दूसरा दौर खत्म होने पर हम धीरज पॉकेट बुक्स के ऑफिस से बाहर निकले।
ईश्वरपुरी में धीरज पॉकेट हुक्म के साथ ही गंगा पॉकेट बुक्स ( बाद में दुर्गा पॉकेट बुक्स) का ऑफिस था। एस. पी. साहब का ऑफिस उसके आगे था।
आप सब यह सोच रहे होंगे कि अचानक यह एस. पी. साहब कहाँ से आ गये और कौन हैं यह?
तो बन्धु, एस. पी. साहब नाम से मेरठ की ईश्वरपुरी में विख्यात रहे हैं – नूतन पॉकेट बुक्स के स्वामी सुमत प्रसाद जैन। बाद में एस. पी. साहब ने अपने बड़े बेटे संजीव जैन को सूर्या पॉकेट बुक्स द्वारा आत्मनिर्भर बनाने की चेष्टा की थी।
एस. पी. साहब के मकान के बाहरी कमरे में ही उनका ऑफिस था। ईश्वरपुरी के अन्य सभी प्रकाशकों के ऑफिस भी इसी प्रकार अपने अपने मकान के बाहरी कमरे में थे।
एस. पी. ऑफिस के ऊपर नूतन पॉकेट बुक्स का बोर्ड लगा था।
हमने ऑफिस में प्रवेश किया।
एसपी साहब उर्फ सुमत प्रसाद जैन अपनी कुर्सी पर विराजमान थे। निकट ही उनका बड़ा सुपुत्र संजीव जैन कुछ झुका हुआ उनकी बात सुन रहा था या कोई काम समझ रहा था। पास ही जमीन पर करीने से छह से बारह किताबों के कुछ सैट बने हुए रखे थे और वहीं कुछ वीपी स्लिप तथा वीपी के मनीआर्डर फॉर्म रखे थे। निकट ही एक बर्तन में लेई बनी रखी थी, जो कागज चिपकाने में गोंद का काम करती थी।
वहीं बैठा एक वर्कर किताबों का एक-एक सैट उठाकर, मोटे खाकी पेपर में किताबों का पैकेट बना रहा था। पैकेट पर लेई से वीपी स्लिप चिपका, वीपी फॉर्म को तीन या चार मोड़ के बाद पीछे की साइड में रखकर, पैकेट जूट की सुतली से बाँध रहा था।
हमें देखते ही वह अपना काम रोककर, उठा और उसने एक कोने में रखी, दो फोल्डिंग चेयर उठाईं और खोल कर बिछा दीं।
एसपी साहब और संजीव जैन ने गर्मजोशी और मुस्कान के साथ हमारा स्वागत किया।
एसपी साहब ने पैकिंग करने वाले वर्कर से ईश्वरपुरी के ठीक बाहर बायीं ओर स्थित गिरधारी की दुकान पर तीन चाय बोल आने को कहा।
संजीव जैन तब अधिक बार चाय नहीं पीते थे, किन्तु एसपी साहब हमेशा अपने लेखकों का साथ निभाते थे।
चाय आने से पहले ‘हाल-चाल’ पूछने की औपचारिक बातों के बाद एसपी साहब असली मुद्दे पर आये और बोले – “भारती जी, दो एक महीने पहले आपने एक बात कही थी – योगेश जी के बारे में। तो हमने एक प्लानिंग की है।” कहकर एसपी साहब ने अपने बेटे संजीव से पंकज को बुलाने को कहा । पंकज एस पी साहब का सबसे छोटा बेटा है। संजीव और राजीव से छोटा। खूबसूरती में एसपी साहब के तीनों बेटे अपनी जवानी में एक से बढ़ कर एक रहे हैं। संजीव जैन का लुक ‘हीमैन’ स्टाइल का था और वह गम्भीर फिल्मों के धर्मेन्द्र जैसे थे। राजीव कुछ भारी बदन के थे, किन्तु ऐसा नहीं लगता था कि कहीं से ज्यादा चर्बी चढ़ी हुई है। फिजीकल फिट ही नज़र आते थे। लगता था – जैसे उन्होंने पहलवान बनने की ठान रखी है।
लेकिन बड़े दोनों भाइयों से पंकज थोड़ा भिन्न थे। उनके चेहरे पर फिल्मी हीरो विश्वजीत के चेहरे की सी मासूमियत थी, पर उनका चेहरा विश्वजीत जैसा गोलाकार नहीं था। मुझे पूरी तरह पता नहीं, पर अनुमान है – बचपन में कभी पोलियो का शिकार रहे होंगे। उनकी चाल में कुछ लचक थी और चेहरा अक्सर एक तरफ झुका सा रहता था।
संजीव जैन पंकज जैन को बुला लाये तो एसपी साहब ने उसे अपने निकट खींच, मुझसे कई वाक्यों की किश्तों में जो बात की, वह पूर्णतः इस प्रकार थी – “योगेश जी, यह मेरा सबसे छोटा बेटा पंकज है। समझिये आप का भाई… आपका बच्चा है। इसे आपने खड़ा करना है। राज भारती जी ने आपके बारे में बात की थी। अब आप नाम और डिटेल लिखवा दीजिये, जिससे टाइटिल बनवा कर काम आगे बढ़ाया जाये।”
मुझे एसपी साहब से ऐसे किसी निमंत्रण की स्वप्न में भी आशा नहीं थी। मेरे लिए यह शॉकिंग था। उनकी बातों पर मेरी किसी भी प्रतिक्रिया से पहले अचानक राज भारती जी ने मुझसे पूछा – “तूने रिवॉल्वर का मिज़ाज लिखना शुरू किया या नहीं..?”
“कर दिया…। शुरू के चैप्टर लिख लिये हैं।” मैंने कहा।
“ठीक है – नाम नोट कर लीजिए – रिवॉल्वर का मिज़ाज और लेखक के रूप में योगेश जी का नाम ‘रजत राजवंशी’ होगा। आप एक कागज दीजिये, मैं सारी डिटेल लिख देता हूँ।”
“क्या कर रहे हैं?” मैंने भारती साहब को टोका – “रिवॉल्वर का मिज़ाज नाम तो हमने सुनील को दे रखा है। यहाँ कोई और नाम दे देते हैं।”
“तू चुप कर…।” भारती साहब ने डाँटा – “मै बात कर रहा हूँ न….।”
मेरे लिए खामोशी साध लेने के सिवाय कोई चारा नहीं था।
और जो नाम सुनील को दे रखा था, वह एसपी साहब को दे दिया गया।
पंकज जैन के लिए एसपी साहब ने माया पॉकेट बुक्स का श्रीगणेश करवाया था, कालांतर में, उसी में मेरा उपन्यास ‘रिवॉल्वर का मिज़ाज’ प्रकाशित हुआ, लेकिन एसपी साहब से डील पक्की करने के बाद जब हम दिल्ली वापस लौट रहे थे तो मैंने भारती साहब से कहा – “ये आपने गलत करवा दिया। सुनील बहुत नाराज होगा। मैंने जो उपन्यास सुनील के लिए शुरू किया था, एसपी साहब को वही दे देते, लेकिन नाम तो दूसरा ही देना था। सुनील का टाइटिल भी छपा हुआ है।”
“कोई बात नहीं…।” भारती साहब बोले – “सुनील के टाइटिल पर गोल्डन लीफ या सिल्वर लीफ में दूसरा नाम छपवा लेंगे। बहुत ज्यादा खर्च नहीं आयेगा।”
दोस्तों, यदि आपने उस जमाने के उपन्यासों के टाइटिल देखें हैं तो बहुत से टाइटिल ऐसे देखे होंगे, जिनमें नाम सुनहरे चमकीले, अथवा चाँदी से चमकीले रंग में लिखा हुआ होता था। यही नहीं, कई बार लाल, नीले या हरे अथवा महरून रंग में नाम टाइटिल कवर पर होते थे।
जिन उपन्यासों में चमकीले रंग से नाम होता था, उनमें टाइटिल पूरा छपने के बाद अलग से पाँचवे चमकीले रंग में पुस्तक का नाम प्रिण्ट करवाया जाता था। यदि किसी टाइटिल पर कोई नाम गलत छप गया हो तो चमकीले कलर में ओवरलीफ द्वारा टाइटिल पर दूसरा नाम छपवा दिया जाता था, जिससे पहला नाम दबकर छिप जाता था।
बाद में जब हम सुनील से मिले और उसे यह बताया कि ‘रिवॉल्वर का मिज़ाज’ नाम हमने माया पॉकेट बुक्स में दे दिया है और यह उपन्यास अब वहाँ छपेगा तो सुनील खुश होकर बोला – “अच्छा किया, यह बहुत अच्छा किया।”
तब चौंकने की बारी मेरी थी। मैंने कहा – “पर अब तुम्हारे छपे हुए टाइटिल तो बेकार हो जाएँगे।”
तो सुनील बोला – “मैंने टाइटिल छपवाये कहाँ है?”
“और वो जो मुझे टाइटिल दिखाया था…?” मैंने सवाल किया।
सुनील हँसा – “वो तो प्रूफ था।”
“प्रूफ!!”
“हाँ…।” और तब सुनील ने कहा – “योगेश जी, मेरे एक सैट में चार किताबें छपती हैं। एक सैट डिस्पैच करने में तीन से साढ़े तीन महीने लगते हैं और मेरा एक सैट लगभग तैयार है। पन्द्रह-बीस दिन में डिस्पैच होगा। अगले और उसके अगले सैट में भारती साहब के रिप्रिन्ट डाल रहा हूँ। सर्कुलर में उनकी भी डिटेल जा चुकी है। उसके बाद भी दो-तीन सैट तक मेरे लिए आपको छापना मुश्किल था।”
“पर मैंने तो नॉवल शुरू कर दिया था। कुछ समय बाद पूरा भी हो जाना था।”
“तो क्या, मैं नॉवल लेकर रख लेता और जब आप पूछते तो आपको गोली देता रहता, कोई न कोई बहाना बनाकर टालता रहता। पर हाँ, आपको छापता जरूर, पर अपनी सहूलियत के हिसाब से। अच्छा हुआ, जो आपने माया पॉकेट बुक्स में सैटिंग कर ली।” सुनील ने बेहद ईमानदारी से मुझे अपना सच बताया। साथ ही उसने यह भी कहा कि “योगेश जी, मैं जनरल और उपन्यासों की चार किताबों का सैट हर बार निकालता हूँ और ऑफसेट पर टाइटिल एक बार में चार या आठ छप सकते हैं। आपकी किताब पाँचवीं बनती थी, इसलिए उसके मैंने ब्लॉक बनवाये थे, जिनके साथ ब्लॉकमेकर कलर प्रूफ भी देते हैं, जो सिंगल टाइटिल की चैन्डर मशीन पर निकाले जाते हैं। आपने जो देखा था, वह टाइटिल जैसा टाइटिल का प्रूफ था, जिसे ब्लॉकमेकर इसलिए पब्लिशर को देता है, जिससे पब्लिशर को तसल्ली हो जाये कि ब्लॉक सही बना है।”
मेरी यह परेशानी दूर हो गयी कि सुनील नाराज होगा। सुनील को परेशानी होगी।
बहरहाल… यह किस्सा कुछ उसी तरह का रहा कि अन्त भला, सो सब भला…।
समाप्त
(मूल रूप से 9 मई 2021 को लेखक की फेसबुक वॉल पर प्रकाशित)
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