रिवॉल्वर का मिज़ाज : कहानियाँ ऐसे भी बनती हैं – 5

रिवॉल्वर का मिज़ाज : कहानियाँ ऐसे भी बनती हैं

लेखक योगेश मित्तल ने कई नामों से प्रेतलेखन किया है। कुछ नाम ऐसे भी हुए हैं जिनमें उनकी तस्वीर तो जाती थी लेकिन नाम कुछ और रहता था। ऐसा ही एक नाम रजत राजवंशी है। इस नाम से उन्होंने कई उपन्यास लिखे हैं। ऐसा ही एक उपन्यास था ‘रिवॉल्वर का मिज़ाज’। इसी उपन्यास को लिखने की कहानी लेखक ने मई 2021 में अपने फेसबुक पृष्ठ पर प्रकाशित की थी। इसी शृंखला को यहाँ लेखक के नाम से प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है पाठको को शृंखला यह पसंद आएगी।

-विकास नैनवाल


हम अक्सर बहुत कुछ चाहते हैं, बहुत कुछ करना चाहते हैं। पर हर काम हमारे चाहने और हमारे प्लानिंग करने से नहीं होता।

कोई है… जो अपनी प्लानिंग रचता और अपनी प्लानिंग बनाता है… हमसे उसी के हिसाब से काम कराता है।

राजभारती
राजभारती

यह तो आप सब जानते ही हैं कि राज भारती जी के उनसे छोटे भाई सरदार महेन्द्र सिंह का उन दिनों अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं, उपन्यासों का होलसेल-रिटेल का काम था और उनसे छोटे सरदार मनोहर सिंह खेल खिलाड़ी के सर्वेसर्वा थे।

सरदार मनोहर सिंह ने उन दिनों खेल खिलाड़ी छापने के साथ-साथ एक नई पत्रिका ‘नन्हा नटखट’ की प्लानिंग की।

रजिस्ट्रेशन के लिए नाम रजिस्ट्रार आफ न्यूज़ पेपर के ऑफिस भेजा गया। उन दिनों यह आफिस आई. टी. ओ. की उस बिल्डिंग में था, जिसमें पुलिस मुख्यालय में था।

बच्चों की मैगज़ीन नन्हा नटखट का प्रचार उन दिनों खेल खिलाड़ी के भीतरी पेजों के अलावा टाइटिल की बैक पर भी किया गया।

प्रचार की वजह से लोगों का रिस्पांस भी मिलने लगा। उस रिस्पांस में काफी कार्टून भी आये, किन्तु मुझे हरीश बहल और हरविन्दर माँकड़ के कार्टून अच्छे लगे।

मैंने वे सभी कार्टून, ऑफिसटेबल की दराज में रख दिये। उनमें कुछ कार्टून ऐसे भी थे, जो खेल खिलाड़ी में भी प्रकाशित किये जा सकते थे।

कई दिनों बाद… एक दिन दोपहर बाद जब मैं ऑफिस पहुँचा तो सरदार मनोहर सिंह ने पूछा – “योगेश, किसी हरविन्दर माँकड़ के कार्टून आये हैं अपने पास?”

“हाँ…।” मैंने कहा – “अच्छे हैं।”

“वो यार, तीन-चार दिन पहले ऑफिस में आया था, उसके साथ एक सरदार बच्चा भी था। यार, दोनों बड़े मासूम बच्चे से हैं।”

“अच्छा…।” मैंने कहा।

“हाँ, उन दोनों में हरविन्दर ही बात कर रहा था। पूछ रहा था – उसके कार्टून कब छपेंगे और उसके कुछ पैसे मिलेंगे क्या? तू ऐसा कर, उसे एक चिट्ठी लिख दे। कार्टून काम के हों तो ठीक, नहीं तो साथ की साथ वापस कर दे। काम के हों तो पाँच रुपये उसे दे देइयो, इससे ज्यादा हम नहीं दे सकते।”

“ठीक है…।” मैंने कहा और दराज़ में से कार्टून निकाल कर देखे। कार्टून के पीछे हरविन्दर माँकड़ का सुभाष नगर स्थित घर का पता ड्रांइग वाली इंक से ही लिखा हुआ था।

उन दिनों ड्रांइग के लिए ब्लैक इंक ‘वीटो’ सबसे ज्यादा मशहूर थी। बाद में कैम्लिन तथा और भी कम्पनियों की इंक आने लगीं।

सरदार मनोहर सिंह ने हरविन्दर माँकड़ के बारे में कहा था कि बच्चा था तो मैंने निश्चय किया कि वह बच्चा दोबारा परेशान न हो, मैं ही उसके घर चक्कर लगा लेता हूँ।”

और उसी शाम सूरज डूबने से पहले के वक़्त मैं 820 नम्बर बस पकड़ सुभाष नगर पहुँचा।

घर ढूँढने में परेशानी नहीं हुई।

हरविन्दर माँकड़
हरविन्दर माँकड़ (मोटू पतलू के रचियता)

हरविन्दर माँकड़ बहुत ही शर्मिला, झिझक-झिझक कर बोलने वाला बच्चा था।

उसकी माता जी और पिताजी ने भी यह जानकर कि उनके बेटे से कोई मिलने आया है, मुझे बड़ा सम्मान दिया।

हरविन्दर माँकड़ के घर की स्थिति देख मेरे दिल में एक बात आयी कि कुछ ऐसा करना चाहिए, जिससे यह लड़का अपनी पढ़ाई भी कर सके और अपने शौक भी पूरे कर सके। उसकी विनम्रता ने भी मेरा दिल मोह लिया। मैंने उसके द्वारा खेल खिलाड़ी के ऑफिस में भेजे सभी कार्टून की पाँच रुपये के हिसाब से पेमेंट कर दी।फिर उससे एक सवाल किया – ” बड़ा आर्टिस्ट बनना है..?”

उसने इनकार में सिर हिलाया और फिर बोला – “बहुत बड़ा…।”

उसके इस जवाब ने तो मेरा दिल ही जीत लिया।

मैंने उसकी पीठ पर हाथ रखते हुए पूछा –”किसी बड़े आर्टिस्ट के पास काम करना चाहोगे? कुछ सीखने को ही मिलेगा।”

उसने कहा – “अभी कैसे, अभी तो मैं पढ़ रहा हूँ। एक्जाम शुरू होने वाले हैं ।”

मैंने पूछा – “ठीक है, तो फिर अभी कार्टून बनाते रहो और हमारे यहाँ भेजने की जगह बाल पत्रिकाओं में भेजो। हमारे यहाँ तुम्हारे कार्टून ज्यादा इस्तेमाल नहीं हो सकते, लेकिन बाल पत्रिकाओं में स्कोप ज्यादा है।”

“जी…।” उसने कहा। फिर मैंने उसे अपना कनाट प्लेस का पता बता दिया और कहा – “कभी कोई जरूरत हो तो तुम वहाँ आ सकते हो।”

तभी हरविन्दर माँकड़ का सरदार दोस्त भी वहाँ आ गया। उसने हरविन्दर से गुपचुप-गुपचुप बात की, फिर मुझसे पूछा – “आप खेल खिलाड़ी से आये हो।”

मैंने कहा ‘हाँ’ तो वह बोला – “मुझे भी ड्राइंग का शौक है। मैं भी बहुत अच्छे कार्टून बना सकता हूँ।”

“कुछ है बनाया हुआ?” मैंने पूछा।

“अभी लाता हूँ।” उसने कहा और दौड़ कर वापस अपने घर गया, जो पास ही था। और कॉपी के कुछ पेपर लेकर आया, जिन्हें देखकर मुझे बहुत निराशा हुई।
मैंने टालने के लिए उससे कहा कि ‘ठीक है, आप भी एक दिन बड़े आर्टिस्ट बनोगे, पर आपको बहुत ज्यादा मेहनत करनी होगी।’

“मैं करूँगा मेहनत।” उस सरदार लड़के ने कहा। पर उस समय मैंने उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया।

फिर जब तक एक्जाम थे, मैंने सुभाष नगर का रुख नहीं किया। बल्कि बीच में एक रविवार के दिन हरविन्दर माँकड़ और सरदार परविन्दर सिंह मिचरा ही मेरे घर आये थे, खास बात यह थी कि वे दोनों सुभाष नगर से बंगला साहिब गुरुद्वारा के सामने स्थित मेरे निवासस्थल तक पैदल आये थे, जिसके लिए मैंने उन्हें बहुत डाँटा।

फिर जब हरविन्दर के एक्जाम खत्म हो गये, मैं सुभाष नगर हरविन्दर के घर पहुँचा और पूछा – “क्या इरादा है? कुछ बढ़िया काम करना सीखना है?”

“जैसा आप कहो।” हरविन्दर ने कहा।

मैंने हरविन्दर की माता जी और पिताजी से भी पूछा कि हरविन्दर को कहीं काम पर लगा दूँ तो उन्हें कोई ऐतराज तो नहीं।

हरविन्दर के पिताजी ने कहा – “आपका छोटा भाई है, आप जो करोगे, इसके भले के लिए ही करोगे।”

माता जी ने भी ऐसा ही कुछ कहा। मैंने हरविन्दर से कहा, वह अगले दिन सुबह नौ बजे तैयार मिले।

अगले दिन मैं हरविन्दर को उसके घर से साथ लेकर, शादीपुर डिपो और वेस्ट पटेल नगर के बीच पड़ने वाले बलजीत नगर में रहने वाले, अपने दोस्त आर्टिस्ट एन. एस. धम्मी के यहाँ पहुँचा।

धम्मी के बारे में भी एक खास बात और विवरण फिर कभी बताऊँगा। अभी इतना ही कहूँगा कि आर्टिस्ट बनने से पहले धम्मी थ्रीव्हीलर चलाया करता था।

खैर, मैंने धम्मी के सामने हरविन्दर को खड़ा कर दिया और कहा – “इसे कलर ड्रॉइंग और कॉमिक्स ड्रॉइंग में एक्सपर्ट बनाना है।”

“योगेश जी, सिखाया उसे ही जा सकता है, जिसमें कुछ हो। कुछ है भी इस में?” धम्मी ने कहा।

“टेस्ट ले ले यार…।” मैंने कहा।

धम्मी ने एक प्लेन कागज और एक पेंसिल हरविन्दर को थमा दी और उससे कहा – “एक कप बनाओ।”

हरविन्दर पेंसिल से कप बनाने वाला ही था कि धम्मी फिर बोल उठा – “चाय पीने वाला कप नहीं, टूर्नामेंट में जो जीतते हैं, वो वाला कप…।”

“जी…।” हरविन्दर ने कहा और पेन्सिल घुमाने लगा।

एक मिनट से भी कम समय में हरविन्दर ने कप बना कर धम्मी के सामने कर दिया।

अच्छा कप बनाया था। देखकर धम्मी प्रभावित तो हुआ, पर और परीक्षा लेने के विचार से बोला– “नहीं, मैंने गलत कह दिया, ये तो बहुत आसान है। आप ये समझो कि आपने कोई कप जीता है और उसे सिर से ऊपर उठाये हो, मतलब एक आदमी, जिसने कप सिर से ऊपर उठा रखा है उसका स्केच बनाना है आपको।”

हरविन्दर ने धम्मी के कहे अनुसार स्केच बनाने में भी एक मिनट से ज्यादा समय नहीं लगाया। यह देख, धम्मी सोच में पड़ गया। फिर मेरे कान में बहुत धीरे से फुसफुसाया – “योगेश जी, लड़के में आर्ट है। यह हमारे कॉमिक्स के काम में बहुत काम आयेगा।”

फिर वह हरविन्दर की ओर मुड़कर बोला – “देखो,मैं तुम्हें शुरू में पिचहत्तर रुपये महीना दूँगा। काम बढ़िया हुआ तो बढ़ा भी सकता हूँ।”

“ठीक है…।” हरविन्दर मेरे कुछ कहने से पहले ही बोल उठा।

मैंने धम्मी से कहा – “आने जाने के किराये के लिए कुछ एडवांस इसे दे दे..।”

“एडवांस!!” धम्मी ने कहा – “एडवांस तो मैं किसी को देता नहीं। यह कल से नहीं आया तो…”

“मै तो हूँ ना…।” मैंने कहा।

धम्मी ने पच्चीस रुपये हरविन्दर को बतौर एडवांस दे दिये और यह जतला भी दिया कि महीने बाद सैलरी में ये पच्चीस रुपये काट कर सैलरी दी जायेगी। यह और बात है कि हरविन्दर के काम और उसकी सीखने की लगन से धम्मी इतना खुश हुआ कि पहले महीने ही उसे पिचहत्तर की जगह सवा सौ रुपये की सैलरी दी।

हरविन्दर की तो सैटिंग हो गयी थी, पर उसके सरदार दोस्त परविन्दर सिंह मिचरा की कहीं कोई सैटिंग नहीं थी। पर एक रोज वह मेरे घर आया और मुझसे कहने लगा कि मैं उसकी भी कहीं सैटिंग करवा दूँ। वह भी कहीं काम करना चाहता है।

मैंने उससे कहा – “बेटा, तुम्हें अभी कहीं काम नहीं मिल सकता। तुम्हें बहुत मेहनत करनी होगी। हद से हद मैं यह कर सकता हूँ कि तुम मेरे पास आ जाया करो, पर मैं तुम्हें शुरू में आने-जाने के किराये के अलावा कुछ नहीं दे सकूँगा।”

परविन्दर सिंह मिचरा इसके लिए भी तैयार हो गया। अगले दिन से वह सुबह नौ बजे ही मेरे यहाँ आने लगा।

मैने बालकोनी में उसकी सैटिंग कर दी और रोज उसे प्रैक्टिस करवाने लगा।

दोस्तों, है ना अचम्भे की बात कि मैं आर्टिस्ट नहीं हूँ और अपनी गाइडेन्स में एक बेहतरीन आर्टिस्ट तैयार कर रहा था। पर यह किस्सा फिर कभी…

एक दिन परविन्दर सिंह मिचरा सुबह आया तो उसने एक किताब मेरी ओर बढ़ाई और बोला – “देखना, यह किताब आपके किसी काम की है क्या?”

मैंने किताब देखी। उसके फ्रंट कवर सहित शुरू के कुछ पेज फटे हुए थे। किन्तु बैक कवर पर वेद प्रकाश काम्बोज की फोटो थी। वह वेद प्रकाश काम्बोज का कोई उपन्यास था।

“यह कहाँ से लाया?” मैंने पूछा।

“कल पास के कबाड़ी के यहाँ ड्रॉइंग की किताबें ढूँढ रहा था तो यह भी दिख गयी, मैंने यह आपके लिए ले ली।” परविन्दर ने कहा।

मैंने उस किताब पर नज़र डाली। फिर यूँ ही उसकी शुरुआत पढ़ने लगा। और पढ़ना शुरू क्या किया, वक़्त का कुछ ख्याल ही नहीं रहा। ख्याल तब आया, जब मैं पूरी किताब पढ़ कर खत्म कर चुका था।

वह अलफांसे सीरीज़ का एक उपन्यास था, जिसके आरम्भ में यह दिखाया गया था कि अलफांसे किसी की कैद में है और उसे टार्चर किया जा रहा है और कोई शख्स उससे किसी खजाने के बारे में पूछ रहा है। अलफांसे बार-बार उससे कहता है कि उसे कुछ नहीं मालूम, मगर टार्चर करने वाला यकीन नहीं करता।

मुझे यह स्टार्टिंग बहुत अच्छी लगी और मैंने सोचा – ‘क्यों न, मैं अपने उपन्यास ‘रिवॉल्वर का मिज़ाज’ की कुछ ऐसी ही स्टार्टिंग रखूँ। पर डकैती, खजाने आदि पर मेरा प्लॉट नहीं होगा, यह मैंने पहले ही सोच रखा था। उपन्यास में कोई बेहद खूबसूरत लड़की होगी, जिस पर पूरी थीम केन्द्रित होगी।’

मैंने दिमाग लड़ाया और खजाने की जगह लड़की का विचार करके सोचा।

अब मेरी कहानी यह बनी कि किसी बड़े डॉन की बेटी गायब है और उसे गायब करने वाले व्यक्ति के रूप में हमारा हीरो पारस अम्बानी पकड़ा जाता है और डॉन उसे टार्चर करके अपनी बेटी के बारे में अपनी बेटी के बारे में पूछ रहा है।

पर जब पारस ने उसकी बेटी को किडनैप नहीं किया। गायब नहीं किया तो डॉन उसे क्यों पकड़ेगा। पारस क्यों पकड़ा जायेगा।

स्पष्ट है कि पारस को उसका हमशक्ल दिखाया जाये, जिसने डॉन की बेटी को गायब किया है।

पर एक डॉन की बेटी को आसानी से किसी के हत्थे चढ़ते दिखाना मुनासिब नहीं होगा। इसलिए यह दिखाया जाये कि डॉन की बेटी अपनी मर्जी से उस शख्स के साथ भागी है, जो पारस का हमशक्ल है और क्यों भागी है इसका सीधा सा कारण दिखाया जा सकता है – इश्क़…!

और यूँ अचानक ही हाथ लगे वेद प्रकाश काम्बोज के एक उपन्यास के कारण मेरे उपन्यास ‘रिवॉल्वर का मिज़ाज’ का कथानक बदल गया।

क्रमशः


(मूल रूप से 8 मई 2021 को लेखक की फेसबुक वॉल पर प्रकाशित)

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रिवॉल्वर का मिज़ाज

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रिवॉल्वर का मिज़ाज : कहानियाँ ऐसे भी बनती हैं


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