लेखक योगेश मित्तल ने कई नामों से प्रेतलेखन किया है। कुछ नाम ऐसे भी हुए हैं जिनमें उनकी तस्वीर तो जाती थी लेकिन नाम कुछ और रहता था। ऐसा ही एक नाम रजत राजवंशी है। इस नाम से उन्होंने कई उपन्यास लिखे हैं। ऐसा ही एक उपन्यास था ‘रिवॉल्वर का मिज़ाज‘। इसी उपन्यास को लिखने की कहानी लेखक ने मई 2021 में अपने फेसबुक पृष्ठ पर प्रकाशित की थी। इसी शृंखला को यहाँ लेखक के नाम से प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है पाठको को शृंखला यह पसंद आएगी।
-विकास नैनवाल
उन दिनों उपन्यासकार कुमार कश्यप और उनकी विक्रांत सीरीज़ की हवा अपने चरम पर थी।
विक्रांत सीरीज़ के नकली उपन्यास, मतलब जो कुमार कश्यप के लिखे हुए नहीं थे, भी तादाद में छप रहे थे।

ऐसे में कोई प्रकाशक किसी नये लेखक को छापने के लिये तैयार नहीं होता था और अगर प्रकाशक उस नये लेखक का नाम छापने के लिए तैयार होता भी था तो लेखक से कहा जाता – “भाई, विक्रांत सीरीज़ पर बढ़िया सा उपन्यास लिख ला।”
मतलब यह कि लेखक को अपना नाम छपवाना है तो उसे विक्रांत सीरीज़ ही लिखनी पड़ेगी।
मुझे लिखते हुए अर्सा हो गया था, लेकिन पाठकों में मेरी कोई पहचान नहीं थी। इसके लिए मैं तो जरा भी दुखी नहीं था, क्योंकि स्वभाव से ही हमेशा मस्तमौला रहा हूँ।
पर भारती साहब बहुत दुखी थे और दुखी होने का मुख्य कारण यह था कि उनकी भविष्य की हर योजना मुझसे जुड़ी थी और उसके लिए वह चाहते थे कि थोड़ा बहुत ही सही पाठकों में मेरा नाम तो होना चाहिए था।

दरअसल राजभारती जी मुझे साथ लेकर बम्बई जाना चाहते थे और उन्हें लगता था कि मेरी अगर थोड़ी भी पहचान बन जाती है तो बम्बई में हमें झण्डे गाड़ने में बहुत आसानी होगी।

अकेले और यशपाल वालिया के साथ राजभारती कुछ चक्कर बम्बई के लगा भी चुके थे, जिसमें कोई कामयाबी नहीं मिली थी।
यही कारण था – राजभारती मेरे साथ या अकेले, जब भी मेरठ जाते मेरे लिए बात करते थे।
पर ढाक के तीन पात। कान में बात आती कि योगेश को बोलो – विक्रांत सीरीज़ के दो-तीन उपन्यास तैयार कर ले।
आखिर एक दिन भारती साहब ने मुझसे कह ही दिया – “ऐसा कर, तू विक्रांत सीरीज के कुछ उपन्यास तैयार कर फटाफट।”
“नहीं यार, ये काम कुमार कश्यप को ही करने दो।” मैंने पूरी बात समझे बिना ही कहा।
दरअसल कुछ समय पहले ही इटावा (उत्तर प्रदेश) के रेलवे स्टेशन पर कुमार कश्यप से बड़ी प्यारी मुलाकात हुई थी, जहाँ कुमार कश्यप के साथ पैग भी टकराया था और कुमार कश्यप के बहुत सारे चेलों और प्रशंसकों ने कुमार कश्यप के कहने पर पूरा पूरा झुक झुक कर मेरे पैर छुए थे।
और यह सब इटावा रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नम्बर एक के किसी टी स्टाल पर हुआ था।
भारती साहब ने बहुत समझाया कि विक्रांत सीरीज तेरे नाम से छपेगी, पर मैंने कहा – विक्रांत सीरीज से किसी ने मुझे जाना तो क्या जाना…? मैं अगर नाम से छपूँगा तो अपनी ही किसी सीरीज से।”
“फिर तो कोई अभी छापने से रहा।” राजभारती बोले।
“तो न छापे, मैं कौन सा किसी के आगे हाथ जोड़ रहा हूँ कि मुझे मेरे नाम से छाप दो।”
“योगेश, तू समझ नहीं रहा। इस समय विक्रांत सीरीज की जो हवा है, कोई भी अगर किसी नये लेखक को उसके नाम से छापेगा तो विक्रांत सीरीज में ही छापेगा। वरना कोई नया लेखक नहीं छपेगा।”
“तो न छपे कोई नया लेखक। हमें क्या…? हमने किसी का ठेका नहीं लिया है।”
“कोई तुझे भी तेरे नाम से नहीं छापेगा।” भारती साहब गुस्से से बोले।
“तो क्या हुआ? कोई मेरा लिखना थोड़े ही बन्द करा देगा।” मैंने कहा।
“तू पागल है। मैंने अपने लिए कभी किसी से कुछ नहीं माँगा, तेरे लिए लोगों के आगे हाथ जोड़ रहा हूँ। मिन्नतें कर रहा हूँ और तुझे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा।” राजभारती इमोशनल हो उठे थे।
“यार, आप ऐसा क्यों कर रहे हो? मत करो लोगों से मिन्नतें…। क्या जरूरत है?” मैंने कहा।
“तेरा दिल नहीं करता, तेरे नॉवल तेरे नाम से छपें। बैक कवर पर तेरी तस्वीर छपे।”
और उस समय तत्काल ही मेरे होंठ सिकुड़ कर गोल हो गये और गर्दन इनकार में दाएँ-बाएँ हिल गयी।
राज भारती साहब का हाथ उठ गया और गर्दन के पिछले ऊपरी हिस्से – गुद्दी पर पड़ा।
“मार क्यों रहे हो?” मैंने रोने जैसा मुँह बनाया, हालाँकि गुद्दी पर पड़ा वार, प्यार भरा प्रहार था।
उस दिन बाद में भारती साहब ने कोई बात नहीं की। गुस्से ही गुस्से में दो तीन सिगरेट फूँकने के बाद चले गये।
फिर कई दिनों तक उनकी शक्ल नहीं दिखाई दी। उन दिनों हम कनाट प्लेस बंगला साहब गुरूद्वारा के सामने 96 नम्बर फ्लैट में किराये पर रह रहे थे।
जब हमारा परिवार इस फ्लैट में था, तब सुरेन्द्र मोहन पाठक का रोज सुबह नौ बजे से ग्यारह के बीच आना निरन्तर जारी रहा था, तब सुरेन्द्र मोहन पाठक साहब की अगुवाई में वहीं किदवई भवन में एक टेलीफोन एक्सचेंज स्थापित किया जा रहा था।

खैर…
कुछ दिन बाद शाम चार बजे के करीब भारती साहब आये। उस दिन दोपहर दो बजे ही मैं पाठक साहब से अलग हुआ था।
पाठक साहब हमेशा नीचे से ही आवाज़ लगाते थे, जबकि भारती साहब सीधे ऊपर आकर दरवाजा पीटते थे। तब द्वार पर कॉलबेल नहीं होती थी।
उस समय मेरी माता जी चाय बनाने पर विचार कर रही थीं, जब मेरे दरवाजा खोलते ही भारती साहब ने मुझसे कहा -“चल!”
“कहाँ..?” मैंने पूछा।
“चल… रास्ते में बात करते हैं।”
मम्मी ने चाय पीकर जाने को कहा तो भारती साहब ने मना कर दिया, बोले – “जहाँ जा रहे हैं, पता नहीं कितनी बार चाय पियेंगे।”
बंगला साहब से मुख्य सड़क पर पहुँच, हम पैदल रिवोली सिनेमा हॉल के सामने पहुँच गये।
इस बीच मैंने कई बार राज भारती जी से पूछा कि हम कहाँ जा रहे हैं, लेकिन भारती साहब ने जवाब नहीं दिया।
रिवोली के सामने शिवाजी स्टेडियम के स्टॉप से हमने सीलमपुर जाने वाली एक बस पकड़ी थी।
उस बस में बैठने के बाद मुझे समझ आ गया कि हम गंजे के यहाँ जा रहे हैं।
गंजा यानी सुनील कुमार शर्मा। सुनील कुमार शर्मा अर्थात सुनील पंडित। सुनील पंडित यानी सपना पाकेट बुक्स का स्वामी। इतना परिचय – कम या नाकाफी नहीं है।
बस से सीलमपुर के स्टाप पर उतरने के बाद रिक्शा करके, सुनील की सँकरी गली के बाहर रिक्शे से उतरे।
सुनील ने अपने घर के फर्स्ट फ्लोर पर एक कमरे में अपने पब्लिकेशन का ऑफिस बना रखा था।
भाभी जी से चाय बनाने को कह सुनील हमें ऊपर ले गया।
वहाँ एक छोटी मेज, दो सोफाचेयर, एक बेड, एक कुर्सी और एक सेंटर टेबल व एक स्टूल पड़े थे।
मैं और भारती साहब सोफाचेयर पर बैठे, सुनील बेड पर पसर गया।
चाय आ गयी तो राज भारती जी से सुनील ने पूछा – “आगे का नॉवल लिखना शुरू कर दिया?”
दरअसल सुनील के सपना पाकेट बुक्स के हर सैट में एक उपन्यास राज भारती का भी होता था। दूसरे शब्दों में कहें तो सुनील और उस जैसे छोटे प्रकाशकों की रोजी-रोटी उन दिनों भारती साहब के नये उपन्यास या रिप्रिंट से ही चलती थी। भारती साहब पारिश्रमिक के रेट के लिए कोई बहस या झगड़ा नहीं करते थे। प्रकाशक भी उन्हें उचित रकम देने में चालाकी या चारसौबीसी नहीं करते थे।
तब जो भी नया शख्स पाकेट बुक्स प्रकाशन खोलता, उसे सबसे पहले एक ही नाम सूझता – राज भारती। मतलब राज भारती को इंजन बनाकर नये प्रकाशक तीन चार नये लेखकों या एच. इकबाल आदि घोस्ट नामों से कुछ उपन्यास छाप देते थे। नये लेखक छापे जाते तो उनसे उनका नाम छापने के बदले एक निश्चित रकम ली जाती थी।
ऐसे प्रकाशकों के नाम और संख्या बतानी, इसलिए मुश्किल है, क्योंकि ऐसे प्रकाशन खुलते-बन्द होते रहते थे।
खैर, जब सुनील ने उपन्यास के बारे में पूछा तो भारती साहब ने कहा- “अब तो नया नॉवल तब छपेगा, जब योगेश का नॉवल उसके नाम और फोटो के साथ छपेगा।”
“यह क्या कह रहे हो, मर जाऊँगा मैं।” सुनील ने कहा।
सुनील के यहाँ हमेशा इंग्लिश दारू की एक न एक बोतल हमेशा होती ही थी।
शायद राज भारती साहब की वजह से ही कि कभी अचानक ही राज भारती जी आ भी जायें तो वाइन शॉप की तरफ न भागना पड़े।
चाय का दौर खत्म हुआ तो सुनील बड़े विनम्र स्वर में बोला- “अच्छा, मज़ाक वाली बात छोड़ो, नॉवल शुरू किया।”
“मज़ाक नहीं, मैं सीरियसली कह रहा हूँ। योगेश का उपन्यास छापना है तो छापना है। तू टाइटिल बनवा।” राज भारती जी गम्भीरता से बोले।
“योगेश जी, क्या खिलाकर लाये हो गुरु जी को। मिज़ाज एकदम गर्म हौ रहा है।” सुनील ने मेरी ओर देखते हुए कहा तो मैं हँसा- “कुछ नहीं खिलाया, खाने पीने के लिए ही तो हम यहाँ आये हैं..?”
“बोतल निकालूँ गुरु जी…?” मेरी बात खत्म होने के साथ ही सुनील ने पूछा।
“उसके लिए भी मुहूर्त निकलवाना होगा, अबे गंजे, हम यहाँ आये किसलिए हैं? बोतल निकाल। कुछ नमकीन और सलाद भी मँगवा ले और एक जग में पानी और बर्फ भी मँगवा ले।”
पीने-पिलाने के दौरान भी राज भारती असली मुद्दे से नहीं हटे कि योगेश का उपन्यास छापना है।
फिर जिक्र आया कि योगेश के उपन्यास में योगेश का नाम क्या होगा। राज भारती जी ने मुझसे पूछा कि “क्या ख्याल है? योगेश नाम ठीक है?”
“नहीं यार…” मैंने कहा – “इस बार कोई नया नाम रखेंगे।”
“क्या…?” सुनील ने पूछा।
“रजत राजवंशी!” मैंने जवाब दिया। दरअसल इस नाम का कहीं पर एक आर्टिकल लिख चुका था।
नाम भारती साहब को भी पसंद आया और सुनील को भी। फिर यह सवाल उठा कि उपन्यास का नाम क्या रखा जाये?
बहुत से नाम सोचे और कैंसल किये गये। आखिर बातों बातों में सुनील ने राज भारती जी से पूछा – “अब तो मिज़ाज ठीक है न, अब गुस्से का रिवॉल्वर हटाकर अपने अगले नॉवल का नाम भी बता दो और यह भी बताओ – कब शुरू कर रहे हो? कब खत्म कर रहे हो?”
“बस-बस-बस।” भारती साहब बोले – “रजत राजवंशी के पहले नॉवल का नाम भी फाइनल हो गया।”
“रिवॉल्वर का मिज़ाज!” राज भारती साहब ने कहा। फिर मुझसे पूछा – “क्यों योगेश, ठीक है ना?”
“फर्स्ट क्लास!” मैंने कहा।
“पक्का…?” सुनील ने पूछा।
“पक्का!” मैंने कहा।

दरअसल मैं बहुत मस्तमौला किस्म का व्यक्ति रहा हूँ। ऐसी किसी भी बात के पास भी नहीं फटकता, जो मुझे टेंशन दे।
और कहानियों के अलावा कुछ भी फालतू सोचने में वक़्त बरबाद नहीं करता। किसी का बुरा, बुरी बातें नहीं सोचता। और कोई भी कठिन से कठिन निर्णय लेने के लिए भी समय नष्ट नहीं करता। किसी भी तरह का निर्णय सेकेंडो में करता हूँ। फायदा होने से बहुत ज्यादा खुश नहीं होता और नुक्सान से तो एक परसेंट भी दुखी नहीं होता।
यही कारण है -बार-बार मौत के मुँह से भी मजे में वापस लौट आता हूँ।
रात जब मैं कनाट प्लेस अपने घर पहुँचा, नौ बज चुके थे।
उस दिन रविवार था।
मैं फ्लैट के ड्राइंग रूम में एंट्री के बाद दायीं ओर पड़ने वाले कमरे में खिड़की के साथ दीवार से सटे अपने बेड पर अधलेटा साहिर लुधियानवी की शायरी पढ़ रहा था।
मेरा वह बेड खास किस्म का था, जो पुराने फर्नीचर के बाजार से राज भारती जी के तीसरे नम्बर के भाई और खेल खिलाड़ी के स्वामी सरदार मनोहर सिंह ने मुझे दिलवाया था। उसका सिरहाना सम्भवतः लगभग सत्तर डिग्री का कोण बनाता था। दमे के एक रेगुलर मरीज के हिसाब से वह बेड मेरे लिए बड़ा आरामदेह था।
जब सुबह के दस बज रहे थे, तभी एक जोरदार आवाज मेरे कानों में पड़ी – “योगेश….!”
यह आवाज राजभारती जी की थी। मैं चौंका। आवाज नीचे से आ रही थी, जबकि भारती साहब हमेशा बेझिझक ऊपर आकर द्वार पर दस्तक देते थे। मैं नहीं होता तो भारती साहब इंतजार के लिए बैठ भी जाते थे। हालाँकि मेरा कनाट प्लेस जाना अधिक से अधिक रीगल-रिवोली – शिवाजी स्टेडियम के पास के बुकसेलर्स तक हुआ करता था। बोधन और उसका बेटा जवाहर साथ बैठते थे। दूसरा बेटा मोती शारीरिक रूप से थोड़ा कुबड़ा था। तीसरे पुस्तक विक्रेता कालरा साहब अपने बड़े बेटे रोमी के साथ बैठते थे। कुछ वर्षों के बाद छोटा बेटा शामी भी बैठने लगा था। इसके अलावा सेंट्रल न्यूज़ एजेन्सी और भारती साहित्य सदन में भी मैगज़ीन और हिन्दी उपन्यास रखे जाते थे। बाद में अंग्रेजी उपन्यास भी बहुत रखे जाने लगे थे।
लेकिन उस समय राजभारती जी ने द्वार पर दस्तक नहीं दी थी, आवाज नीचे से आ रही थी। मतलब भारती साहब के साथ कोई और भी है। मैंने सोचा और खिड़की से नीचे झाँका।
वहाँ से कुछ नहीं दिखाई दिया तो मैं उठकर बाहर आया। फ्लैट का दरवाजा खोल, ऊपर टैरेस से झाँका। नीचे भारती साहब और सुनील थे। सुनील के हाथ में काला सा एक ब्रीफकेस था।
भारती साहब ने नीचे से ही नीचे आने का इशारा किया। मैंने इशारे से ही पंजा दिखा, संकेत किया कि आता हूँ।
मम्मी ने पूछा – “कौन है…?”
“भारती साहब हैं। दरवाजा बंद कर लेना। मैं जा रहा हूँ।”
मम्मी ने आम मम्मियों की तरह यह नहीं पूछा – ‘कब तक वापस आयेगा?’ क्योंकि जब हम गांधीनगर में रहते थे, तब मैं अरुण कुमार शर्मा के साथ निकलूँ या बिमल चटर्जी या कुमारप्रिय अथवा राज भारती जी – लौटने का वक़्त कभी भी निश्चित नहीं होता था।
क्रमशः
(मूल रूप से 3 मई 2021 को लेखक की फेसबुक वॉल पर प्रकाशित)
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