रिवॉल्वर का मिज़ाज : कहानियाँ ऐसे भी बनती हैं – 4

रिवॉल्वर का मिज़ाज : कहानियाँ ऐसे भी बनती हैं

लेखक योगेश मित्तल ने कई नामों से प्रेतलेखन किया है। कुछ नाम ऐसे भी हुए हैं जिनमें उनकी तस्वीर तो जाती थी लेकिन नाम कुछ और रहता था। ऐसा ही एक नाम रजत राजवंशी है। इस नाम से उन्होंने कई उपन्यास लिखे हैं। ऐसा ही एक उपन्यास था ‘रिवॉल्वर का मिज़ाज’। इसी उपन्यास को लिखने की कहानी लेखक ने मई 2021 में अपने फेसबुक पृष्ठ पर प्रकाशित की थी। इसी शृंखला को यहाँ लेखक के नाम से प्रकाशित कर रहे हैं। उम्मीद है पाठको को शृंखला यह पसंद आएगी।

-विकास नैनवाल


सुनील पंडित के नाम से छपने वाले, केशव पंडित सीरीज़ का उपन्यास पूरा होने से पहले ही, मुझे इन्देश्वर जोशी से केशव पंडित सीरीज़ के, वेद प्रकाश शर्मा लिखित कई उपन्यास पढ़ने के लिए मिल गये।

हालाँकि उन्हें पढ़ने के बाद भी मेरी लेखन शैली में बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा। हाँ, यह जरूर है कि मैंने वह उपन्यास शीघ्र ही पूरा कर लिया, लेकिन उपन्यास सुनील तक पहुँचाने के लिए सीलमपुर जाने की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि जिस दिन उपन्यास पूरा हुआ उसी दिन सुनील भारती साहब के साथ आ गया।

राजभारती
राजभारती

उपन्यास की पाण्डुलिपि एक अखबार में लपेट, उसके ऊपर सिलाई वाली रील का धागा बांध, मैं 96 नम्बर फ्लैट से नीचे पहुँचा। उसके बाद हम लोग फिर वहीं मोहनसिंह प्लेस के टी स्टॉल पहुँचे।

चाय का आर्डर सुनील ने दिया। फिर मुझसे पूछा –”नॉवल पूरा हो गया?”

“हाँ..।” मैंने अखबार में लिपटी स्क्रिप्ट सुनील की ओर बढ़ा दी।

सुनील ने ब्रीफकेस खोला और बिना देखे ही रखने लगा तो भारती साहब ने कहा – “खोल कर, देख तो ले।”

“मैंने क्या देखना, योगेश जी ने लिखी है तो ठीक ही होगी।” सुनील ने कहा।

“ठीक तो होगी ही, यह तुझे भी पता है और मुझे भी, पर मैटर पर नज़र डाल ले।” भारती साहब ने कहा। फिर हँसते हुए बोले –”यह योगेश बड़ा जल्दबाज भी है और शातिर भी। मैटर कम न लिखा हो। अभी किसी और का काम करना हो तो फटाफट खत्म कर दी हो कि मैटर कम पड़ेगा तो बाद में बढ़ा देंगे।”

“हैं योगेश जी! मैटर कम लिखा है क्या?” सुनील ने पूछा।

मै मुस्कुरा दिया। यद्यपि मैंने मैटर कम नहीं लिखा था, पर भारती साहब ने जो कहा था, एकदम सच था। वह मेरी सारी बदमाशियाँ जानते थे। मेरी नस-नस पहचानते थे, पर यह भी जानते थे कि व्यापारिक लेखन में मुझे समय की कमी के कारण एडजस्टमेंट करनी पड़ती है, लेकिन मैं सौ परसेंट ईमानदार और सच्चा इन्सान ही नहीं, पूरी तरह वफादार भी हूँ। मेरे सम्पर्क में जितने भी लोग रहे हैं, कभी किसी को मुझसे धोखा न मिला। कोई शिकायत न रही। बेशक कुछ लोगों ने अक्सर मेरी सरलता और भावुकता का नाजायज फायदा उठाया। मुझे आर्थिक नुक्सान भी पहुँचाया, लेकिन मैंने कभी बदला लेने का विचार तक नहीं किया, बल्कि दोबारा कभी उसी व्यक्ति को परेशानी की हालत में देखा तो मदद ही की और उसके बारे में कभी किसी से चर्चा तक नहीं की और शायद करूँगा भी नहीं, किन्तु एक प्रसंग तब के सबसे व्यस्त आर्टिस्ट एन. एस. धम्मी जी का है, जब उन्होंने मेरी मेहनत के तीन हजार रुपये देने से किसी जिद्द में आकर इनकार कर दिया था, किन्तु एक दिन उसके लिये पछताते हुए रोने लगे थे। यह एक प्रेरक प्रसंग है, इसलिए भविष्य में इस पर भी लिखूँगा।

खैर, भारती साहब के कहने पर सुनील ने अखबार में लिपटी मेरी स्क्रिप्ट पर से अखबार की पोशाक उतारी और सामने आये फुलस्केप पेपर्स पर नज़र डाली। फिर पृष्ठ संख्या देखी। उसके बाद पहले पेज की लाइनें गिनीं। फिर पहले पेज में दो-तीन जगहों से एक लाइन में कितने शब्द हैं, गिना। उसके बाद बीच में दो-तीन जगहों से लाइनें और भिन्न भिन्न लाइनों के शब्द गिने। उसके बाद यही क्रिया आखिर के कई पेजों में दोहराई। फिर गम्भीर हो गया।

“क्या हुआ? कम है ना मैटर।” भारती साहब ने कहा। फिर मुझसे सम्बोधित हुए – “तेरी यही आदत बहुत खराब है। मेरे लिए भी तूने जब-जब नॉवल लिखा है, मैटर कम पड़ा है, पर मैं तेरा नॉवल पढ़ता हूँ, इसलिए कभी तुझे परेशान नहीं किया। हमेशा खुद ही मैटर बढ़ाया है, पर यह कोई अच्छी आदत नहीं है।” फिर वह सुनील की ओर मुखातिब हुए– “वापस दे इसे स्क्रिप्ट। जितना मैटर कम है, पहले बढ़ायेगा। फिर प्रेस में लगाइयो नॉवल।”

“नहीं-नहीं गुरु जी।” सुनील एकदम बोला –”मैटर कम नहीं है। मुझे लगता है – मैटर बहुत ज्यादा है। काटना पड़ेगा। ज्यादा मैटर के लिए मैं फॉर्म बढ़ा कर नहीं छाप सकता। प्रॉफिट तो मारा ही जायेगा, घाटा भी होगा।”

भारती साहब सोच में पड़ गये और मैं हँसने लगा। सुनील नाराज हो गया – “हमारे लिए मुश्किल पैदा कर के आप हँस रहे हो, लो, अब यह उपन्यास और इस में से सात-आठ सौ लाइन काट दो।”

“रुक.. रुक..।” तभी भारती साहब सुनील से बोले –”कितनी लाइन से कम्पोजिंग करवा रहा है?”

“तीस लाइन से…।”

“चौंतीस कर दे।” भारती साहब बोले –”प्रेस वाले को कह दीजियो, बीच की लीडिंग कम कर दे और लाइन बढ़ा दे।”

“कम्पोजिंग का खर्चा बढ़ जायेगा।” सुनील बोला।

“कितना बढ़ जायेगा। हद से हद दो-ढाई सौ का फर्क पड़ेगा, पर रीडर को मैटर तो ठसाठस मिलेगा। और इसका फ़ायदा तेरे नाम सुनील पंडित को ही मिलेगा।”

“हाँ, यह बात तो है।” सुनील सोच में डूबते हुए बोला।

दोस्तों, उस जमाने में कम्पोजिंग में लोहे के एक-एक अक्षर को चुनकर, कम्पोजीटर शब्द बनाते थे, फिर शब्द के बाद स्पेस के लिए लोहे का ब्लैंक फॉण्ट सैट किया जाता था, फिर लाइन पूरी होने पर, अगली लाइन आरम्भ करने से पहले, एक लाइन की साइज की लकड़ी से स्पेस डाला जाता था। कई बार स्पेस के लिए एक से अधिक लकड़ी इस्तेमाल की जाती थी। एक लाइन से दूसरी लाइन के बीच कितनी लकड़ी डाली जाएँ, यह इस बात पर निर्भर करता था कि एक पेज में कितनी लाइन छपनी है। कभी-कभी स्पेस के लिए लकड़ी की जगह लोहे की लाइन के साइज की पत्ती इस्तेमाल की जाती थी। बीच की स्पेस लकड़ी की हो या लोहे की पत्ती की, यह किताब के प्रिंटिंग आर्डर पर निर्भर करता था।

ज्यादा संख्या में छपने वाली किताबों में बीच की स्पेस लोहे की पत्ती से ही दी जाती थी, कम छपने वाली किताबों में लकड़ी की पत्ती चल जाती थी। लकड़ी की वो पत्ती कैसी लकड़ी की होती थी, यह भी जानना चाहेंगे आप? तो जान लीजिये कि आप जो बर्फ़ की आइसक्रीम खाते हैं, उसकी डण्डी जैसी ही लकड़ी की पत्ती होती थी।

तो आखिर यह तय हुआ कि अगर मैटर ज्यादा हुआ तो भी मैटर काटा नहीं जायेगा। किसी भी तरह एडजस्ट कर लिया जायेगा।

यह तो थी उस टी स्टॉल में पहले दौर की बात। इसके बाद दूसरा दौर किस विषय पर आरम्भ होना था, आप सब जानते ही हैं।

“अपने नॉवल के बारे में क्या सोचा है?” राज भारती जी ने बात आरम्भ करते हुए कहा।

“शुरू कर देते हैं…” मैंने कहा।

“शुरू तो करना ही है, पर क्या शुरू करना है?”

“नॉवल…”

“नॉवल तो शुरू करना है, पर उसमें लिखेगा क्या?”

“कहानी…”

इस बार भारती साहब ने मेरी गुद्दी पर हल्की-सी चपत जड़ी और बोले –”उस में कैरेक्टर क्या रखना है?”

“राज भारती रख दूँ?”

भारती साहब हँसे। सुनील ने भी साथ दिया, पर वो बात चीत में शामिल होता हुआ बोला –”मज़ाक छोड़… सीरियसली…।”

“मै सीरियसली कह रहा हूँ। बहुत जबरदस्त सीरीज़ रहेगी। पर मेरे उपन्यास में राज हीरो का नाम होगा और भारती उसकी सहयोगिनी और हीरोइन का, जैसे कर्नल रंजीत में मेजर बलवन्त और सोनिया हैं, पर मेरा हीरो मेजर बलवन्त जैसा शुष्क नहीं होगा। बात चीत में वह सुरेन्द्र मोहन पाठक के सुनील जैसा होगा, एक्शन में वेद प्रकाश काम्बोज के विजय जैसा और हाँ, वह झकझकी जैसी कोई टुकटुकी सुनाया करेगा। लेकिन उसके पास अंजुम अर्शी के मास्टर ब्रेन के बूमरैंग हथियार जैसी एक गेंद भी होगी, जिससे वो अक्सर दुश्मनों पर वार करेगा और रोमांस में वह ओम प्रकाश शर्मा जी के जगत का परदादा होगा। इसके अलावा हमारा हीरो राज अपनी भारती के मुँह से ‘आई लव यू’ कहलवाने के लिए रोज नयी-नयी एक से एक खूबसूरत लड़कियों से इश्क भी लड़ायेगा।” मैंने अपने उपन्यास के कैरेक्टर्स की डिटेल बतायी तो भारती साहब बोले –”नहीं-नहीं राज भारती नाम नहीं। पब्लिशर सोचेंगे – यह राज भारती ने जान बूझकर रखवाया है। कुछ दूसरा सोचा हो तो बता!”

अब मेरे लिए मुश्किल थी। तब तक सोचा तो मैंने कुछ भी नहीं था। ये राज और भारती का शगूफा भी मैंने वहीं बैठे-बैठे मज़ाक में कहा था, हालाँकि कहने के साथ ही मुझे लगा – आइडिया जबरदस्त है। अगर मैं राज और भारती पर उपन्यास लिखूँगा तो वाकई एक जबरदस्त कैरेक्टराइजेशन होगा। पर ये आइडिया तो खारिज़ कर दिया गया। अब दूसरा आइडिया बताना था।

तो दोस्तों, मैं जिस अखबार में अपनी पाण्डुलिपि लपेट कर लाया था, उसमें एक जगह धीरूभाई अम्बानी के बारे में कोई छोटी-सी खबर थी, जिस पर अचानक ही मेरी नज़र गयी तो मैं बोल उठा – “ठीक है, फिर मेरा हीरो कोई अम्बानी होगा। करोड़ों-अरबों का मालिक, लेकिन उपन्यास में यह बात कोई नहीं जानता होगा, क्योंकि वह एक घुमक्कड़ सैलानी होगा। अपनी करोड़ों-अरबों की जायदाद अपने भरोसेमंद अंकल के हवाले कर वह अपने लिए पत्नी तलाश करने के लिए घूमने निकला होगा और इसके लिए जिस-जिस शहर में जायेगा, वहाँ संयोगवश अपराधियों से टकरायेगा और एक-एक शहर में पाँच-सात कहानियाँ तो तैयार की ही जा सकती हैं।”

“और?” भारती साहब ने पूछा।

“और यह कि वह आवाज फेंकने की कला का माहिर होगा और पशु-पक्षियों की बातें समझने की खूबी होगी उसमें। यह खूबी कैसे और कहाँ से आयी, इसके लिए पन्द्रह बीस उपन्यासों के बाद एक विशेषांक लिखा जायेगा।”

“डन।” भारती साहब ने मेरे इस आइडिये पर स्वीकृति की मोहर लगा दी और बोले –”कम से कम इसमें कुछ नया तो है। पर तेरे इस अम्बानी का कुछ नाम भी तो होना चाहिए।”

तभी मेरे कानों में एक आवाज पड़ी – “पारस ओये!!”

मोहन सिंह प्लेस में पास ही किसी दुकान पर काम करने वाले एक छोकरे का नाम पारस था और मैंने वही सुनकर रजत राजवंशी नाम से अपने उपन्यास के हीरो का फाइनल नाम बताया –”पारस अम्बानी।”

“बढ़िया..।” भारती साहब ने कहा।

“अच्छा है…।” सुनील ने भी कहा।

और इस तरह उपन्यास में लिए जाने वाले कैरेक्टर का नाम तो पक्का हो गया, पर अब भारती साहब का प्रश्न था – “उपन्यास में तूने लिखना क्या है?”

“क्या लिखूँ??? आप बताओ।”

“आजकल डकैती के उपन्यास बहुत पसन्द किये जा रहे हैं। काफी लोग डकैती पर लिख रहे हैं।”

“जो काम काफी लोग कर रहे हैं, वही काम मैं भी करूँ तो मुझ में और सब में फर्क क्या रह जायेगा?” मैंने कहा।

“हाँ, यह तो है… तेरा नॉवल कुछ तो अलग होना चाहिए, पर क्या लिखेगा तू?”

“कुछ नया नहीं, वही जो लोग बरसों से लिखते आये हैं और लोग सबसे ज्यादा पसन्द करते हैं? पर मेरा स्टाइल सबसे अलग होगा। कहानी तो पुराने ढंग की होगी, पर सोने या चांदी के वर्क में लिपटी बर्फी की तरह होगी।”

*पर होगी क्या? क्या लिखने जा रहा है तू?”

“पता नहीं, पर कहानी पढ़ने वाले बच्चे, बचपन में जब हम कोई ऐसी कहानी सुनते थे, जिस में कोई राजकुमारी किसी राक्षस के चंगुल में फँस जाती है और कोई राजकुमार उसे छुड़ाता है तो वो कहानी हमें बहुत पसन्द आती थी और राजकुमारी, राक्षस और राजकुमार को लेकर तिलिस्मी दुनिया की किताबों में ढेरों कहानियाँ तो मैंने भी पढ़ी हैं। आपने भी पढ़ी होंगी?”

“तू कहना क्या चाहता है?” भारती साहब ने पूछा।

“यही कि एक लड़की मुसीबत में हो और हीरो उसे बचाये।” मैंने कहा –”यह एक ऐसा हिट फार्मूला है, जिस पर ढंग से लिखा हुआ कोई भी उपन्यास सुपरहिट न हो, यह पॉसिबिल ही नहीं है। बस हमें घटनाओं का ताना-बाना बेहद जोरदार बुनना होगा।”

“पर इसमें जासूसी कहाँ होगी?” सुनील ने सवाल किया।

“होगी न, इस में हमारा पारस हर बार किन्हीं गैंगस्टर्स से टकरायेगा और मेरे पहले उपन्यास में यह होगा कि गैंगस्टर ने लड़की का अपहरण कर लिया है और पारस अम्बानी का सम्बन्ध उस लड़की के माँ-बाप से हो जाता है और वह लड़की को गैंगस्टर से छुड़ाने के लिए गैंगस्टर से टकराता है।”

“डन…।” भारती साहब ने कहा और मेरे नये उपन्यास “रिवॉल्वर का मिज़ाज में क्या लिखा जाना है, यह भी तय हो गया।

पर फिर ऐसा कैसे हुआ कि जब उपन्यास लिखा गया तो प्लॉट बदल गया था और पब्लिशर भी। जानेंगे आगे की किश्तों में।

क्रमशः


(मूल रूप से 6 मई 2021 को लेखक की फेसबुक वॉल पर प्रकाशित)

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