संस्कार विवरण:
फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 156 | प्रकाशक: नीलम जासूस कार्यालय | शृंखला: तहकीकात #4
पुस्तक लिंक: अमेज़न
तहकीकात का चौथा संस्करण प्राप्त तो प्रकाशित होते ही हो गया था लेकिन वो गुरुग्राम के बजाए मेरे गृहनगर उत्तराखंड में पहुँच गया था। इस बार घर जाना हुआ तो लाया गया। तहकीकात से जो लोग वाकिफ नहीं हैं उन्हें बता दूँ कि तहकीकात फिलहाल हिंदी में प्रकाशित होंने वाली एकलौती अपराध कथा पत्रिका है। इस पत्रिका में अपराध कथाएँ तो प्रकाशित होती ही हैं साथ में सत्यबोध परिशिष्ट के रूप में साहित्यक रचनाएँ भी प्रकाशित होती हैं।
पत्रिका के चौथे अंक में संपादकीय, पाठकों के खत, गजलें और लतीफों के अतिरिक्त तेरह रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं।
मुख्य पत्रिका में प्रकाशित रचनाएँ
‘प्रेम प्यासी’ और ‘माँ की खातिर’ पत्रिका में प्रकाशित अहमद यार खाँ की सत्यकथाएँ हैं। एक उपन्यासिका जितनी इन सत्यकथाओं का अनुवाद इश्तियाक खाँ द्वारा किया गया है। इन दोनों ही रचनाओं में एक साम्य यह है कि दोनों में होंने वाले अपराध का कारण माँ का प्यार होता है। यह कैसे होता है ये तो आप रचनाएँ पढ़कर जाने तो बेहतर होगा। इधर इतना ही कहूँगा कि अगर आपको पुलिस प्रोसीजरल (पुलिस की कार्यशैली) पढ़ना पसंद है तो यह रचनाएँ पसंद आएँगी।
इन रचनाओं के प्रति मैं अपने विस्तृत विचार अलग पोस्ट में साझा कर चुका हूँ। आप उन्हें निम्न लिंक पर् जाकर पढ़ सकते हैं:
‘मौत का फरमान’ पत्रिका की अगली रचना है। यह जैक रिची, जिनका असल नाम जॉन जॉर्ज रीटसी था, की लिखी कहानी है जिसका अनुवाद लेखक वेद प्रकाश कांबोज द्वारा किया गया है और जो उनकी पुस्तक कुछ विदेशी अपराध कथाएँ में संकलित है।
टर्नर को जब पता चलता है कि उसके जीवन के चार महीने ही शेष हैं तो उसके पैरों तले जमीन निकल जाती है। ऐसे में वह अपना बाकी समय कैसे बिताता है यही कहानी बनती है। अक्सर हम लोग जीवन को बस यूँ ही ले लेते हैं और अपने को मिले वक्त की कद्र नहीं करते हैं। हम यूँ ही अपना जीवन बिता देते हैं।
ऐसे ही व्यक्ति की यह कहानी जिसने अपना जीवन बस जिया ही है। ऐसे में अपने आखिरी वक्त में वो क्या करता है यही कहानी का केंद्र बनता है। इसके अतिरिक्त हमारा व्यवहार कैसे लोगों की जिंदगी पर असर डालता है ये भी इस कहानी के माध्यम से पता चलता है। रोचक कहानी है। ऐसा लगता है जैसे सॉ फिल्मों का मुख्य कॉन्सेप्ट इसी से लिया गया हो। पढ़कर देख सकते हैं।
पत्रिका में मौजूद अगली कहानी आखिरी किश्त है। यह मेरी ही कहानी है। कहानी कैसी है यह तो पाठक ही बताएँ तो बेहतर होगा। कहानी के विषय में कुछ यहाँ अपनी वेबसाईट पर प्रकाशित होंने की खबर साझा करते हुए लिखा है। आप पढ़कर देख सकते हैं।
तहकीकात की अगली रचना स्वर्गीय ओम प्रकाश शर्मा की आत्मकथा खुद अपनी नजर में का अंश है। इस अंश में पाठक जानता है कि वह कौन सी जगह थी जहाँ से साहित्य वाचन करने का जनप्रिय लेखक को मौका मिला। वहाँ उनके क्या अनुभव रहे और विश्व युद्ध के दौरान क्यों ओम प्रकाश शर्मा को जेल जाना पड़ा और वहाँ के अनुभव क्या रहे। यह एक रोचक अंश है जो उस वक्त के समय का खाका तो खींचता ही है साथ में ओम प्रकाश शर्मा के राजनीतिक विचारों को भी थोड़ा सा दर्शाता है।
सत्य बोध परिशिष्ट में प्रकाशित रचनाएँ
सत्यबोध परिशिष्ट में चार कहानियाँ और चार लेख मौजूद हैं।
सत्यबोध परिशिष्ट की पहली रचना रटंती कुमार है। यह राजशेखर बसु जिनका लेखकीय नाम परशुराम था, की बांग्ला कहानी का हिंदी अनुवाद है। अनुवाद सुधांशु शेखर मिश्र द्वारा किया गया है।
कहानी एक छटवीं कक्षा के बालक रंटती कुमार की है जो अपने दोस्त माणिक के बुलावे पर खाने के लिए उसके घर जाता है। रंटती बहुत बोलने वाला बालक है जिसकी जीभ पर काबू नहीं है और वह अपनी मासूमियत में ऐसी बातें कह जाता है कि लोगों को समझ नहीं आता कि क्या किया जाए। इसके कारण कई हास्यजनक परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं और बड़े अक्सर रटंती पर बिगड़ जाते हैं और बेचारे रटंती को पता ही नहीं चलता कि उसे क्यों डाँटा जा रहा है।
कहानी रोचक है और रटंती की बातें हास्य पैदा करती हैं। यह ऐसा किरदार है जिससे मैं बार बार मिलना चाहूँगा।
किसी अमीर की खुशियों से ऐतराज नहींकिसी गरीब की खुशियाँ भी तो बहाल हो जाए
कोई सच बात भी लाए जुबां पर कैसेरहनुमा ही खड़े हैं हाथ में ताले लेकर
हमारे सर की भी कीमत है कोईजिसे हम जान पाए सर गँवाकर
पुस्तक लिंक: अमेज़न