उपन्यास 16 मई 2018 से मई 24,2018 के बीच पढ़ा गया
संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 239
प्रकाशक: धीरज पॉकेट बुक्स
श्रृंखला : सुभाष चन्द कौशिक #2
पहला वाक्य:
“खता तो जब हो कि हम हाले दिल किसी से कहें, किसी को चाहते रहना कोई खता….”
सुरभि अपने दाम्पत्य जीवन में खुश थी। उसके पास अब वो सब कुछ था जिसकी उसने कल्पना की थी यानी एक प्यार करने वाला पति और एक सम्पन्न परिवार। लेकिन उसके भूत में कुछ ऐसा था जो उसने सबसे छुपा के रहा था। अपने अतीत को भुला चुकी थी। लेकिन अतीत ने उसे नहीं भुलाया था और जब एक दिन उसका अतीत उसके द्वार पर आकर खड़ा हो गया तो सुरभि के क़दमों तले जमीन खिसक गई। जो प्यार का घोंसला उसने इतनी मेहनत से तैयार किया था वो उसे उजड़ता हुआ दिख रहा था। उसे मालूम था उसे इस मुसीबत से वही बचा सकता है जिसने हर पल उसकी मदद की थी। उसके बिना वो कुछ नहीं थी। वो व्यक्ति था उसके बचपन का दोस्त अजय।
आखिर कौन था वो जिसने सुरभि के अच्छे खासे जीवन में जहर घोल दिया था?
आखिर उसका मकसद क्या था?
क्या अजय सुरभि को इस मुसीबत से छुटकारा दिला पाया?
क्या सुरभि अपने परिवार को टूटने से बचा पाई?
सुरभि के साथ अंत में क्या हुआ? ये सब तो आप उपन्यास को पढ़कर ही जान पाएंगे। बहरहाल, अभी के लिए उपन्यास के प्रति मेरी राय पढ़ सकते हैं।
मुख्य किरदार:
अजय – उपन्यास का मुख्य किरदार
संदीप दूबे – एक व्यक्ति जो सुरभि की उसकी पिछली ज़िन्दगी से वाकिफ था
जानकी देवी – अजय की माँ
सुरभि – अजय की बचपन की दोस्त
विशाल खंडूरी – सुरभि का पति
सुभाष चन्द कौशिक – एक प्राइवेट डिटेक्टिव
ट्रेजडी गर्ल जैसे की नाम से जाहिर होता है एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसके जीवन में कई ट्रेजेडीज़ (त्रासिदियाँ) हुई हैं। वो लड़की सुरभि है। सुरभि ऐसी लड़की है जिसके भूत में कुछ ऐसे राज़ दफन हैं जो उसे कहीं का नहीं छोड़ेंगे। इस बात का हिंट आपको शुरुआत में ही पता लग जाता है और वो राज क्या है ये जानने की उत्सुकता पाठक को उपन्यास के पृष्ठ पढ़ने को मजबूर कर देती है। फिर उपन्यास में एक के बाद एक घटनाएं घटती हैं, दांव पेच चले जाते है और ये सब इतनी तेजी से होता है कि पाठक इस तेज रफ़्तार कथानक को पढ़ता चला जाता है।
उपन्यास के किरदारों के रूप जैसे जैसे उपन्यास आगे बढ़ता है बदलते चले जाते हैं और पाठक के रूप में ये निर्धारित करने में मुश्किल सी होती है कि कौन अच्छा है और स्वार्थी? ये बात मुझे पसंद आई क्योंकि इससे किरदार तीन आयामी बनते हैं।
अक्सर हमारे भूतकाल में कुछ न कुछ ऐसी बातें होंगी जो हम किसी को नहीं बताते। दाम्पत्य जीवन की शुरुआत करती लड़कियों में ये अक्सर होता है। मेरे ख्याल से ये गलत है। हमे लगता है कि हम सच्चाई बता देंगे तो जिससे हम जुड़ने वाले हैं वो हमे जाने किस नजर से नहीं देखेगा लेकिन हम ये भूल जाते हैं कि अगर उसे बाद में ये बात पता चले तो उसके साथ कितना बड़ा धोखा होगा। अगर पहले से बात साफ़ हो तो हो सकता है वो हमे न मिले जो हम चाहते हैं लेकिन जो हमे मिलेगा कम से कम वो ऐसा होगा कि उसे हमारे भूत से कोई लेना देना नहीं होगा और बाकी की ज़िन्दगी बड़े आराम से गुजरेगी। ये हमे सोचने की जरूरत है। क्योंकि लोग ऐसा नहीं सोचते हैं और फिर ऐसी ही मुसीबतों में फँसते हैं जैसे इस उपन्यास की नायिका फँसती है।
उपन्यास में लेखक ने अन्धविश्वास के ऊपर भी एक करारी चोट की है कि किस तरह अन्धविश्वास का फायदा उठाकर ये ढोंगी बाबा लोगों का शोषण करते हैं। जब उपन्यास में इस प्रसंग को मैं पढ़ रहा था तो कभी मुझे लगा इसका औचित्य क्या है? लेकिन फिर जिस तरह से ऐसे बाबाओं की खबरे आती रहती हैं कि आश्रम में क्या क्या व्यभिचार होते हैं तो उसके मद्देनजर मुझे लगा कि लेखक ने इस प्रसंग को डालकर अच्छा किया है। हमारा अंधविश्वास ही उन्हें ताकत देता है। मैं नास्तिक आदमी हूँ लेकिन आस्तिकों से मुझे कोई दिक्कत नहीं होती। बस एक चीज मुझे उनकी खलती है कि वो खुद मेहनत नहीं करते। अपने धर्म ग्रथों को नहीं पढ़ते। क्योंकि वो अगर पढ़ेंगे तो खुद ही ऐसे ढोंगी बाबाओ से दूर हो जायेंगे।
उपन्यास के किरदारों की बात करूँ तो उपन्यास के किरदार जीवन के निकट लगते है। उनकी प्रतिक्रिया ऐसी ही है जो आम आदमी की होती है। अजय जैसे कई एक तरफे प्यार के मामले वाले लोग हैं जो लड़की से जीवन भर प्यार करते हैं। उसने नेकी की लेकिन उसे दरिया में नहीं डाला। मेरे अब तक के जीवन में मुझे यही शिक्षा मिली है कि किसी से किसी चीज की अपेक्षा नहीं रखोगे तो सुखी रहोगे। अपेक्षाएं प्राकृतिक व्यवहार है लेकिन सबसे ज्यादा दुःख भी वही देता है।
सुभाष चन्द्र कौशिक का किरदार मुझे पसंद आया। उसकी इंसानियत और परिक्वता का मैं कायल हो गया। मैंने ओल्ड फोर्ट नहीं पढ़ी है लेकिन अब मन में उसे पढ़ने की इच्छा है। उम्मीद है जल्द ही खरीदूँगा। और ये भी आशा करता हूँ कि सुभाष चन्द्र कौशिक को आगे भी मिलने का अवसर पाठकों को मिलेगा।
उपन्यास का सबसे रुचिकर किरदार मुझे संदीप दूबे लगा। है तो वो बदमाश और निम्न श्रेणी का व्यक्ति लेकिन मजाकिया है और इसलिए उसके सीन पढने में मज़ा आता है। अक्सर फिल्मों में या उपन्यासों में बुरे लोगों का चित्रण एक ख़ास तरीके से किया रहता है जो कि मुझे पसंद नहीं। उदाहरण के लिए वो दिखने में अच्छे नहीं होंगे या खूसट होंगे लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता। अच्छा दिखने वाला आदमी भी बुरा होता। और अपराधी मजाकिया भी हो सकता है। और ऐसे अपराधी मेरी नज़र में और ज्यादा खतरनाक होते हैं। क्योंकि ये अक्सर देखा गया है कि जो लोग हंसते हंसाते हैं उनसे लोग ज्यादा आकर्षित होते हैं। उनके पास खिंचे चले जाते हैं। ऐसे में वो सबसे ज्यादा इस स्थिति में होते हैं कि उनका फायदा वो व्यक्ति उठा सकता है। इसीलिए कई बार सेलेब्रिटीज़ आसानी से लोगों को चूना लगा लेते है। इसलिए मुझे संदीप का किरदार पसंद आया। वो बकैती भले ही कर सकता है लेकिन वो ऐसे आदमियों में है कि कुछ पल पहले आपके साथ हँसता रहेगा लेकिन कुछ पल
बाद आपकी गर्दन रेतने में भी कोई हिचकिचाहट उसे नहीं होगी।
विशाल, जो कि सुरभि का पति है, उसके पास पैसे तो हैं लेकिन ख्याल काफी दकियानूसी है। ऐसे लोग हमारे समाज में ज्यादातर हैं। साथ में वो अन्धविश्वासी भी है। कई बार उस पर मुझे खीज भी आई लेकिन खीजने के सिवा मैं कर क्या सकता था।
उपन्यास में जो किरदार मुझे पसंद नहीं आया वो सुरभि का था। वो ऐसा किरदार थी जो आदमियों को जरूरत के अनुसार इस्तेमाल करती है। अजय को किया, फिर विशाल को कर रही थी। लेकिन दर्शाती ऐसे है जैसे उसने दूसरे के लिए त्याग किया हो। फिर जब स्थिति उसके अनुरूप नहीं होती तो औरत होने का दुखड़ा रोती है। आखिर में जब वो रोती है कि औरत की अस्मत हर कोई लूटना चाहता है तो उसके पास चुनाव था। लेकिन उसे पैसों और ऐशों आराम की ज़िन्दगी चाहिए थी इसलिए उसे मजबूर होना पड़ा। वरना तो इस कहानी में कोई ऐसा भी था जो उसे जैसी वो है वैसे ही स्वीकार कर चुका था। लेकिन उसे सब चाहिए और न मिले तो रोने लगो कि ये औरत का दुर्भाग्य है। इधर वो ट्रेजडी गर्ल इसलिए नहीं है कि उसके साथ ट्रेजडी हुई है लेकिन इसलिए है क्योंकि वो खुद उसका चुनाव करती है। ये चीज मुझे पसंद नहीं आई। मैं उपन्यास पढ़ते हुए सोच रहा था कि क्या मुझे इसके प्रति दया महसूस करनी चाहिए। मुझे नफरत नहीं थी। वो अपनी चुनी हुई ज़िन्दगी जी रही थी। लेकिन उसके प्रति दया मेरे मन में नहीं उपजी। पहले थी लेकिन उपन्यास के अंत तक आते आते वो खत्म हो चुकी थी। ऐसे लोग भी हैं दुनिया में तो ये किरदार असलियत से ज्यादा दूर नहीं है। इधर ये बात बतानी जरूरी है कि किरदार का पसंद न आना लेखक या उपन्यास की कमी नहीं है।
उपन्यास की कमियों की बात करूँ तो इसमें कमी मुझे एडिटिंग या प्रूफरीडिंग की लगी। कई जगह उपन्यास में अंग्रेजी के शब्द इस्तमाल हुए हैं। वो शब्द गलत रूप से इस्तेमाल हुए हैं।
वे तीनो ठट्टा मार कर हँसे।
‘वैरी इंट्रेस्टिड’ – अजय बोला (पृष्ठ 17) इधर ‘इंटरेस्टिंग’ होना चाहिए था।
बीच में एक जगह बिहेव शब्द कई बार इस्तेमाल किया गया है जबकि उधर बिहेवियर होना चाहिए था।
बड़ी संशक दृष्टि से सुरभि ने उसे देखा। उसको एक एक बिहेव को रीड किया।(पृष्ठ 65)
उसके बिहेव को रीड करती रही कि इसके मन में क्या खदक रहा है।(पृष्ठ 65)
पृष्ठ 101 में कॉंफिडेंट को कांफिडेंशियल लिखा है जबकि दोनों के अर्थ बिलकुल अलग अलग हैं
उसने जितना पढ़ा, उतनी उसकी चिंता बढ़ी क्योंकि जिस कांफिडेंस की चमक उस पर सवार थी, उससे साफ लगता था कि कहीं-न-कहीं वह सेफ तो जरूर है, वरना इतनी कांफीडेंशियल नहीं होती।
ये गलतियाँ छोटी छोटी तो हैं लेकिन खटकती हैं। इधर बताने का मसकद खाली इतना है कि आगे के संस्करण में इनमें सुधार किया जा सके। इसके इलावा कुछ डायलॉग उपन्यास में थे जो ज्यादा लम्बे लगे। अगर उतने लम्बे नहीं भी होते तो कथानक में ज्यादा फर्क नहीं पढ़ता।
अंत में कहूँ तो उपन्यास पठनीय है, कथानक तेज रफ्तार है और पाठक पढ़ना शुरू करता है तो पढ़ता ही चला जाता है। कहानी कसी हुई है और कही भी ऐसा नही लगता कि उसे जबरदस्ती खींचा जा रहा हो। अगर आपने इसे नहीं पढ़ा तो एक बार पढ़ सकते हैं। ये उपन्यास असल में तो अपराध कथा है लेकिन इसमें सामाजिक उपन्यास के भी काफी करीब इसे रखा जा सकता है।
अगर आपने उपन्यास पढ़ा है तो आपकी इसके विषय में क्या राय है? कमेंट के माध्यम से आप मुझे बता सकते हैं। अगर आपने नहीं पढ़ा है और पढ़ने के इच्छुक हैं तो इसे नजदीकी रेलवे स्टेशन में देखे शायद उधर मिल जाये। अमेज़न में पहले था लेकिन शायद अब नहीं है। उसका लिंक नीचे दिया है।
इसके इलावा एम इकराम फरीदी जी से फेसबुक के माध्यम से भी इस पुस्तक के विषय में पूछ सकते हैं। उनका पृष्ठ ये रहा:
एम इकराम फरीदी – फेसबुक
उपन्यास वास्तव में रोचक और पठनीय है।
संदीप का किरदार गजब है। खास तौर पर जब संदीप सुरभि के पति को ब्लैकमेल के लिए फोन करता है, वह दृश्य बहुत रोचक और हास्य वाला है।
अच्छी समीक्षा के लिए धन्यवाद।
शुक्रिया जी।
शानदार समीक्षा
शुक्रिया,शोभित भाई।
धन्यवाद भाई, मैंने यह किताब ली है और इसे पढ़ने की सोच रहा था। आपके इस लेख की वजह से इसे पढ़ने का मन बन गया है। जल्द ही इसे खत्म कर के मैं अपने सुझाव प्रस्तुत करूँगा।।।
आपके विचारों का इंतजार रहेगा।