उपन्यास नवम्बर 12, 2017 से नवम्बर 17,2017 के बीच पढ़ा गया
संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक (लुगदी कागज)
पृष्ठ संख्या : 304
प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशनस
श्रृंखला : मुकेश माथुर #2
मूल उपन्यास : Never bet your life by George Harmon Coxe
पहला वाक्य:
कोकोनट ग्रोव गणपतिपुले के समुद्रतट पर स्थित एक हॉलिडे रेजॉर्ट था जिसे कि उस प्रकार के कारोबार के स्थापित मानकों के लिहाज से मामूली ही कहा जा सकता था लेकिन क्योंकि वो मुंबई से कोई पौने चार सौ किलोमीटर दूर एक कदरन शान्त, छोटे लेकिन ऐतिहासिक महत्त्व के इलाके में था और आसपास वैसा हॉलिडे रेजॉर्ट या रत्नागिरी में था या फिर जयगढ़ में था।
कोकोनट ग्रोव का मालिक देवसरे दो बार आत्महत्या की कोशिश कर चुका था। इसका कारण उसकी एकलौती बेटी की हुई असमय मृत्यु था।इस मृत्यु का जिम्मेदार वो अपने दामाद को मनाता था और उससे नफरत करता था। डॉक्टर्स का मानना था कि भले ही वो ठीक हो गया था लेकिन उसे अभी देखभाल की जरूरत थी ताकि वो दोबारा खुदख़ुशी करने की कोशिश न करे। इसलिए उसकी देखभाल के लिए मुकेश माथुर को उसकी फर्म ने भेजा हुआ था। इसे मुकेश की फूटी किस्मत कहें या कुछ और कि देवसरे का क़त्ल हो गया था।
क़त्ल क्यों हुआ ये एक रहस्य था। और मुकेश माथुर को इस बात का पता लगाना था। यही बड़े आनंद ने भी उसे बोला था।
आखिर देवसरे को किसने और क्यों मारा था? क्या मुकेश माथुर इसका पता लगा पाया?
मुख्य किरदार :
बालाजी देवसरे : पचपन साला व्यक्ति जो कि कोकोनट ग्रोव का मालिक
सुनन्दा पाटिल : बाला जी देवसरे की बेटी
नकुल बिहारी आनंद : आनंद,आनंद, आनंद एंड एसोसिएट्स का सीनियर पार्टनर
मुकेश माथुर : वकील जिसको बालाजी देवसरे की देखभाल के लिए रखा गया था
मोहिनी माथुर उर्फ़ टीना टर्नर : मुकेश माथुर की बीवी
विनोद पाटिल : सुनंदा का पति और एक थिएटर आर्टिस्ट
माधव घिमिरे : कोकोनट ग्रोव का मैनेजर
रिंकी शर्मा – कोकोनट ग्रोव के नजदीक एक रेस्टॉरेंट सत्कार की मैनेजर
मेहर करनानी – पुलिस के खुफिया विभाग से रिटायर्ड एक व्यक्ति जो की रिज़ॉर्ट में ही रह रहा था और देवसरे के साथ उठता बैठता था
मीनू सावंत- ब्लैक पर्ल क्लब में गाने वाली पोपसिंगर
अनंत महाडिक – ब्लैक पर्ल का मालिक
आरलोटो – ब्लैक पर्ल का मैनेजर
सदा अठवले – इंवेस्टिगेटिंग अफसर जो हत्या की तफसील करने आया था
सोनकर – सब इंस्पेक्टर जो अठवले के साथ आया था
आदिनाथ,रामखुश – हवलदार जो कि इंस्पेक्टर के साथ आये थे
सुबीर पसारी – मुकेश माथुर का सीनियर जिसने देवसरे की वसीयत ड्राफ्ट की थी
अभिलाष देसाईं, इब्राहिम शेख – रिजॉर्ट में ठहरने वाले गेस्ट जिन्हें इंस्पेक्टर ने पूछताछ के लिए बुलाया था
दिनेश पारेख – वो भी कैसिनो चलाता था और ब्लैक पर्ल खरीदने का ख़्वाईशमंद था
मिसेज वाडिया – एक साठ वर्षीय वृद्धा जो कि रिजॉर्ट में रह रहीं थीं
अलीशा – रिंकी शर्मा की दोस्त
सुलक्षणा घटके – एक तीस वर्षीय विधवा जो कॉटेज में रहने आई थी
दशरथ गोरे – फेयरडील प्रॉपर्टीज का मालिक
मधुकर बहार – बहार विला का मालिक जो अपनी प्रॉपर्टी बेचना चाहता था
मनोस ज पब्लिकेशन द्वारा प्रकशित इस किताब में मूल उपन्यास के अलावा एक लघु कथा भी है। यानी एक पाठक को पाठक जी की तरफ से तीन चीजें मिली हैं : लेखकीय, उपन्यास ‘वारिस’ और लघुकथा ‘जुर्म का इक़बाल ‘। इस पोस्ट में तीनों के प्रति अपने विचार अलग अलग दूँगा।
लेखकीय
पाठक साहब के उपन्यासों की ख़ास बात उसकी लेखकीय भी होती है और इस उपन्यास में मौजूद लेखकीय भी इस मामले में दमदार है। आमतौर पर पाठक साहब अपने लेखकीय में पिछले छपे उपन्यास के प्रति पाठकों की प्राप्त हुई राय भी छपवाते हैं लेकिन इस लेखकीय में ऐसा कुछ नहीं है। इस लेखकीय के दो हिस्से हैं। पहले हिस्से में पाठक साहब अपने उपन्यासों के नाम रखने की कमी को स्वीकारते हुए कहते हैं कि उन्हें अच्छे और कथानक से मिलते जुलते नाम रखने नहीं आते हैं। इसके पश्चात वो ऐसे कई मनोरंजक उपन्यास श्रृंखलाओं के नाम देते हैं जो कि अतरंगी हैं। जैसे जॉन मैकडोनाल्ड रंग को उपन्यास के शीर्षक में प्रयोग करते हैं इत्यादि। ऐसे कई श्रृंखलाओं के नाम पाठक साहब इधर देते हैं और जीता के दस लाख, तीस लाख और पचास लाख का जिक्र करते हैं। वो बताते हैं कि पहले उनकी इच्छा इसे ९० लाख तक पहुंचाने की थी जो कि पूरी नहीं हो पाई।
इसके बाद लेखकीय के दूसरे हिस्से में पाठक साहब ऐसे लेखकों के विषय में जानकारी देते हैं जो कि एक से अधिक नामों से लिखते थे। अगर आप उपन्यासों के शौक़ीन है तो ये जानकारियाँ आपको जरूर पसंद आयेंगी।
वारिस 2/5
अब उपन्यास की बात करते हैं। मैंने जैसे इस उपन्यास को पढना शुरू किया तो उपन्यास में मौजूद कुछ बातों से मुझसे खटका सा हुआ। हॉलिडे रेजॉर्ट, रेजॉर्ट के मालिक का दो बार आत्महत्या का प्रयास करना, आत्महत्या के प्रयास की वजह बेटी की असमय मौत होना, रेजॉर्ट मालिक के ख्याल रखने को एक वकील को नोमिनेट किया जाना, रेजॉर्ट के मालिक का अपने दामाद को उसकी बेटी की मृत्यु का जिम्मेवार मानना, मालिक का अपने मेनेजर को रेजॉर्ट के हिस्से का भागीदार बनाया होना इत्यादि। ये सारी बातें मैंने कुछ दिनों पहले एक उपन्यास में पढ़ी थी। वो उपन्यास जॉर्ज हरमन कॉक्स का नेवर बेट योर लाइफ है। मैंने इस उपन्यास के विषय में अपने ब्लॉग में लिखा है और आप इस विषय में इधर पढ़ सकते हैं। मुझे थोड़ा सा झटका लगा और इसके बाद मैंने इसे मूल उपन्यास की जगह नेवर बेट योर लाइफ के भारतीयकरण के तरह पढ़ना शुरू किया।
अब इसके आगे जो भी मैं उपन्यास के विषय में कहूँगा इसे एक भारतीयकरण मान कर ही कहूँगा। हाँ, खाली इतना कहूँगा कि कायदे से पाठक साहब को इस बात को उपन्यास के शुरुआत में लिखना चहिये था। इसे मैं प्रेरणा नहीं कहूँगा क्योंकि प्रेरणा में एक आईडिया को अपने तरीके से ढालते हैं। लेकिन इधर पूरा का पूरा प्लाट सेम है।
उपन्यास शुरू से लेकर आखिर तक नेवर बेट योर लाइफ का हिंदी अनुवाद ही है। थोड़ा बहुत इसमें मिर्च मसाला पाठक साहब ने जोड़ा है लेकिन मूल भूत कहानी वही है। मुझे शुरुआत में ही पता था कि कातिल कौन होगा और वही कातिल निकला। मैं उम्मीद भी कर रहा था कि शायद पाठक साहब कुछ बदलाव करेंगे लेकिन वो उन्होंने नहीं किया। हाँ, मुकेश और आनंद के बीच के चुटीले संवाद बेहद रोचक थे और वो मूल अंग्रेजी उपन्यास में नहीं थे। इसलिए मैं अच्छे भारतीयकरण और उन चुटीले संवादों के लिए दो स्टार दूँगा। बाकी कहानी तो जॉर्ज हर्मन कॉक्स साहब की है तो उसके लिए तारीफ जॉर्ज हरमन कॉक्स की बनती है।
पाठक साहब ने मूल कहानी से एक और छोटा बदलाव किया है जिससे काफी फर्क पड़ा है। मूल कहानी में मुकेश माथुर का किरदार देवसरे के किरदार से सम्बंधित रहता है। उसमे देवसरे के किरदार ने माथुर के किरदार को वकालत करवाने के लिये माली मदद की होती है क्योंकि माथुर वाले किरदार के पिता देवसरे के किरदार के दोस्त रहते हैं। पाठक साहब ने अपनी कहानी से वो रिश्ता हटा दिया। इससे फर्क ये पड़ा कि मूल कहानी में हीरो अपने वेल विशर के कातिल को तलाश कर रहा होता है और इसलिए वसीयत के टर्म्स उतने अजीब नहीं लगते जितना इस उपन्यास में लगते हैं।
अगर आपने मूल उपन्यास नहीं पढ़ा है तो आपको ये उपन्यास उम्दा मर्डर मिस्ट्री जान पड़ेगा। और अगर मैंने मूल उपन्यास नहीं पढ़ा होता तो इसे चार साढ़े चार स्टार तो जरूर देता। लेकिन मैंने चूंकि पढ़ा था तो ऐसा करना मुझे नैतिक रूप से ठीक नहीं लगा। मेरी राय तो यही है कि अगर आप अंग्रेजी उपन्यास पढ़ते हैं तो इसे पढने से पहले उसे जरूर पढ़े। अगर आपने इसे पहले से पढ़ा हुआ है तो भी मूल उपन्यास को जरूर पढ़े। उसके बाद इसे देखें और फिर अपना नजरिया कमेंट में लिखें
जुर्म का इकबाल 3/5
पहला वाक्य :
थाने के फ्रंट डेस्क पर टेलीफोन की घंटी बजी।
उस दिन जब हवलदार एडिशनल एसएचओ अतुल ग्रोवर के कमरे में दाखिल हो रहा था तो उसे पता नहीं था कि जो बातें उसे पता चलेगी वो उसे दोबारा शिल्पा के सामने खड़ा कर देंगी। एक फोन कॉल था जिसने सब कुछ बदल दिया था।
शिल्पा वो लड़की थी जिसे अतुल ने कभी दिलो जान से चाहा था। लेकिन अब शिल्पा किसी और की ब्याहता पत्नी थी। अब इतने सालों बाद अतुल दोबारा उसके चौखट में खड़ा था और परिस्थिति ऐसी थी कि न उससे उगलते बनता था और न निगलते।
हुआ कुछ यूँ था कि अतुल को शिल्पा के घर में एक लाश बरामद हुई थी। लाश शिल्पा के पति मनमोहन के पारिवारिक दोस्त पवन गुप्ता की थी।
शिल्पा का कहना था कि कत्ल उसने किया था लेकिन अतुल ये मानने को तैयार नही था। वो शिल्पा को सूली पर चढाने का जरिया नहीं बनना चाहता था।
लेकिन कोई इकबाल ए जुर्म करे तो किया क्या जा सकता था?
आखिरकार अतुल ने क्या किया? इश्क और फर्ज के बीच उसने किसे चुना?
क्या सचमच शिल्पा ने कत्ल किया था? अगर नहीं तो वो क्यों खुद जुर्म का इकबाल कर रही थी?
मुख्य किरदार:
इंस्पेक्टर अतुल ग्रोवर – एडीश्नल एसएचओ। जो फोन की तफ्तीश करने के लिए गया था।
शिल्पा सूद – मनमोहन सूद की पत्नी और अतुल की पुर्व प्रेमिका
मनमोहन सूद – शिल्पा का पति
पवन गुप्ता – मनमोहन सूद का फॅमिली फ्रेंड और मकतूल
बलवान सिंह – अतुल का सीनियर और थाणे का एसएचओ
एस आई बालकिशन – एक सब इंस्पेक्टर जो कि इस केस पर काम कर रहा था
Mujhe bhi ab Surender mohan pathak dwara rachit kisi bhi upanyaas ke badhiya lagne par khatka hone lagta hai ki kahin ye bhi to uthayi hui kahaani to nahi. Itne saare US/UK me chhapne waali kahaaniyon ke 'bhartiyakaran' kiya hai unhone, ki ab to hamesha doubt rahta hi hai
पुराने के विषय में तो कुछ नहीं कहूँगा लेकिन जीता श्रृंखला के मसलन मिडनाइट क्लब, कोलाबा कांस्पीरेसी, गोवा गलाटा,मुझसे बुरा कौन, मुझसे बुरा कोई नहीं इत्यादि मुझे उनके मूल उपन्यास ही लगते हैं। ऐसा ही विचार क्रिस्टल लॉज, इन्साफ दो के प्रति भी है। बाकी मुझे उनके लिखने की शैली पसंद है। और ह्यूमर भी उनका खुद का रहता है जो कि इस उपन्यास में झलकता है। वरना कॉपी तो सारे कर रहे हैं लेकिन सबकी भाषा की क्वालिटी और ह्यूमर इतना अच्छा नहीं होता।
आपने काफी रोचक समीक्षा लिखी है।
ऐसे बहुत से उपन्यास हैं जो अन्य उपन्यासकार की काॅपी हैं, हालांकि कुछ इनमें मौलिक प्रयोग भी करते हैं पर नकल तो अनंत: नकल ही रहेगी।
यह लेखक का दायित्व बनता है की वह मूल लेखक का वर्णन करे ।
सुरेन्द्र मोहन पाठक स्वयं अपने उपन्यास पर 'मौलिकता का नैतिक दावा' भी करते हैं।
मुझे मूल उपन्यास से लघु कहानी ज्यादा रोचक लगी।
अगर यह कहानी मिली तो अवश्य पढूंगा।
समीक्षा के लिए धन्यवाद।
– गुरप्रीत सिंह ।
जी उनकी लघु कहानियां रोचक ही होती है। मेरे पास डेली हंट में उनकी कहानियों के दो संकलन मौजूद हैं। बस इसी उम्मीद से उन्हें नहीं पढता कि उनका प्रिंट कभी पढने को मिलेगा। बाकी, मूल उपन्यास के विषय में उन्हें बताना तो चाहिए था इसमें कोई दो राय नहीं है।
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बढ़िया समीक्षा है | नॉवेल नही पढ़ा पर आपकी लिखी समीक्षा पढ़ ली और जानकार दुःख हुआ की यह किसी विदेशी नॉवेल से बिलकुल मिलता है| नॉवेल रखा है कभी पढूंगा |
जी हिन्दी पल्प में यह सालों से चलता आ रहा है। आज भी हो रहा है। यह दुःखद स्थिति है। यह भी एक कारण है कि हिन्दी पल्प को वह प्रसिद्धि नहीं मिलती जो स्कैवेंडियन अपराध साहित्य को मिली है। वो लोग भी अंग्रेजी में नहीं लिखते हैं लेकिन फिर भी जब उनका अनुवाद अंग्रेजी में होता है तो खूब बिकते हैं। अगर हिन्दी अपराध साहित्य के लेखक अपने पेशे के प्रति ईमानदार हों तो उन्हें भी विश्व प्रसिद्ध होने से कोई नहीं रोक सकता है। उपन्यास रखा है तो पढ़ लीजिये। उपन्यास बेहतरीन है।
मुझे पाठक साहब की सबसे बड़ी खूबी उनकी निरंतरता लगती है। दशकों से अनवरत लिखना हरेक के बूते की बात नहीं है। अंग्रेजी पर उनकी पकड़ और पढ़ने की उनकी आदत ही है कि उनके बहुत से उपन्यास अंग्रेजी से उठाए गए हैं ।
जी, उनकी सबसे बढ़ी खूबी उनका बिना रुके लिखते जाना ही है। जहाँ इतने लोगों ने लिखना छोड़ दिया उनका लिखना अभी तक जारी है।
साथ ही उन्होंने अपने लेखन में अपना टिपिकल सेंस ऑफ़ ह्यूमर भी डाला है जो कि पाठकों को पसंद आता है। फिर जिस तरह से वो अपने फैन्स का ख्याल रखते हैं वो भी उन्हें अपने प्रशंसको का चहेता बनाता है। शायद यही कारण है कि वो इतने प्रसिद्ध हैं।