संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: 104
प्रकाशन: भारतीय ज्ञानपीठ
आईएसबीएन : 9789326354219
मुक्तिबोध – जैनेन्द्र कुमार |
पहला वाक्य:
इधर कुछ दिनों से नींद ठीक नहीं आती है।
सहाय साहब आजकल चिंतित चल रहे हैं। आज जब उन्हें मंत्री मंडल में पद दिया जा रहा है, तब उन्हें खुश होना चाहिए लेकिन ऐसा कुछ वो महसूस नहीं कर रहे हैं। अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने काफी कुछ कमाया है लेकिन इतना कुछ कमाने के बाद उन्हें सब कुछ अब व्यर्थ लगने लगा है। उन्हें लगने लगा है कि इस दौड़ में उन्होंने सब कुछ खोया ही है।
वो सब कुछ छोड़कर इन सब चीजों से अलग होना चाहते हैं। पर यह सब इतना आसान भी नहीं है। आदमी भले ही बाहर कितना ही शक्तिशाली हो लेकिन जितना शक्ति वो एकत्रित करते जाता उतना खुद को बंधा हुआ पाता है।
यही चीज सहाय साहब भी आज महसूस कर रहे हैं। घर हों या दोस्त सभी उन के इस निर्णय से खुश नहीं है। वो नहीं चाहते कि साहब साहब वो इस अवसर को त्याग कर राजनीतिक गलियारे से दूर हों। इस चाह के पीछे सबके अपने अपने स्वार्थ हैं या सब सहाय साहब का भला चाहते हैं? यह तो आप उपन्यास पढ़कर ही जान पायेंगे।
आखिर में सहाय साहब क्या निर्णय लेंगे? क्या अपनी इस उहोपोह की स्थिति से उन्हें निजाद मिलेगी?
मुख्य किरदार:
सहाय साहब : एक राष्ट्रीय स्तर के नेता
राजश्री – सहाय जी की पत्नी
अंजली उर्फ़ अंजु – सहाय और राजी की बेटी
ठाकुर महादेव सिंह – सहाय साहब के दोस्त और उनके इलाके के एमएलए
तमारा – अंजु की दोस्त और एक रूसी कलाकार
नीलिमा – सहाय की दोस्त
दर साहब – नीलिमा के पति
वीरेश्वर – सहाय साहब का बेटा
कुँवर – सहाय साहब का दामाद
विक्रम सिंह – सहाय साहब का राजनितिक प्रतिद्वंदी
भानुप्रताप – सहाय के पार्टी के सदस्य
वी पी – सहाय की पार्टी के हेड
जैनेन्द्र जी ने यह उपन्यास रेडियो के लिए लिखा था। वो कहते हैं कि अक्सर ऐसा होता था कि वो रविवार को इसका एक अनुच्छेद लिखते थे और यह रेडियो में सोमवार को प्रसारित होता था। यह प्रोग्राम दस हफ्ते चला था और हफ्ते वे इसका एक अध्याय लिख लेते थे। यह पढ़ते हुए मुझे उस समय की याद आ गई जब उपन्यास के अध्याय पत्रिकाओं में माहवार छपते थे। वो भी रोचक समय रहा होगा।
उपन्यास की बात करूँ तो उपन्यास सहाय साहब के इर्द गिर्द घूमता है। उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में मंत्री का पद दिया जा रहा है लेकिन उन्हें लगने लगा है वो अब अपने ही पद में बंध चुके हैं। वो अपने सपने के पीछे भागते हुए उसके कैदी हो चुके हैं। जिस आज़ादी की उन्हें तलाश थी वो कहीं छूट चुकी है। जिस काम के लिए वो राजनीति में आये थे वो इसे पूरा नहीं कर पाए हैं। वो कहते हैं:
काफी ज़िन्दगी मैं चल आया हूँ। क्या चाहता था मैं जब यह ज़िन्दगी खुली? यूनिवर्सटी से निकला और देश के काम में पड़ गया। देश को आज़ाद होना था, लेकिन सच यह था, अब देखता हूँ, कि मुझे आज़ाद होना था। घर-गिरस्ती की ज़िन्दगी बंधी जैसी होती है। आज़ादी के आन्दोलन में पड़कर लगा कि मैं बँधा नहीं हूँ, खोल रहा हूँ और खुल रहा हूँ। वहाँ से क्या-कैसे मोड़ खाता हुआ मेरा जीवन अब यहाँ तक आया है, इसकी बात आगे हो सकती। लेकिन क्या अब भी अनुभव हो सका है मुझे उसका कि जिसे मुक्ति कहते है? मैं जानना चाहता हूँ कि मुक्ति का वह बोध क्या है: वह पारिस्तिथिक है या नहीं, आत्मिक है या…?
(पृष्ठ 13)
हम भी अपने जीवन में अक्सर किसी सपने के पीछे भागते हैं। लेकिन भागते भागते जब हम उसे पा लेते हैं और देखते हैं हमने क्या खोया और क्या पाया तो अक्सर यही पाते हैं कि हम खुद को कहीं खो चुके हैं। वो सपना हमे वो सुख नहीं देता जिसकी की हमने उम्मीद की थी।
यही चीज सहाय के साथ हम देखते हैं। इसके अलावा जब आपके पास ताकत आती है तो आपके आस पास कई लोग इकट्ठा हो जाते हैं। भले ही आप खुद अच्छे हो लेकिन ऐसे कई लोग(जिसमे अपने और पराये दोनों होते हैं) आपके साथ आते हैं जिनका स्वार्थ आपकी ताकत में निहित होता है। ऐसे में किस पर विश्वास करने और किस पर नहीं यही निर्णय करना मुश्किल हो जाता है। यह सारी चीजें हमे इस किताब में देखने को मिलता है। कई बार हमारे रिश्तेदार ही अपने स्वार्थ के लिए हमारा इस्तेमाल करते हैं और कई बार बाहर के लोग ही ऐसे होते हैं जो हमारे सच्चे हितेषी होते हैं। ऐसे में हमे दोनों ही रिश्तों के बीच एक सामंजस्य बनाने की जरूरत पड़ती है।
उपन्यास में किरदारों के बीच में भी समीकरण रुचिकर हैं। उपन्यास का कलेवर छोटा है तो इन रिश्तों का ज्यादा अन्वेषण नहीं किया है। फिर भी जितना है वो रुचिकर है और उनके विषय में सोचने पर मुझे तो मजबूर करता है।
सहाय की पत्नी राजश्री सहाय और नीलिमा के बीच के रिश्ते से वाकिफ है लेकिन उसे ये भी पता है कि नीलिमा कभी उसका अपमान नहीं करेगी। यह रिश्ता शायद इतने सालों से चलता आया है कि वह इसकी आदि हो चुकी है। लेकिन शुरुआत में क्या राजश्री ऐसी थी? शायद नहीं। शुरुआत में उसकी कैसी प्रतिक्रिया रही होगी? यह मैं सोचता हूँ।
नीलिमा के पति दर साहब का इधर जिक्र कम ही आता है। पढ़ते हुए अक्सर मैं यही सोच रहा था कि दर को इससे कैसा लगता होगा? क्या वो इससे वाकिफ होगा या जानकार भी अनजान बनने का अभिनय करता होगा। मैं खुद को दर के स्थान पर रखता हूँ तो मुझे समझने में मुश्किल होती है। शायद वो भी राजश्री की तरह आदि हो चुका है। मैं इन तीनों के बीच के रिश्ते के विषय में ज्यादा जानना चाहता था।
वीरेश्वर और सहाय के बीच का रिश्ता भी रुचिकर है। पिता और पुत्र के बीच हमेशा ही द्वंद रहता है। इधर भी वैसा ही द्वंद है। लेकिन चूँकि पिता ने इतना कुछ हासिल कर दिया है तो पुत्र को लगता है कि उसको दी स्वतंत्रता उसे पिता का नाराज होना लगता है। उसे लगता है कि उसका पिता उसे किसी काबिल नहीं समझता है।
क्योंकि उपन्यास राजनेताओं के इर्द गिर्द घूमता है तो इसमें क्या क्या गठजोड़ होते हैं यह भी देखने को मिलता है।
उपन्यास पठनीय है। छोटे छोटे दस अनुच्छेदों में यह बंटा हुआ है। मुख्य किरदार के पशोपेश को बखूबी यह दिखलाता है। हम मुक्ति की तलाश में होते हैं लेकिन शायद ही हमे यह मुक्ति मिलती है। जब तक हैं तब तक अपने कर्म को करना ही मुक्ति है। कर्म से भागना कायरता है। शायद यही यह उपन्यास दर्शाता है।
आखिर में लेखक कहता है:
लेकिन जग का जंजाल खत्म होने के लिए नहीं होता। परम्परा विस्तृत होती चलती ही जाती है कि सब अंत में मुक्ति में पर्यवसान (पूरी तरह अंत/समाप्ति) पाए। अर्थात मुक्ति और सृष्टि परस्पर समन्वित(लगा हुआ/ मिला हुआ ) शब्द हैं। शायद सृष्टि में से मुक्ति है चाहे तो देखें कि सृष्टि सदा बन्धनों की ही सृष्टि हुआ करती है।
इसका अर्थ जो समझा है और जो पूछकर हासिल किया है वो यही है कि मुक्ति का अर्थ यह नहीं होता कि सब अपने संसारिक कर्तव्यों से मुँह मोड़ लें। शायद असल में मुक्त वही है तो अपने सांसारिक कर्तव्यों का पालन तो कर रहा है लेकिन फिर भी इनके बंधन से बंधा नहीं है। इनसे जकड़ा नही है। कई बार हम अपनी इच्छाओं से इतने बंध जाते हैं कि आस पास की चीजें ही नहीं देख पाते हैं। यह स्थिति अगर नहीं है तो शायद आप मुक्त हैं। मुझे तो खैर यही समझ आया। आपको क्या समझ आया यह जरूर बताइयेगा।
किताब के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:
मुझे उस मुख पर चिंता एकदम बुरी नहीं लगी। सचमुच इधर पत्नीत्व की संस्था में मुझे अर्थ प्रतीत होने लगा है। पत्नी बच्चों की माता हो सकती है, पर उमर आने पर उसकी गहरी वत्सलता पति को प्राप्त होती है; अर्थात विवाह का सार वय की नवीनता में नहीं मिला, अब अधिकता में मिल रहा है।
असहाय शिशु-से बने पति से अधिक पत्नी को और क्या चाहिए?और ऐसे क्षण पति मानो पत्नी के लिए सर्वस्व हो उठता है।
मैं किस तरह धीरे-धीरे परिवार के क्षेत्र के लिए प्रभावहीन बनता जा रहा हूँ, यह अनुभव मेरे भीतर बिंधता जा रहा था। इस पर मानो मैंने घर से खुलकर बाहर ही रहना चाहा। अनुभव हुआ कि घर और बाहर सच ही दो हैं और पुरुष का क्षेत्र बाहर है। वही उसके लिए आह्वाहन है, वही आश्वासन। जो घर में अपने को बंधन में पाता है, बाहर वही खुल जाता है। तब जैसे मुझे याद हुआ कि पारिवारिक भी कैसे सामाजिक में बाधा-रूप हो सकता है।
मालूम होता है, कोई भी अपने में नहीं है । जाने क्या ताना-बाना यहाँ फैला रखा है कि उसमें होकर व्यक्ति का चलना-हिलना, करना-धरना, उस पर निर्भर नहीं रह जाता। वह उसका नहीं होता, उसके द्वारा होता है। (पृष्ठ 83)
लेकिन तुम समझते हो, आदमी फूल के मानिंद होता है तो जिम्मेदारियों से भागकर होता है। नहीं जिम्मेदारियों से निबटकर आदमी वह खुशी पाता है कि जिससे फूल खिलता है और महकता है। मैं देख रही हूँ कि तुम घिरे-से हो, खिल नहीं रहे हो और शायद यह इसी वजह से है कि सीधे तुम उन जिम्मेदारियों को उठाने से बचना चाहते हो जो सामने है और तुम्हारी होने के लिए है।
(पृष्ठ 84)
यहाँ आदर्श की तरफ सीधे चलना नहीं हुआ करता, जैसे कभी-कभी तुम चाहते हो। चलना मिल जुलकर होता है। इसी में जितनी आदर्श की सिद्धि हो वही वास्तव है, नहीं तो महत्वाकांक्षा है। उसमें ही आदमी अकेला बनता है और अपने और दूसरों के लिए समस्याएँ पैदा करता है। (पृष्ठ 94)
दूसरे सुधार चाह सकते हैं, मुझमें संशोधन चाह सकते हैं , मुझे अच्छा देखना चाह सकते हैं। पर प्रेम चाहता नहीं है। बस स्वीकार, लेता है। (पृष्ठ 102)
मेरी रेटिंग: 3.5/5
अगर आपने इस किताब को पढ़ा है तो आपको यह कैसी लगी? अपने विचारों से टिप्पणियों के माध्यम से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।
अगर आपने इस लघु-उपन्यास को नहीं पढ़ा है तो आप इसे निम्न लिंक से मँगवा सकते हैं:
पेपरबैक
रोचक समीक्षा । लोकेश गुलयानी का "जे'जिसकी आपने समीक्षा लिखी थी बेहद अच्छा लगा । आभार आपकी समीक्षाओ़ंं के लिए ।
शुक्रिया मैम। जे आपको पसंद आया यह जानकर बहुत अच्छा लगा।
बहुत सुंदर समीक्षा ,जैसा कि उपन्यास का शीर्षक से ही
ज्ञात हो रहा है मुक्तिबोध यानि मुक्ति को बोध ,मनुष्य जीवन की सच्ची मुक्ति शायद कर्म करते रहने में ही है
मनुष्य कर्म करते -करते यह भूल जाता है कि वो वास्तव में क्या चाहता है,कर्म करते रहना और उसमे बन्धन का ना होना मुक्ति का बोध कराता है
जी सही कहा आपने। 'कर्म करते रहना और उसमे बन्धन का ना होना मुक्ति का बोध कराता है'यही चीज जरूरी है लेकिन इस स्थिति को हासिल करना उतना ही मुश्किल। ब्लॉग पर आने का शुक्रिया।
बढ़िया समीक्षा।पसंदीदा अंश डालकर आपने बहुत अच्छा कार्य किया है।उपन्यास पढ़े बिना भी अच्छी पंक्तियाँ पढ़ने को मिल जाती हैं।
जी शुक्रिया….
आपने पुस्तकों की समीक्षा बहुत ही अच्छे से किया है
पुस्तकों पर लिखे मेरे लेख आपको पसंद आए यह जानकर अच्छा लगा। आभार।