संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 335 | प्रकाशक: रवि पॉकेट बुक्स
लाल घाट का प्रेत – राजभारती |
पहला वाक्य:
अनिल चौधरी शुरू से ही एडवेंचर पसंद था।
कहानी:
अनिल एक फारेस्ट ऑफिसर था जिसे उसकी ईमानदारी की यह सजा मिली थी कि उसका तबादला लाल घाट कर दिया गया था। लाल घाट ऐसी जगह थी जहाँ कोई भी फारेस्ट ऑफिसर जाने को तैयार नहीं था। लोगों की माने तो उधर भूत प्रेतों का साया था। लाल घाट के लाल मंदिर के पुजारी के विषय में कहा जाता था कि वह मरकर भी लाल घाट की सुरक्षा कर रहा है। और एक वही है जो लाल घाट के प्रेतों को लाल घाट की सीमा के अंदर रोक कर रखने में कामयाब हुआ है।
अनिल एक एडवेंचर पसंद व्यक्ति था जो इन दकियानूसी बातों को नहीं मानता था। इसीलिए उसने लाल घाट के प्रेत के रहस्य को जानने का विचार बनाया।
क्या अनिल लाल घाट के इन भूतहा रहस्यों से पर्दा उठा पाया?
आखिर वर्षों पहले मरे लाल घाट के लाल मंदिर के पुजारी की लाश अब तक सही सलामत कैसे थी?
क्या लाल घाट में सचमुच प्रेतआत्माओं का साया था?
ऐसे ही कई प्रश्नों के उत्तर इस उपन्यास को पढ़ने के बाद आपको मिलेंगे।
मुख्य किरदार:
अनिल चौधरी – एक फारेस्ट ऑफिसर
बलराम चौधरी – अनिल चौधरी के पिता
गाँगुली – वह डिप्टी कमीश्नर जिसके साले को अनिल ने शिकार करने पर खरी खरी सुनाई थी
असलम रजोई – बलराम चौधरी का दोस्त और अनिल का बड़ा ऑफिसर
भैरोसिंह/भैरवदास – लाल घाट का एक पुजारी जिसकी लाश को लाल मंदिर में एक ताबूत में रख दिया गया था। भैरवदास के विषय में बताया जाता था कि वह मरकर भी जिंदा है
प्रकाश चन्द्र – एक फारेस्ट ऑफिसर जिसकी नौकरी अनिल से पहले लाल घाट में थी
गोपाल पंडित- एक पहुँचे हुए पंडित जिनके पास अनिल लाल घाट जाने से पहले गया था
रविशंकर- वह व्यक्ति जिससे अनिल ने लाल घाट का चार्ज लेना था
मनोहरलाल – अनिल का एक मातहत
मालती – मनोहरलाल की पत्नी
श्वेता – भैरोदास की एक दासी जिसे भैरोदास ने अनिल को सौंप दिया था
कादिर – अनिल का दोस्त जिसे वो हैदराबाद मिला था
राजा चौधरी – अनिल का बड़ा भाई
एस पी माथुर – हैदराबाद पुलिस का अफसर
जौरा बाई – हैदराबाद की एक खूबसूरत वैश्या
अमरदेव – भैरोदास का एक शिष्य
माधुरी – एक अप्सरा जगतलाल – अनिल चौधरी का दोस्त
कैलाश नाथ – भैरवदास का एक शिष्य
चम्पाकली – कोलकता की एक तवायफ
मेरे विचार:
लाल घाट का प्रेत राज भारती जी द्वारा लिखित हॉरर श्रृंखला का तीसवाँ उपन्यास है। यह उपन्यास मेरे संग्रह में कब आया इसकी मुझे अब याद नहीं है लेकिन इतना याद है कि एक साल के करीब तो हो गया होगा। मुझे हॉरर शैली के उपन्यास पढ़ने में मजा आता है तो हिन्दी में लिखे हॉरर उपन्यास मैं खरीदता रहता हूँ।
हॉरर होता है? उपन्यास के विषय में बात करने से पहले मैं यह क्लियर कर देना चाहता हूँ। ज्यादातर जब हम हॉरर उपन्यासों के पास जाते हैं तो हमारा ध्येय होता है कि उपन्यास पढ़कर हमे रोमांच की अनुभूति हो। इसके लिए एक सुगठित कथानक सबसे महत्वपूर्ण होता है। हॉरर उपन्यास दूसरे रोमांचक उपन्यासों से इस मामले में जुदा होते हैं कि यह इस रोमांच को पैदा करने के लिए परालौकिक घटनाओं का प्रयोग करते हैं। ज्यादातर हॉरर उपन्यासों से अपेक्षा यही रहती है कि वो डर पैदा करे न करे (क्योंकि किताब पढ़ते हुए डर का पैदा होना पढ़ने वाले की कल्पनाशीलता पर ज्यादा निर्भर करता है।अगर पाठक कल्पनाशील है तो किरदारों के साथ होने वाली चीजों को खुद के साथ होने की कल्पना करने लगेगा और अंततः डर जायेगा। बचपन में इसीलिए हॉरर धारावाहिक या उपन्यास हमे डरा देते थे। वही चीज आप बड़े होकर पढ़ोगे तो शायद उनका असर उतना न हो क्योंकि तब तक हमारी कल्पनाशीलता कुंद हो चुकी होती है।) लेकिन रोमांच बरकरार रखें। इसके अलावा उपन्यास के किरदार अगर ऐसे हों जिनसे आप जुड़ाव महसूस करें तो भी आप उपन्यास पढ़ते चले जाते हैं।
कई बार रोमांचक स्क्रिप्ट से ज्यादा एक किताब को ऐसे किरदार की जरूरत होती है जिससे आप जुड़ाव महसूस कर सकें। जिसके हारने और जीतने से आपको फर्क पड़े। तभी आप उपन्यास को ध्यान से पढ़ पाएंगे।
लाल घाट का प्रेत की बात करूँ तो इसकी शुरुआत बेहतरीन तरीके से होती है। अनिल जब पहली बार पाठकों के सामने आता है तब आपको पता चल जाता है कि वह एक नायक है। उसमें नायक वाली खूबियाँ भी हैं। ईमानदारी की सजा ही उसे लाल घाट पहुँचाती है। लेकिन लाल घाट पहुँचकर शुरुआत में तो कई बार वह बहादुर दिखता है लेकिन फिर जैसे जैसे कथानक आगे बढ़ता है तो कई बार बेवकूफ भी बेवकूफ भी दिखने लगता है। घमंड में चूर वो कई बार अपनी ताकतें खो देता है और एक ही गलती के कारण खो देता है तो उसे देखकर चिढ़ भी होती है। एक गलती कोई बार बार करे तो चिढ होना मुमकिन ही है।
अंत तक आते आते अनिल का किरदार इतनी झेल पैदा करता है कि आप कहानी से एक तरह का कटाव सा महसूस करने लगते हैं।
वहीं खलनायक के रूप में आपके समक्ष लाल घाट का प्रेत है जो कि मुझे पसंद आया। वो बुरा है लेकिन वह ताकत के नशे में इतना चूर है कि अब समझता है कि अच्छाई और बुराई उसके लिए नहीं है। वह इन सबसे ऊपर है। जो वो कर रहा है वो अच्छा है। वो अनिल को कई बार वह पटकनी देता है। कई बार हराता है। उनके टकराव रोचक बन पड़े हैं।
उपन्यास में लालघाट के प्रेत के अलावा तांत्रिक हैं, देवदूत हैं और एक अप्सरा भी है जो कथानक को रोमांचक बनाने की भरपूर कोशिश करते हैं। मुझे लगता है यह कोशिश सफल भी होती अगर उपन्यास 335 पृष्ठों से घटाकर 200 या 250 पृष्ठों तक समेट लिया जाता। इससे उपन्यास के कथानक में वो कसावट आती जो अभी नहीं दिखती है।
उदाहरण के लिए अनिल का किरदार ऐसा है जो दो तीन बार ताकत पाता है और उसे खो देता है। यह पाना और खोना एक बार होता तो चलता। बार बार इसका होना यह दर्शाता है कि अनिल या तो बेवकूफ है या कथानक खींचने की यह कोशिश थी जो कि विफल हुई है। उपन्यास का आखिरी भाग जिसमें अनिल का पतन दिखता है वह भी मुझे अनावश्यक लगता है। इससे पहले अनिल एक ऐसे बन्दर की तरह लगता था जिसके हाथ में उस्तरा आ गया हो लेकिन फिर भी वह मूलतः अच्छा इनसान है किसी मासूम का बुरा नहीं करता है लेकिन इस भाग में वो पूरा शैतान सा बन जाता है। तीस पृष्ठ उसकी शैतानियत दिखाने पर खर्च किये हैं। उसके बाद अनिल को सजा होती है लेकिन यह प्रश्न फिर भी रह जाता है कि अनिल को सजा देने वाले व्यक्ति कौन थे? अच्छा होता उनके विषय में कुछ बताया जाता।
मुझे लगता है कि लेखक ने अनिल के पतन से यह दर्शाने की कोशिश की है कि कैसे ताकत का नशा आख़िरकार व्यक्ति को पतन के रास्ते पर ले जाता है। वह भी उस ताकत का जो उसे कदरन आसानी से प्राप्त हो चुकी हो। फिर उसके पतन को शायद इसलिए भी दर्शाया ताकि यह पाठकों को बता सकें कि बुराई का अंजाम आखिरकार बुरा होता है। लेकिन अगर कम पृष्ठों में यह किया जाता तो उपन्यास और निखर कर आता क्योंकि उसकी कसावट बरकरार रहती। लाल घाट के प्रेत से हुए आखिरी युद्ध और उसके नतीजे के बाद इन तीस पृष्ठों को मैंने तो जबरदस्ती ही पढ़ा।
किताब में प्रूफ की काफी गलतियाँ भी हैं। शुरुआत के पृष्ठों में कई जगह प्रकाशचन्द्र चन्द्र प्रकाश हो जाता है। ऐसे ही लाल मंदिर का पुजारी भैरोदास से भैरो सिंह होता जाता है।
कहानी में एक जगह एक ऐसा प्रसंग आया था कि जिसमें अनिल को एक इंस्पेक्टर कलकत्ता में उसके हैदराबाद में किये कृत्य के लिए पहचानता है। यह मुझे अटपटा लगा क्योंकि इन अनिल के हैदराबाद और कलकक्ता जाने के बीच में कम से कम दो तीन साल का वक्फा रहा होगा। ऐसे केवल कहानी बढाने के लिए इस चीज का उपयोग किया गया लगता है। इससे बचा जा सकता था। हमारी पुलिस अपने ही शहर के अपराधी को तो पहचान नहीं पाती। ऐसे में दूसरे शहर वो भी जो इतनी दूर हो के अपराधी को ऐसे पहचान जाना एक सब इंस्पेक्टर के बूते की बात तो मुझे नहीं लगता।
अंत में यही कहूँगा कि लाल घाट का प्रेत उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है। अगर अनावश्यक खिंचाव से बचा जाता तो उपन्यास और बेहतर हो सकता था। अभी जरूरत से ज्यादा लम्बा खिंचा हुआ कथानक कई बार ऊब पैदा करता है। यह एक अच्छी कहानी है जो जरूरत से ज्यादा खींचे जाने के कारण औसत बनकर रह गयी।
अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा? मुझे अपनी राय से जरूर अवगत करवाईयेगा।
मेरी रेटिंग: 2/5
राजभारती के दूसरे उपन्यास भी मैंने पढ़े हैं। उनके प्रति मेरे विचार आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
राजभारती
दूसरे हॉरर कृतियों के प्रति मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
हॉरर
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
विकास नैनवाल भाई हमेशा की तरह बेहतरीन रिव्यु.
जी, आभार। प्यार बनाये रखें।
जी कही सुना था कि हिन्दी पल्प लेखक जान-भुजकर अधिक से अधिक पृष्ट रखने की कोशिश करते है, जितने पृष्ट उतना ही मुनाफा।
पर पता नही यह बात सही है या नही।
यदि सच है तो शायद इसलिए पल्प लेखक अपनी पुस्तको को इतना बड़ा रखते है।
अमन जी मैंने भी सुना था लेकिन इस चक्कर में किताब की आत्मा मर जाती है। अगर इस किताब का सम्पादन किया जाता तो काफी अच्छी बन सकती थी यह। अनावश्यक रूप से कहानी बढाने के बजाए उपन्यास के बाद दो तीन लघु कथाएँ दे दें तो ज्यादा बेहतर रहता है। पृष्ठ भी बढ़ जाते हैं और कहानी के साथ अन्याय नहीं होता है। वैसे इन्हीं चलनों के वजह से पल्प न तो भारत में सम्मान पा पाया और अब विलुप्ति के कागार पर है। पैसे के लिए गुणवत्ता के साथ जब भी समझौता होगा उसी वक्त से उस कला का पतन शुरू हो जायेगा।
समीक्षा बिलकुल सटीक और किताब के बारे में पूर्णतया जानकारी देने वाली है। मैं तो कहूँगी कि समीक्षा ऐसी ही होनी चाहिए।
लाल घाट का प्रेत उपन्यास के बारे में आपके लेख के द्वारा काफी जानकारी मिली। यह भी सच है कि बहुत से पाठकों द्वारा पुस्तकों को उनकी मोटाई देखकर ही खरीदा जाता है। धन्यवाद आपका।🙏
जी लेख आपको पसन्द आया यह जानकर अच्छा लगा। आभार।
यह उस दौर का उपन्यास है जब उपन्यासकार कहानी पर कम और पृष्ठ संख्या पर अधिक ध्यान देते थे।
मुझे हाॅरर उपन्यास कम ही पसंद क्योंकि इनमें तार्किक कुछ नहीं होता। वर्तमान में कुछ लेखक अच्छा हाॅरर लिख रहे हैं।
उपन्यास के विषय में अच्छी समीक्षा।
धन्यवाद
– गुरप्रीत सिंह, राजस्थान
जी हॉरर फंतासी है तो उन्हें उसी तरह लेना चाहिए। हाँ, पृष्ठ संख्या बढ़ाने के चलते काफी नुकसान कहानी का करते थे जिससे पढ़ने का मजा किरकिरा हो जाता था।