कोरे कागज़ का क़त्ल – परशुराम शर्मा

किताब नवम्बर 6 2018  से नवम्बर 8 2018 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: 154
प्रकाशक : सूरज पॉकेट बुक्स
आईएसबीएन: 9781635353129

कोरे कागज़ का क़त्ल - परशुराम शर्मा
कोरे कागज़ का क़त्ल – परशुराम शर्मा


पहला वाक्य:

बेहद सर्द रात थी।

दिल्ली की उस सर्द रात में वह युवती तब जागी थी जब उसका पूरा परिवार सो रहा था। वह उठी और कहीं जाने के लिए निकली। उसका भेष बदला हुआ था और आज उसने घर से भागने का फैसला कर लिया था।


आखिर कौन थी यह लड़की और क्यों भागना चाहती थी घर से?
क्या वह भागने में सफल हो पाई?


मुख्य किरदार:
वीणा – एक बीस साल की युवती
श्याम सुन्दर – वीणा के पिता
संगीता – वीणा की माँ
राहुल – वीणा का भाई
श्रीराम अवतार शर्मा – एक मशहूर गायक
राज मल्होत्रा – श्रीराम का मेनेजर
गजराज सिंह – दिल्ली का एक मशहूर व्यापारी
अनुज – गजराज का बेटा
मानसी – वीणा और अनुज की दोस्त
वीटा – एक युवती
रम्मू – वीटा का प्रेमी
जगन – रम्मू के मोहल्ले में रहने वाला एक गुंडा
शोभा – वीटा की दीदी
जगदीश – शोभा का पति

परशुराम शर्मा जी का नाम अगर कोई उपन्यासकार के नाम पर नहीं भी जानता हो लेकिन नागराज के रचियता के रूप में जरूर जानता होगा। हिन्दी कॉमिक्स की दुनिया को उन्होंने कई प्रसिद्द किरदार जैसे नागराज, भेड़िया इत्यादि  दिये हैं। काफी वर्षों से उपन्यासों की दुनिया से दूर रहे परशुराम शर्मा जी ने इस उपन्यास से अपने वापसी की है। यही कारण है कि उपन्यास के अलावा इस किताब में ‘मैं कौन हूँ’ शीर्षक से परशुराम जी की संक्षिप्त आत्मकथा भी मौजूद है।

मैं कौन हूँ के तहत परशुराम जी ने अपने जीवन यात्रा को 11 पन्नों में समेट कर पाठकों के समक्ष रखा है। किताब का यह हिस्सा मेरे जैसे नौसीखिए पाठकों(मैंने बदकिस्मती से पल्प को काफी देर से पढ़ना शुरू किया और तब तक परशुराम जी और ऐसे अन्य लेखकों के उपन्यास मिलते नहीं थे) को काफी कुछ सिखा देता है। परशुराम जी ने संक्षिप्त में ही सही लेकिन सभी मुख्य बिन्दुओ को छुआ है और उनके अनुभव को देखकर आप हैरान ही हो सकते हैं। इस लेख में परशुराम ने अपने थ्रिलर्स का जिक्र किया है जो कि किसी श्रृंखला में बंधी नहीं थी। मेरी इच्छा है इन थ्रिलर्स के बीच से कुछ चुनिन्दा नगीने मेरे जैसे नये पाठकों को दोबारा नई साज सज्जा में मिले।

अब उपन्यास के विषय में बात करते हैं।

कई बार जब आप किसी उपन्यास का शीर्षक पढ़ते हैं तो आपके मन में उसकी कहानी को लेकर एक रूप रेखा बन सी जाती है। यह एक इनसानी प्रवृति है। यही काम किताब के कवर से भी पाठक के मन में आती है। यही मेरे साथ हुआ। मैंने जब पहली बार उपन्यास का नाम सुना तो मन में एक प्रश्न सा उठा कि यह कोरे का कागज के क़त्ल का अर्थ क्या है? मेरे मन में यह ख्याल भी उभरा कि हो न हो यह एक मर्डर मिस्ट्री होगी।

वहीं दूसरी ओर इसके आवरण ने मुझे आकर्षित किया। कवर पर एक युवती है जो विक्षिप्त सी लग रही है। उसके चारो और कोरे कागज फैले हैं जिसमें खून के छीटें है। कवर बरबस ही आपका ध्यान अपने तरफ खींच लेता है और यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि आखिर इस सुन्दर युवती को क्या परेशानी है। क्या हैं कोरे कागज? इतने अच्छे कवर के लिए पूरी कवर डिजाईन टीम- जय खोहवाल, निशांत मौर्य और शुभानन्द  बधाई की पात्र है। 

तो शीर्षक और कवर को देख कर काफी प्रश्न मेरे मन में उठे थे और सच बताऊँ तो मैंने खुद ही इनके चारो ओर कहानी बुन ली थी। यही मेरे साथ अक्सर होता है और इसलिए मैं कभी उपन्यास को खरीदते ही उसे नहीं पढ़ता हूँ। मैं उसे खरीदकर रख लेता हूँ और जब यह सब ख्याल मेरे दिमाग में धुंधले पड़ जाते हैं तो अचानक उसे उठाकर पढ़ने लगता हूँ। मैंने पाया है कि इस तरह भले ही मैं उपन्यास देर में पढूँ पर मैं बिना किसी अपेक्षा के उपन्यास पढ़ता हूँ और इसका ज्यादा लुत्फ़ उठा पाता हूँ। यह मेरी प्रक्रिया है।

अब आप यह सोच रहे हैं होंगे कि मैं यह क्यों कह रहा हूँ । वह इसलिए कि इस उपन्यास को पढ़ते वक्त भी मैंने इसे यूँ ही उठा लिया था और बिना सोचे समझे पढ़ने लगा था। अगर शीर्षक के हिसाब से जो ख्याल मेरे मन में उत्पन्न हुए थे उन्हें ध्यान में रखकर पढ़ता तो उपन्यास का उतना लुत्फ़ नहीं ले पाता जितना की मैं ले सका। इस बात को आप ऐसे समझिए कि उपन्यास जब मैंने पिच्छ्तर प्रतिशत पढ़ लिया था तो मेरे मन में एक बार यह ख्याल भी उभरा कि यह तो एक सामाजिक उपन्यास है जिसपर इसका शीर्षक फिट नहीं बैठता है। मूल रूप से यह एक अधूरे प्रेम की कहानी है। इसी उपन्यास में एक किरदार यह कहता है:

“यार! यह मोहब्बत भी क्या चीज है।” वह भर्राये स्वर में बोली -“मुलाकात होती है तो आँसू उमड़ते हैं…बिछते हैं तो आँसू बहते हैं। कोई न कोई रूहानी तआल्लुक है इन आँसुओं का इश्क से।…”(पृष्ठ 109)

यही इस उपन्यास का मूल कथानक भी है। यह एक अधूरी मोहब्बत की कहानी है।  एक ऐसे व्यक्ति की मोहब्बत की  जिसका दिल एक कोरा कागज़ था। इसी मोहब्बत का आखिर में क़त्ल हो जाता है।  उसके साथ क्या हुआ यह तो आप उपन्यास पढ़कर ही जाने तो बेहतर रहेगा।

इस उपन्यास में एक जवान होते युवा युगल की मोहब्बत है, तो उस मोहब्बत के दुश्मन भी है। वफादारी है तो दगाबाजी भी है। और इसके साथ एक पूर्वजन्म का चक्कर भी है।

इधर मैं यह  भी कहना चाहूँगा कि  उपन्यास को पढ़ने के पश्चात मेरे मन में यह ख्याल आया कि इस उपन्यास का नाम अगर कोरा काग़ज़ होता तो बेहतर होता। अभी का शीर्षक एक तरह की अपेक्षा पाठक के मन में बैठा देता है और अगर पाठक उस अपेक्षा को लिए उपन्यास को पढ़े तो उसे उपन्यास शायद इतना न जचें। उसे निराशा हासिल हो। शीर्षक देखकर ऐसा लगता है जैसे यह मर्डर मिस्ट्री हो लेकिन इधर यह बताना बनता है कि ऐसा कुछ इस उपन्यास में नहीं है।

अगर अपनी बात करूँ तो यह उपन्यास मुझे तो पसंद आया। उपन्यास के अंत ने मुझे हिट किया और तब जाकर मुझे पता चला कि उपन्यास का शीर्षक यह क्यों रखा गया है। आखिर में उपन्यास के शीर्षक का औचित्य समझ आता है। लेकिन फिर भी मेरा मत है कि अगर इसका शीर्षक केवल कोरा कागज़ होता तो यह अंत मुझ पर और ज्यादा असर करता क्योंकि शीर्षक पढ़कर कोई इस बात का पता नहीं लगा सकता कि आगे क्या होने वाला है।

उपन्यास मुझे तो शुरू से लेकर आखिर तक पठनीय लगा। कथानक में प्लाट होल्स भी मुझे नहीं दिखे। हाँ, बस एक छोटा सी बात एक जगह उठी थी। उपन्यास में वीटा और रम्मू को पता होता है कि वीटा का जीजा, जगदीश, अच्छा इनसान नहीं है परन्तु फिर भी वो अपनी योजना शोभा,जगदीश की पत्नी, को बताते हैं।  वही उनकी मुख्य सहायक होती है। अगर मैं रम्मू की जगह होता तो शायद उससे दूर रहता क्योंकि भले ही शोभा अच्छी थी लेकिन इस बात की सम्भावना ज्यादा थी कि वह अपने पति से योजना छुपाकर न रख सके। लेकिन फिर यह सोचता हूँ कि उनके पास विकल्प क्या था और वो बच्चे थे तो जिधर से सहारा उन्हें मिला उन्होंने ले लिया।
यानी यह कोई इतना बड़ा बिंदु नहीं है। लेकिन चूँकि मन में आया तो लिखना बनता था।

इसके अलावा  एक जगह मन में सवाल आया था लेकिन उस सवाल का जवाब जब आखिर में एक किरदार द्वारा दिलवाया गया तो मेरे चेहरे पर बरबस ही मुस्कान आ गई थी। मुझे लग रहा था लेखक भूल गये लेकिन ऐसा न था।

हाँ, उपन्यास का अंत में एक किरदार का अंत जिस तरह से हुआ वह मुझे थोड़ा सा खला। मैं उस किरदार के ऐसे अंत की कल्पना नहीं कर रहा था और वो भी तब जब कि उसके अंदर बदलाव आ गये थे। खैर, जीवन यही है। सारे किरदार जीवंत ही मुझे लगे। रम्मू और जगन के बीच के झगड़े जैसे जैसे झगड़े मैंने भी देखें हैं। पढ़ते हुए उनकी याद आ गई थी। बाकी किरदार भी कथानक के हिसाब से फिट बैठते हैं।

उपन्यास के विषय में आखिर में यही कहूँगा कि उपन्यास मुझे तो पसंद आया। इसे बिना अपेक्षा के पढ़ेंगे तो इसका लुत्फ़ ज्यादा ले सकेंगे। हाँ, यह बात इधर ही बता दूँ कि यह मर्डर मिस्ट्री नहीं है फिर भी एक तरह के रहस्य का तत्व इसमें मौजूद है जो कि उपन्यास के पन्ने पटलने के पाठक को प्रेरित करता है।

मेरी रेटिंग: 3.5/5

अगर आपने यह उपन्यास पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा? अपने विचारों  से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।

अगर आप इस उपन्यास को पढ़ना चाहते हैं तो इसे निम्न लिंक से मँगवा सकते हैं:
पेपरबैक
किंडल


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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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0 Comments on “कोरे कागज़ का क़त्ल – परशुराम शर्मा”

  1. अच्छी समीक्षा है पर नॉवेल मुझे फ़िल्मी लगा था | ज्यादा पसंद नही आया था मुझे |

    1. जी उपन्यास मुझे पसंद आया। फ़िल्मी तो था लेकिन कई बार ऐसे कथानको का भी लुत्फ़ ले लेता हूँ। थोड़ा स्वाद बदल जाता है।

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